Monday, December 26, 2011

कुछ शब्द लखनऊ पुलिस की तारीफ में


पिछली रात मेरी ट्रेन एक घण्टा बीस मिनट लेट थी। रात 12.20 बजे लखनऊ पहुंचने के बाद चार बाग रेलवे स्टेशन से प्री-पेड आॅटो द्वारा विकास नगर पहुंचा। मां भी साथ थीं। एक रजाई, दो बैग और एक झोला कुल मिलाकर चार सामान थे हम लोगों के साथ। हम लोग रात 1.00 बजे तक विकास नगर पहुंच तो गए लेकिन पैसा देने की जल्दी में एक झोला आॅटो में ही छूट गया। आॅटो वाला भी जल्दी में था। जबतक हमारी आवाज़ उसके कान तक पहुंचती उसके हाथ क्लच और गियर दबा चुके थे। खुर्रम नगर चैराहा और टेढ़ी पुलिया तक चक्कर काटने के बाद भी आॅटो वाला नहीं दिखाई दिया। वापस कमरा पर पहुंचकर प्री-पेड आॅटो सर्विस की भुगतान रसीद के पीछे लिखे फोन नम्बर पर सम्पर्क किया। चार बाग पुलिस कन्ट्रोल रूम का था। जिस व्यक्ति ने मेरा फोन रिसीव किया उन्हें मैंने अपना नाम, पता और मोबाइल नम्बर के अलावा भुगतान रसीद पर अंकित आॅटो का नम्बर और आटो चालक का नाम बताया। मुझे अगली सुबह मुझे चार बाग पुलिस स्टेशन पर आने के लिए कहा गया। 5 मिनट के अन्दर ही मेरे मोबाइल पर फोन करके बताया गया कि बैग खोने की बात प्री-पेड आॅटो पर तैनात व्यक्ति को बता दी गयी है। पता चलने पर मुझे सूचित किया जाएगा। पर ये क्या कि अभी ठीक से रात के दो भी नही ंबजे थे कि वह आॅटो, जिसमें मेरा बैग छूट गया था, वापस आ चुका था।
हम लोग हैरान रह गए कि क्या इतने कम समय में भी कोई विभाग या व्यक्ति किसी समस्या का संज्ञान लेता है। यकीन कीजिए ऐसा ही हुआ। मेरे मकान मालिक की नींद ज़रूर खराब हुई लेकिन पहली बार खाकी की तारीफ में मुझे शब्द ढ़ूंढ़ना पड़ रहा है और शब्द मिल नहीं रहे हैं।
वाक़ई लखनऊ पुलिस की तारीफ में आज बहुत कुछ कहने को जी चाहता है। मैं लखनऊ पुलिस का विशेषकर 25.12.2011 की मध्यरात्रि ड्यूटी पर तैनात उस पुलिस वाले बन्धु, जिनका नाम नहीं पूछ सका, का विशेष रूप से आभार और शुक्रिया अदा करता हंू।
इस घटना ने अबतक पुलिस महकमे के बुरे अनुभवों को भुलाने की वजह दे दी है। फिर भी पुराने अनुभव मेरे लेखन का हिस्सा बन चुके हैं इसलिए किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त तो होंगे ही। खासकर इस घटना से आठ दिन पहले वाली घटना जब उसी प्री-पेड काउण्टर पर तैनात महकमे का व्यक्ति ने मुझसे यह कहकर अधिक पैसे की रसीद बनाने की कोशिश की थी कि मेरे साथ लेडिज है फिर भी मैं बहस कर रहा हूं। यह घटना 18.12.2011 की रात 10.25 बजे की है। बहरहाल इस वक्त मैं शिकायत नहीं प्रशंसा के मूड में हूं। एक बार फिर लखनऊ पुलिस को बधाई।
आटो चालक रवि जिसके आटो का नम्बर 5265 है का भी शुक्रिया इस उम्मीद के साथ कि यात्रियों के साथ अच्छा बरताव के लिए किसी आमिर खां के विज्ञापन की जरूरत न पड़े।

