Friday, May 7, 2021

ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है...?

संस्मरण: ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है....? (फीरोज़ भाई को याद करते हुए )

फेसबुक खोलना लगभग बंद सा हो गया है। खोलें भी क्यों! हर तरफ मौत का शोर है! रेडियो पर ख़बरें सुनना लगभग बीस बरस पुरानी बात हो चुकी है। टी.वी. जनरलिज़्म के नए दौर ने पिछले बीस बरस में उपलब्धियों के नयी मीनारें खड़ी की हैं। लेकिन बीस बरस में ही आंख पत्रकारिता की इस मीनार से फिसलने लगी है। संवाद और संचार के हिस्से में बचा है, तो फेसबुक और व्हाट्सएप। जिसकी उम्र भी कमोबेश 15-बीस ही हुई है। भारत में विशेषकर हमारे आस-पास के माहौल में सोशल मीडिया सूचना और संचार का प्रभावी माध्यम बन चुका है। ख़बर अच्छी हो, सच्ची हो या फिर झूठ और फरेब हो। घर-घर में मौजूद फेसबुक और व्हाट्सएप और इण्टरनेट पर मौजूद सैकड़ों वेबसाइट पिछले कुछ वर्षों में लोकप्रिय संचार माध्यम के रूप में स्थापित हुए हैं। अन्य मीडिया माध्यमों की तरह ही सोशल मीडिया पर भी इन दिनों मौत की नानस्टाॅप ब्रेकिंग ख़बरों की भरमार है। सुबह हो या शाम, फेसबुक खोलते ही अपनों का हाल अस्पताल, डाॅक्टर और दवा की कमी से मौत की सूली पर टंगा दिखता है। पिछले दिनों दिल्ली में अम्बरीश राय, लखनऊ में अलीमुल्लाह भाई की अहलिया, पुनः दिल्ली में विधान पाठक को दुनिया की कारगुजारियों से अलग होना पड़ा था। 4 मई 2021 की रात में सत्य प्रकाश असीम और कटिहार के नवनीत भाई के लिए शोक संदेश लिखने की अगली सुबह यानि 5 मई को अब्बा से असीम जी के बारे बात हो ही रही होती है कि बातचीत के दौरान ही मोबाइल में फेसबुक खोलना अरूण पाण्डेय के शोक संदेश का परिचायक बना। आज 6 मई है। मित्रों के फोन भी आ रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेण्ट प्रोफेसर से जितेन्द्र जिसे प्यार से सब जीतू कहते हैं, डिपार्टमेन्ट आॅफ एजूकेशन में हिन्दी आॅफिसर रवीन्द्र भाई, उपाधि महाविद्यालय, पीलीभीत में असिस्टेण्ट प्रोफेसर विपिन भाई जैसे मित्रों के फोन आ रहे हैं। सब एक दूसरे का हाल पूछ रहे हैं। कुशलक्षेम सुन बता रहे हैं और कुशलता की कामना व्यक्त कर रहे हैं। एक दूसरे से नमस्ते, सलाम और बाय के साथ फोन पर “अपना ख़याल रखना” कहना नहीं भूलते हैं। 

अजीब वक्त है। एक के बाद एक, कम वक्त में मौत की लम्बी लाइन खींचती जा रही है। हमारे कस्बे और गांव की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। आज यानि 6 मई को मित्र राजेश भाई का फोन आया। “नमस्कार!” अभिवादन के बाद “गांव में चार लोग मर गए” से बात शुरू हुई। उन्होंने बताया कि कल वो घाट (सुल्तानपुर/गौसपुर) पर गए थे। लगभग 100 शवों की कतारें देखीं। हफ्ते दिन पहले किसी सज्जन ने इसी घाट पर 70-80 शवों की अंत्येष्टी की बात कही थी और हमें यकीन नहीं हुआ था। कल रवीन्द्र यादव भाई ने भी कुछ एक सौ से अधिक शवों के दाह संस्कार की बात अपने फेसबुक वाल पर साझा किया था। बीते सप्ताह की ही बात है। कस्बा मुहम्मदाबाद और यूसुफपुर में हर रोज दो-चार लोगों की के इन्तकाल/मृत्यु की ख़बरें आम बात हो गई थी। एक दिन तो यह औसत 8-9 तक पहुंच गया। फीरोज़ भाई का ताल्लुक इसी कस्बे से था। जिस स्कूल (आर्य समाज बाल विद्या मंदिर) में हम पांच भाइयों ने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी, उस स्कूल के करीब ही उनका घर था। उनके मुहल्ले को कोट कहा जाता है। कोट मुहल्ला की भौगोलिक स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ज़माने में गंगा नदी की दक्षिणी सीमा कोट ही रहा होगा। जो वर्तमान में शाहनीन्द पीर बाबा की दरगाह से आगे मठिया के बाद सेमरा गांव है।

फीरोज़ भाई के इन्तकाल की ख़बर भइया के फेसबुक वाल से मिली। वो भी चार घण्टे की देरी से। कारण यही कि फेसबुक खोलने में अजीब सा डर महसूस होने लगा है। लेकिन मीडिया घरानों की मौजूदा कारगुजारियों में फेसबुक कम से कम प्रमाणित बात हम तक पहुंचा दे रहा है। शुक्रिया है, फेसबुक वालों का। आप अपने कारोबारी नज़रिए में चाहे जिस परम्परा के पोषक हो, कम से कम इतना अवश्य है कि आपका बनाया यह माध्यम आज बहुतों के लिए सूचनाओं के आदान-प्रदान का महवत्पूर्ण माध्यम बना हुआ है। ये अलग बात है कि इसके लिए एन्ड्राएड मोबाइल फोन और इन्टरनेट कनेक्टीविटी का होना आवश्यक है। इस विषय पर अलग से बात की जाएगी। बहरहाल, ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि फेसबुक और व्हाट्सएप् ने दुःख और सुख के अनगिनत लम्हों को वक्त की भूल-भुलैया में खोने से बचा लिया है। वरना, अच्छी तरह याद है कि 90 के दशक में जब भइया इलाहाबाद स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे, उनके इलाहाबाद पहुंचने की ख़बर पा लेने भर के लिए अम्मा व्याकुल और बेचन रहा करती थीं। जब जैनेश पंकज, महताब, सरूर और हामिद जैसे उनके अन्य मित्र इलाहाबाद जाते थे, तो अम्मा-अब्बा से मिलने ज़रूर आते थे। उनके मित्रों से अम्मा इलाहाबाद पहुंच कर ख़त लिखने को ज़रूर कहती थीं। उस समय पोस्टकार्ड और अन्तरदेशी पत्र का चलन आम था। इलाहाबाद से एक पोस्टकार्ड या अन्तरदेशी पत्र मुहम्मदाबाद आने में एक हफ्ते का समय लग जाता था। कभी-कभी तो दस-पन्द्रह दिन का समय भी गुजर जाता था। अम्मा का परेशान होना बेजा नहीं था। अब फेसबुक और व्हाट्सएप का ज़माना है। और यही ज़माना कोराना के दूसरी लहर का ज़माना भी है। जिसमें चुनाव के बाद देश और प्रदेश में तमाम गतिविधियां रफ्ता-रफ्ता लाॅक डाउन के साए में घिरती जा रही हैं।

करोना के मौजूदा माहौल में बहुतों की सांसे इस तरह उखड़ी हैं, जिसे अभी उखड़ना नहीं चाहिए था। अम्बरीश राय, विधान पाठक, अरूण पाण्डेय, अलीम भाई की वाइफ, सत्य प्रकाश असीम और फीरोज़ भाई का शुमार मैं ऐसे ही लोगों में करता हूं। इनमें से फीरोज भाई को छोड़कर कोई भी बीमार नहीं था। लेकिन इन सबको कोरोनो ने हम सबसे जुदा कर दिया। फिरोज भाई को लेकर पहले से डर बना हुआ था। कोरानाकाल में डायलिसिस की व्यवस्था उपलब्ध कराने वालों के लिए फीरोज़ भाई जैसे मरीज आपदा में अवसर का माध्यम बन गए थे। डायलिसिस करा-करा कर ज़िन्दगी की सांसे गिन रहे फीरोज भाई भी 30 मई को कोराना की चपेट में आ गए। डायलिसिस के लिए 1700 से 2000 का खर्च अचानक से 5000 की ऊंचाई पर पहुंच गया। किडनी का थका-हारा मरीज़ किसी तरह अपने ईष्ट मित्रों की मदद से डायलिसिस करा तो लिया। लेकिन ज़िन्दगी का इरादा शायद इस दुनिया से कूच कर जाने को था। 5 मई की रात में फीरोज भाई आपदा में अवसर तलाशने वालों के लिए निराशा की ख़बर बन गए। जी हां, फीरोज भाई इन्तकाल कर गए। उनके इन्तकाल से उनके अपनों को जो दुःख होना था, वो तो हुआ ही। साथ ही आपदा में ऐसे मरीजों में अवसर तलाशने वाली स्वास्थ्य व्यवस्था की सच्चाई उजागर हो गयी। लेकिन कहना होगा कि अच्छाई में बल होता है और अच्छाई की आयु बड़ी होती है। डाॅ॰ एजाज़ सिद्दीक़ी का शुमार ऐसे ही डाॅक्टरों में है, जिन्होंने दिल्ली में रहते हुए अपने बड़े भाई के दोस्त की बतौर एक डाॅक्टर फीरोज़ भाई की लम्बे समय तक मदद की। मददगारों में बहुत से नाम हैं। जिन्होंने सलाह-मश्विरा से लेकर पैसा-रूपया हर तरह से मदद की। मददगारों में ऐसे लोग भी शामिल हैं जिन्होंने एक बार की मदद के बाद दुबारा कभी फीरोज भाई का फोन रिसीव नहीं किया।

