यह परिस्थितियां निराश करने वाली हैं कि एक महिला अपने अधिकारों की प्राप्ति और मूलभूत समस्याओं के निदान के बजाए मोबाइल की इच्छा रखती है। इसमें सरकार और उसकी नीतियों की बड़ी भूमिका है, विशेषकर उन नीतियों का जो जनता को उभोक्ता से आगे कुछ समझता ही नहीं।
पिछले दिनों पश्चिमी उ॰प्र॰ के सहारनपुर जिला स्थित बेहट तहसील के एक ऐसे गांव में जाने का अवसर मिला जिसकी पहचान न तो गांव की है और न ही कस्बे की है। जीवन स्तर के आधार पर फूल काॅलोनी नामक इस गांव की महिलाओं के साथ बैठक की। बैठक के दौरान उपस्थित महिलाओं से उनकी समस्याओं की जानकारी ली। बातचीत के दौरान बिजली, पानी, मकान, स्कूल जैसी कई समस्याओं से रूबरू हुआ, जिनका सामना काॅलोनी के लोगों को करनी पड़ती है।
ध्यान दिलाना चाहता हूं कि बस्ती और गांव के बीच अटके हुए फूलपुर काॅलोनी तक वो सारे संसाधन पहुंच चुके हैं जो नव उदारवादी, बाजारवादी और विनेवेशवादी नीतियों से प्रेरित हैं। जैसे इनमें मोबाइल सर्वप्रमुख है। जीवन का अभिन्न अंग बन चुका मोबाइल वंचितों और पिछड़ों के लिए भी अपरिहार्य हो चुका है। मुझे हैरानी तब हुई जब काॅलोनी की एक महिला ने बताया कि उसकी सबसे बड़ी समस्या मोबाइल का न होना है। मैंने धैर्य के साथ उस महिला की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बारे में बात की। पता चला कि उस महिला के समक्ष भी आजीविका, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, स्वच्छता, घर, और बच्चों के लिए स्कूल की समस्या है। विकास का माॅडल देखिए कि इन संसाधनों से वंचित एक महिला के लिए मोबाइल कितना महत्वपूर्ण हो चुका है। हो भी क्यों नहीं! जब हमारे दूरसंचार मंत्री ही चाहते हैं कि भारत दूरसंचार के लिए एक हब बन जाए। इससे पहले तिहाड़ की हवा खा रहे पूर्व पंत्री डी॰ राजा ने भी मोबाइल को गांव-गांव के व्यक्ति-व्यक्ति तक मोबाइल पहंुचाने की बात कही थी।
बहरहाल पिछले दिनों राष्ट्रीय दूरसंचार नीति, 2011 के लक्ष्य बताते हुए उन्होंने “एक देश-एक लाइसेन्स” की बात कही। (Draft National Telecom Policy 2011 aims for 'one nation-one licence'; targets full MNP and free roaming. Sibal also said that he wants India to become a hub for telecommunication. "Draft NTP targets broadband on demand," http://ibnlive.in.com/news/new-telecom-policy-makes-roaming-free-sibal/191779-3.html) जिसका मुख्य उद्देश्य दूरसंचार क्षेत्र को निवेश के अनुकूल बनाना है। माननीय मंत्री महदोय ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच डिजिटल खाई को पाटना दूसरा मकसद बताया है। ज्ञात हो कि दूरसंचार क्षेत्र में पहले से ही 74 से 100 प्रतिशत की प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जारी है। फिर “एक देश-एक लाइसेन्स” का मतलब क्या है। क्या इतना अनुकूलन गांव और शहर के बीच की डिजिटल खाई को पाटने में सहायक नहीं साबित हुई है। पिछले दो दशक के अनुभव तो हमें यही बताते हैं कि अनुकूलन उपलब्ध करवाने वाली नीति न सिर्फ निवेशकों के लिए बल्कि 2जी के दलालों और माफियाओं के लिए वरदान साबित हुई है। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति रोटी के बदले मोबाइल को महत्व दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
बहरहाल अच्छी बात यह है कि “एक देश-एक लाइसेन्स” जैसे पंचमार्क में एकता के पुट का आभास होता है। वही एकता जिसके दम पर देश की आज़ादी की लड़ाइयां लड़ी गयीं। वही एकता जिसका उल्लेख संविधान निर्माताओं ने संविधान में किया है। फिर संविधान में समानता की बात भी तो कही गयी है। क्या दूरसंचार के संदर्भ में “एक देश-एक लाइसेन्स” की बात से समानता का उद्देश्य भी पूरा होता है? ऊपर जिस महिला की प्राथमिक आवश्यकता का जिक्र किया गया है क्या उसकी जरूरत पूरी हो सकती है?
