बाल मजदूरी किसी भी समाज के लिए अभिशाप है। हमारे देश में बाल मजदूरी के उन्मूलन के लिए सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही स्तरों पर प्रयास जारी हैं। श्रम मंत्रालय की महत्वाकांक्षी योजनाओं में एन॰सी॰एल॰पी॰ को शुरू हुए दस वर्ष से अधिक समय हो चुका है। इसी तरह भारत और अमेरिका के संयुक्त बाल मुक्ति योजना इंडस को लागू हुए भी लगभग दस वर्ष होने को हैं। इस दिशा में साकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं। बंधुआ श्रमिकों को मुक्त कराना तथा उनके के पुनर्स्थापन और 6 से 14 वर्ष आयु के बच्चों के शिक्षा के लिए अलग से व्यवस्था आदि कार्य उत्साहपूर्वक जारी हैं। लेकिन जब हम किसी ट्रेन में सफर कर रहे होते हैं या फिर किसी ढ़ाबे पर चाय पी रहे होते हैं तो उस समय तमाम सरकारी और गैर-सरकारी कोशिशों पर सवालिया निशान सा लग जाता है। क्योंकि ऐसे स्थानों पर अक्सर किसी छोटू और किसी राजू नाम का अबोध बालक कभी हाथ में चाय की केतली लिए हुए तो कभी जूता पालिश करने का सामान लिए हुए तो कभी ट्रेन की बोगियों की सफाई के लिए हाथ में झाड़ू लिए हुए दिखाई दे जाते हैं। श्रम विभाग के अधिकारी किसी दुकान पर बर्तन साफ करने वाले बच्चों या किसी उद्योग में नियोजित बाल मजदूरों को तो आसानी से चिन्हित कर लेते है और उन्हें बन्धुआ श्रम से मुक्त करा लेते है। लेकिन यहां बात उन बच्चों की है जो एक तरह का यायावर जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। उनकी जिन्दगी आज एक प्लटफार्म पर तो कल किसी दूसरे प्लेटफार्म पर होती है। ऐसे बच्चे आज एक फुटपाथ पर तो कल किसी अन्य फुटपाथ पर सोने पर मजबूर होते हैं। आए दिन ऐसे बच्चों पर हमारी नज़र पड़ती है लेकिन हमारे पास इन बच्चों के वर्तमान और भविष्य के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। इस लेख में कुछ ऐसे ही अनुभव प्रस्तुत किए जा रहे हैं जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की चेतना का हिस्सा हो सकते हैं।
सबसे पहले ऐसे बच्चों की बात जो रेलगाड़ियों में झाड़ू लगाने का काम करते हैं या फिर सीजनल वस्तुओं की बिक्री करते देखे जाते हैं। एक बार मैं शिवगंगा टेªन से दिल्ली जा रहा था। जब गाड़ी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंची तो न जाने कहां से चार-पांच बच्चे एक साथ टेªन की बोगी में घुस आए। उनमें कोई खाली बोतल इकट्ठा करने लगा तो कोई झाड़ू से सफाई करने लगा। सफाई ऐसे जैसे उन्हें इस काम को करने की अच्छी ट्रेनिंग दी गयी हो। सफाई के बाद वह बच्चा एक हाथ में झाड़ू लिए दूसरा हाथ भिखारियों की तरह फैलाए हुए हर व्यक्ति के पास गया। कुछ ने उसे एक-दो रूपए दिए तो कुछ ने दुत्कार कर भगा दिया। बहुत से लोगों का मानना है कि ऐसे बच्चों को पैसा नहीं देना चाहिए। क्योेंकि एक बार ऐसा होने पर ऐसे बच्चे गलत काम करके पैसा कमाने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। एक तरह से यह बात सही भी है। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके मन में ऐसे बच्चों के लिए सचमुच सहानुभूति होती है। शायद यही वजह है कि ऐसे लोग ऐसे बच्चों को सहयोग स्वरूप जो बन पड़ता है, दे देते हैं।