बहरहाल, फीरोज भाई को लेकर पहले से डर बना हुआ था। वो ज़िन्दगी और मौत के बीच खड़े थे। उनकी सांसे डायलिसिस की मोहताज हो चुकी थीं। और डायलिसिस पैसे-रूपयों की। दर असल घर से दूर देश की राजधानी जाकर काम करके कुछ पैसे कमाने और परिवार के साथ सम्मान परक जीवन व्यतीत करने वाले फीरोज़ भाई को किडनी फेल्योर की शिकायत हो गयी थी। जिस्म का छोटा पुर्जा फेल हुआ, तो इलाज का खर्च बड़ा हो गया। एक ने नहीं बल्कि दोनों किडनियों ने फीरोज़ भाई का साथ छोड़ दिया था। फीरोज़ भाई को मेडिकल साइंस की एक खोज जिसे डायलिसिस कहते हैं, ने पिछले कुछ एक सालों से जिन्दा रखा था। कोरोना के पहले फेज में उन्हें दिल्ली में किसी तरह डायलिसिस की स्वास्थ्य सुविधा मिलती रही। दिल्ली के हालात नाजुक बने हुए हैं। आॅक्सीजन के लिए संघर्षरत्त दिल्ली वासियों की सांसे उखड़ रही हैं। इन्हीं परिस्थितियों में फीरोज भाई भी 30 अप्रैल को कोरोना की चपेट में आ गए। मुश्किलें पहले से किसी कदर और बढ़ गयीं। चार-पांच दिन में ही ज़िन्दगी के तार टूट गए। अस्पताल, डाॅक्टर और दवा की परेशानियों से हमेशा-हमेशा के लिए आज़ाद हो गए। 5 मई की रात फीरोज़ भाई ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

फीरोज़ भाई के बारे में क्या कहूं और क्या न कहूं। वो शमीम भाई के बचपन के दोस्त थे। भइया और वो आर्य समाज बाल विद्या मंदिर में एक ही कक्षा के छात्र थे। भइया बताते हैं कि फीरोज भाई पढ़ाई में उनसे तेज थे। उनके अब्बा पुलिस महकमे में थे। लेकिन कहीं न कहीं सही मार्गदर्शन का अभाव फीरोज भाई को उचित समय पर उचित अवसरों से वंचित रखा। फीरोज भाई के बारे में शामीम भाई बताते हैं कि वो फीरोज भाई बचपन से ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। छल-कपट तो उनके अंदर थी ही नहीं। उन्होंने कभी किसी का अहित नहीं सोचा। अपना रास्ता खुद ही बनाया। मेहनत में भी कभी कोई कमी नहीं रखी। आजीविका की तलाश में पहले मुम्बई, फिर गुजरात और इसके बाद दिल्ली चले गए। दिल्ली उनको रास आई। दिन दूनी-रात चैगुनी मेहनत की। जब भी दिल्ली जाना होता, उनसे मुलाकात ज़रूर हुआ करती थी।” गो कि शमीम भाई उनके अज़ीज दोस्तो में थे। फिर भी उन्हीं के शब्दों में “फीरोज का सबसे महबूब दोस्त उनकी मेहनत थी। मेहनत से कभी उन्होंने मुंह नहीं मोड़ा।”

फीरोज भाई भइया के प्रिय दोस्तो में एक थे। मेरी उनसे जब भी मुलाकात होती, घर के प्रत्येक सदस्य की खै़रियत लेना नहीं भूलते थे। उनके घर में कुल जमा-पूंजी एक बूढ़ी मां थीं, जिनका पिछले साल इन्तकाल हो गया था। फीरोज़ भाई का घर-ख़ानदान बहुत बड़ा है। लेकिन मां के बाद बीबी, बेटी और एक बेटा ही दिल्ली की भाग-दौड़ की ज़िन्दगी के साथी थे। बीच में उनके बेटे की तबीयत भी ख़राब हुई। लेकिन संघर्ष के तूफानों में धैर्य और परिश्रम को अपनी ताकत बनाने वाले फीरोज़ भाई ने बेटे के इलाज में कोई कमी नहीं रखी। कमी तो अपने इलाज में भी नहीं रखी। लेकिन वक्त ही बड़ा ज़ालिम है। मां और बेटी के रूप में दो महिलाओं और बेटे के रूप एक छोटे बच्चे के सर से साया उठा दिया।

जब मैं दिल्ली में था, फीरोज़ भाई से अक्सर मुलाकात हुआ करती थी। वो एक वर्किंग मैन थे। कभी बैठे नहीं। काम को काम समझा। उनका कस्बा, कस्बे की पहचान और दोस्तों की जमात, सब कुछ बड़ा नहीं तो छोटा भी नहीं था। लेकिन उन्होंने जिन्दगी की बेहतर राह मेहनत में देखी। किसी भी काम को छोटा नहीं समझा। जब उन्होंने कम्पनियों में सुपरवाइजरी की तब और जब डेयरी की मार्केटिंग की जिम्मेदारी संभाली तब, काम में तन्मयता की मिसाल पेश की। ये बात और है कि कम्पनियों ने फीरोज़ भाई के रूप में एक मैन पावर को कितनी अहमियत दी।

