संस्मरण: ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है....? (फीरोज़ भाई को याद करते हुए )
फेसबुक खोलना लगभग बंद सा हो गया है। खोलें भी क्यों! हर तरफ मौत का शोर है! रेडियो पर ख़बरें सुनना लगभग बीस बरस पुरानी बात हो चुकी है। टी.वी. जनरलिज़्म के नए दौर ने पिछले बीस बरस में उपलब्धियों के नयी मीनारें खड़ी की हैं। लेकिन बीस बरस में ही आंख पत्रकारिता की इस मीनार से फिसलने लगी है। संवाद और संचार के हिस्से में बचा है, तो फेसबुक और व्हाट्सएप। जिसकी उम्र भी कमोबेश 15-बीस ही हुई है। भारत में विशेषकर हमारे आस-पास के माहौल में सोशल मीडिया सूचना और संचार का प्रभावी माध्यम बन चुका है। ख़बर अच्छी हो, सच्ची हो या फिर झूठ और फरेब हो। घर-घर में मौजूद फेसबुक और व्हाट्सएप और इण्टरनेट पर मौजूद सैकड़ों वेबसाइट पिछले कुछ वर्षों में लोकप्रिय संचार माध्यम के रूप में स्थापित हुए हैं। अन्य मीडिया माध्यमों की तरह ही सोशल मीडिया पर भी इन दिनों मौत की नानस्टाॅप ब्रेकिंग ख़बरों की भरमार है। सुबह हो या शाम, फेसबुक खोलते ही अपनों का हाल अस्पताल, डाॅक्टर और दवा की कमी से मौत की सूली पर टंगा दिखता है। पिछले दिनों दिल्ली में अम्बरीश राय, लखनऊ में अलीमुल्लाह भाई की अहलिया, पुनः दिल्ली में विधान पाठक को दुनिया की कारगुजारियों से अलग होना पड़ा था। 4 मई 2021 की रात में सत्य प्रकाश असीम और कटिहार के नवनीत भाई के लिए शोक संदेश लिखने की अगली सुबह यानि 5 मई को अब्बा से असीम जी के बारे बात हो ही रही होती है कि बातचीत के दौरान ही मोबाइल में फेसबुक खोलना अरूण पाण्डेय के शोक संदेश का परिचायक बना। आज 6 मई है। मित्रों के फोन भी आ रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेण्ट प्रोफेसर से जितेन्द्र जिसे प्यार से सब जीतू कहते हैं, डिपार्टमेन्ट आॅफ एजूकेशन में हिन्दी आॅफिसर रवीन्द्र भाई, उपाधि महाविद्यालय, पीलीभीत में असिस्टेण्ट प्रोफेसर विपिन भाई जैसे मित्रों के फोन आ रहे हैं। सब एक दूसरे का हाल पूछ रहे हैं। कुशलक्षेम सुन बता रहे हैं और कुशलता की कामना व्यक्त कर रहे हैं। एक दूसरे से नमस्ते, सलाम और बाय के साथ फोन पर “अपना ख़याल रखना” कहना नहीं भूलते हैं।अजीब वक्त है। एक के बाद एक, कम वक्त में मौत की लम्बी लाइन खींचती जा रही है। हमारे कस्बे और गांव की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। आज यानि 6 मई को मित्र राजेश भाई का फोन आया। “नमस्कार!” अभिवादन के बाद “गांव में चार लोग मर गए” से बात शुरू हुई। उन्होंने बताया कि कल वो घाट (सुल्तानपुर/गौसपुर) पर गए थे। लगभग 100 शवों की कतारें देखीं। हफ्ते दिन पहले किसी सज्जन ने इसी घाट पर 70-80 शवों की अंत्येष्टी की बात कही थी और हमें यकीन नहीं हुआ था। कल रवीन्द्र यादव भाई ने भी कुछ एक सौ से अधिक शवों के दाह संस्कार की बात अपने फेसबुक वाल पर साझा किया था। बीते सप्ताह की ही बात है। कस्बा मुहम्मदाबाद और यूसुफपुर में हर रोज दो-चार लोगों की के इन्तकाल/मृत्यु की ख़बरें आम बात हो गई थी। एक दिन तो यह औसत 8-9 तक पहुंच गया। फीरोज़ भाई