यहां यह सवाल विचारणीय है कि जब हम ऐसे बच्चों के प्रति सहयोग की भावना रखते हैं तो यह क्यों नहीं सोचते कि ऐसे बच्चों के बचपन को और बेहतर ढ़ंग से किस तरह संवारा जा सकता है। पिछले दिनों सदभावना एक्सप्रेस से लखनऊ जाने का संयोग हुआ। स्टेशन के बाहर दो ऐसे बच्चे मिले जो जूता पालिश करना चाहते थे। मैंने दोनों को पास बुलाया। दरअसल मैं उनसे उनके बारे में बात करना चाहता था। इसलिए अपना जूूता उनमें से एक को पॉलिश हेतु दे दिया। इस बीच मैंने उनसे कई सवाल पूछे। मैंने उनसे पूछा कि वो इस काम को क्यों करते हैं? तो उनका जवाब था कि उनके पिता ऐसा चाहते हैं। मैंने उनसे फिर पूछा कि दिन भर में वो कितना कमा लेते हैं? उनमें से एक बोला कभी 20-30 रूपए तो कभी 40-50 रूपए की आमदनी हो जाती है। मैंने उनसे पूछा कि क्या वो ऐसा काम करना चाहेंगे जिसमें उन्हें बिना कुछ किए ही कपड़े, पैसे और खाना मिल जाए तो उनमें से एक ने उत्सुकता पूर्वक पूछा कि ऐसा कौन सा काम है? मैंने कहा तुम लागों को स्कूल जाना होगा। स्कूल का नाम सुनते ही दोनों ने एक स्वर में कहा ‘‘हमें तो कमाना है।
जाहिर है महंगायी के इस दौर में काम करने और कमाने का दबाव हर व्यक्ति पर है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि कमाने और घर चलाने के दबाव में अबोध बच्चों का बचपन छिनता जा रहा है। बाल मजदूरी से संबंधित विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन के बाद भी कमाने और घर चलाने का दबाव कम नहीं हो पाया है। तभी तो जितेन्द्र नाम का बालक कहता है कि जो भी पूछना है मेरे पिता से पूछिए। उन्होंने ही मुझे चाय की इस दुकान पर काम करने के लिए रखवाया है।
अलग-अलग यात्राओं के दौरान जिन बच्चों से भेंट हुई उनमें से पिण्टू नाम का एक बच्चा मिला जिसका काम एक तरह से भारतीय राज व्यवस्था में चौथे स्तंभ की हैसियत रखने वाले संस्था पर तमाचा है। पिण्टू बनारस सिटी स्टेशन पर अखबार बेचकर अपने और अपने घर-परिवार का गुजारा तो कर लेता है लेकिन पिण्टू के समान ही अन्य शहरों यहां तक की राजधानी के कनाट प्लेस और संसद मार्ग पर पत्र-पत्रिका बेचने वाले बच्चों की खबरें बड़ी मुश्किल से छपती है। वो बच्चे भी अखबारों के किसी कोने में जगह पाने से रह जाते हैं जो चिलचिलाती धूप में रेलगाड़ियों में सवार यात्रियों के लिए पानी से भरी बाल्टी लेकर टेªन के इंजन से लेकर अंतिम बोगी तक नंगे पांव दौड़ते देखे जाते हैं।
आर्थिक परिवर्तनों के दौर में जरूरी है कि हम और हमारा गणतंत्र इन बच्चों के हालात पर नए सिरे से गौर करें। समय तेजी से बदल रहा है। कहीं ऐसा न हो कि गरीबी, भूख और बेकारी ऐसे बच्चों को गुमराही के रास्ते पर इतना दूर पहुंचा दे कि जहां से इनका वापस लौट पाना नामुमकिन हो जाए। इन बच्चों के बचपन को हर हाल में संवारना ही होगा क्योंकि कल के भारत की जो तस्वीर बनेगी उसमें एक रंग इन बच्चों के मौजूदा हालात और इससे पैदा होने वाली कठिनाइयों की भी होगी।