Friday, January 7, 2011

किस मिट्टी के बने हैं ये...! क्या इन्हें वाकई ठण्ड नहीं लगती...!

"कड़ाके की ठण्ड ने ली 40 लोगों की जान", "ठण्ड से अब तक 137 लोगों की मौत", "शीतलहर से जन-जीवन अस्त-व्यस्त! स्कूल-कॉलेज बंद", "घने कोहरे के कारण रेलगाड़ियां विलम्ब", "कोहरे के कारण हुई दुर्घटना" वग़ैरह खबरें अक्सर ठण्ड के दिनों में अखबारों और टेलीविज़न की सुर्खियां बनती हैं। जन-जन तक पहुँच रखने वाली मीडिया की भूमिका शहरों-नगरों के फुटपाथों पर ठण्ड से ठिठुरती ज़िन्दगियों की तस्वीरों को दिखाने-छापने और हमारी संवेदना को जगाने की होती जरूर है लेकिन इस तरह की खबरें महज समाचार का हिस्सा भर रहती हैं। आए दिन हमारा सामना ऐसे लोगों से होता है जिनके कांपते जिस्म भारत के कल्याणकारी राज्य के संवैधानिक वादों को झुठलाते हैं।
ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं जो कभी हिन्दुस्तान के किसी छोटे से गाँव में, या फिर किसी छोटे से कस्बे से लेकर राजधानी तक के फुटपाथों-चैराहों पर ठण्ड से सिकुड़ते-फैलते दिखायी दे जाते हैं। क़ाबिले ज़िक्र है कि ऐसे लोग सिर्फ ठण्ड से परेशान नहीं होते बल्कि गरमी की तपिश और बारिश के छींटे भी समान रूप से इनके जिस्म व जान पर कुँहासे की तरह तुषारापात करते हैं। गरमी में ये लोग पसीना पोंछ-पोंछ कर आजीविका के लिए संघर्ष करते हैं। बारिश के दिनों में किसी शेड या छप्पर के नीचे पूरा मौसम गुजार देते हैं। ठण्ड में इनकी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं होता। वही पुराने कपड़े और आशियाने। कभी मज़दूर के रूप में तो कभी फुटपाथों पर बुक सेलर के रूप में और कभी गली-चैराहों पर करतब दिखाने वाले मदारियों के रूप में बडे़-बूढ़ों के साथ स्कूली उम्र के बच्चों को ठण्ड से अधिक दो वक्त की रोटी की चिंता होती है।
ऐसे लोगों, खासकर बच्चों को देखकर बार-बार हैरानी होती है कि ये किस मिट़टी के बने हैं! क्या इन्हें ठण्ड वाक़ई नहीं लगती! यदि ऐसा है भी तो कैसे! इन्हें तो मिड डे मिल की खिचड़ी जैसा भी भोज्य पदार्थ नहीं मिलता। मिले भी कैसे! ये जो स्कूल नहीं जाते और दूसरी तरफ संसाधनों में बंदरबांट की भयावह स्थिति। फिर इनके शारीरिक ऊर्जा का स्रोत क्या है ? कैसे लड़ता रहता है इनका शरीर विभिन्न मौसमों के प्राकृतिक झंझावतों से ? प्रायः लोग यह समझते हैं कि ऐसे बच्चे अभावग्रस्त परिस्थितियों के अनुरूप ख़ुद को आसानी से ढ़ाल लेते हैं जिसके कारण हर मौसम की मार हंसते-हंसते झेल लेते हैं।
बहरहाल तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि ऐसे बच्चे जो मौसम के बदलाव के कारण बेवक्त ही मौत की नींद से जाते हैं, उनका न तो किसी स्वास्थ केन्द्र के माध्यम से अभिलेखीय रिकार्ड प्राप्त हो पाता है और न ही ऐसी मौतें मीडिया की सुर्खियां बन पाती हैं। वजह साफ है, दरअसल गुमनाम ज़िन्दगी जीने वाले ऐसे बच्चों और उनके बेबस व लाचार माता-पिता प्राथमिक या सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र तक पहुँचने से पहले ही न्यूमोनिया या किसी अन्य जानलेवा बीमारी के कारण दम तोड़ देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाएं पहले से बेहतर हुई हैं। लेकिन सुधार अभी भी अपेक्षित है। शायद यही कारण है कि बी॰पी॰एल॰ कार्ड से वंचित निर्धन परिवार निःशुल्क स्वास्थ्य सेवा से भी वंचित हैं। ऐसे परिवारों में असमय होने वाली मौतों का कारण कोई बीमारी बतायी जाती है। लेकिन इस बिंदु पर विचार कम ही होता है कि जिस जानलेवा बीमारी से किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, वह व्यक्ति उस बीमारी का शिकार कैसे और किन परिस्थितियों में हुआ ? सामान्यतः ठण्ड से या गरीबी से मरने वालों की गिनती बीमारी से मरने वालों में की जाती है।
ऐसे हालात में देश के संसाधनों का अति निर्धन और जरूरतमंदों तक पहुँचाना शासन-प्रसाशन के लिए बड़ी चुनौती है। जैसे-जैसे ठण्ड बढ़ती है, कम्बल बांटने की खबरें भी अखबारों में प्रमुखता से छपती हैं। लेकिन देश के हज़ारों वस्त्रहीन, भवनहीन, शिक्षाहीन, कुपोषणग्रस्त और आर्थिक तंगी में खुले छत के नीचे रहने वाले नागरिकों को चन्द कम्बलों से कड़ाके की सर्दी से बचाया नहीं जा सकता।
इसी संदर्भ में एक छोटी सी खबर मैं भी लिख रहा हूँ। "कड़ाके की ठण्ड, दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना जैसे शहरों में कहीं पारा 5 डिग्री तो कहीं 4 डिग्री और कहीं 3 डिग्री से भी नीचे गिर चुका है। जन-जीवन बुरी तरह से प्रभावित है। स्कूल-कॉलेज बंद करने के आदेश दिए जा चुके हैं। ज़्यादातर लोग आग-अलाव के बंदोबस्त में हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी जो आग-अलाव तो दूर की बात उन्हें पहनने को गरम कपड़े तक नहीं हैं। कौन जाने इनके अंदर ठण्ड से लड़ने की ताकत कहाँ से आती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि ठण्ड ने इन्हें कछुवा बना दिया है।"