का ताल्लुक इसी कस्बे से था। जिस स्कूल (आर्य समाज बाल विद्या मंदिर) में हम पांच भाइयों ने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी, उस स्कूल के करीब ही उनका घर था। उनके मुहल्ले को कोट कहा जाता है। कोट मुहल्ला की भौगोलिक स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ज़माने में गंगा नदी की दक्षिणी सीमा कोट ही रहा होगा। जो वर्तमान में शाहनीन्द पीर बाबा की दरगाह से आगे मठिया के बाद सेमरा गांव है।
फीरोज़ भाई के इन्तकाल की ख़बर भइया के फेसबुक वाल से मिली। वो भी चार घण्टे की देरी से। कारण यही कि फेसबुक खोलने में अजीब सा डर महसूस होने लगा है। लेकिन मीडिया घरानों की मौजूदा कारगुजारियों में फेसबुक कम से कम प्रमाणित बात हम तक पहुंचा दे रहा है। शुक्रिया है, फेसबुक वालों का। आप अपने कारोबारी नज़रिए में चाहे जिस परम्परा के पोषक हो, कम से कम इतना अवश्य है कि आपका बनाया यह माध्यम आज बहुतों के लिए सूचनाओं के आदान-प्रदान का महवत्पूर्ण माध्यम बना हुआ है। ये अलग बात है कि इसके लिए एन्ड्राएड मोबाइल फोन और इन्टरनेट कनेक्टीविटी का होना आवश्यक है। इस विषय पर अलग से बात की जाएगी। बहरहाल, ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि फेसबुक और व्हाट्सएप् ने दुःख और सुख के अनगिनत लम्हों को वक्त की भूल-भुलैया में खोने से बचा लिया है। वरना, अच्छी तरह याद है कि 90 के दशक में जब भइया इलाहाबाद स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे, उनके इलाहाबाद पहुंचने की ख़बर पा लेने भर के लिए अम्मा व्याकुल और बेचन रहा करती थीं। जब जैनेश पंकज, महताब, सरूर और हामिद जैसे उनके अन्य मित्र इलाहाबाद जाते थे, तो अम्मा-अब्बा से मिलने ज़रूर आते थे। उनके मित्रों से अम्मा इलाहाबाद पहुंच कर ख़त लिखने को ज़रूर कहती थीं। उस समय पोस्टकार्ड और अन्तरदेशी पत्र का चलन आम था। इलाहाबाद से एक पोस्टकार्ड या अन्तरदेशी पत्र मुहम्मदाबाद आने में एक हफ्ते का समय लग जाता था। कभी-कभी तो दस-पन्द्रह दिन का समय भी गुजर जाता था। अम्मा का परेशान होना बेजा नहीं था। अब फेसबुक और व्हाट्सएप का ज़माना है। और यही ज़माना कोराना के दूसरी लहर का ज़माना भी है। जिसमें चुनाव के बाद देश और प्रदेश में तमाम गतिविधियां रफ्ता-रफ्ता लाॅक डाउन के साए में घिरती जा रही हैं।
करोना के मौजूदा माहौल में बहुतों की सांसे इस तरह उखड़ी हैं, जिसे अभी उखड़ना नहीं चाहिए था। अम्बरीश राय, विधान पाठक, अरूण पाण्डेय, अलीम भाई की वाइफ, सत्य प्रकाश असीम और फीरोज़ भाई का शुमार मैं ऐसे ही लोगों में करता हूं। इनमें से फीरोज भाई को छोड़कर कोई भी बीमार नहीं था। लेकिन इन सबको कोरोनो ने हम सबसे जुदा कर दिया। फिरोज भाई को लेकर पहले से डर बना हुआ था। कोरानाकाल में डायलिसिस की व्यवस्था उपलब्ध कराने वालों के लिए फीरोज़ भाई जैसे मरीज आपदा में अवसर का माध्यम बन गए थे। डायलिसिस करा-करा कर ज़िन्दगी की सांसे गिन रहे फीरोज भाई भी 30 मई को कोराना की चपेट में आ गए। डायलिसिस के लिए 1700 से 2000 का खर्च अचानक से 5000 की ऊंचाई पर पहुंच गया। किडनी का थका-हारा मरीज़ किसी तरह अपने ईष्ट मित्रों की मदद से डायलिसिस करा तो लिया। लेकिन ज़िन्दगी का इरादा शायद इस दुनिया से कूच कर जाने को था। 5 मई की रात में फीरोज भाई आपदा में अवसर तलाशने वालों के लिए निराशा की ख़बर बन गए। जी हां, फीरोज भाई इन्तकाल कर गए। उनके इन्तकाल से उनके अपनों को जो दुःख होना था, वो तो हुआ ही। साथ ही आपदा में ऐसे मरीजों में अवसर तलाशने वाली स्वास्थ्य व्यवस्था की सच्चाई उजागर हो गयी। लेकिन कहना होगा कि अच्छाई में बल होता है और अच्छाई की आयु बड़ी होती है। डाॅ॰ एजाज़ सिद्दीक़ी का शुमार ऐसे ही डाॅक्टरों में है, जिन्होंने दिल्ली में रहते हुए अपने बड़े भाई के दोस्त की बतौर एक डाॅक्टर फीरोज़ भाई की लम्बे समय तक मदद की। मददगारों में बहुत से नाम हैं। जिन्होंने सलाह-मश्विरा से लेकर पैसा-रूपया हर तरह से मदद की। मददगारों में ऐसे लोग भी शामिल हैं जिन्होंने एक बार की मदद के बाद दुबारा कभी फीरोज भाई का फोन रिसीव नहीं किया।
बहरहाल, फीरोज भाई को लेकर पहले से डर बना हुआ था। वो ज़िन्दगी और मौत के बीच खड़े थे। उनकी सांसे डायलिसिस की मोहताज हो चुकी थीं। और डायलिसिस पैसे-रूपयों की। दर असल घर से दूर देश की राजधानी जाकर काम करके कुछ पैसे कमाने और परिवार के साथ सम्मान परक जीवन व्यतीत करने वाले फीरोज़ भाई को किडनी फेल्योर की शिकायत हो गयी थी। जिस्म का छोटा पुर्जा फेल हुआ, तो इलाज का खर्च बड़ा हो गया। एक ने नहीं बल्कि दोनों किडनियों ने फीरोज़ भाई का साथ छोड़ दिया था। फीरोज़ भाई को मेडिकल साइंस की एक खोज जिसे डायलिसिस कहते हैं, ने पिछले कुछ एक सालों से जिन्दा रखा था। कोरोना के पहले फेज में उन्हें दिल्ली में किसी तरह डायलिसिस की स्वास्थ्य सुविधा मिलती रही। दिल्ली के हालात नाजुक बने हुए हैं। आॅक्सीजन के लिए संघर्षरत्त दिल्ली वासियों की सांसे उखड़ रही हैं। इन्हीं परिस्थितियों में फीरोज भाई भी 30 अप्रैल को कोरोना की चपेट में आ गए। मुश्किलें पहले से किसी कदर और बढ़ गयीं। चार-पांच दिन में ही ज़िन्दगी के तार टूट गए। अस्पताल, डाॅक्टर और दवा की परेशानियों से हमेशा-हमेशा के लिए आज़ाद हो गए। 5 मई की रात फीरोज़ भाई ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
फीरोज़ भाई के बारे में क्या कहूं और क्या न कहूं। वो शमीम भाई के बचपन के दोस्त थे। भइया और वो आर्य समाज बाल विद्या मंदिर में एक ही कक्षा के छात्र थे। भइया बताते हैं कि फीरोज भाई पढ़ाई में उनसे तेज थे। उनके अब्बा पुलिस महकमे में थे। लेकिन कहीं न कहीं सही मार्गदर्शन का अभाव फीरोज भाई को उचित समय पर उचित अवसरों से वंचित रखा। फीरोज भाई के बारे में शामीम भाई बताते हैं कि वो फीरोज भाई बचपन से ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। छल-कपट तो उनके अंदर थी ही नहीं। उन्होंने कभी किसी का अहित नहीं सोचा। अपना रास्ता खुद ही बनाया। मेहनत में भी कभी कोई कमी नहीं रखी। आजीविका की तलाश में पहले मुम्बई, फिर गुजरात और इसके बाद दिल्ली चले गए। दिल्ली उनको रास आई। दिन दूनी-रात चैगुनी मेहनत की। जब भी दिल्ली जाना होता, उनसे मुलाकात ज़रूर हुआ करती थी।” गो कि शमीम भाई उनके अज़ीज दोस्तो में थे। फिर भी उन्हीं के शब्दों में “फीरोज का सबसे महबूब दोस्त उनकी मेहनत थी। मेहनत से कभी उन्होंने मुंह नहीं मोड़ा।”