फीरोज़ भाई कद-काठी से लम्बे और रोबीले व्यक्तित्व के मालिक थे। उन्हें देखकर आर्मी और पुलिस वालों की याद आना बेमानी नहीं। लेकिन आर्मीमैन या पुलिसमैन के रूप में सरकार की सेवा में होना उनकी किस्मत में नहीं था। वो महाराष्ट्र और गुजरात के अलग-अलग शहरों में रहते हुए आखिरकार दिल्ली पहुंचे और वहीं के होकर रह गए। दिल्ली में उनका शुरूआती ठिकाना बसंतकुंज स्थित मेरे बचपन के दोस्त हामिद का किराए का घर हुआ करता था। हामिद ने भी पीछे पलट कर नहीं देखा। वकालत की वर्दी में मेहनत और समर्पण ने उसे दिल्ली में स्थायित्व और सम्मान परक जीवन जीने का सलीका और तरीका सिखा दिया। फीरोज़ भाई ने भी अपनी मेहनत के बदौलत रंगपुरी पहाड़ी में एक छोटा सा आशियाना बना लिया। जो कम से कम किराए का नहीं था।

ज़िन्दगी का कारवां चलता रहा। तब मैं जेएनयू में रिसर्च स्काॅलर था। फीरोज़ भाई कई दिन मेरे साथ झेलम हाॅस्टल के कमरा नं॰ 243 में रहे। बड़े भाई की तरह। तब जब मैं एक परेशानी में था। मैंने उन्हें कभी बताया नहीं। लेकिन मुझे ये भी नहीं लगा कि उनका मेरे साथ चन्द रोज रहना महज इत्तेफाक रहा होगा। भइया के दोस्त थे। मुझे भी भाई की तरह ही मानते थे। मैंने कभी उनसे पूछा नहीं लेकिन परेशानी के समय उनके मेरे साथ रहने से मुझे बहुत हौसला मिला था।

जाति भारतीय समाज की ढ़ांचागत विशेषताओं की परिचायक सूचकों में एक है। फीरोज़ भाई का ताल्लुक मुस्लिम समाज के सवर्ण तबके से था। पिता पुलिस विभाग की सेवा में थे। मुस्लिम समाज का सवर्ण तबका हिन्दु समाज के सवर्ण तबके की ही तरह परंपरा और मूल्यों में पिछड़े और दलित तबकों से श्रेष्ठ माना जाता है। भूमि का स्वामित्व हो, शिक्षा हो या नौकरी हर जगह सवर्ण तबके की मौजूदगी बढ़त के रूप में रही है। लेकिन फीरोज़ भाई के बारे में यह कहना चाहूंगा कि उनका जन्म सवर्ण परिवार में हुआ ज़रूर था, लेकिन उनके पास न तो भूमि की पूंजी थी और न ही पिता के पुलिस सेवा में होने का दम्भ। उनके अंदर किसी भी किस्म की सामंती या बड़े होने की भावना नहीं थी। “सीधवा” होना ही उनकी पहचान थी। उनके व्यवहार में अजीब सी सादगी और नरमी थी। मुझे राजू ही कहा करते थे और भइया को शमीम। पिंकी, रिंकू, नेपाली अब्बा-अम्मा, गुड़िया और रूख़्साना सबका हाल दरयाफ्त करते थे। दिल्ली से जब भी मुहम्मदाबाद आते, घर ज़रूर आते थे। कुछ देर बैठते मिठ्ठू, महताब और इस्लाहू की खै़रियत लेते और सम्मू भाई के घर जाते। फिर वापस कोट पर स्थित अपने घर। राजू घर आना। भाभी आई हुई हैं। दिल्ली स्थित उनके घर जाना होता तब और मुहम्मदाबाद स्थित उनके घर जाता तब, फीरोज भाई के चेहरे पर खुशी की लकीरों का उभार मैंने महसूस करता था। मगर अफसोस कि फीरोज़ भाई एक बेटी और बेटे की शिक्षा और परवरिश की जिम्मेदारी अपनी जीवन संगनी पर छोड़कर हम सबसे रूख़सत हो चुके हैं।

फीरोज़ भाई जिस बीमारी की ज़द में फंसे थे, उसका इलाज काफी खर्चीला था। हफ्ते में दो बार डायलिसिस कराना होता था। एक बार अस्पताल जाने में दो-तीन हज़ार से पांच-दस हज़ार का ख़र्च आता था। कमाई का पूरा हिस्सा खर्च कर देने पर भी इलाज के लिए पैसे कम पड़ जाते थे। फीरोज़ भाई दिल्ली में रहकर किस तरह अपने परिवार को संभालते हुए अपना इलाज करा रहे थे, वही बेहतर जानते थे। हां कुछ महीने पहले हामिद मुहम्मदाबाद आया था। फीरोज़ भाई का ज़िक्र लाज़मी था। हामिद ने बताया कि बंगाली भाई बहुत मदद कर रहे हैं। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। शायद फीरोज़ भाई ने हामिद से तज़करा किया हो। मेरी जो सीमित जानकारी है उसके अनुसार मदद करने वालों में भइया के अलावा कई और लोग भी हैं, जो मदद के लिए सामने आए। मेरे घर में मेरी बहन और छोटा भाई मुहल्ले में मास्टर महताब, दादा भाई, नेहाल भाई वगैरह का नाम ले सकता हूं। लेकिन इस संस्मरण लेख के माध्यम से उन तमाम लोगों को भी शुक्रिया कहना चाहूंगा जिनके नाम मैं नहीं जानता और जिन्होंने फीरोज़ भाई की मदद की। उनका भी शुक्रिया जो मदद को सामने आए, लेकिन दुबारा फीरोज भाई का फोन नहीं रिसीव किया।

फीरोज़ भाई से आखि़री मुलाकात वर्ष 2020 के दिसम्बर माह में हुई थी। जब शमीम भाई मुहम्मदाबाद आए हुए थे। फीरोज़ भाई के अलावा इस्लाहुद्दीन भाई और डब्लू भाई भइया के साथ कमरे में मौजूद होते हैं। फीरोज भाई भइया के पैर पर सर रखकर लेटे हुए होते हैं। ऐसे जैसे किसी अपने की गोद में कोई लेटा हो। दोस्तो के साथ फीरोज भाई की यह तस्वीर मैंने ही खीची थी। 30 दिसम्बर को फीरोज़ भाई ने इस तस्वीर को अपने फेसबुक वाल पर साझा करते हुए लिखा “नए साल में अल्लाह दोस्तो को सलामत रखना, यही है मेरी एलआईसी हैं।” ज़ाहिर है फीरोज़ भाई जिस बीमारी से जूझ रहे थे, उन्हें उसका नफा-नुकसान पता था। फिर भी वो अपने दोस्तो की सलामती के ख़्वाहिशात का इज़हार कर रहे होते हैं। दर असल उन्होंने अपने दोस्तो की दोस्ती को ही अपना जीवन बीमा समझा। अब दोस्तो की बारी है कि वो बीमा वाले दोस्ती का फर्ज़ किस तरह और किस हद तक निभाते हैं।

फीरोज़ भाई बीमार थे। लेकिन उन्होंने हालात का बड़ी दिलेरी के साथ सामना किया। दिल्ली में बीबी और दो छोटे बच्चों के साथ हफ्ते में दो से तीन बार अस्पताल का मुंह देखना वास्तव में किसी के परेशानी का बड़ा सबब हो सकता है। लेकिन फीरोज भाई लगातार हालात के साथ जूझते रहे। हौसला बनाए रखा। वो ज़िन्दादिल इन्सान थे। उन्हें पता था कि ज़िन्दगी और मौत के बीच कुछ दिनों का फासला रह गया है। उन्होंने इस सच्चाई को जिया। इससे इंकार नहीं किया। दिसम्बर 2020 में उनका स्वास्थ्य लगभग ठीक था। लेकिन डायलिसिस के मरीज का ठीक-ठाक दिखना कितना ठीक होता है, ये तो सिर्फ और सिर्फ फीरोज भाई जैसे डायलिसिस मरीज ही बता सकते थे। दिसम्बर के दोस्तो वाली तस्वीर के बाद 28 फरवरी 2021 की एक और तस्वीर देखी जिसे उन्होंने अपने फेसबुक वाल पर लगाया था। तस्वीर से साफ ज़ाहिर हुआ कि जनवरी और फरवरी, इन दो महीनों में फीरोज़ भाई का स्वास्थ्य निरन्तर गिरा है। उनके चेहरे पर उदासियों गहराता मंजर बहुत कुछ कहता है। इस तस्वीर के साथ उन्होंने मुकेश कुमार के गाए गीत के बोल भर लिखे “ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है....?”

फीरोज़ भाई की ज़िन्दगी की डोर 15-16 साल पहले ही टूट गयी होती, जब वो नई दिल्ली के सरोजनी नगर मार्केट स्थित एक शाप पर अपने कम्पनी के काम से गए थे। शाप से वापस आए अभी उन्हें कुछ ही देर, कोई दस-पन्द्रह मिनट, हुए होंगे कि वहां एक सिलण्डर विस्फोट हुआ और उसमें कई लोगों की जान चली गयी थी। तब फीरोज़ भाई ने अपनी खुशकिस्मती का इज़हार किया था। लेकिन इस बार ज़िन्दगी की डोर हाथ से छूट गयी जो हम जैसे बहुत से शुभचिन्तकों के लिए अफसोस का बाएस बन गया।

फीरोज भाई दोस्ती, भाईचारगी, प्यार-मुहब्बत की मिसाल थे। अब वो हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनके व्यक्तित्व की छाप उनके दोस्तो और हम जैसों के साथ हमेशा रहेगी। तालीम, स्वास्थ्य और दोस्ती के ताल्लुक से उन्हें अपने दोस्तो से जो उम्मीदें वाबिस्तह थीं, उन्हें पूरा करने में उनके बचपन के कई दोस्त पहले से ही कोशां हैं। फीरोज भाई के परिवार में उनकी पत्नी, एक बेटी और एक बेटा है। इस संस्मरण के माध्यम से मैं फीरोज़ भाई को खि़राजे अक़ीदत पेश करते हुए उम्मीद करता हूं कि बाकी तमाम लोग भी बगैर धर्म, जाति, रंग, क्षेत्र और लिंग के भेदभाव के दोस्ती की मिसाल कायम करें। कोरोना का यह समय वास्तव में काफी कठिन और दुखदायी है। हम सबको एक दूसरे के लिए हर तरह से खड़े रहने की ज़रूरत है। हमारा-आपका एक दूसरे के लिए खड़ा रहना अपनों के खोने के दुःख और पीड़ा को कम करेगा। ज़ख़्मों पर मरहम लगेगा। आगे रास्ते बनेंगे। ज़िन्दगी फिर से पटरी पर सरपट दौड़ेगी।