Monday, December 19, 2011

मुस्लिम आरक्षण: पसमांदा मुसलमानों पर नज़र


पिछले कुछ महीनों से मुस्लिम आरक्षण बहस का केन्द्रीय विषय बना हुआ है। छोटे-बड़े सभी दलों के नेताओं के बयान आ रहे हैं। बयानों में सच्चर और रंगनाथ की दुहाइयां दी जा रही हैं। कांग्रेसी सांसद सलमान खुर्शीद से लेकर आज़म खां, मुलायम सिंह, मुख्तार अब्बास नकवी जैसे नेता इस सवाल पर काफी गंभीर दिखाई दे रहे हैं। गंभीर हो रहे इस माहौल में तमिलनाडू और आन्ध्र प्रदेश का उद्धरण भी शामिल है, जहां पर सभी मुसलमानों के लिए आरक्षण का प्रावधान है। दक्षिणी राज्यों में मुसलमानों की स्थिति चाहे जैसी हो उत्तर भारत के मुसलमानों में या यूं कहें कि मुसलमानों में जाति स्तरीकरण की बात को सच्चर कमेटी ने स्वीकार किया है। यदि इस कमेटी ने स्वीकार नहीं भी किया होता तो भी इस सच्चाई को ठुकराना मुश्किल है कि मुसलमानों में जो पिछड़े हैं और वो जिनकी स्थिति दलितों के समान है, को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। भेदभाव का शिकार अजलाफ और अरजाल तबका पहले से ही आरक्षण के दायरे में है। आरक्षण के संदर्भ में दो बातें प्रासंगिक हैं। एक तो इस बात की जांच होनी चाहिए कि मण्डल के बावजूद पिछड़े मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का लाभ क्यों नहीं पहुंचा? दूसरी बात यह कि दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति का दर्जा कब मिलेगा?
अल्पसंख्यक समुदाय की समस्याओं से इंकार नहीं है। साम्प्रदायिक आधार पर होने वाले भेदभाव भी पूरा देश अवगत है। लेकिन इस मर्ज की दवा आरक्षण नहीं बल्कि सियासत के मैदान में छुट्टे साँढ़ की तरह घूम रहे उन व्यक्तियों को जेल के अन्दर करना है जो कभी फांसीवादी एजेण्डे के तहत साम्प्रदायिक हिंसा करके अल्पसंख्यक समुदाय में भय पैदा करते हैं। जिसके कारण ईसाई, सिख के साथ-साथ देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को शिक्षा और नौकरियों के अवसरों से स्वतः वंचित होना पड़ता है। विशेषकर अदृश्य रूप में व्याप्त सांप्रदायिक मानसिकता और इससे जनित हिंसा और परिणामस्वरूप पैदा होने वाली परिस्थिति पर अलग से नीति बनाने की जरूरत है। मुमकिन है आने वाले समय में प्रीवेन्शन आॅफ कम्यूनल वायलेन्स बिल से इस समस्या का कोई समाधान निकल आए। इसलिए आरक्षण के बहस को साम्प्रदायिक समुदाय के आइने में देखना उचित नहीं है। 
मण्डल लागू होने के समय से ही पसमांदा मुसलमान अर्थात अजलाफ और अरजाल ओ.बी.सी. के अन्तर्गत आरक्षण की श्रेणी में शामिल हंै। फिर उसके लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जरूरत क्या है? यह सवाल काफी प्रासंगिक है। क्योंकि इस सवाल का जवाब दिए बगैर पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण की व्यवस्था बनाने की दिशा में पहल नहीं की जा सकती है। दरअसल आरक्षण का हक रखने वाले पसमांदा मुसलमानों को जिस अनुपात में लाभ पहुंचना चाहिए था, वो अबतक नहीं पहुंच सका है। पिछले बीस वर्षों में देश और दुनिया में बहुत से सामाजिक बदलाव हुए। लेकिन इस अवधि में तुलनात्मक रूप से पसमांदा मुसलमानों की शैक्षिक और सामाजिक स्थिति में कोई खास बदलाव भी नहीं आया। ज़ाहिर है इसके पीछे भेदभाव की मुख्य भूमिका रही है। इसलिए ओ.बी.सी. आरक्षण होने के बाद भी पसमांदा मुसलमान मुख्य धारा से जुड़ नहीं पाया है। यदि 6 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण की व्यवस्था हो जाती है तो इनकी स्थिति यूं ही बनी रहेगी।
चूंकि अगले साल चुनाव है इसलिए खुर्शीद के बयान को चुनावी स्टंट के रूप में भी देखा जा रहा है। सच्चाई चाहे जो हो सलमान ने बतौर मंत्री यहां तक कहा है कि अगले तीन महीनों में मुस्लिम आरक्षण को लागू कर दिया जाएगा। इसके लिए युद्ध स्तर पर कोशिश जारी है। लेकिन ऐसे आरक्षण का क्या तर्क जिससे शासक वर्ग को एक बार फिर से पिछड़ों के शोषण का अधिकार प्राप्त हो जाए। क्या खुर्शीद साहब नहीं जानते कि शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ापन ही आरक्षण का संवैधानिक आधार हो सकता है। यह मुद्दा विचारणीय है। क्योंकि इस तरह का कोई भी कदम संघ परिवार जैसी सांप्रदायिक ताकतों के मुस्लिम अपीजमेंट के तर्क को जस्टीफाई करने वाला होगा। दूसरी तरफ आरक्षण के परिप्रेक्ष्य में पसमांदा मुसलमान की स्थिति वैसी ही बनी रहेगी जैसा मंडल के लागू होने से लेकर अबतक रही है। इसकी वजह भी साफ है। इस बात की गारण्टी कौन लेगा कि मुस्लिम समाज के ही चन्द मुट्ठी भर लोग मुस्लिम आरक्षण के नाम पर पसमांदा मुसलमानों का हक नहीं मारेंगे। ग़ौर तलब है कि अबतक चन्द मुट्ठी भर सामन्ती हैसियत रखने वाले मुसलमान ही तमाम मुसलमानों के नाम पर अपने अनुसार राजकाज की गतिविधियां चलाते आए हैं और पसमांदा मुसलमानों के जीवन से संबंधित तमाम फैसले करते आए हैं।
शिल्पकार टाइम्स, 16-31 दिसम्बर 2011

