Tuesday, June 18, 2019

बच्चे, तकनीक और किताबें

"इस समय के बच्चों की तुलना उन पंक्षियों से करना बेमानी नहीं है, जो चारों ओर से शिकारी के जाल में फंसे हुए हों और जिनके समक्ष उड़ान भरने की चुनौती हो।"
दिन के लगभग ढाई बजे हैं। सुरेश माली के दरवाजे़ पर कुछ बच्चे मतदान संबंधी चर्चा कर रहे होते हैं। सुरेश माली के बड़े बेटे रमेश के चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें किसी खुशी का इज़हार कर रही थीं। उसने बताया “चाचा आज पहली बार वोट किया है।” पता चला कि सुरेश माली का बड़ा बेटा 23 साल का हो चुका है, और इस उम्र में उसने पहली बार वोट किया। वो बहुत उत्साहित होता है। उसने इसी साल पटना में रहकर एसी एण्ड रेफ्रीजरेशन में आई. टी. आई. की पढ़ाई की है। 23 मई को गाजियाबाद स्थित भारत इलेक्ट्राॅनिक्स लिमिटेड में अप्रैन्टिस के लिए इंटरविव है। अभी हम बात कर रहे होते हैं कि उसके घर के अन्दर, जो उसके माता-पिता की फूल-माला की दुकान भी है, से उसके भाई संजय की आवाज़ आती है कि “मैं जब 18 साल का हो जाउंगा तो ................... सरकार बनाउंगा।” निश्चित तौर पर अगले चुनाव यानि पांच साल के बाद संजय 18 की उम्र पूरी कर मतदाता की भूमिका में होगा। लेकिन मैं देर रात तक उसकी कही बात से बेचैन रहा। शायद इस बेचैनी का कारण मेरा लेखक और चिंतक होना और इससे बढ़कर अपने आस-पास के माहौल से संवेदित होना है। मैं सोचता रहा कि जिस उम्र में संजय जैसे बच्चों को अपने बड़े भाई रमेश की तरह पढ़ाई की बातें सोचनी चाहिए और उनकी अभिव्यक्तियों में कापी-कलम और किताब की बातें होनी चाहिएं, उस समय में ऐसे बच्चे सरकार बनाने के विचार से उद्वेलित हैं। रात के करीब 10 बजे होंगे, रमेश से फेसबुक लाइब पर बात करते हुए मैंने उससे इस बाबत भी बात की कि बहुत से बच्चे ऐसे हैं जिनका प्राइम टाइम यानि उनका जो पढ़ाई का समय है, उस समय में वो पढ़ाई से इतर अन्य गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। रमेश ने बताया कि “हां... आजकल बच्चे एन्ड्रायड फोन के आदी हैं। रात के 4 बजे तक गेम खेलते हैं। यह ठीक नहीं है।” रमेश जिसने आज पहली बार वोट दिया था से मैंने कहा कि आप मोबाइल और तकनीक के क्षेत्र में प्रगति और आम लोगों तक इसकी पहुंच को रिजेक्ट कर रहे हैं। रमेश बिना किसी लाग लपेट के कहते हैं कि पढ़ाई की उम्र वाले बच्चों के लिए नयी तकनीक, मोबाइल फोन और एप्लीकेशन नुकसान पहुंचा रहा है। मैंने कहा कि तकनीक और मोबाइल को विकास का प्रतीमान बताया जा रहा है और आप इस आइडिया को रिजेक्ट कर रहे हैं। रमेश एक बार में कहते हैं कि यदि पढ़ने वाले बच्चों की पूरी रात मोबाइल गेम में कटेगी तो उनका दिन निश्चित तौर पर खराब होगा। रमेश से बातचीत के बाद उसे पहली बार मतदान में हिस्सा लेने के लिए बधाई देता हूं और उसके उज्जल भविष्य के लिए उसे शुभकामना देने के बाद अपने घोंसले में लौट आता हूं।

मेश से बातचीत के बाद यह अंदाज़ा भी होता है कि बच्चों का एक-एक मिनट वास्तव में न सिर्फ उनके और उनके परिवार के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि समाज और देश के लिए भी महत्वपूर्ण है। वो लोग जो तकनीकी क्रान्ति और इस क्रान्ति जनित यंत्रों के अबाध प्रसार में विकास की रूपरेखा देखते हैं, उन्हें उम्र की विविधता का ध्यान रखने की ज़रूरत है। नीतिगत स्तर पर इस युक्ति को अपनाने की ज़रूरत है कि कौन सी तकनीक और तकनीकी यंत्र बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाओं के लिए उपयुक्त हैं। तकनीक का प्रसार आयु आधारित विविधता, पारिवारिक और सामाजिक विविधता को कैसे प्रभावित करता है, इस पर यथा संभव ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 

