बाल्यावस्था से किशोरावस्था की ओर बढ़ते बच्चों के समक्ष न सिर्फ संख्यात्मक और परिमाणात्मक शैक्षिक चुनौतियां होती हैं बल्कि उन्हें शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक बदलावों के दौर से गुज़रना होता है। अभिभावक या अध्यापक/अध्यापिका की भूमिका में हम कई बार तानाशाह की भूमिका निभाने लगते हैं। कुछ ऐसा करने की कोशिशें आम होती हैं कि कहीं बच्चा बिगड़ न जाए, गलत रास्ते पर न चला जाए आदि-आदि। इसलिए सुबह नींद खुलते ही हम अपने शब्दों का चाबुक बाल मनोविज्ञान की पीठ पर चलाने लगते हैं। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है, जब तक कि बच्चा थक हार कर सो न जाए।
अगर देखा जाए तो कई मामलों में हमारा समाज बदला है, मूल्य और परंपराओं में बदलाव परिलक्षित हुए हैं। नयी शिक्षा नीति अपनाते-अपनाते हमने स्कूल के पाठ्यक्रम से लेकर स्कूल भूवन, ड्रेस और फीस आदि को नए प्रकार के शैक्षिक बदलाव का मानक बनाया है। यह भी हुआ है कि शारीरिक दण्ड को लेकर हमारा समाज मानसिक स्तर पर बदलाव के दौर से गुजरा है। बेटियों को पढ़ाना पहले सपना हुआ करता था, लेकिन अब ज़माने को बदलता हुआ देखा जा सकता है। अब हमारी बेटियां जिन पगडंडियों पर पैदल भी नहीं चल पाती थी, अब उन्हीं पगडंडियों पर साइकिल की घंटियां ट्रिनट्रिनाते अल सुबह मीलों दूर स्कूल-काॅलेज और ट्यूशन पढ़ने जाती हैं। इतना सारा बदलाव हुआ, लेकिन न जाने ऐसा क्या है कि हमारा समाज और इसका मिजाज़ किशोरावस्था के बच्चों के स्वाभाविक विकास को बार-बार नियंत्रित और संचालित करना चाहता है?
यह बात काबिले गौर है कि किशोर होते बच्चे अपने समय की छोटी-बड़ी पीढ़ियों में कई मायनों में अधिक मुश्किल दौर में होते हैं। फिर स्कूल हो या घर हर जगह वो निगाहों की धूरी हुआ करते हैं। दर असल इस अवस्था में इन्हें जिन संवेगों से होकर गुजरना पड़ता है उसमें बड़ी ऊर्जा होती है। आयु संबंधी हारमोनल सेक्रेशन बार-बार खुली फिज़ा की खुली हवा में घुलमिल जाने की कोशिश करती है। इस वजह से कई बार हमारे बच्चे वो सब कर गुजरते हैं, जिसकी उम्मीद हमें नहीं होती। हमें आश्चर्य इसलिए भी होता है, क्योंकि हम उनके साथ संरक्षक दोस्त के बजाए सांस्कृतिक पुुलिसिया का सा बरताव करते हैं। स्कूल के संदर्भ में कक्षा पांच के बाद यानि 10-12 वर्ष की आयु से बच्चों में किशोरावस्था के लक्षण उभरने लगते हैं तथा जिसके 19वें बरस तक जारी रहने की संभावना होती है। यह वह अवस्था होती है जब बच्चों में शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बदलाव बिजली की गति से होते हैं। इन बदलावों को विकास की संज्ञा देना उचित प्रतीत होता है। विकास के इस दौर से लड़के और लड़कियों दोनों को ही गुजरना होता है। यह जीवन का वह हिस्सा होता है जब बच्चों में किसी भी कार्य या बात के लिए आत्मविश्वास की भावना निरन्तर बढ़ती जाती है। लेकिन ध्यान रखना होता है कि बच्चों का आत्मविश्वास नितान्त ही असंगठित और बिखरा हुआ होता है। नए-नए प्रयोग करना यानि अपने मन की जिज्ञासाओं और आस-पास के वातावरण की घटनाओं को रहस्य मानकर उनसे परदा हटाने की कोशिशें उसके व्यक्तित्व विकास का स्वाभाविक हिस्सा होती हैं। लेकिन उसके मानसिक संवेगों में अस्थिरता उसका बराबर पीछा करती रहती है। ऐसे बच्चे घर और गांव-मुहल्ले से लेकर स्कूल-काॅलेज तक हर जगह अपनी श्रेष्ठता के झण्डे बुलन्द करना चाहते हैं। इस उम्र में बच्चों में सुनने के बजाय कहने की प्रवृत्ति अधिक होती है। देखने और समझने के बजाए दिखाने और समझाने की प्रवृत्ति होती है। कई बार यह प्रवृत्ति उन्हें स्थान और समय की सीमा से बाहर ले जाती है। इन्हें बोध नहीं होता कि किसी बात को किसी से कहने या साझा करने का उचित समय कब है और कब नहीं है। इसी तरह किशोरावस्था में बच्चों को समय का भी ध्यान नहीं रहता है। वो किस भी समय अपने इच्छित बात को मनवाने या काम को पूरा करवाने की ज़िद कर बैठते हैं। हालांकि अक्सर माता-पिता या अभिभावक ऐसी परिस्थितियों में डांटना और पिटाई एक मात्र समाधान मानते हैं। लेकिन ऐसे माता-पिता या अभिभावक को यह समझना होगा कि उपर्युक्त उल्लिखित बदलावों के साथ इन्हें खु़द को भी बदलने की आवश्यकता है।
हम अपने बच्चों में बदलाव तो चाहते हैं, खासकर तब जबकि हर बच्चे का मन और शरीर दोनों ही बदलाव के संक्रमण काल में होता है। एक सामान्य बच्चे के समक्ष जो चुनौतियां होती हैं, उन्हें अभिभावक समझने से कोशिश नहीं करते हैं। दर असल हम अच्छे मूल्यों की स्थापना और विकास से जुड़ी हुई अपनी हार्दिक इच्छा/सपना बच्चों के मन-मस्तिष्क पर थोपते रहते हैं। इस थोपने में बच्चों के अंदर लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास की संभावनाएं समाप्त होने लगती हैं और दूसरी तरफ बच्चे संशय का शिकार हाने लगते है। वो भावनात्मक संवेगों की ऐसी सवारी गाड़ी पर सवार होते हैं, जहां नए-नए प्रयोग, कठिन परिस्थितियों में दुष्कर कार्यों को करने की चुनौती, छोटी-छोटी बात पर वाद-विवाद और सबसे महत्वपूर्ण लैंगिक आकर्षण का होना सामान्य बात होती है। लेकिन इन सबमें जो मूल्य होते हैं, उन मूल्यों में न तो स्थायित्व होता है और न ही अनुभव की भट्टी में पका हुआ सौन्दर्यबोध।
कोई भी बच्चा अपने माता-पिता का प्रिय बच्चा होता है। उसमें कुछ खूबियां जन्मजात ज़रूर होती हैं लेकिन ज़्यादातर का विकास हमारे परिवेश में होता है। किसी भी बच्चे का परिवेश मुख्य रूप से घर, स्कूल और समाज से बनता है। इसलिए इन तीन स्थानों पर जो भी सामाजिक ईकाइयां आस्तित्व में होती हैं, उनका उचित ढ़ंग से कार्य करना बच्चों के हित में होता है। ऐसा ज़रूरी भी है, क्योंकि किशोरावस्था में बच्चों के मन को समझना और फिर उसके मनोबल व उत्साह को बढ़ना न सिर्फ उसके कैरियर के लिए अच्छा होता है बल्कि समाज निर्माण व देश के विकास के लिए भी ज़रूरी है।
इन्क़िलाबी नज़र
शनिवार, 14 जून, 2014
Good
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