- डा॰ वसीम अख़्तर
06-05-2021

Sunday, March 28, 2021

‘बच्चा’ होने की पहचान से वंचित बच्चों पर एक नज़र

 सन 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश की कुल आबादी में 14 वर्ष तक के बच्चों का अनुपात 29.5 प्रतिशत दर्ज है। भारत सरकार के वेबसाइट  censusindia.gov.in     पर उपलब्ध आधिकारिक आंकड़ों में बच्चों की आबादी को तीन उप वर्गों में विभाजित करके प्रस्तुत किया गया है। ये तीन उप वर्ग क्रमशः 0 से 4 वर्ष, 5 से 9 वर्ष और 10 से 14 वर्ष हैं। इन तीन आयु वर्गों में बच्चों की आबादी का अनुपात क्रमशः 9.7, 9.2 और 10.5 प्रतिशत है। यदि पहले वर्ग में शामिल 9.7 प्रतिशत बच्चों को छोड़कर शेष  बच्चों (19.7 प्रतिशत) की बात करें, तो ये बच्चे स्कूल जाने वाले बच्चे हैं। इन बच्चों में अधिकतर को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अन्तर्गत शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त है। लेकिन विषम सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बहुत से बच्चे आज भी स्कूल जाने से वंचित हैं। इनमें बहुत से बच्चे बाल श्रम का शिकार हैं, तो बहुत से बच्चों को अपने माता-पिता के साथ सहायक के रूप में घरेलू कामों में हाथ बंटाना पड़ता है। ऐसे बच्चे भी हैं, जिन्हें स्कूल के समय में कूड़ों के ढ़ेर में अपना भविष्य तलाशते देखा जाता है। पिछले वर्ष हमारा देश जब कोविड-19 संक्रमण के कारण लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति से गुजर रहा था, तो इस आपात परिस्थिति में भी ऐसे बच्चों को सड़कों पर घूम-घूम कर रोटी और कपड़ा का जुगाड़ करते देखा गया। ये वो बच्चे हैं जो कूड़ों की ढे़र से या गली-गली घूम कर कबाड़ जुटा कर अपने परिवारों की आजीविका चलाने में मदद करते हैं। गाजियाबाद का आसिफ भी ऐसे ही बच्चों में से एक है, जिसे हर रोज़ कबाड़ में अपना भविष्य तलाशना होता है। ऐसे बच्चों के साथ मुसीबतें भी साथ-साथ चलती हैं। इनका हुलिया देखकर आम तौर पर लोग इन्हें हकीर निगाह से देखते हैं। ऐसे बच्चों से दूरी बनाए रखना या पांच-दस रूपए की दया दिखाकर पीछा छुड़ाना लोगों की सोच है। फिर भी कुछ लोग ऐसे अवश्य हैं, जिन्हें इनकी फिक्र होती है और जिनकी संवेदनाएं इनके साथ होती हैं। वरना सरकार के लिए ऐसे बच्चे उस संख्या का हिस्सा होते हैं, जिनके कल्याण के लिए कई मंत्रालय काम करते हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, श्रम मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय, मानव संसाधन और विकास मंत्रालय एवं गृह मंत्रालय वगैरह का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इन मंत्रालयों के कामकाज में बच्चों का हित एक महत्वपूर्ण पक्ष होता है। अस्पताल और स्कूल से लेकर काम करने के स्थानों पर बच्चों के बारे में नियमों और सावधानियों की लम्बी फेहरिस्त है। लेकिन अफसोस कि बच्चों की एक बड़ी संख्या इन नियमों और कानूनों के सुरक्षा कवच से बाहर है। ऐसे बच्चे ढ़ाबों पर, बस स्टैण्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर, सड़कों के चैराहों पर आर्थिक क्रियाएं करते देखे जाते हैं। कूड़े के ढे़र में कबाड़ ढ़ूंढ़ना और कबाड़ बेचकर गुजारा करना ऐसी ही आर्थिक गतिविधियां हैं।

ऐसा नहीं है कि ऐसे बच्चों पर सरकार और समाज की दृष्टि नहीं पड़ती है। पड़ती है लेकिन छोटू और राजू से आंख मिलाना सरकार में शामिल हर किसी के वश की बात नहीं हैं। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो नवनीत सीकेरा और शमीम अख़्तर अंसारी जैसे कुछ एक अफसरों के बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि वो अपने आस-पास दिखने वाले ऐसे बच्चों से सहानुभूति और संवेदना रखते हैं। शायद यही कारण है कि शमीम अख़्तर अंसारी ने देवीपाटन मण्डल में उपश्रमायुक्त रहते हुए ऐसे बच्चों को गोद लेने की पहल शुरू की। उनके विचार से गोण्डा जिला के तत्कालीन जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान ने भी बच्चों को गोद लेकर नज़ीर स्थापित किया। उम्मीद की जानी चाहिए कि अधिकारियों द्वारा उठाए गए इस सराहनीय कदम का अनुकरण समाज में भी व्यापक स्तर पर किया जाएगा।