सा इसलिए भी कहना पड़ रहा है कि प्रायः ऐसा देखा जा रहा है कि जिन बच्चों के पास नयी तकनीक युक्त एन्ड्रायड फोन हैं, वो बच्चे ऐसे फोन के दुरूपयोग और दुष्परिणामों से सावधान नहीं है। सतीश जो मेरे पड़ोस के जयपाल भइया का लड़का है इस समय 12वीं का छात्र है। 17वीं लोक सभा के चुनाव नतीजों के आने से ठीक दो दिन पहले 21 मई की दोपहर जब मैं नवापुरा स्थित डाॅ॰ सिद्दीकी की क्लिनिक में त्रिवेणी जायसवाल से बात कर रहा होता हूं, उसी समय गाज़ीपुर के तारिक भाई का फोन आता है। मैं फोन रिसिव करता, इससे पहले ही डिस्कनेक्ट हो जाता है। ठीक इसी समय सतीश के फेसबुक फ्रेण्ड रिक्वेस्ट पर नज़र पड़ती है। सतीश के फेसबुक फ्रेन्ड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट करते समय उसके फेसबुक वाल पर एक पोस्ट देखा। नमो अगेन के साथ कविता कुछ पंिक्तयां “गद्दार नहीं खु़द्दार चाहिए!!/कमजार नहीं दमदार चाहिये!!/तुम्हें मुबारक हो वंशवादी शहज़ादे/हमें हमारा चैकीदार चाहिये!!” लिखी हुई थीं। त्रिवेनी जायसवाल से बच्चों की पढ़ाई और उनके करियर पर बात के दौरान सतीश के इस पोस्ट पर भी देर तक बातें हुईं।
इत्तेफाक से उस पोस्ट पर भी नज़र पड़ी, जिसमें 12वीं की परीक्षा पास करने वाले अख़्तर ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा था कि “......पी. वालों ........एम. गायब करवा के भी कुछ नहीं उखाड़ पाओगे। डेडिकेटेड टू भक्त लोग।” दो किशोरों की ऐसी अभिव्यक्तियां किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की बेचनी का सबब हो सकती हैं। यह अंदाजा भी होता है कि मौजूदा दौर में किशोरावास्था के बच्चों के परिवेश से किस तरह काॅपी-कलम और किताब इत्यादि गायब हैं या गायब कर दी गयी हैं। माथे पर बल पड़ना स्वाभाविक है। क्योंकि ऐसा कैसे संभव हुआ कि शारीरिक, सामाजिक और बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावनाएं क्षीण पड़ गयी हैं। सवाल लाज़मी है कि क्या 17-18 वर्ष के दो किशोरों की ऐसी अभिव्यक्तियां उनकी अवस्था के अनुरूप उचित हैं? यदि शिक्षा मनोविज्ञान की शब्दावली में कहें तो बच्चों को आत्म अभिव्यक्ति के लिए अवसर ज़रूरी है। लोकतंत्र की पाठशाला में भी “अभिव्यक्ति की आज़ादी” एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। लेकिन सवाल यह है कि जिन बच्चों को अपनी कक्षा के विषय और टाॅपिक्स को समझने में समय लगाना चाहिए और जिन बच्चों में आत्म अभिव्यक्ति के माध्यम से सर्जनात्मक क्षमताओं का विकास होना चाहिए, वो बच्चे सरकार बनाने और सरकार बचाने में समय लगा रहे हैं। बल्कि यह कहना अधिक प्रासंगिक है कि शैक्षिक अभिव्यक्तियों के बजाय राजनीतिक अभिव्यक्तियों में अपना समय गवां रहे हैं। उन्हें यह भी पता है कि उनकी ऐसी अभिव्यक्तियां उनकी कक्षा और किसी विषय से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित नहीं है। और न ही ऐसी अभिव्यक्तियों पर उन्हें ग्रेड या माक्र्स मिलने हैं। इन बातों का आशय यह नहीं है कि जो किशोर बच्चे किसी प्रभाव से ऐसा सोच रहे हैं, उन्हें अभिव्यक्ति के अवसर से रोका जाए। लेकिन ऐसे बच्चों की पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति, जो नयी पीढ़ी के बेहतरी के सपने देखता है, इसके लिए कोशिशें करता है, की पीड़ा और बेचैनी का बढ़ जाना स्वाभाविक है। सतीश और अख़्तर का उदाहरण आइना दिखाने के लिए काफी है कि किशोरों की ऐसी अभिव्यक्तियां कदाचित उचित नहीं हैं।
तीश और अख़्तर जैसे बच्चे अपने परिवारों की उम्मीदें हैं। इन्हीं पर निर्भर है कि वो पढ़-लिख कर अपने परिवारों को विषम परिस्थितियों से उबारेंगे। अक्सर समाचारों में पढ़ने-सुनने को मिलता है कि किसी पान बेचने वाले, चाय बेचने वाले या रिक्शा/टेम्पो चलाने वाले का बेटा/बटी आई.ए.एस. बन गया। इन बच्चों को इन्हीं कड़ियों का हिस्सा बनना होगा। यह सच है कि अभिव्यक्ति बच्चों की क्षमताओं का परिचायक है। लेकिन उचित समय पर उचित मार्गदर्शन के अभाव में बच्चों का शैक्षिक के बजाय अन्य प्रकार की अभिव्यक्तियों के लिए प्रेरित होना उनके और समाज दोनों के लिए हानिप्रद है। समय और स्थान के अनुरूप होने वाली अभिव्यक्तियां श्रेयस्कर और फलदायी होती हैं। इसलिए किशोरावस्था के बच्चों को शैक्षिक और सह-शैक्षिक अभिव्यक्तियों के लिए पे्ररित करना ज़रूरी है। वरना अपरिपक्वता और अतिउत्साह मन और शरीर को दिशाहीन बना देता है। ऐसे में बच्चे सामाजीकरण की उस प्रक्रिया से भी अलग-थलग रह जाते हैं, जिसमें उन्हें आयु, वर्ग और लिंग आधारित विविधता का ज्ञान होता है, परिपक्वता आती है और सच-झूठ, अच्छे-बुरे की समझ विकसित होती है। समझ का विकसित होना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि समझ और सूझबूझ से ही व्यक्ति में “सुंदर” की बेहतरीन कल्पना को समझने और उसे साकार करने की क्षमता विकसित होती है। 