Friday, November 18, 2011

क्या विकास का कोई रास्ता पीरनपुर भी जाता है...?

गलियां...... गलियों में बिखरे कूड़ों के ढे़र....., घर..... घरों में मनुष्य और बकरियों का एक साथ उठना-बैठना, ड्राइंग रूम, बेडरूम, गेस्ट रूम और कीचेन सभी का एक साथ होना....., अपने गांव-घर से अलग लगता है। इस अलगाव में ढे़रों सवाल घूमड़ते हुए बादल की तरह मेरे मन को बेचन करते हैं। सवालों के बीच यह सवाल भी कि “क्या विकास का कोई रास्ता पीरनपुर भी जाता है...?”

जब विकास और संवृद्धि के नए-नए रिकार्ड कायम हो रहे हैं, तो ऐसे में यह सवाल लाज़मी हो जाता है कि लोकतंत्रीकरण और सामाजिक न्याय का ग्राफ कितना ऊपर उठा? केन्द्र और राज्य की दर्जनों योजनाओं का लाभ वंचित समुदाय तक किस हद तक पहुंचा? कम्यूटरीकरण से पारदर्शिता बढ़ी है लेकिन दलितों और मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न विभागों की कम्प्यूटरीकृत सूचियों से गायब है। ऐसी आबादी पर सरकारी अमले की नज़र पड़ती ही नहीं। ग्रामीण तो छोडि़ए शहरी इलाकों में भी ऐसी बस्तियां और मुहल्ले हैं जहां उपभोक्तावाद अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुका है लेकिन विकास का नामों निशान तक नहीं है। इस संदर्भ में फतेहपुर जिला के पीरनपुर मोहल्ला में स्थित रिफ्युजी कालोनी के पीछे वाली बस्ती का जि़क्र प्रासंगिक हो जाता है।
फतेहपुर भौगोलिक रूप से इलाहाबाद और कानपुर के बीच स्थित है। फतेहपुर के पूरब में ‘‘पूरब का आॅक्सफोर्ड, इलाहाबाद है तो उत्तर-पश्चिम दिशा में उद्योगों और कारखानों की नगरी कानपुर है। उत्तर दिशा में प्रदेश की राजधानी लखनऊ है 135 किमी॰ की दूरी पर स्थित है। फतेहपुर से इन तीनों ही शहरों के लिए सड़क यातायात की अच्छी सुविधा है। हर आधे घण्टे के अंतराल पर बस मिल जाती है। लेकिन फतेहपुर में कुछ बस्तियां ऐसी भी हैं जहां तक इस जिला के भौगोलिक स्थिति का लाभ नहीं पहुंच पाता। ऐसी बस्तियों के लोग देश और दुनिया की घटनाओं और परिघटनाओं से बेखबर गन्दगी और बदबू में रहने को विवश हैं। कई कालोनियों में बंटे इस मोहल्ला पीरनपुर में एक कालोनी का नाम रिफ्यूजी कालोनी है। इस कालोनी के ठीक पीछे एक बस्ती है। इस बस्ती में मुस्लिम आबादी का बाहुल्य है। मुख्य सड़क से रिफ्यूजी कालोनी होकर बस्ती की ओर जाने वाली गली जहां मुड़ती है वहां से मुस्लिम बाहुल्य बस्ती शुरू हो जाती है। बस्ती में दाखिल होते ही कीचड़ की चादर में लिपटी आर.सी.सी. गलियों का राज खुलने लगता है। मौसम बारिश का हो तो नालियों के मेढ़ों पर चलते समय कभी भी पैर फिसलने और चोट पहुंचने का खतरा बना रहता है। पिछले हफ्ते जिस महिला के पैर में मोच आया था उसकी वजह जल-जमाव ही थी।
आश्चर्य होता है कि रिफ्यूजी कालोनी तक न गन्दगी है और न ही दुर्गन्ध। दुःख होता है कि एक तरफ सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान चल रहा है वहीं पीरनपुर बस्ती कूड़ों से पटा हुआ है। थोड़ी सी बारिश यहां जल-जमाव के लिए काफी है। उसपर से बदबू ऐसी कि खास को तो छोडि़ए आम लोंगों के लिए भी यहां रूकना मुश्किल काम है। जिला मुख्यालय पर स्थित यह बस्ती सड़क, स्वास्थ्य और सफाई आदि योजनाओं/अभियानों के शुरू होने से पहले की कहानी बयान करती है। उस दौर की जब गांव सम्पर्क मार्ग से जुड़े नहीं थे और ग्रामीण जीवन मुख्य धारा के नगरीय जीवन से कटा हुआ था। पीरनपुर इस धारा से आज भी कटा हुआ है। कुछ ऐसे कि मानव विकास के तीनों सूचकांकों पर यहां के लोग धड़ाम से गिर गए से प्रतीत होते हैं। गन्दगी के कारण कालरा, डायरिया, और श्वास संबंधी गंभीर बीमारियां गाहे-बगाहे दस्तक देती रहती हैं। लेकिन इस बस्ती के लोग इस बात से भी बेखबर हैं कि उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता क्यों कम है, उनकी बस्तियों की कुछ जवान महिलाएं बेवा क्यों है और बच्चे यतीम क्यों हैं?
दर असल विकास का जो दूसरा सूचकांक है ‘शिक्षा’ वह तो यहां नगण्य है। कहने को प्राथमिक विद्यालय है लेकिन कूड़ों और कीचड़ों के दलदल से घिरे विद्यालय में बच्चों को एम.डी.एम. मिल जाए तो बहुत है। यही हाल हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट स्तर की शिक्षा का भी है। कक्षा 5 और 8 तक पढ़ लेना इस बस्ती के बच्चों के लिए बड़ी उपलब्धि है। कक्षा 10 की छात्रा यासमीन के अनुसार उनकी कक्षा और कोर्स क्लास मानीटर के भरोसे ही चलता है। शिकायत करें भी तो किससे सभी मैडम न जाने कहां रहती हैं? तीन-चार सौ रूपए की फीस दे पाना ऐसी लड़कियों के लिए पहाड़ तोड़ने जैसा होता है, जो पढ़ना चाहती हैं। फीस ही नहीं काॅपी-कलम और किताबों पर छाई मंहगाई इनके बचे-खुचे अरमानों पर भी पानी फेर देता है। ऐसी स्थिति पीरनपुर बस्ती की पढ़ाई में दिलचस्पी रखने वाली लड़कियों को शिक्षा के अवसरों से वंचित करने के लिए काफी होती है। ऐसी लडकियां अपने परिवार की आजीविका लिए कढ़ाई का काम सीखती हैं। लेकिन कक्षा आठ के बाद पढ़ाई छोड़ चुकी रूखसाना बताती हैं कि “कढ़ाई का हुनर भी बेकार साबित हो रहा है, क्योंकि उनके लिए काम नहीं है।” यदि उम्र छोटी है तो लड़कियां भी अपने भाईयों के साथ कूड़ा बिनती हैं या फिर अपनी माँ-बहन के साथ झाडू़-बरतन करती हैं।
उक्त संदर्भ में मानव विकास का तीसरा सूचकांक यानि आर्थिक स्थिति भी मुंह चिढ़ाता नज़र आता है। इस सूचकांक पर भी बस्ती की स्थिति असंतोषजनक है। लड़कियों की तरह लड़के भी आजीविका चलाने के लिए काम करते हैं। कोई ऐसा वैसा काम नहीं कि करने बाद हाथ-मुंह धो लिया और हो गया। पूरी बस्ती की आजीविका मुख्यतः कूड़ा कारोबार पर निर्भर है। सुबह होते ही इस बस्ती के बच्चे और बड़े कूड़ा की खोज में निकल जाते हैं और शाम ढ़लने के बाद ही वापस आते हैं। यदि सामाजिक असुरक्षा नहीं होती तो जवान होती लड़कियां भी कढ़ाई के बदले कूड़ा बिनने का ही हुनर सीखतीं। बस्ती में जगह-जगह फैली-बिखरी कूड़े की छोटी-बड़ी बोरियां अपनी दुर्गन्ध से आगन्तुकों को अपनी बेबसी का हाल बताती हैं। हैरानी होती है कि कूड़े के ढे़र पर रहने वाले पीरनपुर वासियों को यह दुर्गन्ध लेश मात्र भी महसूस नहीं होती है। याद आया गज़म्फ़र का उपन्यास “दिव्यवाणी” जो मूलतः उर्दू में लिखा गया है। इस उपन्यास का वह कथानक जिसमें प्रेमी अपनी दलित प्रेमिका को गुलाब की खुशबू से रूबरू कराता है तो उसकी प्रेमिका को गुलाब की खुशबू किसी दुर्गन्ध के समान लगती है। क्योंकि नालियों और बजबजाती गलियों की दुर्गन्ध की आदत ही उसके लिए सुगन्ध होती है। उसके सौन्दर्यबोध की कसौटी पर गुलाब की खुशबू दुर्गन्ध समान होती है। शायद ऐसा इसलिए होता है कि उस लड़की को कभी अवसर ही नहीं मिला कि वो अपनी बस्ती से बाहर के वातावरण और घटनाओं के बारे में तनिक भी सोचे। तो क्या गन्दगी से बजबजाती गलियों की दुर्गन्ध में ही पीरनपुर वासियों का भी सौन्दर्यबोध छुपा हुआ है? यदि ऐसा है तो फिर इसे इस दौर की घटना नहीं बल्कि महापरिघटना कहा जाना चाहिए है। जिसका एक सिरा वैदिक इतिहास से तो दूसरा सिरा समकालीन सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों से जुड़ा है।
पीरनपुर जैसी बस्तियों की कमी नहीं है इस देश में। आमतौर पर यह कहकर मामला टाल दिया जाता है कि जहां मुसलमान रहते हैं वहां के हालात ऐसे ही होते हैं यानि गन्दगी-बदबू और मुसलमानों का चोली-दामन का साथ है। लेकिन यह भी तो मुमकिन है कि जिन मुसलमानों का तादाम्य गन्दगी और बदबू जैसी भ्रान्तियों से जोड़ा जाता है वो मुसलमान ऐसी बस्तियों में रहने के लिए ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से मजबूर हों। सरकारी-गैर सरकारी संसाधनों की बांट जोह रहे हों। सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर ढे़रों योजनाओं की लम्बी सूचियां पढ़ी जा सकती हैं। मौजूदा कारपोरेट दौर में बड़े-बड़े होर्डिंग्स भी देखे जा सकते हैं, जिनपर विकास योजनाओं के बारे में स्पष्ट जानकारियां होती हैं। फिर पीरनपुर निवासी सरकारी योजनाओं की पहुंच से वंचित क्यों हैं?
एक बेहतर कल के सपने कौन नहीं देखता। झाड़ू-पोछा और बर्तन-चाकी करके दूसरे के घरो को चमकाने वाली महिलाओं के गन्दगी, कीचड़ और बदबू के बीच रहने के पीछे पहली वजह यह है कि उनकी इतनी क्षमता नहीं है कि स्थान परिवर्तन करके किसी दूसरी बस्ती या मुहल्ला में बस जाएं। दूसरी वजह यह कि कूड़ा बिनना इनके परिवारों की आजीविका का मुख्य साधन है। करें भी तो क्या करें, इनकी बस्ती शहरी क्षेत्र में है और डूडा (District Urban Development Agency) के माध्यम से क्रियान्वित किसी भी योजना की पहुंच से दूर है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह कि उपलब्ध सरकारी योजनाओं का लाभ इन तक नहीं पहुंच पाता। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सड़क, आवास किसी भी योजना तक पीरनपुर जैसी बस्तियों में रहने वाले मुसलमानों की पहुंच नहीं है। 35 वर्षीय नरगिस अपना दुःख व्यक्त करते हुए कहती हैं कि “बड़े-बड़े लोगों का बी.पी.एल. कार्ड बन चुका है लेकिन उनका कार्ड अबतक नहीं बन सका है। तहसील, कचहरी, नगरपालिका जा नहीं सकती। वार्ड सभासद से कई बार कहा। लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं है।” कुछ मामलों में तो इस बस्ती के लोग नागरिकता की बुनियादी पहचान यानि राशन कार्ड के साथ-साथ वोटर कार्ड (मतदाता पहचान पत्र) से भी वंचित हैं।
पीरनपुर से वापस आ चुका हूँ लेकिन मन है कि बार-बार वहीं भागता है। गलियां...... गलियों में बिखरे कूड़ों के ढे़र....., घर..... घरों में मनुष्य और बकरियों का एक साथ उठना-बैठना, ड्राइंग रूम, बेडरूम, गेस्ट रूम और कीचेन सभी का एक साथ होना....., अपने गांव-घर से अलग लगता है। इस अलगाव में ढे़रों सवाल घूमड़ते हुए बादल की तरह मेरे मन को बेचन करते हैं। सवालों के बीच यह सवाल भी कि “क्या विकास का कोई रास्ता पीरनपुर भी जाता है...?”
SHILPKAR TIMES, 16-30 NOVEMBER, 2011