बहरहाल, बात करते हैं गाजियाबाद के आसिफ नाम के उस बच्चे की जिसकी उम्र 14 वर्ष है और जो हर बच्चे की तरह ही अपने माता-पिता के जिगर का टुकड़ा है। आसिफ का विडियो सोशल मीडिया पर खू़ब देखा और दिखाया जा रहा है। ट्वीटर पर समाज का एक वर्ग “साॅरी आसिफ” कह रहा है तो दूसरा “चोर आसिफ” कह रहा है। ज़ाहिर है, आसिफ के साथ बहुत से लोग दया और सहानुभूति जता रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ लोगों का एक समूह ऐसा भी है, जो उसे नफ़रतों पात्र समझ रहा है। सोशल मीडिया में आसिफ अपने छवि निर्माण की किस पीड़ा से गुज़र रहा है, इस बात की चिंता कम ही लोगों को है। कहना होगा कि सोशल मीडिया में लगातार छवि निर्माण की इस प्रक्रिया में कहीं न कहीं आसिफ एक बच्चा होने की पहचान से वंचित होता जा रहा है।

देश और प्रदेश में किन्हीं कारणों से कोई बच्चा इस तरह की परिस्थितियों में कैद हो जाए तो यह स्थिति सरकार और समाज दोनों ही संस्थाओं में मौजूद संवेदनशील व्यक्तियों के लिए दुःख की बात है। जिन लोगों की संवेदनाएं बाल जगत से जुड़ी नहीं हैं या जो लोग बच्चों के अधिकारों के बारे में औपचारिक या अनौपचारिक रूप से जागरूक और चेतित नहीं हैं, उनके लिए आसिफ जैसे बच्चे हिन्दू-मुस्लिम से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अक्सर ऐसा होता है कि बच्चों के पीछे घरों और गांव-मुहल्लों में विवाद और झगड़ा की स्थितियां पैदा होती हैं। लेकिन निष्पक्ष तौर पर बच्चों के विवाद का निष्कर्ष यही होता है कि बच्चे मासूम होते हैं न कि अपराधी। उनके व्यक्तित्व में कुंठा, हो सकती है, कोई बच्चा एकाकीपन का शिकार हो सकता है, किसी बच्चे के अंदर अपराध बोध हो सकता है। लेकिन कोई बच्चा सचेतन तौर पर अपराधी है, ऐसा होने की संभावना कम होती है। शायद यही कारण है कि हमारे यहां बाल सुधारगृहों की व्यवस्था है।

बच्चे देश का भविष्य होते हैं। उनके साथ सार्वजनिक स्थानों पर हंसी-मजाक भी होते हम देखते हैं। बच्चों के साथ हंसी-मज़ाक करके मनोरंजन करना बच्चों के भावनात्मक विकास की दृष्टि से उचित नहीं है। लेकिन हमारे समाज में हर जगह इस तरह की बातें होती रहती हैं। हमारा ध्यान इस ओर नहीं जाता है। आसिफ तो विशेष आवश्यकता वाले बच्चों में से एक है। यदि उसकी परिस्थितियां सामान्य होतीं तो शायद वो भी स्कूल के समय में किताबों का बस्ता लेकर किसी स्कूल के रास्ते में होता या अपने स्कूल की कक्षा में अपने दोस्तों के साथ पढ़ाई कर रहा होता। आसिफ की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने उसे स्कूल के अनुभव से वंचित कर रखा है। ये विचार का अलग विषय है कि सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का निर्माता और नियंता कौन है? बहरहाल, स्कूल से वंचित ऐसे बच्चों पर सरकार की पूरी नज़र है। ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने लिए शिक्षा विभाग पिछले कई दशकों से सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाएं चला रहा है। 2009 में सरकार 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा अधिनियम लागू कर सरकार ने ऐतिहासिक काम किया। लेकिन अफसोस कि इस कानून के लागू होने के एक दशक के बाद भी आसिफ जैसे बच्चों को कबाड़ का काम करना पड़ रहा है। यहां बहस आसिफ के हिन्दू या मुस्लिम होने, उसके मंदिर में प्रवेश करने या नहीं करने, उसके पानी पीने या नहीं पीने के बजाय उसके स्कूल जाने या नहीं जाने, उसके कबाड़ का काम करने या नहीं करने आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित होनी चाहिए। लेकिन हिंसा और नफ़रतों के सौदागरों के लिए बच्चों का आस्तित्व, उनका बचपन और उनकी शिक्षा कोई महत्व नहीं रखती। तभी तो आसिफ जैसे बच्चे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा एवं चाइल्ड एब्यूज़ एवं टैªफिकिंग का शिकार हो जाते हैं।

ज़ाहिर है आसिफ जैसे बच्चों का बचपन कबाड़ से जिन्दगी का जुगाड़ बनाने में गुजरता है। इन जुगाड़ी बच्चों के बचपन की कीमत पर ही सभ्य और श्रेष्ठ का भरम पालने वाले व्यक्तियों के घरों का कबाड़ उचित स्थान पर पहुंचता है। वरना सभ्य लोगों का घर-दरवाज़ा गंदगी के ढे़र से बजबजाता हुआ दिखाई देता। अच्छा होता कि ऐसे बच्चों को राज्य की निगरानी में आवसीय विद्यालय में रखा जाता। जहां उनके रहने और शिक्षा की उचित व्यवस्था होती।