बेशक तकनीक और यंत्रों ने मानव जीवन में आसानियां पैदा की हैं। लेकिन मौजूदा दौर में जिस तरह का रोबोटिक डेवलपमेन्ट हो रहा है, उसके नकारात्मक प्रभावों से “बच्चा” नामक बायोलाॅजिकल जीव सुरक्षित नहीं है। रोबोटिक डेवलपमेन्ट और तकनीक आधारित गतिविधियां बाज़ार की ज़रूरत भी है। वो बाज़ार जहां व्यक्ति नागरिक नहीं उपभोक्ता है और जहां बच्चा छात्र/छात्रा नहीं बल्कि आदर्श उपभोक्ता है। बाज़ार की यह ज़रूरत बाल उपभोक्ताओं के मन के तारों में चिन्गारियां पैदा कर रही हैं और उन्हें रोबोट की तरह व्यवहार करना सिखा रही हैं। ऐसा रोबोट जो एक रिमोट से संचालित होता है। विचित्र बात है कि बाज़ार विविध रूपों और माध्यमों से बच्चों से संबंध बनाए हुए है। बच्चों के मन बहलाने वाले टाॅफी-चाॅकलेट, बिस्कुट और अन्य पोषक पदार्थों से लेकर उनकी शिक्षण सामग्री जैसे पेन्सिल, रबर, काॅपी-कलम और किताब आदि पर जी.एस.टी. लागू है। ऐसे बाज़ारमय परस्थितियों में तकनीक की मार अलग है। इन्हीं परिस्थितियों में “देश का भविष्य पल रहा है।” इस समय के बच्चों की तुलना उन पंक्षियों से करना बेमानी नहीं है, जो चारों ओर से शिकारी के जाल में फंसे हुए हों और जिनके समक्ष उड़ान भरने की चुनौती हो। 

ह समझने की ज़रूरत है और हमारे-आप जैसे लोगों का नैतिक दायित्व भी है कि हम बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बच्चों विशेषकर किशोरावस्था के बच्चों को अपने ही मां-बाप और परिवार में विद्रोही बन जाने की परिस्थितियां पैदा करने वाले कामों में सहयोगी न बनें। कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य हैं। तो मैं कहना चाहता हूं कि बच्चों को मोबाइल के लिए प्रेरित करके, उन्हें बायोलाॅजिकल से रोबोटिक न बनाया जाए। देश के भविष्य से खिलवाड़ करना किसी भी तरह उचित नहीं है। अच्छा होता कि बच्चों को किताबों से दोस्ती के लिए प्रेरित किया जाए। क्योंकि एक बेहतर कल का रास्ता किताबों की दुनिया से होकर निकलता है।

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नोट- वास्तविक घटना पर आधारित। सभी पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं।