Thursday, June 6, 2024

बनारस, बुनकर और बेकारी


नोट- यह लेख सितम्बर 2020 का है। किसी कारण प्रकाशित नहीं हो पाया था। कम्प्यूटर में पुरानी फाइलें देखते समय इस लेख पर आज 
दिनांक 6 जून 2024 को नज़र पड़ी। लेख का टाइटिल ‘‘अनलॉक में भी बुनकरों के पेट पर तालाबंदी जारी है’’ था। इसे ‘‘बनारस, बुनकर और बेकारी’’ टाइटिल के साथ अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं। मुमकिन है बीते हुए कल की कुछ जीवंत तस्वीरें आंखों के सामने उभर आएं और वर्तमान व भविष्य के सरोकारों की ओर ध्यान दिलाएं...

पढ़ा जाए.....

"वाराणसी माननीय प्रधानमंत्री जी का संसदीय क्षेत्र है। वो बुनकरों की समस्याओं से अवश्य अवगत होंगे। उन्हें बुनकरों के लिए काम करने वाले समाज सेवियों और संगठनों के बारे में भी जानकारी होगी ही और सरकार के काम की भी। अच्छा होता कि माननीय प्रधानमंत्री समय रहते बुनकरों की समस्याओं का संज्ञान लेते हुए अपने संसदीय क्षेत्र के मासूम बच्चों, महिलाओं, नौजवान और वृद्ध बुनकरों के लिए कुछ साकारात्मक पहल करें। वरना बनारसी साड़ियों की चमक फीकी पड़ जाएगी।"

    नलॉक की प्रक्रिया पूरे देश में चल रही है। लेकिन बनारस के बुनकरों के लिए अनलॉक की प्रक्रिया बेमानी साबित हो रही है। पिछले पांच महीनों से ताना-बाना बंद पड़ा है। यह बंदी बुनकरी से आजीविका अर्जित करने वाले बुनकर परिवारों के पेट पर तालाबंदी का सबब बन चुका है। बेकारी और भूखमरी के हालात ने बुनकरों को अवसाद ग्रस्त कर दिया है।

    पिछले दिनों वाराणसी के एक बुनकर के फांसी लगाकर आत्महत्या करने की फोटो सोशल मीडिया में खूब वायरल हुई। यह घटना शासन-प्रशासन के लिए खबरदार करने वाली थी। लेकिन एक बार फिर आत्महत्या की खबर वाली एक विडियो सोशल मीडिया में वायरल हुई है। इस विडियो में एक महिला बता रही है कि एक बुनकर दम्पत्ति ने अपने पांच बच्चों को राजघाट पुल से नदी में फेंकने के बाद खुद भी दोनों ने नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली। 
    विडियो में महिला बता रही हैं कि बड़ी बाज़ार स्थित एक बुनकर ने अपने लूम में ही फांसी लगा कर जान दे दी। यदि सोशल मीडिया में वायरल हुई ये खबरें सच हैं तो ये किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के दिलो-दिमाग में बेचैनी पैदा करने वाली ख़बरें हैं। बनारस के बाकराबाद के बुनकर मुख्तार खां बताते हैं कि “पिछले पांच महीनों से काम बंद है। घर में खाने को नहीं है। नौजवान बुनकर गली-गली चबूतरों पर बैठकर पान की दुकान लगा रहे हैं और किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। एक गली में लगभग 12 दुकानें लगी हुई हैं। चालीस रूपए का पान बेचते हैं। लेकिन खर्च 70 रूपए का है। बनारस के बुनकरों की स्थिति आमदनी अठन्नी और खर्च रूपैया वाली हो गयी है।” मेहनत करके परिवार का पेट पालने में मदद करने वाले बहुत से किशोर और नौजवान बुनकर मांगने-खाने में लग गए हैं।

    लल्लापुरा के ताबिश अंसारी बताते हैं कि उनके परिवार में मातमी सन्नाटा छाया हुआ है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाए। काम धंधा बंद पड़ा है। खाने को लाले पड़े हैं। बड़े भाई इसरारूल हक़ अवसाद ग्रस्त हैं। जब दीन दयाल अस्पताल में इलाज के लिए गए, तो अस्पताल में इलाज के नाम पर यह कह कर वापस कर दिया गया कि यहां सिर्फ करोना का इलाज हो रहा है। प्राइवेट डॉक्टर से संपर्क किया, दवा भी ली, लेकिन पैसा न होने के कारण नियमित इलाज नहीं करा पा रहे हैं।” ताबिश का कहना है कि उनके भाई इसरारूल हक़ काम बंद होने की वजह से डिप्रेशन का शिकार हुए हैं। तीन लड़कियां और एक लड़के का पेट पालना और शिक्षा बड़ा मसला बन गया है। ऐसा सिर्फ इसरारूल हक और उनके परिवार के साथ नहीं हुआ है। बनारस की गलियों में थरमस में चाय बेच रहे मासूम बच्चों के घरों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। रसूलपूरा, बाकराबाद, लल्लापुरा वगैरह जगहों पर 7-8 साल के मासूम बच्चों को चाय, पकौड़ी, पूड़ी, कचौड़ी बेचते देखा जा सकता है। हालात इतने नाजुक हैं कि बच्चों को छोटे थैले में टॉफी और बिस्कुट भी बेचना पड़ रहा है। पीढ़ियों से बुनकरी करके जीवन यापन करने वाले बुनकरों को लॉकडाउन ने कहीं का नहीं छोड़ा है। लॉकडाउन के दौरान बहुत से बुनकर महिलाओं को अपने गहने भी गिरवी रखने और बेचने पड़े हैं।

