Thursday, June 6, 2024

बनारस, बुनकर और बेकारी


नोट- यह लेख सितम्बर 2020 का है। किसी कारण प्रकाशित नहीं हो पाया था। कम्प्यूटर में पुरानी फाइलें देखते समय इस लेख पर आज 
दिनांक 6 जून 2024 को नज़र पड़ी। लेख का टाइटिल ‘‘अनलॉक में भी बुनकरों के पेट पर तालाबंदी जारी है’’ था। इसे ‘‘बनारस, बुनकर और बेकारी’’ टाइटिल के साथ अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं। मुमकिन है बीते हुए कल की कुछ जीवंत तस्वीरें आंखों के सामने उभर आएं और वर्तमान व भविष्य के सरोकारों की ओर ध्यान दिलाएं...

पढ़ा जाए.....

"वाराणसी माननीय प्रधानमंत्री जी का संसदीय क्षेत्र है। वो बुनकरों की समस्याओं से अवश्य अवगत होंगे। उन्हें बुनकरों के लिए काम करने वाले समाज सेवियों और संगठनों के बारे में भी जानकारी होगी ही और सरकार के काम की भी। अच्छा होता कि माननीय प्रधानमंत्री समय रहते बुनकरों की समस्याओं का संज्ञान लेते हुए अपने संसदीय क्षेत्र के मासूम बच्चों, महिलाओं, नौजवान और वृद्ध बुनकरों के लिए कुछ साकारात्मक पहल करें। वरना बनारसी साड़ियों की चमक फीकी पड़ जाएगी।"

    नलॉक की प्रक्रिया पूरे देश में चल रही है। लेकिन बनारस के बुनकरों के लिए अनलॉक की प्रक्रिया बेमानी साबित हो रही है। पिछले पांच महीनों से ताना-बाना बंद पड़ा है। यह बंदी बुनकरी से आजीविका अर्जित करने वाले बुनकर परिवारों के पेट पर तालाबंदी का सबब बन चुका है। बेकारी और भूखमरी के हालात ने बुनकरों को अवसाद ग्रस्त कर दिया है।

    पिछले दिनों वाराणसी के एक बुनकर के फांसी लगाकर आत्महत्या करने की फोटो सोशल मीडिया में खूब वायरल हुई। यह घटना शासन-प्रशासन के लिए खबरदार करने वाली थी। लेकिन एक बार फिर आत्महत्या की खबर वाली एक विडियो सोशल मीडिया में वायरल हुई है। इस विडियो में एक महिला बता रही है कि एक बुनकर दम्पत्ति ने अपने पांच बच्चों को राजघाट पुल से नदी में फेंकने के बाद खुद भी दोनों ने नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली। 
    विडियो में महिला बता रही हैं कि बड़ी बाज़ार स्थित एक बुनकर ने अपने लूम में ही फांसी लगा कर जान दे दी। यदि सोशल मीडिया में वायरल हुई ये खबरें सच हैं तो ये किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के दिलो-दिमाग में बेचैनी पैदा करने वाली ख़बरें हैं। बनारस के बाकराबाद के बुनकर मुख्तार खां बताते हैं कि “पिछले पांच महीनों से काम बंद है। घर में खाने को नहीं है। नौजवान बुनकर गली-गली चबूतरों पर बैठकर पान की दुकान लगा रहे हैं और किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। एक गली में लगभग 12 दुकानें लगी हुई हैं। चालीस रूपए का पान बेचते हैं। लेकिन खर्च 70 रूपए का है। बनारस के बुनकरों की स्थिति आमदनी अठन्नी और खर्च रूपैया वाली हो गयी है।” मेहनत करके परिवार का पेट पालने में मदद करने वाले बहुत से किशोर और नौजवान बुनकर मांगने-खाने में लग गए हैं।

    लल्लापुरा के ताबिश अंसारी बताते हैं कि उनके परिवार में मातमी सन्नाटा छाया हुआ है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाए। काम धंधा बंद पड़ा है। खाने को लाले पड़े हैं। बड़े भाई इसरारूल हक़ अवसाद ग्रस्त हैं। जब दीन दयाल अस्पताल में इलाज के लिए गए, तो अस्पताल में इलाज के नाम पर यह कह कर वापस कर दिया गया कि यहां सिर्फ करोना का इलाज हो रहा है। प्राइवेट डॉक्टर से संपर्क किया, दवा भी ली, लेकिन पैसा न होने के कारण नियमित इलाज नहीं करा पा रहे हैं।” ताबिश का कहना है कि उनके भाई इसरारूल हक़ काम बंद होने की वजह से डिप्रेशन का शिकार हुए हैं। तीन लड़कियां और एक लड़के का पेट पालना और शिक्षा बड़ा मसला बन गया है। ऐसा सिर्फ इसरारूल हक और उनके परिवार के साथ नहीं हुआ है। बनारस की गलियों में थरमस में चाय बेच रहे मासूम बच्चों के घरों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। रसूलपूरा, बाकराबाद, लल्लापुरा वगैरह जगहों पर 7-8 साल के मासूम बच्चों को चाय, पकौड़ी, पूड़ी, कचौड़ी बेचते देखा जा सकता है। हालात इतने नाजुक हैं कि बच्चों को छोटे थैले में टॉफी और बिस्कुट भी बेचना पड़ रहा है। पीढ़ियों से बुनकरी करके जीवन यापन करने वाले बुनकरों को लॉकडाउन ने कहीं का नहीं छोड़ा है। लॉकडाउन के दौरान बहुत से बुनकर महिलाओं को अपने गहने भी गिरवी रखने और बेचने पड़े हैं।

    प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी की तस्वीर किसी फिल्म या कहानी के स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं है, बल्कि वहां के बुनकरों की जिन्दगी की हकीकत है। इस बदहाली का कारण पूछने पर बुनकर बताते हैं कि पिछले पांच महीनों से मशीनें बंद है। बाजार बंद हैं। अब जब बुनकर फिर से काम शुरू करना चाह रहे हैं, तो बिजली की बढ़ी हुई दरें नयी मुसीबत बन गयी है। ताबिश बताते हैं कि बिजली विभाग द्वारा बुनकरों का कामर्शियल बिल जमा नहीं किया जा रहा है। मुख्तार खां बताते हैं कि नए मीटर को विभाग द्वारा बंद कर दिया जा रहा है। जाहिर है अनलॉक की प्रक्रिया में भी माननीय प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र के बुनकर हताश और निराश हैं।


    गौर तलब है कि जिन बुनकरों की कारीगरी के चलते दुनिया भर में वाराणसी की पहचान है, वही बुनकर आज शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका की विकट परिस्थितियों से घिरे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के लाभ से दूर हो चुके बुनकरों की मज़दूरी भी औने-पौने रह गयी है। इस समय बुनकरों की मजदूरी 125 से घटकर 75-80 रह गयी है। जो सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से काफी कम है। बुनकर बताते हैं कि जब बाजार में मांग ही नहीं है, तो उनका माल कौन लेगा? जब बजार की मांग बढ़ेगी और गृहस्था (बड़े कारोबारी) को उचित मूल्य मिलेगा तब वो भी मजदूरी की बढ़ी हुई दर अदा कर सकते हैं। मामला कच्चे माल पर टैक्स का भी है। जरी, धागा, रेशम, दुकियम वगैरह पर टैक्स की दरें पहले की तरह हैं। जिससे तैयार माल की लागत बढ़ जाती है। लेकिन बाजार में लागत के अनुरूप भाव नहीं मिलता है। देखा जाए तो बुनाई का पूरा उद्योग ही खतरे में है।

    बुनकरों और बुनाई उद्योग के लिए सरकार की तरफ से योजनाओं का संचालन भी किया जा रहा है। लेकिन बुनकरों के कल्याण के रास्ते नज़र नहीं आ रहे हैं। कन्ट्रोल के राशन से घर नहीं चल सकता है। साग-सब्जी और तेल की भी जरूरत होती है। कोई बीमार पड़ जाए तो उसे डॉक्टर और दवाओं की ज़रूरत होती है। बुनकरी हर किसी के वश की बात नहीं है। ताना-बाना का चलना बुनकरों की सांसों का चलना है। जरूरी है कि सरकार इस ओर ध्यान दे और उनके काम में जो चीजें बाधक बनी हुई हैं उन्हें दूर करे। जैसे, बिजली की दर फिक्स्ड रखी जाए या सब्सिडी की व्यवस्था की जाए। बुनकरों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले कच्चे माल पर टैक्स में कमी की जाए या सब्सिडी भी दिए जाने की जरूरत है। इन उपायों के साथ-साथ बुनकरों को तत्काल आर्थिक सहायता की भी जरूरत है। जिस तरह लॉकडाउन के दौरान पंजीकृत और गैर पंजीकृत मजदूरों को एक-एक हजार रूपए की मदद प्रदेश सरकार द्वारा की गयी है। उसी तरह बुनकर बाहुल्य बस्तियों में भी कैम्प लगाकर बुनकर मज़दूरों को आर्थिक सहायता पहुंचाए जाने की जरूरत है। वरना जिन बच्चों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात कही गयी है, वो बेमानी साबित होंगे। क्योंकि कोरोना से उपजी परिस्थियों के कारण अगर बुनकरों के बच्चों का बचपन गली-गली थरमस में चाय बेचने, कचौड़ी बेचने, टॉफी-बिस्कुट और फोंफी बेचने में खत्म हो जाएगा तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से ये बच्चे वंचित रह जाएंगे। कहना पड़ रहा है कि वाराणसी माननीय प्रधानमंत्री जी का संसदीय क्षेत्र है। वो बुनकरों की समस्याओं से अवश्य अवगत होंगे। उन्हें बुनकरों के लिए काम करने वाले समाज सेवियों और संगठनों के बारे में भी जानकारी होगी ही और सरकार के काम की भी। अच्छा होता कि माननीय प्रधानमंत्री समय रहते बुनकरों की समस्याओं का संज्ञान लेते हुए अपने संसदीय क्षेत्र के मासूम बच्चों, महिलाओं, नौजवान और वृद्ध बुनकरों के लिए कुछ साकारात्मक पहल करें। वरना बनारसी साड़ियों की चमक फीकी पड़ जाएगी।


Friday, May 7, 2021

ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है...?

संस्मरण: ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है....? (फीरोज़ भाई को याद करते हुए )

फेसबुक खोलना लगभग बंद सा हो गया है। खोलें भी क्यों! हर तरफ मौत का शोर है! रेडियो पर ख़बरें सुनना लगभग बीस बरस पुरानी बात हो चुकी है। टी.वी. जनरलिज़्म के नए दौर ने पिछले बीस बरस में उपलब्धियों के नयी मीनारें खड़ी की हैं। लेकिन बीस बरस में ही आंख पत्रकारिता की इस मीनार से फिसलने लगी है। संवाद और संचार के हिस्से में बचा है, तो फेसबुक और व्हाट्सएप। जिसकी उम्र भी कमोबेश 15-बीस ही हुई है। भारत में विशेषकर हमारे आस-पास के माहौल में सोशल मीडिया सूचना और संचार का प्रभावी माध्यम बन चुका है। ख़बर अच्छी हो, सच्ची हो या फिर झूठ और फरेब हो। घर-घर में मौजूद फेसबुक और व्हाट्सएप और इण्टरनेट पर मौजूद सैकड़ों वेबसाइट पिछले कुछ वर्षों में लोकप्रिय संचार माध्यम के रूप में स्थापित हुए हैं। अन्य मीडिया माध्यमों की तरह ही सोशल मीडिया पर भी इन दिनों मौत की नानस्टाॅप ब्रेकिंग ख़बरों की भरमार है। सुबह हो या शाम, फेसबुक खोलते ही अपनों का हाल अस्पताल, डाॅक्टर और दवा की कमी से मौत की सूली पर टंगा दिखता है। पिछले दिनों दिल्ली में अम्बरीश राय, लखनऊ में अलीमुल्लाह भाई की अहलिया, पुनः दिल्ली में विधान पाठक को दुनिया की कारगुजारियों से अलग होना पड़ा था। 4 मई 2021 की रात में सत्य प्रकाश असीम और कटिहार के नवनीत भाई के लिए शोक संदेश लिखने की अगली सुबह यानि 5 मई को अब्बा से असीम जी के बारे बात हो ही रही होती है कि बातचीत के दौरान ही मोबाइल में फेसबुक खोलना अरूण पाण्डेय के शोक संदेश का परिचायक बना। आज 6 मई है। मित्रों के फोन भी आ रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेण्ट प्रोफेसर से जितेन्द्र जिसे प्यार से सब जीतू कहते हैं, डिपार्टमेन्ट आॅफ एजूकेशन में हिन्दी आॅफिसर रवीन्द्र भाई, उपाधि महाविद्यालय, पीलीभीत में असिस्टेण्ट प्रोफेसर विपिन भाई जैसे मित्रों के फोन आ रहे हैं। सब एक दूसरे का हाल पूछ रहे हैं। कुशलक्षेम सुन बता रहे हैं और कुशलता की कामना व्यक्त कर रहे हैं। एक दूसरे से नमस्ते, सलाम और बाय के साथ फोन पर “अपना ख़याल रखना” कहना नहीं भूलते हैं। 

अजीब वक्त है। एक के बाद एक, कम वक्त में मौत की लम्बी लाइन खींचती जा रही है। हमारे कस्बे और गांव की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। आज यानि 6 मई को मित्र राजेश भाई का फोन आया। “नमस्कार!” अभिवादन के बाद “गांव में चार लोग मर गए” से बात शुरू हुई। उन्होंने बताया कि कल वो घाट (सुल्तानपुर/गौसपुर) पर गए थे। लगभग 100 शवों की कतारें देखीं। हफ्ते दिन पहले किसी सज्जन ने इसी घाट पर 70-80 शवों की अंत्येष्टी की बात कही थी और हमें यकीन नहीं हुआ था। कल रवीन्द्र यादव भाई ने भी कुछ एक सौ से अधिक शवों के दाह संस्कार की बात अपने फेसबुक वाल पर साझा किया था। बीते सप्ताह की ही बात है। कस्बा मुहम्मदाबाद और यूसुफपुर में हर रोज दो-चार लोगों की के इन्तकाल/मृत्यु की ख़बरें आम बात हो गई थी। एक दिन तो यह औसत 8-9 तक पहुंच गया। फीरोज़ भाई का ताल्लुक इसी कस्बे से था। जिस स्कूल (आर्य समाज बाल विद्या मंदिर) में हम पांच भाइयों ने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी, उस स्कूल के करीब ही उनका घर था। उनके मुहल्ले को कोट कहा जाता है। कोट मुहल्ला की भौगोलिक स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ज़माने में गंगा नदी की दक्षिणी सीमा कोट ही रहा होगा। जो वर्तमान में शाहनीन्द पीर बाबा की दरगाह से आगे मठिया के बाद सेमरा गांव है।

फीरोज़ भाई के इन्तकाल की ख़बर भइया के फेसबुक वाल से मिली। वो भी चार घण्टे की देरी से। कारण यही कि फेसबुक खोलने में अजीब सा डर महसूस होने लगा है। लेकिन मीडिया घरानों की मौजूदा कारगुजारियों में फेसबुक कम से कम प्रमाणित बात हम तक पहुंचा दे रहा है। शुक्रिया है, फेसबुक वालों का। आप अपने कारोबारी नज़रिए में चाहे जिस परम्परा के पोषक हो, कम से कम इतना अवश्य है कि आपका बनाया यह माध्यम आज बहुतों के लिए सूचनाओं के आदान-प्रदान का महवत्पूर्ण माध्यम बना हुआ है। ये अलग बात है कि इसके लिए एन्ड्राएड मोबाइल फोन और इन्टरनेट कनेक्टीविटी का होना आवश्यक है। इस विषय पर अलग से बात की जाएगी। बहरहाल, ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि फेसबुक और व्हाट्सएप् ने दुःख और सुख के अनगिनत लम्हों को वक्त की भूल-भुलैया में खोने से बचा लिया है। वरना, अच्छी तरह याद है कि 90 के दशक में जब भइया इलाहाबाद स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे, उनके इलाहाबाद पहुंचने की ख़बर पा लेने भर के लिए अम्मा व्याकुल और बेचन रहा करती थीं। जब जैनेश पंकज, महताब, सरूर और हामिद जैसे उनके अन्य मित्र इलाहाबाद जाते थे, तो अम्मा-अब्बा से मिलने ज़रूर आते थे। उनके मित्रों से अम्मा इलाहाबाद पहुंच कर ख़त लिखने को ज़रूर कहती थीं। उस समय पोस्टकार्ड और अन्तरदेशी पत्र का चलन आम था। इलाहाबाद से एक पोस्टकार्ड या अन्तरदेशी पत्र मुहम्मदाबाद आने में एक हफ्ते का समय लग जाता था। कभी-कभी तो दस-पन्द्रह दिन का समय भी गुजर जाता था। अम्मा का परेशान होना बेजा नहीं था। अब फेसबुक और व्हाट्सएप का ज़माना है। और यही ज़माना कोराना के दूसरी लहर का ज़माना भी है। जिसमें चुनाव के बाद देश और प्रदेश में तमाम गतिविधियां रफ्ता-रफ्ता लाॅक डाउन के साए में घिरती जा रही हैं।

करोना के मौजूदा माहौल में बहुतों की सांसे इस तरह उखड़ी हैं, जिसे अभी उखड़ना नहीं चाहिए था। अम्बरीश राय, विधान पाठक, अरूण पाण्डेय, अलीम भाई की वाइफ, सत्य प्रकाश असीम और फीरोज़ भाई का शुमार मैं ऐसे ही लोगों में करता हूं। इनमें से फीरोज भाई को छोड़कर कोई भी बीमार नहीं था। लेकिन इन सबको कोरोनो ने हम सबसे जुदा कर दिया। फिरोज भाई को लेकर पहले से डर बना हुआ था। कोरानाकाल में डायलिसिस की व्यवस्था उपलब्ध कराने वालों के लिए फीरोज़ भाई जैसे मरीज आपदा में अवसर का माध्यम बन गए थे। डायलिसिस करा-करा कर ज़िन्दगी की सांसे गिन रहे फीरोज भाई भी 30 मई को कोराना की चपेट में आ गए। डायलिसिस के लिए 1700 से 2000 का खर्च अचानक से 5000 की ऊंचाई पर पहुंच गया। किडनी का थका-हारा मरीज़ किसी तरह अपने ईष्ट मित्रों की मदद से डायलिसिस करा तो लिया। लेकिन ज़िन्दगी का इरादा शायद इस दुनिया से कूच कर जाने को था। 5 मई की रात में फीरोज भाई आपदा में अवसर तलाशने वालों के लिए निराशा की ख़बर बन गए। जी हां, फीरोज भाई इन्तकाल कर गए। उनके इन्तकाल से उनके अपनों को जो दुःख होना था, वो तो हुआ ही। साथ ही आपदा में ऐसे मरीजों में अवसर तलाशने वाली स्वास्थ्य व्यवस्था की सच्चाई उजागर हो गयी। लेकिन कहना होगा कि अच्छाई में बल होता है और अच्छाई की आयु बड़ी होती है। डाॅ॰ एजाज़ सिद्दीक़ी का शुमार ऐसे ही डाॅक्टरों में है, जिन्होंने दिल्ली में रहते हुए अपने बड़े भाई के दोस्त की बतौर एक डाॅक्टर फीरोज़ भाई की लम्बे समय तक मदद की। मददगारों में बहुत से नाम हैं। जिन्होंने सलाह-मश्विरा से लेकर पैसा-रूपया हर तरह से मदद की। मददगारों में ऐसे लोग भी शामिल हैं जिन्होंने एक बार की मदद के बाद दुबारा कभी फीरोज भाई का फोन रिसीव नहीं किया।

बहरहाल, फीरोज भाई को लेकर पहले से डर बना हुआ था। वो ज़िन्दगी और मौत के बीच खड़े थे। उनकी सांसे डायलिसिस की मोहताज हो चुकी थीं। और डायलिसिस पैसे-रूपयों की। दर असल घर से दूर देश की राजधानी जाकर काम करके कुछ पैसे कमाने और परिवार के साथ सम्मान परक जीवन व्यतीत करने वाले फीरोज़ भाई को किडनी फेल्योर की शिकायत हो गयी थी। जिस्म का छोटा पुर्जा फेल हुआ, तो इलाज का खर्च बड़ा हो गया। एक ने नहीं बल्कि दोनों किडनियों ने फीरोज़ भाई का साथ छोड़ दिया था। फीरोज़ भाई को मेडिकल साइंस की एक खोज जिसे डायलिसिस कहते हैं, ने पिछले कुछ एक सालों से जिन्दा रखा था। कोरोना के पहले फेज में उन्हें दिल्ली में किसी तरह डायलिसिस की स्वास्थ्य सुविधा मिलती रही। दिल्ली के हालात नाजुक बने हुए हैं। आॅक्सीजन के लिए संघर्षरत्त दिल्ली वासियों की सांसे उखड़ रही हैं। इन्हीं परिस्थितियों में फीरोज भाई भी 30 अप्रैल को कोरोना की चपेट में आ गए। मुश्किलें पहले से किसी कदर और बढ़ गयीं। चार-पांच दिन में ही ज़िन्दगी के तार टूट गए। अस्पताल, डाॅक्टर और दवा की परेशानियों से हमेशा-हमेशा के लिए आज़ाद हो गए। 5 मई की रात फीरोज़ भाई ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

फीरोज़ भाई के बारे में क्या कहूं और क्या न कहूं। वो शमीम भाई के बचपन के दोस्त थे। भइया और वो आर्य समाज बाल विद्या मंदिर में एक ही कक्षा के छात्र थे। भइया बताते हैं कि फीरोज भाई पढ़ाई में उनसे तेज थे। उनके अब्बा पुलिस महकमे में थे। लेकिन कहीं न कहीं सही मार्गदर्शन का अभाव फीरोज भाई को उचित समय पर उचित अवसरों से वंचित रखा। फीरोज भाई के बारे में शामीम भाई बताते हैं कि वो फीरोज भाई बचपन से ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। छल-कपट तो उनके अंदर थी ही नहीं। उन्होंने कभी किसी का अहित नहीं सोचा। अपना रास्ता खुद ही बनाया। मेहनत में भी कभी कोई कमी नहीं रखी। आजीविका की तलाश में पहले मुम्बई, फिर गुजरात और इसके बाद दिल्ली चले गए। दिल्ली उनको रास आई। दिन दूनी-रात चैगुनी मेहनत की। जब भी दिल्ली जाना होता, उनसे मुलाकात ज़रूर हुआ करती थी।” गो कि शमीम भाई उनके अज़ीज दोस्तो में थे। फिर भी उन्हीं के शब्दों में “फीरोज का सबसे महबूब दोस्त उनकी मेहनत थी। मेहनत से कभी उन्होंने मुंह नहीं मोड़ा।”

फीरोज भाई भइया के प्रिय दोस्तो में एक थे। मेरी उनसे जब भी मुलाकात होती, घर के प्रत्येक सदस्य की खै़रियत लेना नहीं भूलते थे। उनके घर में कुल जमा-पूंजी एक बूढ़ी मां थीं, जिनका पिछले साल इन्तकाल हो गया था। फीरोज़ भाई का घर-ख़ानदान बहुत बड़ा है। लेकिन मां के बाद बीबी, बेटी और एक बेटा ही दिल्ली की भाग-दौड़ की ज़िन्दगी के साथी थे। बीच में उनके बेटे की तबीयत भी ख़राब हुई। लेकिन संघर्ष के तूफानों में धैर्य और परिश्रम को अपनी ताकत बनाने वाले फीरोज़ भाई ने बेटे के इलाज में कोई कमी नहीं रखी। कमी तो अपने इलाज में भी नहीं रखी। लेकिन वक्त ही बड़ा ज़ालिम है। मां और बेटी के रूप में दो महिलाओं और बेटे के रूप एक छोटे बच्चे के सर से साया उठा दिया।

जब मैं दिल्ली में था, फीरोज़ भाई से अक्सर मुलाकात हुआ करती थी। वो एक वर्किंग मैन थे। कभी बैठे नहीं। काम को काम समझा। उनका कस्बा, कस्बे की पहचान और दोस्तों की जमात, सब कुछ बड़ा नहीं तो छोटा भी नहीं था। लेकिन उन्होंने जिन्दगी की बेहतर राह मेहनत में देखी। किसी भी काम को छोटा नहीं समझा। जब उन्होंने कम्पनियों में सुपरवाइजरी की तब और जब डेयरी की मार्केटिंग की जिम्मेदारी संभाली तब, काम में तन्मयता की मिसाल पेश की। ये बात और है कि कम्पनियों ने फीरोज़ भाई के रूप में एक मैन पावर को कितनी अहमियत दी।

फीरोज़ भाई कद-काठी से लम्बे और रोबीले व्यक्तित्व के मालिक थे। उन्हें देखकर आर्मी और पुलिस वालों की याद आना बेमानी नहीं। लेकिन आर्मीमैन या पुलिसमैन के रूप में सरकार की सेवा में होना उनकी किस्मत में नहीं था। वो महाराष्ट्र और गुजरात के अलग-अलग शहरों में रहते हुए आखिरकार दिल्ली पहुंचे और वहीं के होकर रह गए। दिल्ली में उनका शुरूआती ठिकाना बसंतकुंज स्थित मेरे बचपन के दोस्त हामिद का किराए का घर हुआ करता था। हामिद ने भी पीछे पलट कर नहीं देखा। वकालत की वर्दी में मेहनत और समर्पण ने उसे दिल्ली में स्थायित्व और सम्मान परक जीवन जीने का सलीका और तरीका सिखा दिया। फीरोज़ भाई ने भी अपनी मेहनत के बदौलत रंगपुरी पहाड़ी में एक छोटा सा आशियाना बना लिया। जो कम से कम किराए का नहीं था।

ज़िन्दगी का कारवां चलता रहा। तब मैं जेएनयू में रिसर्च स्काॅलर था। फीरोज़ भाई कई दिन मेरे साथ झेलम हाॅस्टल के कमरा नं॰ 243 में रहे। बड़े भाई की तरह। तब जब मैं एक परेशानी में था। मैंने उन्हें कभी बताया नहीं। लेकिन मुझे ये भी नहीं लगा कि उनका मेरे साथ चन्द रोज रहना महज इत्तेफाक रहा होगा। भइया के दोस्त थे। मुझे भी भाई की तरह ही मानते थे। मैंने कभी उनसे पूछा नहीं लेकिन परेशानी के समय उनके मेरे साथ रहने से मुझे बहुत हौसला मिला था।

जाति भारतीय समाज की ढ़ांचागत विशेषताओं की परिचायक सूचकों में एक है। फीरोज़ भाई का ताल्लुक मुस्लिम समाज के सवर्ण तबके से था। पिता पुलिस विभाग की सेवा में थे। मुस्लिम समाज का सवर्ण तबका हिन्दु समाज के सवर्ण तबके की ही तरह परंपरा और मूल्यों में पिछड़े और दलित तबकों से श्रेष्ठ माना जाता है। भूमि का स्वामित्व हो, शिक्षा हो या नौकरी हर जगह सवर्ण तबके की मौजूदगी बढ़त के रूप में रही है। लेकिन फीरोज़ भाई के बारे में यह कहना चाहूंगा कि उनका जन्म सवर्ण परिवार में हुआ ज़रूर था, लेकिन उनके पास न तो भूमि की पूंजी थी और न ही पिता के पुलिस सेवा में होने का दम्भ। उनके अंदर किसी भी किस्म की सामंती या बड़े होने की भावना नहीं थी। “सीधवा” होना ही उनकी पहचान थी। उनके व्यवहार में अजीब सी सादगी और नरमी थी। मुझे राजू ही कहा करते थे और भइया को शमीम। पिंकी, रिंकू, नेपाली अब्बा-अम्मा, गुड़िया और रूख़्साना सबका हाल दरयाफ्त करते थे। दिल्ली से जब भी मुहम्मदाबाद आते, घर ज़रूर आते थे। कुछ देर बैठते मिठ्ठू, महताब और इस्लाहू की खै़रियत लेते और सम्मू भाई के घर जाते। फिर वापस कोट पर स्थित अपने घर। राजू घर आना। भाभी आई हुई हैं। दिल्ली स्थित उनके घर जाना होता तब और मुहम्मदाबाद स्थित उनके घर जाता तब, फीरोज भाई के चेहरे पर खुशी की लकीरों का उभार मैंने महसूस करता था। मगर अफसोस कि फीरोज़ भाई एक बेटी और बेटे की शिक्षा और परवरिश की जिम्मेदारी अपनी जीवन संगनी पर छोड़कर हम सबसे रूख़सत हो चुके हैं।

फीरोज़ भाई जिस बीमारी की ज़द में फंसे थे, उसका इलाज काफी खर्चीला था। हफ्ते में दो बार डायलिसिस कराना होता था। एक बार अस्पताल जाने में दो-तीन हज़ार से पांच-दस हज़ार का ख़र्च आता था। कमाई का पूरा हिस्सा खर्च कर देने पर भी इलाज के लिए पैसे कम पड़ जाते थे। फीरोज़ भाई दिल्ली में रहकर किस तरह अपने परिवार को संभालते हुए अपना इलाज करा रहे थे, वही बेहतर जानते थे। हां कुछ महीने पहले हामिद मुहम्मदाबाद आया था। फीरोज़ भाई का ज़िक्र लाज़मी था। हामिद ने बताया कि बंगाली भाई बहुत मदद कर रहे हैं। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। शायद फीरोज़ भाई ने हामिद से तज़करा किया हो। मेरी जो सीमित जानकारी है उसके अनुसार मदद करने वालों में भइया के अलावा कई और लोग भी हैं, जो मदद के लिए सामने आए। मेरे घर में मेरी बहन और छोटा भाई मुहल्ले में मास्टर महताब, दादा भाई, नेहाल भाई वगैरह का नाम ले सकता हूं। लेकिन इस संस्मरण लेख के माध्यम से उन तमाम लोगों को भी शुक्रिया कहना चाहूंगा जिनके नाम मैं नहीं जानता और जिन्होंने फीरोज़ भाई की मदद की। उनका भी शुक्रिया जो मदद को सामने आए, लेकिन दुबारा फीरोज भाई का फोन नहीं रिसीव किया।

फीरोज़ भाई से आखि़री मुलाकात वर्ष 2020 के दिसम्बर माह में हुई थी। जब शमीम भाई मुहम्मदाबाद आए हुए थे। फीरोज़ भाई के अलावा इस्लाहुद्दीन भाई और डब्लू भाई भइया के साथ कमरे में मौजूद होते हैं। फीरोज भाई भइया के पैर पर सर रखकर लेटे हुए होते हैं। ऐसे जैसे किसी अपने की गोद में कोई लेटा हो। दोस्तो के साथ फीरोज भाई की यह तस्वीर मैंने ही खीची थी। 30 दिसम्बर को फीरोज़ भाई ने इस तस्वीर को अपने फेसबुक वाल पर साझा करते हुए लिखा “नए साल में अल्लाह दोस्तो को सलामत रखना, यही है मेरी एलआईसी हैं।” ज़ाहिर है फीरोज़ भाई जिस बीमारी से जूझ रहे थे, उन्हें उसका नफा-नुकसान पता था। फिर भी वो अपने दोस्तो की सलामती के ख़्वाहिशात का इज़हार कर रहे होते हैं। दर असल उन्होंने अपने दोस्तो की दोस्ती को ही अपना जीवन बीमा समझा। अब दोस्तो की बारी है कि वो बीमा वाले दोस्ती का फर्ज़ किस तरह और किस हद तक निभाते हैं।

फीरोज़ भाई बीमार थे। लेकिन उन्होंने हालात का बड़ी दिलेरी के साथ सामना किया। दिल्ली में बीबी और दो छोटे बच्चों के साथ हफ्ते में दो से तीन बार अस्पताल का मुंह देखना वास्तव में किसी के परेशानी का बड़ा सबब हो सकता है। लेकिन फीरोज भाई लगातार हालात के साथ जूझते रहे। हौसला बनाए रखा। वो ज़िन्दादिल इन्सान थे। उन्हें पता था कि ज़िन्दगी और मौत के बीच कुछ दिनों का फासला रह गया है। उन्होंने इस सच्चाई को जिया। इससे इंकार नहीं किया। दिसम्बर 2020 में उनका स्वास्थ्य लगभग ठीक था। लेकिन डायलिसिस के मरीज का ठीक-ठाक दिखना कितना ठीक होता है, ये तो सिर्फ और सिर्फ फीरोज भाई जैसे डायलिसिस मरीज ही बता सकते थे। दिसम्बर के दोस्तो वाली तस्वीर के बाद 28 फरवरी 2021 की एक और तस्वीर देखी जिसे उन्होंने अपने फेसबुक वाल पर लगाया था। तस्वीर से साफ ज़ाहिर हुआ कि जनवरी और फरवरी, इन दो महीनों में फीरोज़ भाई का स्वास्थ्य निरन्तर गिरा है। उनके चेहरे पर उदासियों गहराता मंजर बहुत कुछ कहता है। इस तस्वीर के साथ उन्होंने मुकेश कुमार के गाए गीत के बोल भर लिखे “ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है....?”