फीरोज भाई भइया के प्रिय दोस्तो में एक थे। मेरी उनसे जब भी मुलाकात होती, घर के प्रत्येक सदस्य की खै़रियत लेना नहीं भूलते थे। उनके घर में कुल जमा-पूंजी एक बूढ़ी मां थीं, जिनका पिछले साल इन्तकाल हो गया था। फीरोज़ भाई का घर-ख़ानदान बहुत बड़ा है। लेकिन मां के बाद बीबी, बेटी और एक बेटा ही दिल्ली की भाग-दौड़ की ज़िन्दगी के साथी थे। बीच में उनके बेटे की तबीयत भी ख़राब हुई। लेकिन संघर्ष के तूफानों में धैर्य और परिश्रम को अपनी ताकत बनाने वाले फीरोज़ भाई ने बेटे के इलाज में कोई कमी नहीं रखी। कमी तो अपने इलाज में भी नहीं रखी। लेकिन वक्त ही बड़ा ज़ालिम है। मां और बेटी के रूप में दो महिलाओं और बेटे के रूप एक छोटे बच्चे के सर से साया उठा दिया।
जब मैं दिल्ली में था, फीरोज़ भाई से अक्सर मुलाकात हुआ करती थी। वो एक वर्किंग मैन थे। कभी बैठे नहीं। काम को काम समझा। उनका कस्बा, कस्बे की पहचान और दोस्तों की जमात, सब कुछ बड़ा नहीं तो छोटा भी नहीं था। लेकिन उन्होंने जिन्दगी की बेहतर राह मेहनत में देखी। किसी भी काम को छोटा नहीं समझा। जब उन्होंने कम्पनियों में सुपरवाइजरी की तब और जब डेयरी की मार्केटिंग की जिम्मेदारी संभाली तब, काम में तन्मयता की मिसाल पेश की। ये बात और है कि कम्पनियों ने फीरोज़ भाई के रूप में एक मैन पावर को कितनी अहमियत दी।
फीरोज़ भाई कद-काठी से लम्बे और रोबीले व्यक्तित्व के मालिक थे। उन्हें देखकर आर्मी और पुलिस वालों की याद आना बेमानी नहीं। लेकिन आर्मीमैन या पुलिसमैन के रूप में सरकार की सेवा में होना उनकी किस्मत में नहीं था। वो महाराष्ट्र और गुजरात के अलग-अलग शहरों में रहते हुए आखिरकार दिल्ली पहुंचे और वहीं के होकर रह गए। दिल्ली में उनका शुरूआती ठिकाना बसंतकुंज स्थित मेरे बचपन के दोस्त हामिद का किराए का घर हुआ करता था। हामिद ने भी पीछे पलट कर नहीं देखा। वकालत की वर्दी में मेहनत और समर्पण ने उसे दिल्ली में स्थायित्व और सम्मान परक जीवन जीने का सलीका और तरीका सिखा दिया। फीरोज़ भाई ने भी अपनी मेहनत के बदौलत रंगपुरी पहाड़ी में एक छोटा सा आशियाना बना लिया। जो कम से कम किराए का नहीं था।
ज़िन्दगी का कारवां चलता रहा। तब मैं जेएनयू में रिसर्च स्काॅलर था। फीरोज़ भाई कई दिन मेरे साथ झेलम हाॅस्टल के कमरा नं॰ 243 में रहे। बड़े भाई की तरह। तब जब मैं एक परेशानी में था। मैंने उन्हें कभी बताया नहीं। लेकिन मुझे ये भी नहीं लगा कि उनका मेरे साथ चन्द रोज रहना महज इत्तेफाक रहा होगा। भइया के दोस्त थे। मुझे भी भाई की तरह ही मानते थे। मैंने कभी उनसे पूछा नहीं लेकिन परेशानी के समय उनके मेरे साथ रहने से मुझे बहुत हौसला मिला था।
जाति भारतीय समाज की ढ़ांचागत विशेषताओं की परिचायक सूचकों में एक है। फीरोज़ भाई का ताल्लुक मुस्लिम समाज के सवर्ण तबके से था। पिता पुलिस विभाग की सेवा में थे। मुस्लिम समाज का सवर्ण तबका हिन्दु समाज के सवर्ण तबके की ही तरह परंपरा और मूल्यों में पिछड़े और दलित तबकों से श्रेष्ठ माना जाता है। भूमि का स्वामित्व हो, शिक्षा हो या नौकरी हर जगह सवर्ण तबके की मौजूदगी बढ़त के रूप में रही है। लेकिन फीरोज़ भाई के बारे में यह कहना चाहूंगा कि उनका जन्म सवर्ण परिवार में हुआ ज़रूर था, लेकिन उनके पास न तो भूमि की पूंजी थी और न ही पिता के पुलिस सेवा में होने का दम्भ। उनके अंदर किसी भी किस्म की सामंती या बड़े होने की भावना नहीं थी। “सीधवा” होना ही उनकी पहचान थी। उनके व्यवहार में अजीब सी सादगी और नरमी थी। मुझे राजू ही कहा करते थे और भइया को शमीम। पिंकी, रिंकू, नेपाली अब्बा-अम्मा, गुड़िया और रूख़्साना सबका हाल दरयाफ्त करते थे। दिल्ली से जब भी मुहम्मदाबाद आते, घर ज़रूर आते थे। कुछ देर बैठते मिठ्ठू, महताब और इस्लाहू की खै़रियत लेते और सम्मू भाई के घर जाते। फिर वापस कोट पर स्थित अपने घर। राजू घर आना। भाभी आई हुई हैं। दिल्ली स्थित उनके घर जाना होता तब और मुहम्मदाबाद स्थित उनके घर जाता तब, फीरोज भाई के चेहरे पर खुशी की लकीरों का उभार मैंने महसूस करता था। मगर अफसोस कि फीरोज़ भाई एक बेटी और बेटे की शिक्षा और परवरिश की जिम्मेदारी अपनी जीवन संगनी पर छोड़कर हम सबसे रूख़सत हो चुके हैं।
फीरोज़ भाई जिस बीमारी की ज़द में फंसे थे, उसका इलाज काफी खर्चीला था। हफ्ते में दो बार डायलिसिस कराना होता था। एक बार अस्पताल जाने में दो-तीन हज़ार से पांच-दस हज़ार का ख़र्च आता था। कमाई का पूरा हिस्सा खर्च कर देने पर भी इलाज के लिए पैसे कम पड़ जाते थे। फीरोज़ भाई दिल्ली में रहकर किस तरह अपने परिवार को संभालते हुए अपना इलाज करा रहे थे, वही बेहतर जानते थे। हां कुछ महीने पहले हामिद मुहम्मदाबाद आया था। फीरोज़ भाई का ज़िक्र लाज़मी था। हामिद ने बताया कि बंगाली भाई बहुत मदद कर रहे हैं। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। शायद फीरोज़ भाई ने हामिद से तज़करा किया हो। मेरी जो सीमित जानकारी है उसके अनुसार मदद करने वालों में भइया के अलावा कई और लोग भी हैं, जो मदद के लिए सामने आए। मेरे घर में मेरी बहन और छोटा भाई मुहल्ले में मास्टर महताब, दादा भाई, नेहाल भाई वगैरह का नाम ले सकता हूं। लेकिन इस संस्मरण लेख के माध्यम से उन तमाम लोगों को भी शुक्रिया कहना चाहूंगा जिनके नाम मैं नहीं जानता और जिन्होंने फीरोज़ भाई की मदद की। उनका भी शुक्रिया जो मदद को सामने आए, लेकिन दुबारा फीरोज भाई का फोन नहीं रिसीव किया।
फीरोज़ भाई से आखि़री मुलाकात वर्ष 2020 के दिसम्बर माह में हुई थी। जब शमीम भाई मुहम्मदाबाद आए हुए थे। फीरोज़ भाई के अलावा इस्लाहुद्दीन भाई और डब्लू भाई भइया के साथ कमरे में मौजूद होते हैं। फीरोज भाई भइया के पैर पर सर रखकर लेटे हुए होते हैं। ऐसे जैसे किसी अपने की गोद में कोई लेटा हो। दोस्तो के साथ फीरोज भाई की यह तस्वीर मैंने ही खीची थी। 30 दिसम्बर को फीरोज़ भाई ने इस तस्वीर को अपने फेसबुक वाल पर साझा करते हुए लिखा “नए साल में अल्लाह दोस्तो को सलामत रखना, यही है मेरी एलआईसी हैं।” ज़ाहिर है फीरोज़ भाई जिस बीमारी से जूझ रहे थे, उन्हें उसका नफा-नुकसान पता था। फिर भी वो अपने दोस्तो की सलामती के ख़्वाहिशात का इज़हार कर रहे होते हैं। दर असल उन्होंने अपने दोस्तो की दोस्ती को ही अपना जीवन बीमा समझा। अब दोस्तो की बारी है कि वो बीमा वाले दोस्ती का फर्ज़ किस तरह और किस हद तक निभाते हैं।फीरोज़ भाई बीमार थे। लेकिन उन्होंने हालात का बड़ी दिलेरी के साथ सामना किया। दिल्ली में बीबी और दो छोटे बच्चों के साथ हफ्ते में दो से तीन बार अस्पताल का मुंह देखना वास्तव में किसी के परेशानी का बड़ा सबब हो सकता है। लेकिन फीरोज भाई लगातार हालात के साथ जूझते रहे। हौसला बनाए रखा। वो ज़िन्दादिल इन्सान थे। उन्हें पता था कि ज़िन्दगी और मौत के बीच कुछ दिनों का फासला रह गया है। उन्होंने इस सच्चाई को जिया। इससे इंकार नहीं किया। दिसम्बर 2020 में उनका स्वास्थ्य लगभग ठीक था। लेकिन डायलिसिस के मरीज का ठीक-ठाक दिखना कितना ठीक होता है, ये तो सिर्फ और सिर्फ फीरोज भाई जैसे डायलिसिस मरीज ही बता सकते थे। दिसम्बर के दोस्तो वाली तस्वीर के बाद 28 फरवरी 2021 की एक और तस्वीर देखी जिसे उन्होंने अपने फेसबुक वाल पर लगाया था। तस्वीर से साफ ज़ाहिर हुआ कि जनवरी और फरवरी, इन दो महीनों में फीरोज़ भाई का स्वास्थ्य निरन्तर गिरा है। उनके चेहरे पर उदासियों गहराता मंजर बहुत कुछ कहता है। इस तस्वीर के साथ उन्होंने मुकेश कुमार के गाए गीत के बोल भर लिखे “ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है....?”
फीरोज़ भाई की ज़िन्दगी की डोर 15-16 साल पहले ही टूट गयी होती, जब वो नई दिल्ली के सरोजनी नगर मार्केट स्थित एक शाप पर अपने कम्पनी के काम से गए थे। शाप से वापस आए अभी उन्हें कुछ ही देर, कोई दस-पन्द्रह मिनट, हुए होंगे कि वहां एक सिलण्डर विस्फोट हुआ और उसमें कई लोगों की जान चली गयी थी। तब फीरोज़ भाई ने अपनी खुशकिस्मती का इज़हार किया था। लेकिन इस बार ज़िन्दगी की डोर हाथ से छूट गयी जो हम जैसे बहुत से शुभचिन्तकों के लिए अफसोस का बाएस बन गया।
फीरोज भाई दोस्ती, भाईचारगी, प्यार-मुहब्बत की मिसाल थे। अब वो हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनके व्यक्तित्व की छाप उनके दोस्तो और हम जैसों के साथ हमेशा रहेगी। तालीम, स्वास्थ्य और दोस्ती के ताल्लुक से उन्हें अपने दोस्तो से जो उम्मीदें वाबिस्तह थीं, उन्हें पूरा करने में उनके बचपन के कई दोस्त पहले से ही कोशां हैं। फीरोज भाई के परिवार में उनकी पत्नी, एक बेटी और एक बेटा है। इस संस्मरण के माध्यम से मैं फीरोज़ भाई को खि़राजे अक़ीदत पेश करते हुए उम्मीद करता हूं कि बाकी तमाम लोग भी बगैर धर्म, जाति, रंग, क्षेत्र और लिंग के भेदभाव के दोस्ती की मिसाल कायम करें। कोरोना का यह समय वास्तव में काफी कठिन और दुखदायी है। हम सबको एक दूसरे के लिए हर तरह से खड़े रहने की ज़रूरत है। हमारा-आपका एक दूसरे के लिए खड़ा रहना अपनों के खोने के दुःख और पीड़ा को कम करेगा। ज़ख़्मों पर मरहम लगेगा। आगे रास्ते बनेंगे। ज़िन्दगी फिर से पटरी पर सरपट दौड़ेगी।