    प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी की तस्वीर किसी फिल्म या कहानी के स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं है, बल्कि वहां के बुनकरों की जिन्दगी की हकीकत है। इस बदहाली का कारण पूछने पर बुनकर बताते हैं कि पिछले पांच महीनों से मशीनें बंद है। बाजार बंद हैं। अब जब बुनकर फिर से काम शुरू करना चाह रहे हैं, तो बिजली की बढ़ी हुई दरें नयी मुसीबत बन गयी है। ताबिश बताते हैं कि बिजली विभाग द्वारा बुनकरों का कामर्शियल बिल जमा नहीं किया जा रहा है। मुख्तार खां बताते हैं कि नए मीटर को विभाग द्वारा बंद कर दिया जा रहा है। जाहिर है अनलॉक की प्रक्रिया में भी माननीय प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र के बुनकर हताश और निराश हैं।


    गौर तलब है कि जिन बुनकरों की कारीगरी के चलते दुनिया भर में वाराणसी की पहचान है, वही बुनकर आज शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका की विकट परिस्थितियों से घिरे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के लाभ से दूर हो चुके बुनकरों की मज़दूरी भी औने-पौने रह गयी है। इस समय बुनकरों की मजदूरी 125 से घटकर 75-80 रह गयी है। जो सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से काफी कम है। बुनकर बताते हैं कि जब बाजार में मांग ही नहीं है, तो उनका माल कौन लेगा? जब बजार की मांग बढ़ेगी और गृहस्था (बड़े कारोबारी) को उचित मूल्य मिलेगा तब वो भी मजदूरी की बढ़ी हुई दर अदा कर सकते हैं। मामला कच्चे माल पर टैक्स का भी है। जरी, धागा, रेशम, दुकियम वगैरह पर टैक्स की दरें पहले की तरह हैं। जिससे तैयार माल की लागत बढ़ जाती है। लेकिन बाजार में लागत के अनुरूप भाव नहीं मिलता है। देखा जाए तो बुनाई का पूरा उद्योग ही खतरे में है।

    बुनकरों और बुनाई उद्योग के लिए सरकार की तरफ से योजनाओं का संचालन भी किया जा रहा है। लेकिन बुनकरों के कल्याण के रास्ते नज़र नहीं आ रहे हैं। कन्ट्रोल के राशन से घर नहीं चल सकता है। साग-सब्जी और तेल की भी जरूरत होती है। कोई बीमार पड़ जाए तो उसे डॉक्टर और दवाओं की ज़रूरत होती है। बुनकरी हर किसी के वश की बात नहीं है। ताना-बाना का चलना बुनकरों की सांसों का चलना है। जरूरी है कि सरकार इस ओर ध्यान दे और उनके काम में जो चीजें बाधक बनी हुई हैं उन्हें दूर करे। जैसे, बिजली की दर फिक्स्ड रखी जाए या सब्सिडी की व्यवस्था की जाए। बुनकरों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले कच्चे माल पर टैक्स में कमी की जाए या सब्सिडी भी दिए जाने की जरूरत है। इन उपायों के साथ-साथ बुनकरों को तत्काल आर्थिक सहायता की भी जरूरत है। जिस तरह लॉकडाउन के दौरान पंजीकृत और गैर पंजीकृत मजदूरों को एक-एक हजार रूपए की मदद प्रदेश सरकार द्वारा की गयी है। उसी तरह बुनकर बाहुल्य बस्तियों में भी कैम्प लगाकर बुनकर मज़दूरों को आर्थिक सहायता पहुंचाए जाने की जरूरत है। वरना जिन बच्चों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात कही गयी है, वो बेमानी साबित होंगे। क्योंकि कोरोना से उपजी परिस्थियों के कारण अगर बुनकरों के बच्चों का बचपन गली-गली थरमस में चाय बेचने, कचौड़ी बेचने, टॉफी-बिस्कुट और फोंफी बेचने में खत्म हो जाएगा तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से ये बच्चे वंचित रह जाएंगे। कहना पड़ रहा है कि वाराणसी माननीय प्रधानमंत्री जी का संसदीय क्षेत्र है। वो बुनकरों की समस्याओं से अवश्य अवगत होंगे। उन्हें बुनकरों के लिए काम करने वाले समाज सेवियों और संगठनों के बारे में भी जानकारी होगी ही और सरकार के काम की भी। अच्छा होता कि माननीय प्रधानमंत्री समय रहते बुनकरों की समस्याओं का संज्ञान लेते हुए अपने संसदीय क्षेत्र के मासूम बच्चों, महिलाओं, नौजवान और वृद्ध बुनकरों के लिए कुछ साकारात्मक पहल करें। वरना बनारसी साड़ियों की चमक फीकी पड़ जाएगी।