फीरोज़ भाई की ज़िन्दगी की डोर 15-16 साल पहले ही टूट गयी होती, जब वो नई दिल्ली के सरोजनी नगर मार्केट स्थित एक शाप पर अपने कम्पनी के काम से गए थे। शाप से वापस आए अभी उन्हें कुछ ही देर, कोई दस-पन्द्रह मिनट, हुए होंगे कि वहां एक सिलण्डर विस्फोट हुआ और उसमें कई लोगों की जान चली गयी थी। तब फीरोज़ भाई ने अपनी खुशकिस्मती का इज़हार किया था। लेकिन इस बार ज़िन्दगी की डोर हाथ से छूट गयी जो हम जैसे बहुत से शुभचिन्तकों के लिए अफसोस का बाएस बन गया।

फीरोज भाई दोस्ती, भाईचारगी, प्यार-मुहब्बत की मिसाल थे। अब वो हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनके व्यक्तित्व की छाप उनके दोस्तो और हम जैसों के साथ हमेशा रहेगी। तालीम, स्वास्थ्य और दोस्ती के ताल्लुक से उन्हें अपने दोस्तो से जो उम्मीदें वाबिस्तह थीं, उन्हें पूरा करने में उनके बचपन के कई दोस्त पहले से ही कोशां हैं। फीरोज भाई के परिवार में उनकी पत्नी, एक बेटी और एक बेटा है। इस संस्मरण के माध्यम से मैं फीरोज़ भाई को खि़राजे अक़ीदत पेश करते हुए उम्मीद करता हूं कि बाकी तमाम लोग भी बगैर धर्म, जाति, रंग, क्षेत्र और लिंग के भेदभाव के दोस्ती की मिसाल कायम करें। कोरोना का यह समय वास्तव में काफी कठिन और दुखदायी है। हम सबको एक दूसरे के लिए हर तरह से खड़े रहने की ज़रूरत है। हमारा-आपका एक दूसरे के लिए खड़ा रहना अपनों के खोने के दुःख और पीड़ा को कम करेगा। ज़ख़्मों पर मरहम लगेगा। आगे रास्ते बनेंगे। ज़िन्दगी फिर से पटरी पर सरपट दौड़ेगी।

- डा॰ वसीम अख़्तर
06-05-2021

Sunday, March 28, 2021

‘बच्चा’ होने की पहचान से वंचित बच्चों पर एक नज़र

 सन 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश की कुल आबादी में 14 वर्ष तक के बच्चों का अनुपात 29.5 प्रतिशत दर्ज है। भारत सरकार के वेबसाइट  censusindia.gov.in     पर उपलब्ध आधिकारिक आंकड़ों में बच्चों की आबादी को तीन उप वर्गों में विभाजित करके प्रस्तुत किया गया है। ये तीन उप वर्ग क्रमशः 0 से 4 वर्ष, 5 से 9 वर्ष और 10 से 14 वर्ष हैं। इन तीन आयु वर्गों में बच्चों की आबादी का अनुपात क्रमशः 9.7, 9.2 और 10.5 प्रतिशत है। यदि पहले वर्ग में शामिल 9.7 प्रतिशत बच्चों को छोड़कर शेष  बच्चों (19.7 प्रतिशत) की बात करें, तो ये बच्चे स्कूल जाने वाले बच्चे हैं। इन बच्चों में अधिकतर को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अन्तर्गत शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त है। लेकिन विषम सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बहुत से बच्चे आज भी स्कूल जाने से वंचित हैं। इनमें बहुत से बच्चे बाल श्रम का शिकार हैं, तो बहुत से बच्चों को अपने माता-पिता के साथ सहायक के रूप में घरेलू कामों में हाथ बंटाना पड़ता है। ऐसे बच्चे भी हैं, जिन्हें स्कूल के समय में कूड़ों के ढ़ेर में अपना भविष्य तलाशते देखा जाता है। पिछले वर्ष हमारा देश जब कोविड-19 संक्रमण के कारण लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति से गुजर रहा था, तो इस आपात परिस्थिति में भी ऐसे बच्चों को सड़कों पर घूम-घूम कर रोटी और कपड़ा का जुगाड़ करते देखा गया। ये वो बच्चे हैं जो कूड़ों की ढे़र से या गली-गली घूम कर कबाड़ जुटा कर अपने परिवारों की आजीविका चलाने में मदद करते हैं। गाजियाबाद का आसिफ भी ऐसे ही बच्चों में से एक है, जिसे हर रोज़ कबाड़ में अपना भविष्य तलाशना होता है। ऐसे बच्चों के साथ मुसीबतें भी साथ-साथ चलती हैं। इनका हुलिया देखकर आम तौर पर लोग इन्हें हकीर निगाह से देखते हैं। ऐसे बच्चों से दूरी बनाए रखना या पांच-दस रूपए की दया दिखाकर पीछा छुड़ाना लोगों की सोच है। फिर भी कुछ लोग ऐसे अवश्य हैं, जिन्हें इनकी फिक्र होती है और जिनकी संवेदनाएं इनके साथ होती हैं। वरना सरकार के लिए ऐसे बच्चे उस संख्या का हिस्सा होते हैं, जिनके कल्याण के लिए कई मंत्रालय काम करते हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, श्रम मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय, मानव संसाधन और विकास मंत्रालय एवं गृह मंत्रालय वगैरह का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इन मंत्रालयों के कामकाज में बच्चों का हित एक महत्वपूर्ण पक्ष होता है। अस्पताल और स्कूल से लेकर काम करने के स्थानों पर बच्चों के बारे में नियमों और सावधानियों की लम्बी फेहरिस्त है। लेकिन अफसोस कि बच्चों की एक बड़ी संख्या इन नियमों और कानूनों के सुरक्षा कवच से बाहर है। ऐसे बच्चे ढ़ाबों पर, बस स्टैण्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर, सड़कों के चैराहों पर आर्थिक क्रियाएं करते देखे जाते हैं। कूड़े के ढे़र में कबाड़ ढ़ूंढ़ना और कबाड़ बेचकर गुजारा करना ऐसी ही आर्थिक गतिविधियां हैं।

ऐसा नहीं है कि ऐसे बच्चों पर सरकार और समाज की दृष्टि नहीं पड़ती है। पड़ती है लेकिन छोटू और राजू से आंख मिलाना सरकार में शामिल हर किसी के वश की बात नहीं हैं। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो नवनीत सीकेरा और शमीम अख़्तर अंसारी जैसे कुछ एक अफसरों के बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि वो अपने आस-पास दिखने वाले ऐसे बच्चों से सहानुभूति और संवेदना रखते हैं। शायद यही कारण है कि शमीम अख़्तर अंसारी ने देवीपाटन मण्डल में उपश्रमायुक्त रहते हुए ऐसे बच्चों को गोद लेने की पहल शुरू की। उनके विचार से गोण्डा जिला के तत्कालीन जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान ने भी बच्चों को गोद लेकर नज़ीर स्थापित किया। उम्मीद की जानी चाहिए कि अधिकारियों द्वारा उठाए गए इस सराहनीय कदम का अनुकरण समाज में भी व्यापक स्तर पर किया जाएगा।

बहरहाल, बात करते हैं गाजियाबाद के आसिफ नाम के उस बच्चे की जिसकी उम्र 14 वर्ष है और जो हर बच्चे की तरह ही अपने माता-पिता के जिगर का टुकड़ा है। आसिफ का विडियो सोशल मीडिया पर खू़ब देखा और दिखाया जा रहा है। ट्वीटर पर समाज का एक वर्ग “साॅरी आसिफ” कह रहा है तो दूसरा “चोर आसिफ” कह रहा है। ज़ाहिर है, आसिफ के साथ बहुत से लोग दया और सहानुभूति जता रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ लोगों का एक समूह ऐसा भी है, जो उसे नफ़रतों पात्र समझ रहा है। सोशल मीडिया में आसिफ अपने छवि निर्माण की किस पीड़ा से गुज़र रहा है, इस बात की चिंता कम ही लोगों को है। कहना होगा कि सोशल मीडिया में लगातार छवि निर्माण की इस प्रक्रिया में कहीं न कहीं आसिफ एक बच्चा होने की पहचान से वंचित होता जा रहा है।

देश और प्रदेश में किन्हीं कारणों से कोई बच्चा इस तरह की परिस्थितियों में कैद हो जाए तो यह स्थिति सरकार और समाज दोनों ही संस्थाओं में मौजूद संवेदनशील व्यक्तियों के लिए दुःख की बात है। जिन लोगों की संवेदनाएं बाल जगत से जुड़ी नहीं हैं या जो लोग बच्चों के अधिकारों के बारे में औपचारिक या अनौपचारिक रूप से जागरूक और चेतित नहीं हैं, उनके लिए आसिफ जैसे बच्चे हिन्दू-मुस्लिम से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अक्सर ऐसा होता है कि बच्चों के पीछे घरों और गांव-मुहल्लों में विवाद और झगड़ा की स्थितियां पैदा होती हैं। लेकिन निष्पक्ष तौर पर बच्चों के विवाद का निष्कर्ष यही होता है कि बच्चे मासूम होते हैं न कि अपराधी। उनके व्यक्तित्व में कुंठा, हो सकती है, कोई बच्चा एकाकीपन का शिकार हो सकता है, किसी बच्चे के अंदर अपराध बोध हो सकता है। लेकिन कोई बच्चा सचेतन तौर पर अपराधी है, ऐसा होने की संभावना कम होती है। शायद यही कारण है कि हमारे यहां बाल सुधारगृहों की व्यवस्था है।

बच्चे देश का भविष्य होते हैं। उनके साथ सार्वजनिक स्थानों पर हंसी-मजाक भी होते हम देखते हैं। बच्चों के साथ हंसी-मज़ाक करके मनोरंजन करना बच्चों के भावनात्मक विकास की दृष्टि से उचित नहीं है। लेकिन हमारे समाज में हर जगह इस तरह की बातें होती रहती हैं। हमारा ध्यान इस ओर नहीं जाता है। आसिफ तो विशेष आवश्यकता वाले बच्चों में से एक है। यदि उसकी परिस्थितियां सामान्य होतीं तो शायद वो भी स्कूल के समय में किताबों का बस्ता लेकर किसी स्कूल के रास्ते में होता या अपने स्कूल की कक्षा में अपने दोस्तों के साथ पढ़ाई कर रहा होता। आसिफ की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने उसे स्कूल के अनुभव से वंचित कर रखा है। ये विचार का अलग विषय है कि सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का निर्माता और नियंता कौन है? बहरहाल, स्कूल से वंचित ऐसे बच्चों पर सरकार की पूरी नज़र है। ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने लिए शिक्षा विभाग पिछले कई दशकों से सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाएं चला रहा है। 2009 में सरकार 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा अधिनियम लागू कर सरकार ने ऐतिहासिक काम किया। लेकिन अफसोस कि इस कानून के लागू होने के एक दशक के बाद भी आसिफ जैसे बच्चों को कबाड़ का काम करना पड़ रहा है। यहां बहस आसिफ के हिन्दू या मुस्लिम होने, उसके मंदिर में प्रवेश करने या नहीं करने, उसके पानी पीने या नहीं पीने के बजाय उसके स्कूल जाने या नहीं जाने, उसके कबाड़ का काम करने या नहीं करने आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित होनी चाहिए। लेकिन हिंसा और नफ़रतों के सौदागरों के लिए बच्चों का आस्तित्व, उनका बचपन और उनकी शिक्षा कोई महत्व नहीं रखती। तभी तो आसिफ जैसे बच्चे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा एवं चाइल्ड एब्यूज़ एवं टैªफिकिंग का शिकार हो जाते हैं।

ज़ाहिर है आसिफ जैसे बच्चों का बचपन कबाड़ से जिन्दगी का जुगाड़ बनाने में गुजरता है। इन जुगाड़ी बच्चों के बचपन की कीमत पर ही सभ्य और श्रेष्ठ का भरम पालने वाले व्यक्तियों के घरों का कबाड़ उचित स्थान पर पहुंचता है। वरना सभ्य लोगों का घर-दरवाज़ा गंदगी के ढे़र से बजबजाता हुआ दिखाई देता। अच्छा होता कि ऐसे बच्चों को राज्य की निगरानी में आवसीय विद्यालय में रखा जाता। जहां उनके रहने और शिक्षा की उचित व्यवस्था होती।

समाज की भी ऐसे बच्चों के प्रति जिम्मेदारियां हैं। समाज को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे बच्चों को चिन्हित करने और उन्हें कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने में सरकार की मदद करें। ऐसे बच्चों के जीवन को हमें अपने दृष्टिकोण का हिस्सा बनाना होगा। तभी हम इनकी परिस्थितियां और इनकी पहचान को देख और समझ सकेंगे। वरना ऐसे बच्चे अपने मूल पहचान (बच्चा) से वंचित ही रहेंगे। मूल पहचान से वंचित होना सिर्फ उस बच्चे और उसके माता-पिता का व्यक्तिगत नुकसान नहीं है बल्कि समाज और देश का भी बड़ा नुकसान है। क्योंकि हर बच्चे में संभावनाओं के बीज तत्व होते हैं। एक सभ्य नागरिक बनने से लेकर देश और समाज के लिए कुछ रचनात्मक करने वाला व्यक्ति कभी न कभी बचपन के दौर से गुज़रता ज़रूर है। जरूरी है कि हम आसिफ जैसे बच्चों में एक सभ्य नागरिक की कल्पना को दृष्टिगत रखते हुए हम बच्चों के प्रति दोस्ताना व्यवहार बनाएं। यह सरकार और समाज दोनों के लिए आवश्यक है। क्योंकि ये दोनों ही संस्थाएं बच्चा, बूढ़ा और जवान के अधिकारों और कल्याण के प्रति संवैधानिक और नैतिक रूप से जवाबदेह हैं। यह कह देना भी काफी नहीं है कि सबकुछ सरकार करेगी। जागरूकता और चेतना के प्रसार में व्यक्ति और समाज का सहयोग ज़रूरी है।

इस संदर्भ में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि आसिफ के बच्चा होने की पहचान को सर्वोपरि मानते हुए उसके बाल अधिकारों को प्रमुखता दी गयी होती या उसके स्कूल में दाखिले की पहल की गयी होती तो न सिर्फ उसके ज़ख़्मों पर मरहम लगी होती बल्कि समाज के समक्ष एक आदर्श स्थापित हुआ होता। लेकिन लाइक और डिसलाइक की दुनिया के कीड़ों ने आसिफ नाम के बच्चे की धार्मिक पहचान को प्रचारित और प्रसारित किया और होने दिया। उसके जानबूझकर या अनजाने में मंदिर में प्रवेश करने को प्रमुखता से सनसनीखेज़ समाचार बनाया। मंदिर के महंत जी और उनसे वैचारिक समानता रखने वालों ने आसिफ के मंदिर प्रवेश और पानी पीने को जघन्य अपराध माना। इस कृत्य से आसिफ के एक बच्चा होने की पहचान जाती रही। घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि आसिफ के साथ हिंसा में लिप्त श्रृंगेरी और उसके साथी का कृत्य अपनी जगह उचित है। इस सवाल पर विचार आवश्यक है कि किसी भी बच्चे को मारने-पीटने यानि हिंसा का अधिकार क्या किसी को है? क्या संविधान और प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत हमें इस बात की इजाजत देता है? अच्छा होता कि आसिफ जैसे बच्चों को सिर्फ बच्चा वर्ग में रखकर कोई निर्णय किया जाता। आसिफ बच्चों की उस टोली से है, जिनकी ज़िन्दगी में न तो कलम है और न ही किताब। ऐसे बच्चों का जीवन बाल अधिकारों की वंचना की ढ़ेरों कहानियों से भरा पड़ा है। संभव है महंत जी की बातों में सच्चाई हो। उन्हें आसिफ में वयस्कों जैसी इच्छाओं और लालसाओं का आभाष हुआ हो। यदि महंत जी के पूर्वाग्रह को सच मान लिया जाए कि हमारे बच्चे बाल आयु में वयस्क जैसा व्यवहार कर रहे हैं तो ऐसा होने के पीछे जिम्मेदार कारकों की पड़ताल किसकी जिम्मेदारी है? आसिफ के साथ हिंसा में लिप्त दोनों नौजवानों को यदि नादान की श्रेणी रखा जाए तो क्या महंत जी को एक सभ्य नागरिक की जिम्मेदारियों से मुक्त किया जा सकता है। क्या ये उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि बच्चों के साथ बच्चों सा व्यवहार की भावना को बढ़ाने में अपेक्षित सहयोग करते न कि नफरती बयान जारी करते। क्या उन जैसे लोगों को “रूकिए, देखिए, जाइए” का बोध नहीं होना चाहिए? बच्चों के साथ हिंसा और हिंसा को तर्क संगत बताना क्या अपराध नहीं है? बहरहाल, पुलिस-प्रशासन की तारीफ की जानी चाहिए कि सरकारी अमले ने हिंसा में लिप्त दोनों लड़कों के खिलाफ समय रहते कार्यवाही की। लेकिन सरकार के साथ-साथ समाज को भी बाल अधिकारों के लिए सामने आने की ज़रूरत है।
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Saturday, July 25, 2020

लाॅकडाउन और बुनकर मज़दूरों का अर्थशास्त्र

नोटः
यह लेख उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर स्थित रसूलपुर गांव के पुराने अनुभवों और लाॅकडाउन के दौरान क्रमशः 12, 13 और 15 मई 2020 को बुनकर मजदूर मेराज अंसारी से हुई विशेष बातचीत पर आधारित है।
यह लेख एक पत्रिका में प्रकाशित होना था। लेकिन लाॅकडाउन के कारण अब तक पत्रिका प्रकाशित नहीं हो सका है। आज सुबह फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्वीटर पर बनारस के एक बुनकर की आत्महत्या की ख़बरें प्राप्त हुईं। बुनकरों के जीवन को नज़दीक से देखना पहले से ही मन को दुःखित करता रहा है। यह लेख बुनकरों की ज़िन्दगी और कारोबार से जुड़े अब तक  के अनुभवों  के लेखकीय अभिव्यक्ति का ही हिस्सा है। पुराने प्रकाशित लेख भी आप तक पहुंचाने की कोशिश रहेगी। क्योंकि पहले से ही अपने परंपरागत व्यवसाय को बचाने और आजीविका अर्जित करने की चुनौतियों से जूझ रहे बुनकरों के लिए मौजूदा स्थिति त्रासद और भयावह है। 


“गेंहू, चावल तो राशन से मिल रहा है। लेकिन साग-सब्जी खरीदने के लिए पैसा चाहिए। तबियत खराब हो जाए, तो इलाज के लिए पैसे चाहिए। गांव में सरकारी डाॅक्टर नहीं हैं। स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर गांव में आंगनवाड़ी कार्यकतृी हैं। उनका काम दो बूंद जिन्दगी तक सीमित है। लाॅकडाउन में यह काम भी बंद है। गांव वालों के लिए स्वास्थ्य केन्द्र का नाम बताना बड़ी चुनौती है। लाॅकडाउन में गांव वालों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं बिल्कुल ही नदारद है। गांव वालों का इलाज पहले ही प्राइवेट डाॅक्टरों के भरोसे रहा है। आपात परिस्थिति में अगर ये डाॅक्टर, गांव से हट जाएं या सुई-दवाई बंद कर दें, तो गांव वालों को प्राथमिक उपचार से वंचित होना पडे़गा।” ये कहना है भारत के एक गांव के बुनकर मज़दूर मेराज अंसारी का। मेराज अंसारी जवानी में ही वृद्ध दिखते हैं। हथकरघा का चलना ही इनके घर-परिवार का चलना है। हथकरघा का इतिहास कबीर से भी पुराना है। हथकरघा के ताने-बाने पर दुनिया के बेहतरीन कपड़े तैयार होते रहे हैं। पिछले लगभग तीन दशकों में बड़ी संख्या में पावरलूम ( बिजली चालित करघा ) ने हथकरघा का स्थान लिया है। लेकिन मेराज अंसारी जैसे बुनकर अभी भी हथकरघा ही चलाते हैं। इस काम में इनका पूरा परिवार (बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाएं सभी) सहायक की तरह शामिल है। हथकरघा पर गमछा और लुंगी आदि वस्त्र की बुनाई के बाद, इसे बाज़ार तक पहुंचाना होता है। हथकरघे पर तैयार सामान को बाज़ार पहुंचाना ज़ोखि़म भरा काम होता है। लेकिन रीब को दो पैसे कमाने के लिए सिर्फ मेहनत ही नहीं, बल्कि अपने खाने-पीने की वस्तुओं और यात्रा के खर्च में भी कटौती करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर घर-परिवार का पेट पलता है। इसलिए मेराज़ अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों को अपनी ज़िन्दगी दाव पर लगाने का जोखि़म उठाना पड़ता है।

क दिन की बात है। मैं अपने मित्र विजय राव के साथ मऊ की ओर जा रहा था। मेरी नज़र एक बाइक सवार पर पड़ती है। हम लोगों की रफ्तार उस बाइक सवार से कुछ अधिक होती है। हम लोगों और बाइक सवार के बीच का फासला लगातार कम होता जाता है। मैं बाइक सवार से रूकने का इशारा करता हूं। रूकने की वजह बाइक पर लदे हुए कपड़े और बाइक सवार की स्थिति होती है। बाइक सवार अपने चेहरे से हेलिमेट हटाता है। अरे! ये तो मेराज भाई हैं! मैं और विजय भाई हैरान होते हैं। हम हैरान होने के सिवा मेराज भाई के लिए कुछ कर नहीं पाते। हर मुलाक़ात की तरह, इस मुलाक़ात में भी कुछ औपचारिक बातों के साथ सिर्फ यही बता पाए, कि श्रम विभाग में मज़दूरों का पंजीकरण कहां और कैसे होता है। हथकरघा पर काम करने वाले बुनकर मज़दूरों का पंजीकरण कहां होता है। बुनकर मज़दूरों लिए सरकार की ओर से कौन सी योजनाएं चलाई जा रही हैं। प्रत्यक्ष को प्रमाण की ज़रूरत नहीं होती है। मेराज अंसारी की बाइक शायद इस लायक नहीं है, कि उससे एक जगह से दूसरी जगह जाया जा सके। मैं भूल नहीं पाता कि उन्होंने किस जतन से बाइक को रोका था। जब चलने को हुए तो संतुलन बनाने में कितनी मशक्क़त करनी पड़ी थी। यही नहीं बाइक को कुछ दूर ठेलना पड़ा था। तब मुझे इल्म हुआ कि बुनकरी सिर्फ ताने-बाने पर सूत और धागों को सुलझाने का नाम नहीं है। बल्कि बुनकर मज़दूरों को बाज़ार तक तैयार माल पहुंचाने में ज़िन्दगी दाव पर लगाने का नाम भी है। मेराज अंसारी जैसे बुनकरों की जीवन शैली को समझना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि गांव के अर्थतंत्र को संभालने में मेराज़ अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों का बड़ा योगदान है। इनकी मेहनत से ही पूंजी निर्माण होता है। जब इनका कुनबा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से दूर रहकर काम करता है, तो गांव में पूंजी का प्रवाह बनता है। लाॅकडाउन ने मेराज़ भाई जैसे बुनकर मज़दूरों को न सिर्फ घरों और गांवों में लाॅक कर दिया है, बल्कि इनके रोज़ी-रोटी पर भी तालाबंदी कर दी है। हालांकि मेराज भाई अपनी बाइक से सामान पहुंचाने का बड़ा ख़तरा उठाते रहे हैं। लेकिन लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति ने उससे भी बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। यह ख़तरा है आजीविका का। जिस पर संकट के बादल मंडला रहे हैं।

सूलपुर उन गांवों में है, जहां बुनकर मज़दूरों का ताना-बाना ही ज़िन्दगी की पहली और आखि़री उम्मीद है। लाॅकडाउन में हथकरघे बंद पड़े हैं। ऐसे में मेराज अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों को न तो बुनकरी का काम करना पड़ रहा है और न ही हथकरघा पर तैयार सामान बाज़ार तक पहुंचाने का काम करना पड़ रहा है। लेकिन मज़दूर काम न करे, तो ज़िन्दगी बोझ बन जाती है। वो ख़तरा न उठाए तो खाने को लाले पड़ जाते हैं। अभावों का जीवन जीने वाले मज़दूर लाॅकडान का सामना जिस साहस से कर रहे हैं, वो वाकई लाजवाब है। उधर दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े-बड़े शहरों से प्रवासी मज़दूर साइकिल और पैदल ही हज़ारों मील दूर अपने घरों के लिए रवाना होने का हौसला दिखा रहे हैं, तो इधर गांवों में बहुत से मज़दूर बिना अर्थ के ही पेट के अर्थशास्त्र के साथ तालमेल बनाने का नज़ीर पेश कर रहे हैं। मज़दूरों के धैर्य, संयम और अनुशासन की इससे बड़ी परीक्षा और क्या हो सकती है?

लाॅकडाउन की अवधि में आवश्यक सेवाओं को जारी रखने की अनुमति है। हम जानते हैं कि हर सेवा के तार किसी न किसी तरह पेट से जुड़े होते हैं। खाद्यान्न आपूर्ति, साग-सब्जी, गैस सप्लाई और किराने की दुकानों को खोलने की अनुमति इसी उद्देश्य से है। लेकिन मेराज अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों के लिए खाद्यान्न आपूर्ति को छोड़कर अन्य सभी सेवाओं का कोई मतलब नहीं है। मेराज अंसारी बताते हैं कि बाज़ार जाने के लिए पैसे चाहिएं। जो उनके पास नहीं हैं। उन जैसे मज़दूरों के लिए बैंक का खुलना-बंद होना भी बेमानी है। उनके पास कोई बैंक बैलेन्स नहीं है और न ही किसी योजना के तहत सरकार की ओर से कोई धनराशि उनके खाते में भेजी गयी है।

गांव का अर्थशास्त्र समझने के लिए गांव के लोगों से संवाद और उनकी जीवन शैली को समझना जरूरी है। मेराज अंसारी बताते हैं कि ‘जो लोग कपड़ा बुनकर आजीविका अर्जित करते हैं, या मज़दूरी करके दो जून की रोटी जुटाते हैं, उनके हाथ खाली हैं। गेंहू और चावल तो राशन से मिल रहा है। लेकिन साग-सब्जी खरीदने के लिए पैसा चाहिए। तबियत खराब हो जाए, तो इलाज के लिए पैसे चाहिए। रोज़मर्रा ज़रूरत की वस्तुओं के लिए किराना के दुकान पर जाना हो, तो बिना पैसे कैसे जाया जाय? यह बात समझ से परे है। कोई उधार भी दे, तो कैसे दे? उधार मांगा जाए तो, किससे और कब तक?’ मेराज अंसारी जैसे मज़दूरों की बातें सुनकर अंदाज़ा होता है कि गांव के किराना वाले का अर्थतंत्र भी पूंजी के बहाव में बह जाने के कगार पर पहुंच गया है। इन दिनों गांव के लोग महामारी की आपात परिस्थिति से उपजी इन समस्याओं से जूझ रहे हैं। मज़दूर काम पर नहीं जा रहे हैं। रोज़ कमाने वाले-खाने वाले मज़दूरों के सामने जीवन और मृत्यु का संकट मंडला रहा है। राशन का अनाज बिना तेल-नमक, आलू-प्याज, दाल और मिर्च-मसाले के कैसे खाया जाता है, यह मज़दूर ही जानता है। रसूलपुर गांव के लगभग ज़्यादातर परिवारों की आजीविका मज़दूरी पर ही निर्भर है। रोज-कमाने खाने की प्रक्रिया में शामिल मज़दूरों में कोई लूम चलाता है, कोई बुनाई करता है, कोई गारा-माटी करता है, तो कोई खेत मज़दूर है। इनमें हर परिवार की महिलाएं भी काम करती है। बच्चे भी अपने घर के काम में सहायक की भूमिका निभाते हैं। यदि पूरा परिवार एक इकाई की तरह काम न करे, तो खाए बिना मरने की नौबतें पैदा हो सकती हैं। यह समय लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति का है। मज़दूरों के हाथ-पैर बंध से गए हैं।

नरेगा मज़दूरों के लिए राहत की बात है। उनके लिए काम का आवंटन हो रहा है। उनके खाते में पैसे आना भी उनके लिए बड़ी राहत का सबब है। लेकिन बहुत से मज़दूर और उनका परिवार पात्र होते हुए भी मनरेगा जाब काॅर्ड या श्रमिक सन्निर्माण मजदूर की पहचान से वंचित है। इस वजह से ऐसे मज़दूर 1000 रूपए के मुख्यमंत्री राहत राशि से भी वंचित हैं। मेराज अंसारी की बात करें तो, ये बुनकर मज़दूर हैं। इसलिए मनरेगा और श्रमिक सन्निर्माण मज़दूर की पहचान से वंचित हैं। समाज सेवी संस्थाओं द्वारा मदद के तौर पर भोजन का पैकेट पहुंचाए जाने की खबरें टीवी स्क्रीन और अख़बारों का हिस्सा ज़रूर बन रही हैं। लेकिन रसूलपुर गांव की बात करें, तो अभी तक यह गांव ऐसी किसी मदद से अछूता है। गांव के लोग सरकार की ओर मुंह किए मदद के इंतेज़ार में हैं।

मेराज अंसारी इस बात से भी चिन्तित हैं कि मैं उनके गांव की कहानी सुधी जनों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं, तो इससे गांव के लोगों के समक्ष विशेषकर मेराज अंसारी को किसी तरह की समस्या का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। इस बात को दृष्टिगत रखते हुए यह बताना भी ज़रूरी है कि इस आलेख का उद्देश्य सामाजिक व सामुदायिक जीवन में बेहतरी के प्रयासों में सहभागी बनना है। न कि डर का मनोविज्ञान तैयार करना या किसी व्यक्ति या संस्था की कार्यशैली की बुराई करना है।



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नोटः यह लेख उत्तर प्रदेश के जिला ग़ाज़ीपुर स्थित रसूलपुर गांव के पुराने अनुभवों और लाॅकडाउन के दौरान क्रमशः 12, 13 और 15 मई 2020 को बुनकर मज़दूर मेराज अंसारी से हुई विशेष बातचीत पर आधारित है।

Thursday, May 7, 2020

किशोर बच्चों का परिवेश और माता-पिता एवं शिक्षक

"जब माता-पिता अपने बच्चों के परिवेश में शामिल नहीं होते तो ऐसे में बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्ति, समूह, वस्तु, और गतिविधियां बच्चों के मन में जगह बनाने लगती हैं। इस तरह बाहरी परिवेश बच्चों के आन्तरिक द्वन्द्व के समय में उनके सुख-दुःख का साथी बन जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में बच्चों का भावनात्मक विकास परिपक्वता प्राप्त करता है। परिपक्व भावनाओं की अभिव्यक्ति बच्चों के आचरण, विचार और व्यवहार में होती है। ये बात और है कि बाहर के परिवेश में शामिल अच्छाई और बुराई में किस एक से बच्चा अधिक प्रभावित होता है।"


म जानते हैं कि 10वीं और 12वीं कक्षा की पढ़ाई किसी छात्र/छात्रा के शैक्षिक जीवन में एक विभाजक दीवार की तरह होता है, जहां से बच्चों के भविष्य की दिशाएं तय होती हैं। शैक्षिक जीवन के इस मोड़ पर बच्चों में भविष्य में अपनी पढ़ाई और कॅरियर को लेकर स्पष्टता नहीं होती है। 10वीं और 12वीं कक्षा के बच्चों के लिए निर्णय करना कठिन होता है कि वो आगे की पढ़ाई किस विषय में, किस संस्थान से करें। एक तरफ इन कक्षाओं के बच्चों को किशोर अवस्था से वयस्क अवस्था में संक्रमण के द्वन्द से जूझना होता है। तो दूसरी तरफ इन्हें अपने परिवेश और परिस्थितियों से भी दो-चार होना पड़ता है। अवस्था संक्रमण में शरीर में हाॅरमोन संबधी बदलाव होते हैं। जिसकी स्पष्ट समझ आम तौर पर न तो बच्चों को होती है और न हीं माता-पिता को। ऐसे में बच्चों को भावनात्मक तौर पर माता-पिता और शिक्षकों की मदद नहीं मिल पाती है। जिसकी वजह से ज्यादातर बच्चे जीवन और कॅरियर के बारे में कुछ स्पष्ट निर्णय नहीं ले पाते हैं। सही समय पर सही निर्णय किसी बच्चे के आचार, विचार, व्यवहार, शैक्षिक, सामाजिक व संस्कारिक प्रगति का आधार होता है। इसे सुनिश्चित करने में काउंसलिंग की भूमिका एक महत्वपूर्ण टूल के समान है।

शारीरिक रूप-रंग और ढ़ांचे में बदलाव बच्चों में उत्तेजना का कारण होता है। उनके लिए अपने संवेगों को नियंत्रित रखना मुश्किल होता है। किशोरावस्था के संवेग साकारात्मक भी होते हैं और नाकारात्मक भी। नाकारात्मक संवेगों के प्रस्फुटन और प्रसार की संभावना अधिक होती है। क्योंकि ज़्यादातर बच्चों को पता ही नहीं होता है कि उनका शरीर और मन क्यों बदल रहा है। उनका संवेग उनके मन और शरीर से ही पैदा होता है और मन और शरीर पर हावी भी रहता है। इस उम्र के बच्चों को माता-पिता, शिक्षक और शुभचिन्तकों की बातें रास नहीं आती हैं। दूसरी ओर माता-पिता और शुभचिन्तक के पास बच्चे के अन्दर होने वाले बायोलाॅजिक बदलाओं की समझ नहीं होती है। जिस घर, स्कूल और समाज में बच्चों के आयु संबंधी शारीरिक और मानसिक बदलाव की समझ नहीं होती, वहां समय रहते बच्चों को अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण में उनके निकट परिवेश में मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं और संस्थाओं की मदद नहीं मिल पाती है। माता-पिता द्वारा इस उम्र के बच्चों की निजता का अतिक्रमण आम बात है। ऐसे में बच्चे के अन्दर भ्रम के बीज आरोपित होते हैं। यदि बच्चों की निजता के बारे में वैज्ञानिक समझ बनाई जाए और उनके मन के आवेगों को समझने की कोशिश की जाए, तो बच्चा शारीरिक और मानसिक विकास के क्रम में प्रकट होने वाले सांवेगिक द्वन्द से समय रहते उबर जाता है। वरना उसके संवेग उन्हें गलत रास्ते पर ले जाते हैं। बच्चा बुरी आदतों का शिकार हो सकता है। उसके मन में अच्छाई की कल्पना स्थापित होने की संभावना क्षीण पड़ जाती है। बच्चों की भावनाएं बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्तियों, सहपाठियों और वस्तुओं की आभाषी दुनिया की कल्पना के अनुरूप आकार लेती है।

म तौर पर माता-पिता और शिक्षक बच्चों से परिणामोन्मुख बातें करते हैं। ‘कहां जा रहे हो?’, ‘क्यों जा रहे हो?’, ‘कहां गए थे?’, ‘क्यों गए थे?’, ‘सुबह से अब तक क्या किया?’ आदि वो सवाल हैं, जो अक्सर माता-पिता अपने बच्चों से पूछते रहते हैं। स्कूल में शिक्षक पूछते हैं कि ‘गृह कार्य क्यों नही किया?’ घर और स्कूल दोनों ही जगह बच्चों के सामने एक बड़ा सा ‘क्यों?’ मुंह बाए खड़ा रहता है। इस ‘क्यों?’ में बच्चे के उत्तर की गुंजाइशें कम होती हैं। बड़ों में धैर्य नहीं होता है कि वो बच्चे से अपने ‘क्यों’ का जवाब भी सुनें। बच्चों में चुप रहने की आदत पड़ जाती है। बच्चों की खामोशी को माता-पिता और शिक्षक अपने-अपने तरीके से समझते हैं। बच्चे की खामोशी का कारण बच्चे से संवाद किए बिना ही ढू़ंढ़ लेते हैं, और किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं। माता-पिता अपशब्दों का प्रयोग करते हुए बच्चे को जिम्मेदारी और आत्मनिर्भरता का बोध कराते हैं। तो स्कूल में शिक्षक कक्षा का अनुशासन बनाने में बच्चे के साथ कठोर व्यवहार करते हैं। इस स्थिति से हर किशोर को होकर गुजरना पड़ता है। क्योंकि घर, स्कूल और समाज के परिवेश में बच्चों के बारे में ‘क्यों?’ की मान्यता सामाजिक रूप से सुदृढ़ है। बच्चों को हमेशा बड़ों के ‘क्यों?’ के लिए तैयार रहना होता है।

ज़ाहिर है 15 से 18 वर्ष तक के बच्चों को न सिर्फ शरीर और मन के भावों से द्वन्द की स्थिति में रहना पड़ता है। बल्कि उनका परिवेश और परिस्थितियां उनके प्रति नितान्त आलोचनात्मक, व्यंगात्मक और परिहासात्मक होता है। बच्चों के परिवेश निकट या आन्तरिक और दूर या बाहरी दो भागों में वर्गीकृत करके समझा जा सकता है। निकट के परिवेश में माता-पिता व अभिभावक के अलावा उनके अध्यापक होते हैं। जिनसे बच्चे का प्रत्यक्ष संपर्क और संवाद होता है। ये बच्चे के वास्तविक शुभचिन्तक होतेे हैं। दूसरी ओर वह परिवेश होता है, जो दूर का होता है। जिसमें बच्चों के दोस्त हो सकते हैं। गांव-मुहल्ले के लोग हो सकते हैं। मनोरंजन के तरह-तरह के माध्यम जैसे, भ्रमण, सिनेमा, गेम, आदि हो सकते हैं। दूर का परिवेश अप्रत्यक्ष होता है। इसमें अनिश्चितता होती है। जिस तरह निकट के परिवेश में अच्छे-बुरे दोनों तरह की अभिव्यक्तियों की शामिल होती है, उसी तरह दूर के परिवेश में भी अच्छाई और बुराई की दोनों ही संभावनाएं शामिल होती हैं। निकट परिवेश में माता-पिता जैविक संबंधों का दायित्व निभाता है। बच्चे के हर अच्छे-बुरे आचरण और अभिव्यक्ति के लिए प्राथमिक तौर पर जिम्मेदार होता है। जबकि दूर परिवेश में शामिल व्यक्ति, वस्तु और वातावरण निर्माण के विभिन्न कारण प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार नहीं माने जाते हैं। लेकिन बच्चों के जीवन को प्रायः माता-पिता से अधिक प्रभावित करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जैसा परिवेश होगा, बच्चे का शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास वैसा ही होता है।

स्पष्ट है कि बच्चे के लिए उसका निकट और दूर दोनों ही परिवेश महत्वपूर्ण है। इनमें से किसी एक की कमी या किसी एक में असंतुलन बच्चे के विकास में नाकारात्मक परिणाम का कारण बन सकता है। यदि किसी बच्चे के जीवन में उसके माता-पिता की प्रत्यक्ष मौजूदगी नहीं है। तो ऐसे बच्चे अपने निकट परिवेश से दूर होते जाते हैं। उनके जीवन में दूर का परिवेश ही उन्हें अपना असल परिवेश लगने लगता है। वो दूर के परिवेश के आकर्षण में फंसते जाते हैं। जब माता-पिता अपने बच्चों के परिवेश में शामिल नहीं होते तो ऐसे में बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्ति, समूह, वस्तु, और गतिविधियां बच्चों के मन में जगह बनाने लगती हैं। इस तरह बाहरी परिवेश बच्चों के आन्तरिक द्वन्द्व के समय में उनके सुख-दुःख का साथी बन जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में बच्चों का भावनात्मक विकास परिपक्वता प्राप्त करता है। परिपक्व भावनाओं की अभिव्यक्ति बच्चों के आचरण, विचार और व्यवहार में होती है। ये बात और है कि बाहर के परिवेश में शामिल अच्छाई और बुराई में किस एक से बच्चा अधिक प्रभावित होता है।

र बच्चा अपने परिवार, समाज और देश के लिए महत्वपूर्ण होता है। इसलिए आवश्यक है कि बच्चे मन और भाव के द्वन्द्व से सफलतापूर्वक बाहर निकलें। उनकी मदद करना हर माता-पिता, शिक्षक और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे व्यक्तियों का दायित्व है। इसी दायित्व के निर्वहन में माता-पिता और शिक्षक दोनों की काउंसलिंग ज़रूरी है। ताकि वो किशोरावस्था के बच्चों का उचित मार्गदर्शन कर सकें। काउंसलिंग से न सिर्फ माता-पिता की समझ बनती और बढ़ती है बल्कि बच्चा स्वयं भी परिपक्व संवेग और संवेगों की अभिव्यक्ति में परिपक्वता आदि बातों को समझने लगता है। जिन माता-पिता और शिक्षकों को मार्गदर्शन का लाभ मिलता है, उसका लाभ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बच्चों तक भी पहुंचता है। काउंसलिंग प्राप्त बच्चों की शैक्षिक प्रगति अधिक संतोष जनक होती है।

से माता-पिता की संख्या कम है, जिन्हें आधुनिक शिक्षा की बुनियादी विशेषताओं का ज्ञान हो। ऐसे माता-पिता अपनी निजी व्यस्तताओं के चलते बच्चे की रूचियां और क्षमताओं से अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसे माता-पिता के बच्चे भीड़ में अकेले रह जाते हैं। ऐस बच्चों के लिए यह निर्णय करना कठिन होता है कि उन्हें 10वीं और 12वीं के बाद किस विषय में पढ़ाई जारी रखनी है। ऐसे बच्चे और उनके माता-पिता कॅरियर को लेकर निश्चित नहीं होते हैं। बच्चों और माता-पिता के सामने यह स्थिति बादलों के धुंध की तरह होती है। जिसे काउंसलिंग की प्रक्रिया से साफ किया जा सकता है।

पिछले कुछ बरसों से मुझे खु़द बतौर एक काउंसलर इस बात का अनुभव है कि काउंसलिंग से बच्चों को सही दिशा में सोचने और पढ़ने के लिए प्रेरणा प्राप्त होती है। काउंसलिंग के अभाव में बहुत से बच्चे 10वीं और 12वीं के बाद सही दिशा में पढ़ाई जारी रखने के अवसर से वंचित रह जाते हैं। यह वंचना अक्सर अदृश्य होती है। जिन बच्चों को माता-पिता, शिक्षक या किसी प्रोफेशनल काउंसलर से सहायता नहीं मिलती है। उन बच्चों की प्रतिभा का क्षरण होता है। उनका समय बरबाद होता है। और तो और उनकी पढ़ाई पर खर्च होने वाला धन भी निरर्थक सिद्ध होता है। चूंकि प्रतिभा रूचि, तत्परता और क्षमता पर निर्भर होती है। इसलिए सही समय पर सही दिशा का चुनाव न होना रूचि, तत्परता और क्षमता के प्रदर्शन को प्रभावित करता है। जीवन की गाड़ी तो चलती रहती है, लेकिन रफ्तार वो नहीं बन पाती, जो सही टैªक और दिशा में होने पर बनती है। इसे हवा के खि़लाफ का उदाहरण कहा जा सकता है। प्रतिकूल दिशा में प्रयास सफल होने के बाद भी बच्चा अपने कॅरियर से संतुष्ट नहीं रहता है। दूसरा यह कि बच्चा परिवार, समाज और देश में जो योगदान अपनी रूचि, तत्परता और क्षमता वाली दिशा में जाकर कर सकता है, उस योगदान से परिवार, समाज और देश हमेशा-हमेशा के लिए वंचित रह जाता है।

काउंसलिंग एक ज़रूरी टूल है, जो बच्चों और उनके माता-पिता एवं शिक्षकों के लिए ज़रूरी है। इसे व्यापक प्रसार देने की ज़रूरत है। मौजूदा दौर के बच्चे पिछली पीढ़ी की तुलना में कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण परिवेश में सांस ले रहे हैं। माता-पिता और शिक्षक को एक मित्र काउंसलर की भूमिका में रहने की आवश्यकता है न कि “क्यों?” का पहाड़ लिए हुए एक सख़्त अभिभावक या कठोर अनुशासन प्रिय शिक्षक की भूमिका में रहने की ज़रूरत है। यही भूमिका किशोर बच्चों के आन्तरिक और वाह्य द्वन्द्व के समाधान का रास्ता निकालती है।
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Tuesday, April 28, 2020

ऑनलाइन शिक्षाः बच्चों के लिए कितना लाभप्रद


इस समय दुनिया के सैकड़ों देश कोविड-19 के संक्रमण जूझ रहे हैं। बहुत से देशों में लाॅकडाउन की आपात परिस्थितियां हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। स्कूल-काॅलेज, दुकानें और सामान्य यातायात सेवाएं बंद हैं। कोविड-19 के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए उत्तर प्रदेश में 13 मार्च से ही कक्षा 8 तक के स्कूल बंद चल रहे हैं। जिसका सीधा प्रभाव बच्चों की परीक्षा, मूल्यांकन, परिणाम और आगे की पढ़ाई पर पड़ा है। बच्चे स्कूल की औपचारिक शैक्षिक क्रियाओं से दूर हैं। उनकी पढ़ाई पीछे छूट रही है। महामारी की विभीषिका ऐसी है कि घर में रहना, शारीरिक दूरी बनाकर रखना, सार्वजनिक स्थानों पर भीड़ न इकट्ठा होना, फेस माॅस्क का प्रयोग करना, बार-बार हाथ धुलते रहना और नाक, मुंह एवं चेहरे पर बार-बार हाथ न ले जाना आदि ही इस संक्रमण से बचाव के उपाय हैं। भारत में भी संक्रमित मरीज़ों की संख्या लगातार बढ़ रही है। संक्रमण का ख़तरा कब तक बना रहेगा, कहना मुश्किल है। 14 अप्रैल को लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति अगले 3 मई तक के लिए बढ़ा दी गयी है। डाॅक्टर, नर्स, पुलिस-प्रशासन और समाज सेवी कोविड-19 से जनता को बचाने की कोशिशों में लगे हुए हैं। इनकी सक्रियता काबिले तारीफ है। शिक्षा से जुड़े लोग भी सक्रिय हैं। इन्हें इस बात की चिन्ता है कि लाॅकडाउन के दौरान बच्चों को कैसे पढ़ाया जाए। सिलेबस कैसे कवर किया जाए। स्कूल एजूकेशन में आॅनलाइन क्लासेज की योजना की चर्चाएं अख़बारों और सोशल मीडिया में हर रोज आ रही हैं। सोशल मीडिया में एजूकेशनल एप्स के प्रचार के विज्ञापन भी मौजूद हैं। मोबाइल फोन के माध्यम से बच्चों के अभिभावकों को आॅनलाइन शिक्षण के बारे में जागरूक बनाया जा रहा है। फलस्वरूप बड़े शहरों से लेकर छोटे नगरों और गांवों तक के लोग आॅनलाइन कक्षाओं के बारे में कुछ न कुछ जानकारी या जिज्ञासा रख रहे हैं। शिक्षा में नुकसान की भरपाई के लिए पहले तो बड़े-बड़े अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने आॅनलाइन कक्षाएं आरंभ हुईं। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने भी परिषदीय विद्यालयों में आॅनलाइन शिक्षा का आदेश जारी किया। यह समझना ज़रूरी है कि ऑनलाइन क्लासेज का माॅड्यूल क्या है। क्या यह बच्चों के हित में है। इससे कितने स्कूली छात्रों को लाभ पहुंचेगा। बच्चों के शैक्षिक नुकसान की भरपाई में यह प्रयोग किस हद तक सफल है। यह आलेख महामारी के कारण लाॅकडाउन के साथ-साथ बाढ़, लू, सूखा, अत्यधिक ठण्ड, ओलावृष्टि, भूकम्प आदि आपदा की परिस्थितियों में भी ऑनलाइन एजूकेशन की युक्ति को समझने की कोशिश है।

क्या है ऑनलाइन शिक्षा

कोविड-19 के कारण लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति बच्चों ही नहीं बल्कि माता-पिता/अभिभावक और शिक्षकों के लिए भी कठिन समय है। समय चाहे कितना ही कठिन क्यों न हो स्वास्थ्य का ठीक रहना ज़रूरी है। कहा जाता है कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिष्क का विकास होता है। यही वजह है कि इस समय कोविड-19 के संक्रमण से सुरक्षा शिक्षा से भी अधिक महत्व का कार्य है। फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी और गैर-सरकारी तौर पर बच्चों को घर पर ही पढ़ाने के लिए पहल किया जा रहा है। स्कूली शिक्षा में यह एक प्रयोग पहली बार व्यापक स्तर पर देखा जा रहा है। इस प्रयोग में बच्चे घर पर रह कर ही अपने स्कूल और शिक्षकों से जुड़ सकते हैं। विभिन्न विषयों के अभ्यास कर सकते हैं। उनके अभ्यास कार्य की जांच हो सकती है। इस तरह बच्चों का कोर्स घर पर रहते हुए पूरा हो सकता है। कोर्स कवर कराने का यही तरीका आॅनलाइन कहा जा रहा है।

ऑनलाइन शिक्षा में बच्चों को एक निश्चित समय के लिए एप्स के माध्यम से एक नेटवर्क से जोड़ दिया जाता है। बच्चे अपने स्कूल की ड्रेस पहनकर अपने-अपने घरों में निश्चित स्थान पर बैठते हैं। उनके सामने कक्षा का ब्लैकबोर्ड या व्ह्ाइटबोर्ड के बजाए एक अदद एन्ड्राएड मोबाइल होता है। मोबाइल में उनके शिक्षक की तस्वीर और आवाज़ सुनाई देती है। बच्चा अपने शिक्षक को कक्षा की बजाय मोबाइल में देखता-सुनता है। अपनी जिज्ञासाएं व्यक्त करता है। इसे विडियो क्लासेज कहा जा सकता है। विडियो क्लास के संचालन के लिए मोबाइल में एप्स का होना ज़रूरी है। यह एप कोई साफ्टवेयर डेवलपर व्यक्ति या कम्पनी बनाती और बेचती है। समाचारों में सुनने में आ रहा है कि एप निर्माताओं ने एक विडियो क्लास में छात्रों की अधिकतम संख्या 40 निर्धारित किया है। एप्स के प्रयोग का फायदा बड़े-बड़े शहरों, बड़े-बड़े स्कूलों और बड़े-बड़े घरों के बच्चों तक पहुंच रहा है। यह प्रयोग बच्चों के जीवन में एक रोचक अध्याय भी जोड़ रहा है। बालमन में नएपन का समावेश हो रहा है। बच्चे पढ़ाई के नए तर्ज से फूले नहीं समा रहे हैं। ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम के तौर पर व्हाट्सएप और यूट्यूब का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है।

ज़ाहिर है एप्स के माध्यम से बच्चे घर पर रहते हुए एक निश्चित समय के लिए ऑनलाइन विडियो क्लास से जुड़ जाते हैं। अभ्यास के लिए व्हाट्सएप के माध्यम से अभ्यास कार्य की साफ्ट काॅपी बच्चों के पास भेज दी जाती है। बच्चा मोबाइल या कम्प्यूटर में देख कर अभ्यास कार्य अपनी नोटबुक में करता है। अभ्यास करने के बाद उसका फोटो खींच कर संबंधित अध्यापक, व्हाट्सएप ग्रुप या विडियो क्लास वाले ग्रुप में शेयर करता है। इस तरह उसके अभ्यास कार्य की जांच की जाती है। फिर अगले दिन अगली कक्षा, अगला अभ्यास.... इत्यादि। इस तरह आॅनलाइन पढ़ाई चल रही है। माता-पिता और अभिभावक के लिए शिक्षा का ऑनलाइन तरीका काफी संतोषप्रद है। राजस्थान की राजधानी जयपुर में रहने वाले एक मित्र बताते हैं कि ऑनलाइन शिक्षा आरंभ होने के बाद उन्हें बड़ी राहत मिली है। वरना बच्चों का अधिकतम समय टीवी दखने या मोबाइल गेम खेलने में व्यतीत हो रहा था। अब वो स्टडी और अभ्यास कार्य भी कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की भाभी जी भी खुश हैं कि उनका बच्चा विडियो क्लास में उच्च अनुशासन दिखा रहा है। लखनऊ के ही एक मित्र बताते हैं कि उनकी चार साल की नन्ही बच्ची मोबाइल स्क्रीन पर ही अपनी मिस के साथ प्ले वे लर्निंग कर रही है।

जाहिर है ऑनलाइन शिक्षा बच्चों को घर पर स्टडी और अभ्यास से जोड़ने में सफल है। यह तकनीक आधारित है। एन्ड्राएड मोबाइल फोन, कम्प्यूटर या टैबलेट के साथ इंटरनेट डाटा पैक इसकी मूलभूत ज़रूरतें हैं। यह तकनीक कम्प्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति का हिस्सा है। वैसे तो बच्चों के लिए इंटरनेट पर बहुत से लर्निंग एप्स मौजूद हैं। लेकिन एप्स का औपचारिक इस्तेमाल बाल शिक्षा में व्यापक स्तर पर पहली बार देखने में आ रहा है। तकनीक आधारित एप्स के इस्तेमाल ने जीवन के दूसरे क्षेत्रों की ही तरह शिक्षा में भी समय और मानव श्रम की बचत को संभव बनाया है। इसे परंपरागत और डिजिटल कक्षा के उदाहरण से समझा जा सकता है। कक्षा में शिक्षण कार्य समय-सारणी के अनुसार होता है। कक्षा और छात्र के बीच उचित अनुपात का ध्यान रखना होता है। आम तौर पर स्कूल की कक्षा में एक समय में एक अध्यापक लगभग 30 से 40 बच्चों को पढ़ाता है। बच्चों की संख्या इससे अधिक होने पर माइक का इस्तेमाल किया जाता है या सेक्शन अलग कर दिया जाता है। विभिन्न विषयों के टाॅपिक्स के बारे में अवधारणात्मक समझ विकसित करने में प्रोजेक्टर आदि का इस्तेमाल भी होता है। माइक सिस्टम और कम्प्यूटर के प्रयोग ने इन बंधनों को तोड़ दिया है। एक समय में कक्षा में 30-40 के बजाए 60 बच्चे भी शिक्षक की आवाज़ सुन सकते हैं। दृश्य माध्यम जैसे, प्रोजेक्टर स्क्रीन या टीवी स्क्रीन से पिछली पंक्ति में बैठे छात्रों की ब्लैक बोर्ड पर देखकर न पढ़ पाने की समस्या का समाधान हो जाता है। कोचिंग क्लासेज में यह सिस्टम काफी कामयाब है। ऐसा अक्सर होता है कि कोई बच्चा बीमारी या किसी कारणवश स्कूल में उपस्थित होकर कक्षा में शिक्षक का लेक्चर नहीं सुन पाता है। बाद में उसे किसी बच्चे की काॅपी लेकर छुटा हुआ काम पूरा करना पड़ता है। ऑनलाइन स्टडी मैटेरियल से ऐसे बच्चों की मदद होना एक बेहतर विकल्प है। इस विकल्प को अपनाने वाले बच्चे स्कूल के समय और कक्षा के अनुशासन से बंधे नहीं होते हैं। अपनी सुविधानुसार एन्ड्राएड मोबाइल फोन या कम्प्यूटर में इण्टरनेट के माध्यम से पढ़ते हैं। इस तरह की पढ़ाई एक तरफा संवाद पर आधारित है, जहां बच्चा जब चाहे मोबाइल या कम्प्यूटर की मदद से पढ़ता है। विडियो क्लासेज में कहने को दो तरफा संवाद होती है, जैसा कि स्कूल की कक्षा में होता है। लेकिन इस संवाद की प्रकृति भी एक तरफा होती है। क्योंकि विडियो क्लासेज में बाल विकास के विविध पक्षों का ध्यान रखना संभव नहीं है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि तकनीक आधारित ऑनलाइन कक्षाओं को सफलता पूर्वक संपन्न कराने के लिए शिक्षक और छात्रों, दोनों के पास एन्ड्राएड मोबाइल फोन का होना, दोनों का मोबाइल के संचालन में दक्ष होना, मोबाइल फोन में इण्टरनेट डाटा पैक का होना, नेटवर्क की निरन्तरता का होना, घर के अनौपचारिक माहौल में कक्षा की तरह का शान्तिपूर्ण स्थान और अनुशासन का होना आदि ज़रूरी शर्त हैं। इस बारे में कई शिक्षकों से बात हुई। उनके अनुसार 10 से 11 प्रतिशत बच्चों का ही व्हाट्सएप गु्रप बन पाया है। ऐसे में अधिकतर बच्चों का शिक्षा की प्रक्रिया से वंचित होना निश्चित है।

शिक्षा, समाज और ऑनलाइन तकनीक

शिक्षा को समाज से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। भारतीय समाज के वर्गीय विभाजन को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। स्कूल-काॅलेज भी भारतीय समाज के वर्गीय विभाजन का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने का अभियान और समान शिक्षा का पहल आदि का उद्देश्य समाज के वर्गीय चरित्र की समस्या को दूर करना है। ताकि सभी बच्चों को शिक्षा का समान अवसर प्राप्त हो सके। 2009 में कक्षा 1 से 8 तक की शिक्षा को कानूनी तौर पर बच्चों का मौलिक अधिकार बनाया गया। लेकिन मौजूदा शिक्षण व्यवस्था वास्तविकता से कोसों दूर है। एक ही देश में अलग-अलग वर्गों के बच्चे अलग-अलग तरह के स्कूलों में पढ़ते हैं। परिषदीय विद्यालयों और काॅनवेन्ट एवं पब्लिक स्कूलों का अन्तर इसी सच्चाई का प्रमाण है। स्कूल भवन और प्रशिक्षित शिक्षकों आदि के रूप में शैक्षिक संसाधन उपलब्ध होने के बाद भी सरकार बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र में रोल माॅडल नहीं बन पायी है। बल्कि प्राइवेट स्कूलों को अपना रोल माॅडल बना रही है। जबकि केन्द्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय भी सरकार का माॅडल हो सकते हैं। यदि तकनीक की बात करें तो आॅनलाइन शिक्षा हेतु आवश्यक सुविधाएं जैसे एन्ड्राएड मोबाइल और इंटरनेट की उपलब्धता समाज के सभी वर्गों तक नहीं है। 

ज़ाहिर है, आपात परिस्थिति में वैकल्पिक शिक्षा के तौर पर ऑनलाइन विडियो कक्षाएं, व्हाट्सअप और यूट्यूब ट्यूटोरियल्स समाज के कमजोर तबके के बच्चों को शिक्षा की मूल प्रक्रिया से अलग-थलग करने वाला प्रयोग साबित होगा। बाल शिक्षा में आॅनलाइन की मौजूदा पहल में 40 बच्चों को एप् के माध्यम से पढ़ाने के चक्कर में हर गांव-कस्बे के न जाने कितने 40 बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाएंगे। क्योंकि आॅनलाइन शिक्षा हेतु मूलभूत संसाधनों और सुविधाओं जैसे, एन्ड्राएड मोबाइल फोन और इंटरनेट आदि तक इनकी पहुंच नहीं हैं। यदि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की बात करें तो यहां ज्यादातर वो बच्चे पढ़ते हैं, जिनके परिवार सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से कमजोर और पिछडे़ हैं। इनमें बहुत से परिवार ऐसे हैं, जिनके काम में बच्चे हाथ न बटाएं तो घर चलाना मुश्किल हो जाता है। ऐसी स्थिति आने वाले समय में समाज के अंदर शैक्षिक खाई को और बढ़ाएगी?

ऑनलाइन शिक्षा विभेदकारी है

ऑनलाइन शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पीछे सबसे महत्वपूण कारण यह बताया जा रहा है कि बच्चों की पढ़ाई पीछे नहीं होनी चाहिए। एप निर्माता स्कूल ऐट होम का संदेश देते हुए बता रहे हैं कि “कोविड-19 को अपने बच्चे की पढ़ाई में बाधा न बनने दें। जल्दी कीजिए् नया बैच दिनांक ...................... से शुरू हो रहा है।” एक लर्निंग एप एक बड़े सेलेबे्रटी का फोटो लगाकर यह दावा करता है कि “विडियो लर्निंग से बच्चों में बेहतर अवधारणात्मक समझ विकसित करने के साथ ही उन्हें बेहतर शिक्षार्थी बनने में मदद करता है।” सोशल मीडिया पर ऑनलाइन शिक्षण के एप्स की बाढ़ आ गयी है। एप का हर विज्ञापन कुछ न कुछ कह रहा है। एक एप का विज्ञापन ऐसा भी है “तो फिर सोचना क्या - जुड़िए हमारे स्मार्ट स्कूल एजूकेशन इनिशिएटिव के साथ, और अपना खु़द का बिजनेस बेहद कम इनवेस्टमेन्ट के साथ शुरू करें।” महानिदेशक, स्कूल शिक्षा, उत्तर प्रदेश द्वारा जारी संदेश में व्हाट्सएप गु्रप के माध्यम से ई-पाठशाला और दूरदर्शन के प्रोग्राम से अधिक से अधिक बच्चों को लाभ पहुंचाने की बात कही गयी है। ऐसा माहौल बन गया है कि ऑनलाइन का विकल्प शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से व्यक्तियों और संस्थाओं को उचित लग रहा है। लेकिन ऑनलाइन शिक्षा का फार्मूला कई मायनों में विभेदकारी है। यह बच्चों और समाज के व्यापक हित में नहीं है। आॅनलाइन का आइडिया आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के बच्चों को शिक्षा के अवसर से वंचित करती है। उन परिवारों का उदाहरण लिया जा सकता है, जिनके पास एन्ड्राएड मोबाइल नहीं है या जिनके पास एन्ड्रायड मोबाइल में डेटा पैक का रिचार्ज कराने की क्षमता नहीं है। गरीबी की रेखाएं बहुत लम्बी हैं। इस लम्बी रेखा के दायरे में रहने वाले बहुत से घरों में बिजली नहीं है। रोज कमाने-खाने की दिक्कते हैं। रहने की समस्याएं हैं। पलायन और बेकारी की समस्या है। इन समस्याओं का समाधान किए बिना आम जनता के बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षण व्यवस्था एक बोझ बन जाएगा। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें, तो यहां परिषदीय विद्यालयों में आॅनलाइन शिक्षण हेतु व्हाट्सएप् गु्रप बनाए गए हैं। लेकिन शायद ही कोई गु्रप ऐसा है, जिसमें 15 या 20 प्रतिशत से अधिक बच्चे शामिल हुए हों। कारण स्पषट है। ज़्यादातर बच्चों के घर में एन्ड्राएड मोबाइल फोन नहीं है। ज़्यादातर अभिभावक अशिक्षित हैं। उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो अपने बच्चों की शिक्षा के लिए महंगे एन्ड्राएड फोन और इंटरनेट डाटा पैक का खर्च उठा सकें। यह भी सत्य है कि परिषदीय स्कूलों के अधिकतर बच्चे अपने माता-पिता के साथ अपने घर के कामों में जैसे, खेती-किसानी, मजदूरी और दुकानदारी आदि में हाथ बंटाते हैं। इन बच्चों को स्कूल में बनाए रखने के लिए ही मिड डे मिल, डेªस और वजीफा आदि योजनाएं क्रियान्वयन में हैं। अक्सर समाचारों में यह भी सुनने में आता है कि परिषदीय विद्यालयों के छात्र आम तौर पर अपनी आयु और कक्षा के अनुरूप लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं। ऐसे में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि व्हाट्सएप गु्रप के माध्यम से पढ़ने की लालसा में परिषदीय स्कूलों के बच्चे बेहतर लर्नर बनने के बजाय मोबाइल का आदी बन जाएं। यदि ऐसा होता है, तो गरीबी की धूप-छांव में जीवन गुजारने वाले परिवारों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। दूसरी ओर यह भी मुमकिन है गरीबी और अभाव में जीवन यापन करने वाले परिवारों के बच्चों का एक बड़ा हिस्सा अपने परिवार के कमजोर आर्थिक स्थिति को धता-बताते हुए अपने माता-पिता पर एन्ड्राएड मोबाइल खरीदने का दबाव बनाए।