जरूरत पूरी हो या न हो, यक्ष प्रश्न यह है कि जरूरतों के निर्धारण का अधिकार किसे है? सरकार, समाज, व्यक्ति या फिर किसी निवेशक को! इस तरह के प्रश्न अपनी प्रासंगिकता ढ़ूढ़ रहे हैं जिनकी बदौलत करोणों लोग मूलभूत समस्याओं के समाधान के बजाय मोबाइल जैसी बेतार संचार यंत्र की अभिलाषा में सुबह-शाम गुजार रहे हैं। फिर तो इनतक इस तरह के यंत्र पहुंचने ही चाहिए। पहुच भी रहे हैं। देखिए भाव कितना गिर चुका है मोबाइल बाजार का। एक हजार रूपए के बजट में अच्छे ब्राण्ड का अच्छा मोबाइल गांव और शहर के बीच अपना आस्तित्व और स्तर की खोज में संघर्षरत्त नागरिकों की पहुंच के अन्दर है। लेकिन उस महिला को देखिए। क्या उसके लिए एक हजार की रकम भी जुटा पाना मुमकिन नहीं है? शायद नहीं! तभी तो उसके पास मोबाइल नहीं है। लेकिन इच्छाएं तो उसकी अपनी हैं। सो उसने ज़ाहिर किया कि उसकी पहली प्राथमिकता मोबाइल है। कहने का तात्पर्य यह भी नहीं है कि अन्य सभी लोग जिनकी इच्छा ज़ाहिर नहीं होती वो लाज़मी तौर पर मोबाइल के उपभोक्ता हैं। मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि “ये कौन है जो हवाओं के रूख बदलता है?” जो इच्छाएं हमारी हैं उस पर किसी और का राज कैसे चलता है? कौन है जो हमें विवश करता है कि हम हमारी मूलभूत समस्याओं को छोड़कर पहले मोबाइल जैसी किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष करें। क्या मोबाइल प्राप्ति से उक्त महिला जैसी लाखों-करोणों व्यक्तियों की आजीविका का समाधान हो सकता है? क्या उनके बच्चों की शिक्षा की उचित व्यवस्था हो सकती है? क्या उनके मुहल्ले में फैली गन्दगी और स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का निदान हो सकता है? क्या उनके छत और दरवाजा विहीन घरों को मुकम्मल तौर पर घर का दरजा प्राप्त हो सकता है? किसी भी व्यक्ति के लिए इन सवालों का जवाब मुश्किल नहीं है। ज़ाहिर है कि हमारी इच्छाओं को हमारी सरकारें पूंजीपरस्त निवेशकों के हाथों सौंपने का काम कर रही हैं। निवेश के लिए अनुकूल नीति बनाने के ध्येय में जनता महज उपभोक्ता बनकर रह जाती है। दूसरी तरफ निवेशानुकूल नीतियों में पब्लिक रिड्रेसल होने के बाद भीं आम जनता की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को आसमान की बुलन्दियों पर पहुंचाने के तमाम बिन्दु होते हैं। कहना होगा कि संचार क्रान्ति ने बेतार संचार के माध्यम से संवाद की नयी सुविधाएं उपलब्ध करायी हैं। लेकिन ज़मीन पर रहने वाले भोले-भाले लोगों की ज़मीनी समस्याओं के लिए कुछ खास नहीं किया।
योजनाओं-परियोजनाओं की लम्बी फेहरिस्त में देश में जो कुछ हो रहा है, उसका खामियाजा वंचितों को ही भुगतना पड़ रहा है। क्योंकि योजनाओं की अर्हता और पात्रता वंचितों को ध्यान में रखकर ही बनाएं जाते हैं। यह परिस्थितियां निराश करने वाली हैं कि एक महिला अपने अधिकारों की प्राप्ति और मूलभूत समस्याओं के निदान के बजाए मोबाइल की इच्छा रखती है। इसमें सरकार और उसकी नीतियों की बड़ी भूमिका है, विशेषकर उन नीतियों का जो जनता को उभोक्ता से आगे कुछ समझता ही नहीं। यही वजह है कि वंचित समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी दैनिक आवश्यकताओं और लोकप्रिय आवश्यकताओं के बीच फर्क को समझ नहीं पा रहा है। इन परिस्थितियों को विडम्बना भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वंचित समाज तक शिक्षा और जागरूगता पहुंचने से पहले ही बेतार संचार के विविध यंत्र अपनी चमक-दमक के साथ पहंुचा दिए जाते हैं। फिर इच्छाएं उसी रूप में, उसी गति से परवान चढ़ती हैं जैसे-जैसे फ्री काल्स और फ्री रोमिंग के पुरोधा चाहते हैं। इस प्रक्रिया में एकता, समानता और स्वतंत्रता का मूल दर्श बहुत पीछे रह जाता है।
PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_October_2011