समाज की भी ऐसे बच्चों के प्रति जिम्मेदारियां हैं। समाज को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे बच्चों को चिन्हित करने और उन्हें कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने में सरकार की मदद करें। ऐसे बच्चों के जीवन को हमें अपने दृष्टिकोण का हिस्सा बनाना होगा। तभी हम इनकी परिस्थितियां और इनकी पहचान को देख और समझ सकेंगे। वरना ऐसे बच्चे अपने मूल पहचान (बच्चा) से वंचित ही रहेंगे। मूल पहचान से वंचित होना सिर्फ उस बच्चे और उसके माता-पिता का व्यक्तिगत नुकसान नहीं है बल्कि समाज और देश का भी बड़ा नुकसान है। क्योंकि हर बच्चे में संभावनाओं के बीज तत्व होते हैं। एक सभ्य नागरिक बनने से लेकर देश और समाज के लिए कुछ रचनात्मक करने वाला व्यक्ति कभी न कभी बचपन के दौर से गुज़रता ज़रूर है। जरूरी है कि हम आसिफ जैसे बच्चों में एक सभ्य नागरिक की कल्पना को दृष्टिगत रखते हुए हम बच्चों के प्रति दोस्ताना व्यवहार बनाएं। यह सरकार और समाज दोनों के लिए आवश्यक है। क्योंकि ये दोनों ही संस्थाएं बच्चा, बूढ़ा और जवान के अधिकारों और कल्याण के प्रति संवैधानिक और नैतिक रूप से जवाबदेह हैं। यह कह देना भी काफी नहीं है कि सबकुछ सरकार करेगी। जागरूकता और चेतना के प्रसार में व्यक्ति और समाज का सहयोग ज़रूरी है।

इस संदर्भ में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि आसिफ के बच्चा होने की पहचान को सर्वोपरि मानते हुए उसके बाल अधिकारों को प्रमुखता दी गयी होती या उसके स्कूल में दाखिले की पहल की गयी होती तो न सिर्फ उसके ज़ख़्मों पर मरहम लगी होती बल्कि समाज के समक्ष एक आदर्श स्थापित हुआ होता। लेकिन लाइक और डिसलाइक की दुनिया के कीड़ों ने आसिफ नाम के बच्चे की धार्मिक पहचान को प्रचारित और प्रसारित किया और होने दिया। उसके जानबूझकर या अनजाने में मंदिर में प्रवेश करने को प्रमुखता से सनसनीखेज़ समाचार बनाया। मंदिर के महंत जी और उनसे वैचारिक समानता रखने वालों ने आसिफ के मंदिर प्रवेश और पानी पीने को जघन्य अपराध माना। इस कृत्य से आसिफ के एक बच्चा होने की पहचान जाती रही। घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि आसिफ के साथ हिंसा में लिप्त श्रृंगेरी और उसके साथी का कृत्य अपनी जगह उचित है। इस सवाल पर विचार आवश्यक है कि किसी भी बच्चे को मारने-पीटने यानि हिंसा का अधिकार क्या किसी को है? क्या संविधान और प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत हमें इस बात की इजाजत देता है? अच्छा होता कि आसिफ जैसे बच्चों को सिर्फ बच्चा वर्ग में रखकर कोई निर्णय किया जाता। आसिफ बच्चों की उस टोली से है, जिनकी ज़िन्दगी में न तो कलम है और न ही किताब। ऐसे बच्चों का जीवन बाल अधिकारों की वंचना की ढ़ेरों कहानियों से भरा पड़ा है। संभव है महंत जी की बातों में सच्चाई हो। उन्हें आसिफ में वयस्कों जैसी इच्छाओं और लालसाओं का आभाष हुआ हो। यदि महंत जी के पूर्वाग्रह को सच मान लिया जाए कि हमारे बच्चे बाल आयु में वयस्क जैसा व्यवहार कर रहे हैं तो ऐसा होने के पीछे जिम्मेदार कारकों की पड़ताल किसकी जिम्मेदारी है? आसिफ के साथ हिंसा में लिप्त दोनों नौजवानों को यदि नादान की श्रेणी रखा जाए तो क्या महंत जी को एक सभ्य नागरिक की जिम्मेदारियों से मुक्त किया जा सकता है। क्या ये उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि बच्चों के साथ बच्चों सा व्यवहार की भावना को बढ़ाने में अपेक्षित सहयोग करते न कि नफरती बयान जारी करते। क्या उन जैसे लोगों को “रूकिए, देखिए, जाइए” का बोध नहीं होना चाहिए? बच्चों के साथ हिंसा और हिंसा को तर्क संगत बताना क्या अपराध नहीं है? बहरहाल, पुलिस-प्रशासन की तारीफ की जानी चाहिए कि सरकारी अमले ने हिंसा में लिप्त दोनों लड़कों के खिलाफ समय रहते कार्यवाही की। लेकिन सरकार के साथ-साथ समाज को भी बाल अधिकारों के लिए सामने आने की ज़रूरत है।
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