फिर भी यदि सरकार और ऑनलाइन शिक्षा के विशेषज्ञों को बाल शिक्षा में डिजिटल, वर्चअल, विडियो, व्हाट्एप, यूट्यूब आदि का प्रयोग तर्क संगत लगता है। तो अच्छा होता कि हर बच्चे के घर में सरकार एन्ड्राएड फोन या कम्प्यूटर उपलब्ध कराती। जैसा कि उत्तर प्रदेश में पिछली सरकार ने कम्प्यूटर और लैपटाॅप योजना के अन्तर्गत लाखों उपकरण वितरित किए थे। पिछली सरकार ने ये उपकरण हमेशा-हमेशा के लिए दे दिया था। मौजूदा सरकार चाहे तो लाॅडाउन की आपात परिस्थिति समाप्त होने के बाद इन उपकरणों को वापस अपने पास जमा करवा ले। चुनाव में इस्तेमाल होने वाले ईवीएम मशीन की तरह ही ये तकनीकी संसाधन भारत सरकार या प्रदेश सरकारों की संपत्ति होती। जब भी अत्यधिक ठण्ड, ओला वृष्टि, बारिश, आंधी, तूफान और बाढ़ आदि के कारण आपात परिस्थितियां पैदा होतीं, सरकार इन तकनीकी यंत्रों को बच्चों के लिए निःशुल्क उपलब्ध कराती। अपने स्कूल काॅलेज का परिचय पत्र दिखा कर बच्चे इन यंत्रों को लेते और इस्तेमाल करने के बाद वापस कर देते। सरकार को ऑनलाइन शिक्षण जारी रहने तक नेट पैक रिचार्ज कराने की जिम्मेदारी खुद लेनी चाहिए। यदि रेलवे स्टेशनों पर निःशुल्क वाई-फाई सुविधा दी जा सकती है, तो शिक्षा के लिए क्यों नहीं।

स्वयम् प्रभा और दूरदर्शन का उदाहरण

ऑनलाइन शिक्षण का एक विकल्प कम्युनिटी रेडियो या ज्ञानवाणी आदि सैटेलाइट टेलीकाॅस्ट भी हो सकता है। जिस तरह से हम निश्चित समय के लिए टीवी पर समाचार या कोई मनोरंजन चैनल पर कार्यक्रम देखते हैं, ठीक उसी तरह कक्षावार अलग-अलग विषयों पर व्याख्यान का प्रसारण कराया जा सकता है। जैसा कि उत्तर प्रदेश के स्कूल शिक्षा के महानिदेशक ने ई-पाठशाला के अन्तर्गत दूरदर्शन पर कार्यक्रमों के प्रसारण की बात कही है। इससे शिक्षा की मूल प्रक्रिया में अधिक से अधिक बच्चों को शामिल होने का अवसर मिल सकेगा। मानव श्रम और धन की बड़े पैमाने पर बचत भी होगी। इसकी तुलना इग्नू के आॅनलाइन कार्यक्रमों से की जा सकती है। लेकिन यह युक्ति बाल शिक्षा के लिए व्यावहारिक नहीं है। क्योंकि बच्चों की बुनियादी ज़रूरतें सिर्फ कुर्सी या बेन्च पर बैठ कर एक टक अपने शिक्षक और ब्लैकबोर्ड को निहारना नहीं है। बल्कि स्कूल के औपचारिक परिवेश में शिक्षक और अपने कक्षा के सहपाठियों के साथ विभिन्न क्रियाओं में लिप्त रहते हुए सीखना है।

यदि कक्षा 9 और इसके बाद की कक्षाओं के ऑनलाइन शिक्षा की बात करें तो सैटेलाइट चैनलों के माध्यम से औपचारिक शिक्षा की कमी को एक हद तक पूरा किया जा सकता है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा डिजिटल एजूकेशन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आॅनलाइन शिक्षा के लिए स्वयम् प्रभा की शुरूआत की है। 28 मार्च 2020 की एनडीटीवी की रिपोर्टर अनिशा कुमारी की रिपोर्ट के अनुसार 23 से 28 मार्च के बीच आॅनलाइन शिक्षा से जुड़ने वाले व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार स्वयम् के जनवरी 2020 सेमेस्टर के लिए 25 लाख छात्र पहले से ही 571 अलग-अलग कोर्स में पंजीकृत हैं। लाॅकडाउन के पहले सप्ताह में यानि 23 से 28 मार्च के दौरान लगभग 50,000 लोगों ने स्वयम् तक पहुंच बनाने की कोशिश की है। एनडीटीवी के ही पत्रकार शिहाबुद्दीन कुंजू एस. की 20 अप्रैल की रिपोर्ट के अनुसार स्वयम् आॅनलाइन एजूकेशन प्लेटफाॅर्म पर 1,902 कोर्स उपलब्ध हैं। रिपोर्ट में मानव संसाधन मंत्रालय के हवाले से बताया गया है, कि इस समय 26 लाख छात्र 574 कोर्सों में ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। 24 अप्रैल को मित्र शैलेन्द्र ने बताया कि स्वयम् प्रभा चैनल पर वो दोपहर के समय का प्रोग्राम देखते हैं। विशेषज्ञों द्वारा अलग-अलग विषयों पर व्याख्यान बहुत लाभकारी है। यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली यह कि टीवी का कवरेज मोबाइल से अधिक है। जिन परिवारों में मोबाइल वहन करने की क्षमता नहीं है, उन परिवारों के बच्चों के लिए स्वयम् प्रभा के टीवी कार्यक्रमों का प्रसारण लाभ पहुंचा सकती है। इस संदर्भ में लाॅक डाउन के एक सप्ताह में स्वयम् प्रभा चैनल के दर्शकों में 50,000 की वृद्धी बड़ी बात है। लेकिन यह सवाल फिर भी अनुत्तरित रह जाता है कि क्या दर्शकों की संख्या में वृद्धि होना शिक्षा की प्रक्रिया के सुचारू रूप से चलने का प्रमाण है? क्या 50,000 की यह संख्या ही पूरा भारत है? दूसरी बात यह कि स्वयम् प्रभा की ऑनलाइन टीचिंग्स और स्टडी मैटेरियल्स कक्षा 9 और इससे ऊपर की कक्षाओं के छात्रों के लिए हैं। ऑनलाइन एजूकेशन का प्रयोग इन दिनों पूर्व-प्राथमिक, प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों के साथ भी किया जा रहा है। पूर्व-प्राथमिक, प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों के लिए स्वयम् प्रभा कोई विकल्प नहीं है। यदि होता भी तो 4 घण्टे की अवधि में इन कक्षाओं के बच्चों के विभिन्न विषयों की पढ़ाई कैसे संभव है। यदि इसका कोई रास्ता निकाल भी लिया जाए तो टी.वी. स्क्रीन पर बच्चों के व्यक्तित्व विकास की विभिन्न गतिविधियों को संपन्न कराना असंभव है। बाल विकास बेतार संचार के माध्यम से असंभव है। इसके लिए स्कूल या स्कूल जैसा भौतिक वातावरण और शिक्षक एवं मार्गदर्शक के रूप में व्यक्तियों की मौजूदगी ज़रूरी है। दो तरफा संवाद का होना आवश्यक है। जो बेहतर तरीके से कक्षा में ही संभव होता है, न कि मोबाइल फोन या टीवी पर। ज़ाहिर है, संख्या और परिमाण दोनों ही दृष्टि से आॅनलाइन एजूकेशन की संकल्पना छात्रों के व्यापक हित में नहीं है। यदि इसके बावजूद भी आॅनलाइन शिक्षा का प्रसार होता है तो शिक्षा की गुणवत्ता गिरने और शिक्षा के सर्टिफिकेशन तक सीमित रहने की संभावना बढ़ेगी।

तकनीक का अधिभार

बहुत से अभिभावक ऐसे हैं, जिनके लिए समय से महीने की फीस जमा करना बड़ी समस्या है। ऐसे अभिभावकों पर तकनीक का अधिभार अवश्य बढ़ेगा। बाल मन की गहराइयों में उतरने पर अंदाज़ा होता है कि यह कितना भयावह है। मौजूदा दौर में किशोरों को मोबाइल स्क्रीन और डेटा पैक की दुनिया अपने में समाहित कर लेना चाहती है। शायद ही कोई माता-पिता ऐसा हो जिसका 15-18 वर्ष का बच्चे की मांग एक अदद एन्ड्राएड मोबाइल फोन की नहीं है। माता-पिता और बच्चों का संबंध बाॅयोलाजिकल है। इन संबंधों को पोषित करने के क्रम में बच्चे की हर मांग को पूरा करना अपना परम दायित्व समझते हैं। इसी का फायदा बाज़ार उठाता है। जबकि बाज़ार और बच्चे का संबंध भौतिक है। बाज़ार के क्रिया-कलाप में बाॅयोलाॅजिकल के अंदर की मानवीय संवेदना शून्य है। बाज़ार कोविड-19 की आपात परिस्थिति में भी हमारे घरों की चैखटों पर अपनी दस्तकें लगातार दे रहा है। टीवी और मोबाइल में जो विज्ञापन और संदेश प्रसारित किए जा रहे हैं, उन संदेशों में बच्चों की शिक्षा के प्रति चिन्तित होने की संवेदना की अभिव्यक्ति है। लेकिन इसकी शर्त है कि आप उनके रिचार्ज और टाॅपअप कराते रहें। डाटा पैक डलवाते रहे। उनके स्कीम और आॅफर वाले मेसेज दुःख के पलों में बहुत क्रूर प्रतीत होते हैं।

सोशल डिस्टैन्सिंग में बच्चे घरों में अकेले हैं। पहले से ही एकान्तवास के मनोरंजन के प्रसार में शामिल बाज़ार निर्दयी होकर घरों में बैठे हमारे बच्चों को निगल जाना चाहता है। इसलिए कि उसका आॅनलाइन मुनाफा रूके नहीं। शिक्षा को लेकर हम सभी पहले से कहीं अधिक जागरूक हैं। क्या बाज़ार की प्रक्रिया में शामिल तमाम लोग इसी समाज के नहीं हैं? क्या उनके बच्चे नहीं हैं? क्या उनका दायित्व नहीं है कि शिक्षा को कारोबारी गतिविधियों से अलग रखने में अपना योगदान दें? क्या संकट की इस घड़ी में बाज़ार की कोई साकारात्मक सामाजिक भूमिका नहीं बनती? कम से कम परिस्थितियां सामान्य होने तक स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में मुनाफा आधारित गतिविधियों को भी लाॅकडाउन के दायरे में लाने के लिए सरकार को गाइडलाइन्स जारी करना चाहिए। यह कदम उन अभिभावकों को राहत पहुंचाने वाला होगा, जो कठिन परिस्थितियों में अपने बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य दैनिक आवश्यकताएं पूरी करते है।

अनगिनत लर्निंग एप्स और स्टडी मैटीरियल के इस्तेमाल का खतरा

ऑनलाइन शिक्षा में माध्यम के तौर पर इंटरनेट के कई ख़तरे हैं। इनको नज़र अंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। यह सच है कि इंटरनेट ने बहुत से काम आसान किए हैं। हम जानते हैं कि कोई बीस-पचीस बरस पहले एक चिट्ठी को एक शहर से दूसरे शहर तक पहुंचने में 5 से 15 या इससे भी अधिक दिनों तक का समय लगता था। अब चिट्ठियों के लिए कागज की ज़रूरत नहीं होती है। कम्प्यूटर या मोबाइल का एक बटन दबाते ही छोटी-बड़ी हर चिट्ठी दुनिया के किसी भी हिस्से में पहुंच जाती है। स्कूल-काॅलेज की कक्षाओं में शिक्षक का व्याख्यान समाप्त होने के बाद उसे फिर से सुना नहीं जा सकता है। एक स्कूल का छात्र एक ही शिक्षक का व्याख्यान सुन सकता है। लेकिन इंटरनेट हमें ऑनलाइन के जिस संसार में हमें ले जाती है, वहां एक ही विषय पर अनगिनत व्याख्यान और ट्यूटोरियल्स उपलब्ध होते हैं। यदि एक ट्यूटोरियल से विषय नहीं समझ में आता है, दूसरा, तीसरा ट्यूटोरियल्स देखने-सुनने के अपार अवसर होते हैं। बच्चे को जब तक विषय नहीं समझ में आए, वो तब तक ट्यूटोरियल्स देखने के लिए आज़ाद होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में समय का एक बड़ा हिस्सा कब गुज़र जाता है, इस बात का पता ही नहीं चलता। ऑनलाइन की दुनिया की कोई सीमा नहीं है। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि बच्चे का कितना समय मोबाइल से पढ़ाई में व्यतीत होगा। ऐसा भी मुमकिन है कि बच्चे का अधिकतर समय उसकी रूचि के किसी एक ही विषय सामग्री को समझने में व्यतीत हो जाए। कहा जा सकता है कि अनगिनत स्टडी मैटेरियल्स को पढ़ना बच्चों के उपयोगी समय के बरबाद होने का कारण बन सकता है। बच्चे मोबाइल का आदी बन सकते हैं। क्योंकि मोबाइल की दुनिया बाल विकास की विविधता के अनुरूप नहीं है। हर मोबाइल स्क्रीन पर आकर्षित करने वाली बहुत से विज्ञापन और एप्स मौजूद हैं, जो बच्चों को भावनात्मक और संवेगात्मक रूप से अत्यधिक सक्रिय और उत्तेजित करते हैं। बच्चों में व्यवहारगत समस्याएं उत्पन्न होती हैं। बच्चा अपने माता-पिता और वास्तविक परिवेश से दूर होने लगता है और मोबाइल की आभाषी दुनिया को ही वास्तविक समझने लगता है। वो एकान्तवास के मनोरंजन की ओर आकर्षित होता है। न समय से खाना-पीना और न समय से सोना-जागना। ऐसी परिस्थिति माता-पिता और अभिभावको के लिए चुनौती बन जाती है, कि वो अपने ही बच्चे को अपना मूल्य और संस्कार कैसे सिखाएं। बच्चा पूरी तरह बाजार और पूंजी आधारित मूल्यों का वाहक बन जाता है। जिसका खमियाज़ा माता-पिता, अभिभावक और समाज को भुगतना पड़ता है।

ऑनलाइन शिक्षा का बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव

ऑनलाइन पढ़ाई का तरीका बच्चों के लिए फायदेमंद प्रतीत हो रहा है। लेकिन मोबाइल का इस्तेमाल बच्चों के लिए कितना लाभप्रद है, इस विषय पर सरकार या किसी मेडिकल काउंसिल का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। हालांकि ऑनलाइन कक्षाएं 2 घण्टे से 4 घण्टे तक चलाई जा रही हैं। लेकिन व्हाट्सएप पर विडियो मेसेजेज को देखने का कोई समय निश्चित नहीं है। हम जानते हैं कि हर बच्चा एक दूसरे से अलग होता है, जिसे वैयक्तिक भिन्नता कहते हैं। प्रत्येक बच्चे की सीखने के प्रति तत्परता, क्षमता और कार्य कुशलता भिन्न होती है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि किस बच्चे को विषय सामग्री के तौर पर उपलब्ध यूट्यूब विडियो कितनी बार देखना होगा। इसमें अनुमानित समय कितना लगेगा। यह विचारणीय है कि एक तरफ जहां डाॅक्टर बच्चों को मोबाइल का इस्तेमाल कम से कम करने की सलाह दे रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ बच्चों को आॅनलाइन पढ़ाई के नाम पर 4 से 8 घण्टे या इससे भी अधिक समय तक मोबाइल के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया जा रहा है। यह बच्चों की आंख और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।

यह बात हम सभी जानते हैं कि आंखे अनमोल हैं। मोबाइल, टीवी या कम्प्यूटर स्क्रीन पर अधिक समय तक देखना आँखों को नुकसान पहुंचा सकता है। डाॅक्टरों का सुझाव है कि बच्चे देर तक टीवी न देखें। बच्चे देर तक मोबाइल न देखें। लेकिन ‘पढ़ाई छूट न जाए’ के नाम पर जब 4-5 बरस के बच्चों से लेकर 14-15 साल के बच्चों के समक्ष ऑनलाइन का विकल्प अपनाने को प्राथमिक बना दिया जाए, तो विज्ञान के शिक्षक द्वारा आंखों की संरचना पर दिए गए व्याख्यान बेमानी हो जाते हैं। आंखों की सुरक्षा पर डाॅक्टरों की सलाह बेकाम मालूम होने लगती है। स्थितियां ऐसी बन पड़ी हैं, कि विज्ञान के जो शिक्षक कल तक आंखों को प्रकाश की तेज चमक और मोबाइल व टीवी स्क्रीन से बचाने के उपाय बता रहे थे, वही शिक्षक विडियो क्लास में पढ़ाते नज़र आ रहे हैं।
मोबाइल और टीवी स्क्रीन मन और शरीर को थका देते हैं। बच्चों में इन उपकरणों का आदी बनने की प्रवृत्ति देखी गयी है। ऐसे में दो घण्टे की औपचारिक विडियो क्लास के लिए फाॅलोअप के तौर पर 2 से 4 घण्टे और मोबाइल के इस्तेमाल बाद के समय में बच्चे के बैक पेन (स्पाइनल कार्ड, कमर और पीठ दर्द) और स्पाॅन्डिलाटिस (गर्दन की हड्डियों में विकार) का कारण भी बन सकता है। स्वास्थ्य विकार के इन संभावनाओं को नज़र अंदाज करके आॅनलाइन पढ़ाई का तरीका उचित नहीं है। ऐसा करना बच्चों के दीर्घकालिक स्वास्थ्य हित में नहीं है। बच्चे देश का भविष्य हैं। यदि भविष्य का शरीर, मन और आंख से बीमार होगा, तो देश प्रगति और विकास की नई मंजिलें कैसे तय करेगा?

कुल मिला कर कहा जा सकता है कि किसी आपात परिस्थिति में बाल शिक्षा में वैकल्पिक शिक्षा के तौर पर आॅनलाइन शिक्षा बेहतर विकल्प नहीं है। बच्चों के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, सामाजिक विकास में तकनीक का सीमित प्रयोग ही उचित है। आपात परिस्थिति में स्कूल बंद होने के कारण कोर्स पूरा कराने या शैक्षिक पिछड़ेपन की भरपाई के नाम पर डिजिटल तकनीक का बेलगाम इस्तेमाल बच्चों के साथ ज़्यादती है। इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि बच्चों के स्वास्थ्य सुरक्षा की कवायद के तौर पर तकनीक के बोझ तले उन्हें दबा न दिया जाए। यह किसी खेल के फाउल की तरह है। जो खेल के नियमों के खि़लाफ़ है। दर असल बच्चा बायोलाॅजिकल है। किसी भी बच्चे के साथ मनुष्य निर्मित तकनीक (या कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग) का प्रयोग करना तब तक ठीक नहीं है, जब तक कि वह बच्चा शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक और सामाजिक रूप से परिपक्व न हो जाए। इस बात का विशेष ध्यान रखना माता-पिता और शिक्षकों से कहीं अधिक नीति निर्माताओं का है। जिन्हें यह तय करने का दायित्व है, कि बच्चों की शिक्षा कैसे होनी चाहिए।

हो सकता है कि आने वाले समय में ऑनलाइन शिक्षा का मौजूदा प्रयोग व्यापक स्तर पर अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया का स्थाई अंग बन जाए या बना दिया जाए। फिर भी कहना होगा कि बाल शिक्षा में यह प्रयोग कदापि उचित नहीं है। कोई भी समाज तकनीक के इस बोझ को उठाने की स्थिति में नहीं है। इस तरह का प्रयोग बाल शिक्षा के सिद्धान्तों के अनुरूप नहीं है। यह बच्चों के स्वास्थ्य हित में नहीं है। यह बड़ी संख्या में बच्चों को शिक्षा की मूल प्रक्रिया में शामिल होने से रोकता है। अखिल भारतीय शैक्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार निजीकरण के दो दशकों के बाद भी स्कूल जाने वाले बच्चों की निर्भरता सरकारी स्कूलों पर ही अधिक है। ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा का फार्मूला नितान्त वैयक्तिक, निजी, एक खास तबके के बच्चों के लिए उपयोगी प्रतीत होता है। इस प्रक्रिया से बाल जगत का बड़ा हिस्सा अछूता रहेगा। आने वाले समय में शैक्षिक खाई और बढ़ेगी। सरकार को ऐसी युक्ति पर विचार करना चाहिए, जिससे शिक्षा की मूल प्रक्रिया में अधिक से अधिक बच्चों को शामिल किया जा सके।

Monday, April 13, 2020

मुश्किल वक्त के इन साथियों को भी सलाम

ये वो लोग हैं, जो दूसरों के लिए अपने घरों से बाहर रहते हैं। हमारे-आपके बीच आते-जाते रहते हैं। लेकिन हमेशा से अदृश्य रहे हैं। ये लोग मज़दूर हैं, मजबूर हैं और शिक्षा से दूर हैं। ये वो लोग हैं जो अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने की एवज में फोटो नहीं खिंचाते। इन लोगों के लिए भी आभार, धन्यवाद और सैल्यूट तो बनता ही है।

इन दिनों पूरा देश कोविड-19 के संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए लाॅकडाउन की आपात स्थिति में है। संक्रमण लगातार बढ़ रहा है। हज़ारों लोग कोरैंटीन और आइसोलेसन में हैं। बहुत से लोग ऐसे हैं, जो संक्रमित नहीं हैं। लेकिन ज़रा सी चूक इन्हें संक्रमण का शिकार बना सकती है। इनमें गरीब, मज़दूर, किसान हैं। बड़ी तादाद उन सुविधा प्रदाताओं की है, जिनका ठेला हर रोज़ हमारे घरों की दहलीज पर आ खड़ा होता है। कभी ‘सब्जी वाला, कभी साग वाला, कभी आलू, प्याज और टमाटर वाला बनकर। इनमें फल विक्रेता होते हैं। जो हमारे-आप के लिए कभी अमरूद ले आते हैं, कभी तो केला, सेव और सन्तरा। हम इन्हें चाट वाले, चाय वाले, चाउमिन वाले, चनाचूर वाले, फुल्की वाले, भुजा वाले और सोन पापड़ी वाले के रूप में भी देखते हैं। ये वही लोग हैं जो अपनी सेवाएं हम तक हर रोज़ पहुंचाते हैं। इन्हें पैदल, गली-गली घूमना पड़ता है। ताकि दो जून की रोटी का जुगाड़ हो सके। सामान्य दिनों में चिलचिलाती धूप में खीरा, तरबूज़ और कुल्फी की ठण्डक का एहसास इन्हीं लोगों की बदौलत कर पाते हैं। गर्मी के दिनों में जब लू से बचने के लिए लोग अपने-अपने घरों में पंखे, कूलर और एसी कमरों में होते हैं, तो ये लोग सड़कांे और गलियों की ख़ाक छानते रहते हैं। बीमार पड़ने पर दस-बीस रूपए की स्वास्थ्य सुविधाओं से काम चलाना पड़ता है। दो-चार दिन काम बंद हो जाए तो इनके सामने भूखे रहने की भी परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं। इस समय पूरा देश लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति में है। रोज़ कमाने-खाने वाले इन अस्थाई ठेले वालों के लिए यह परिस्थिति किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। सोशल और फिजिकल दूरी बनाए रखना, बार-बार हाथ धुलना, फेस मास्क का इस्तेमाल इनके लिए सहज काम नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि संक्रमण का डर इन्हें नहीं है। लेकिन रोज कमाने-खाने की दिक्कतें ऐसी हैं कि यह डर कोई मायने नहीं रखता। हालात ऐसे हैं कि इन्हें घर-घर सब्जी, दूध, गैस सिलेण्डर और अन्य आवश्यक वस्तुएं पहुंचाने का बीड़ा उठाना पड़ रहा है। ठेले वालों और मज़दूरों के अर्थोपार्जन की प्रक्रिया रूक गयी है। चूंकि सब्जी और फल ज़रूरी वस्तुओं में शुमार है। इसका फायदा हर ग़रीब उठाना चाहता है। ताकि वो अपना परिवार चला सके। यही वजह है कि कोई चाट-पकौड़े वाला सब्जी बेच रहा है, तो किसी मज़दूर फल बेच जीवन चलाना पड़ रहा है। निस्संदेह इनकी आजीविका की आवश्यकताएं हैं। लेकिन इनके सेवा को कम करके नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि ये वो लोग हैं जो महामारी की आपात परिस्थिति में साहस करके हम तक आलू, प्याज, लहसुन, अदरक, धनिया, पोदिना, नींबू और साग आदि पहुंचा रहे हैं। ताकि हमारे मुंह का ज़ायका न बिगड़ने पाए और हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बीमारी से लड़ने लायक बनी रहे। अनिल मेरे बचपन का दोस्त है। उसका छोटा भाई पप्पू चाट-पकौड़ा बेचकर घर चलाता है। इन दिनों जब हम और आप अपने-अपने घरों में हैं। पप्पू चेहरे पर मुस्कान लिए सब्जियां बेच रहा है। क्योंकि पप्पू के लिए आजीविका का संकट कोरोना से भी बड़ा है। फरीद मियां उन सब्जी विक्रेताओं में हैं, जिन्होंने हवा के खिलाफ जाकर सब्जी बेचने का बीड़ा उठाया है। इस काम में वो अकेले नहीं हैं। बच्चे को भी काम में हाथ बंटाना पड़ता है।

उन महिलाओं और बच्चियों का जिक्र भी ज़रूरी है, जो आपात परिस्थिति में घण्टे-दो घण्टे के लिए ही सही, सड़क किनारे सब्जी बेचते देखी जा रही हैं। फैयाज़ भाई बढ़ई का काम करते हैं। इन दिनों काम बंद है। एक पत्नी और तीन बच्चों का परिवार बड़ा नहीं है। लेकिन संकट के बादलों से पार पाना इनके लिए भी बड़ी चुनौती है। फैयाज़ भाई इस चुनौती का सामना साग-सब्जी जैसी आवश्यक वस्तुओं को घर-घर पहुंचाकर कर रहे हैं। अशरफ भाई पंचर बनाते हैं, लेकिन दुकान बंद है और इन दिनों ठेले पर सब्ज़ियां बेच जिन्दगी गुजर-बसर कर रहे हैं। राम नरायन कुशवाहा अहिरौली से पैदल ठेले पर सब्जी लेकर मुहम्मदाबाद आते हैं। कोविड-19 से डरे हुए हैं। लाॅकडाउन में पुलिसिया डण्डा भी खाया। लेकिन पेट का सवाल इनके लिए बहुत बड़ा सवाल है। मुंह पर देसी मास्क बांधे मुस्कराते हुए कहते हैं “कि पेटवा क का करल जा।”

निज़ामुद्दीन पहले पावरलूम कारीगर थे। भीवण्डी रहते थे। जिस घर की जिम्मेदारी निभाने के लिए भीवण्डी गए थे, उसी घर की जिम्मेदारियों ने जल्द ही उन्हें घर बुला लिया। उन्हें भिवण्डी छोड़े लगभग सात बरस हो चुके हैं। मेहनत मज़दूरी करके दिहाड़ी से अपना परिवार चलाते हैं। निर्माण कार्य रूका हुआ है। अपने परिवार का पेट पालने के लिए आजकल निज़ामुद्ीन मुहल्ले के लोगों और बाज़ार के बीच कड़ी के तौर पर काम कर रहे हैं। वो हर सुबह दो घण्टे तक अपने घर से बाहर रहकर मुहल्ले के लोगों का सामान-लाने, ले जाने का काम कर रहे हैं। बदले में जो कुछ मिलता है, उससे गुजारा कर रहे हैं। निज़ामुद्दीन सन्निर्माण श्रमिक में हैं लेकिन श्रम विभाग में उनका पंजीयन नहीं है। पंजीयन के लिए दो वर्ष पहले मैंने खु़द उन्हें प्रेरित किया था। उनका फार्म भी भरवा दिया था। लेकिन शिक्षा और जागरूकता न होने के कारण निज़ामुद्दीन जैसे मज़दूर अपनी पहचान से वंचित हैं। इसलिए ऐसे मज़दूर सरकार की ओर से दी जाने वाली 1000 रूपए की सहायता राशि से भी वंचित हैं। कोविड-19 के कारण लाॅकडाउन की इस परिस्थिति में गैस सिलेण्डर पहुंचाने वाले मेहनतकश मज़दूरों की सेवाएं भी काबि़ले तारीफ़ है। यदि ये सिलेण्डर घर-घर न पहुंचाएं तो बहुत से घरों में समय पर चूल्हा जलना मुश्किल हो जाएगा। सुबह-सवेरे दूध वाले दूध न दें तो दूध पीते बच्चों को भूखा रहना पड़ेगा।

दर असल ये वो साहसी लोग हैं, जो अपने परिवार की आजीविका के लिए सड़कों पर हैं। खासकर तब जब बाकी लोग संक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए अपने-अपने घरों में हैं। रोज कमाने-खाने वाले ये लोग पहले से शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। लेकिन आज की कठिन परिस्थिति में इनकी सेवाएं किसी डाॅक्टर, नर्स, पुलिस-प्रशासन और सामाजिक कार्यकर्ता से कम नहीं है। ये वो लोग हैं, जो दूसरों के लिए अपने घरों से बाहर रहते हैं। हमारे-आपके बीच आते-जाते रहते हैं। लेकिन हमेशा से अदृश्य रहे हैं। ये लोग मज़दूर हैं, मजबूर हैं और शिक्षा से दूर हैं। ये वो लोग हैं जो अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने की एवज में फोटो नहीं खिंचाते। इन लोगों के लिए भी आभार, धन्यवाद और सैल्यूट तो बनता ही है।

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