Friday, November 4, 2011

बाज़ार के हाथ परिवार, समाज और देश की खु़शियाँ

पिछले कुछ महीनों से भारत में गरीबी और गरीबी निर्धारित करने वाले मानकों पर बहस तेज है। अर्थशास्त्री एस॰डी॰ तेन्दुलकर समिति की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गरीबी दर 37.2 प्रतिशत है। योजना आयोग द्वारा जारी 2006 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गरीबी दर 28.5 प्रतिशत है। गरीबों की संख्या में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि की वजह तेन्दुलकर समिति द्वारा गरीबी मापने के लिए नयी विधि का अपनाया जाना है। बात यहीं खत्म नहीं होती एन॰सी॰ सक्सेना समिति की रिपोर्ट पर विश्वास करें तो यह दर 50 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंच सकता है। जाहिर है गरीबी रेखा तय करने की हर युक्ति चाहे प्रति व्यक्ति प्रति दिन पोषण प्राप्ति की हो या प्रति व्यक्ति प्रति दिन आय की हो, निश्चित तौर पर गरीबों की संख्या में वृद्धि हुई है। अर्थव्यवस्था पर नज़र डालें तो आर्थिक विकास दर 7 से 8 अंकों के बीच घट-बढ़ रहा है। अंकों के उतार-चढ़ाव में धन की अपार वर्षा भी हो रही है। राजधानी दिल्ली और लखनऊ में सोना-चाँदी और दूसरे आभूषणों की हजारों टन की बिक्री भारत में गरीबी, इसके मानकों और गरीबों की संख्या पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। लेकिन यह प्रश्न भी अनुत्तरित नहीं रह गया है। क्योंकि ऐसे तथ्य प्रकाश में आ चुके हैं कि 20 प्रतिशत लोगों का ही 80 प्रतिशत संसाधनों पर आधिपत्य है। इसमें भी बाजारपरस्तों की पकड़ कुछ ज़्यादा ही मज़बूत है। शायद ही कोई अखबार या न्यूज़ चैनल हो जो पिछले एक सप्ताह से उपभोग की तरह-तरह के लुभावने विज्ञापनों से धनवर्षा की दावत न दे रहे हों। स्थिति कुछ ऐसी है कि अखबार के फ्रण्ट पेज पर विभिन्न महिला/पुरूष माडलों के मुस्कराते चेहरों और किसी उत्पाद की चमक-दमक में देश-दुनिया की कोई खबर ढ़ूंढ़ना दिक्कत तलब है।
अच्छी बात है पर्वों पर धूम-धाम तो होना ही चाहिए। धनवर्षा का पर्व शहर से लेकर गांव तक हर जगह समान रूप से मनाया जाता है। इस पर्व की मान्यता तो मुसलमानों, पंजाबियों और ईसाइयों आदि अल्पसंख्यक समुदायों में भी बड़े पैमाने पर है। यानि इस पर्व का साम्प्रदायिक सौहार्द्र वाला पक्ष महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या इस सवाल पर भी गौर किया जाता है कि हमारे पर्व बाजारवाद की दृष्टि से कैसे होते हैं? मध्यम वर्ग का व्यक्ति बस इतना ही कह पाता है कि मंहगाई ने त्योहारों का मज़ा फीका कर दिया है। निम्न वर्ग को इतनी समझदारी और समझ कहाँ है कि वो कम से कम इतना भी सोच सके। ईद, दशहरा, होली या दीपावली हर पर्व बाजारवाद के लिए मुनाफाखोरी और मिलावटखोरी को बढ़ाने का माध्यम बन चुका है। फिर भी धन की वर्षा आश्चर्य का विषय नहीं है और न ही बाजार के प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभावों पर ध्यान है। क्योंकि संबन्धित खबरें बाजार से निकलकर आती हैं और फिर बाजार में ही समाहित हो जाती हैं। गौर करने की बात यह है कि जो खबरें या अन्य संकल्पनाएं बाजार की कोख से जन्म लेती हैं उन पर देश का कोई कानून लागू नहीं होता। यही कारण है कि बाजार मानवीय संवेदनाओं पर आर्थिक संसाधनों के नियोजन के विपरीत आभूषणों-रत्नों और पटाखों पर पानी की तरह लाखों-करोणों रूपए खर्च करने के लिए प्रेरित कर रहा है। आज परिवार, समाज और देश की खुशिया बाजार के हाथ हैं।
संवृद्धि और विकास का संतुलन देखिए। ग्लोबल आर्थिक संकट के दौर में आर्थिक विकास दर जी॰डी॰पी॰ का 7 प्रतिशत रहने की उम्मीद जताई जा रही है। फिर भी भूखे, वस्त्रविहीन और छत विहीन आबादी बढ़ती जा रही है। जबकि केन्द्र और राज्य स्तर पर रोजगार, स्वास्थ्य और आवास योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। बुद्धिजीवियों की बात छोडि़ए खुद एन॰सी॰ सक्सेना की रिपोर्ट देखिए जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि भारत में 50 प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन बाज़ारवाद के क्या कहने हैं, सुविधाभोग के उद्देश्य के लिए अधिक खर्च करने का गुण तो कोई बाजारवादियों से सीखे। फिर खर्च करने के लिए अधिक धन संचय भी तो जरूरी है। वरना आधुनिक दौर का कौन बनिया/साहूकार चारा डालेगा। आभूषण से लेकर बाइक, कैमरा, टी॰वी॰, मोबाइल सबकुछ फ्री वाले आॅफर के साथ। इसके बाद भी आत्मिक संतुष्टि न प्राप्त हो तो सरकारी संसाधनों में भी हिस्सेदारी सुनिश्नित करना कोई मुश्किल काम नहीं है। गांधी जी का मुस्काराता चेहरा दफ्तर के किस बाबू को पसंद नहीं! फिर बाबू को मुस्कराते गांधी के चित्र वाले नोट और अपात्रों को बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय अन्न योजना कार्ड आदि की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो जाती है। एन॰सी॰ सक्सेना अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि देश में केवल 49.1 प्रतिशत गरीबों के ही बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड बने हैं। जबकि 17.4 प्रतिशत धनी लोग भी बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड का लाभ उठा रहे हैं। क्या बात है! बुराई का अन्त करते-करते हम इतने बुरे बन चुके हैं कि ज़रूरतमंदों का हक मारने में थोड़ा भी नहीं हिचकिचाते। जब जरूरतमंद सरकारी विभागों में कार्ड बनवाने की अर्जी देते हैं तो उन्हें यह भरोसा दिलाया जाता है कि ‘‘कार्ड बनने बंद हो चुके हैं, अगले साल फरवरी या मार्च में ही बन पाएंगे।’’ कोई पूछे नीति निर्धारकों और नीति नियंताओं से कि ऐसे दिलासों की समय अवधि के बीच क्या किसी बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड और वृद्ध/विधवा या विकलांग पेंशन के लिए पात्र व्यक्तियों की आवश्यकताएं ठहर सी जाती हैं?
मजबूत पक्ष यह भी है कि बढ़ती महंगाई, बढ़ता खर्च, अधिक आय की महत्वाकांक्षा विकास दर और मुद्रा स्फीति का घटना-बढ़ना आदि सबकुछ बाजारवादी ताकतों द्वारा संचालित किए जा रहे है। इस प्रक्रिया में हमारी योजनाओं की रूपरेखा तय करने वाली लोकतांत्रिक संस्थाएं भी बाजारवाद के प्रभाव से बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। तभी तो हक मारने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ गरीबी को परिभाषित करने में भी तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। 1974 से 1979 के पांचवी पंचवर्षीय योजना का प्रमुख लक्ष्य ही था ‘‘गरीबी हटाना’’। गरीबी ऐसी हटी कि भूख और बेकारी के कारण विस्थापन और आत्महत्याओं का दौर शुरू हो गया। विशेषकर 1991 के बाद संदर्भ देखें तो बात आन्ध्र और महाराष्ट्र के किसानों की हो या उड़ीसा में आम की गुठली और मेंढ़क उबालकर खाने वाले लोगों की हो या फिर बनारस में खून, जमीन और अपने कलेजे के टुकड़ों तक को बेच देने वाले बुनकरों की हो, हर जगह निर्धनता और अभाव का बोलबाला रहा है। फिर भी हमारे देश के नीति निर्धारकों को गरीबों की पहचान और बाजारवाद की यातनाओं का अनुभव नहीं हो पा रहा है।
हजार टन सोना और करोणों के पटाखों के क्रय-विक्रय के इस दौर में गैर बराबरी की भावना पर आधारित बाजारवाद की चुनौतियां कठिन हैं। इन चुनातियों का सामना करना निहत्थों अर्थात गरीबों के लिए और भी कठिन है। समय है कि बाजादपरस्तों की जमात में शामिल होने के बजाए इस दीपावली के अवसर पर दीपों की ऐसी श्रृंखला प्रज्जवलित की जाए जिसका प्रकाश गरीबों-वंचितों तक भी पंहुच सके।
Shilpkar Times, 1-15 November, 2011

Thursday, October 20, 2011

ये कौन है जो हवाओं का रूख बदलता है!

यह परिस्थितियां निराश करने वाली हैं कि एक महिला अपने अधिकारों की प्राप्ति और मूलभूत समस्याओं के निदान के बजाए मोबाइल की इच्छा रखती है। इसमें सरकार और उसकी नीतियों की बड़ी भूमिका है, विशेषकर उन नीतियों का जो जनता को उभोक्ता से आगे कुछ समझता ही नहीं।

पिछले दिनों पश्चिमी उ॰प्र॰ के सहारनपुर जिला स्थित बेहट तहसील के एक ऐसे गांव में जाने का अवसर मिला जिसकी पहचान न तो गांव की है और न ही कस्बे की है। जीवन स्तर के आधार पर फूल काॅलोनी नामक इस गांव की महिलाओं के साथ बैठक की। बैठक के दौरान उपस्थित महिलाओं से उनकी समस्याओं की जानकारी ली। बातचीत के दौरान बिजली, पानी, मकान, स्कूल जैसी कई समस्याओं से रूबरू हुआ, जिनका सामना काॅलोनी के लोगों को करनी पड़ती है।
ध्यान दिलाना चाहता हूं कि बस्ती और गांव के बीच अटके हुए फूलपुर काॅलोनी तक वो सारे संसाधन पहुंच चुके हैं जो नव उदारवादी, बाजारवादी और विनेवेशवादी नीतियों से प्रेरित हैं। जैसे इनमें मोबाइल सर्वप्रमुख है। जीवन का अभिन्न अंग बन चुका मोबाइल वंचितों और पिछड़ों के लिए भी अपरिहार्य हो चुका है। मुझे हैरानी तब हुई जब काॅलोनी की एक महिला ने बताया कि उसकी सबसे बड़ी समस्या मोबाइल का न होना है। मैंने धैर्य के साथ उस महिला की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बारे में बात की। पता चला कि उस महिला के समक्ष भी आजीविका, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, स्वच्छता, घर, और बच्चों के लिए स्कूल की समस्या है। विकास का माॅडल देखिए कि इन संसाधनों से वंचित एक महिला के लिए मोबाइल कितना महत्वपूर्ण हो चुका है। हो भी क्यों नहीं! जब हमारे दूरसंचार मंत्री ही चाहते हैं कि भारत दूरसंचार के लिए एक हब बन जाए। इससे पहले तिहाड़ की हवा खा रहे पूर्व पंत्री डी॰ राजा ने भी मोबाइल को गांव-गांव के व्यक्ति-व्यक्ति तक मोबाइल पहंुचाने की बात कही थी। 
बहरहाल पिछले दिनों राष्ट्रीय दूरसंचार नीति, 2011 के लक्ष्य बताते हुए उन्होंने “एक देश-एक लाइसेन्स” की बात कही। (Draft National Telecom Policy 2011 aims for 'one nation-one licence'; targets full MNP and free roaming. Sibal also said that he wants India to become a hub for telecommunication. "Draft NTP targets broadband on demand," http://ibnlive.in.com/news/new-telecom-policy-makes-roaming-free-sibal/191779-3.html) जिसका मुख्य उद्देश्य दूरसंचार क्षेत्र को निवेश के अनुकूल बनाना है। माननीय मंत्री महदोय ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच डिजिटल खाई को पाटना दूसरा मकसद बताया है। ज्ञात हो कि दूरसंचार क्षेत्र में पहले से ही 74 से 100 प्रतिशत की प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जारी है। फिर “एक देश-एक लाइसेन्स” का मतलब क्या है। क्या इतना अनुकूलन गांव और शहर के बीच की डिजिटल खाई को पाटने में सहायक नहीं साबित हुई है। पिछले दो दशक के अनुभव तो हमें यही बताते हैं कि अनुकूलन उपलब्ध करवाने वाली नीति न सिर्फ निवेशकों के लिए बल्कि 2जी के दलालों और माफियाओं के लिए वरदान साबित हुई है। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति रोटी के बदले मोबाइल को महत्व दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
बहरहाल अच्छी बात यह है कि “एक देश-एक लाइसेन्स” जैसे पंचमार्क में एकता के पुट का आभास होता है। वही एकता जिसके दम पर देश की आज़ादी की लड़ाइयां लड़ी गयीं। वही एकता जिसका उल्लेख संविधान निर्माताओं ने संविधान में किया है। फिर संविधान में समानता की बात भी तो कही गयी है। क्या दूरसंचार के संदर्भ में “एक देश-एक लाइसेन्स” की बात से समानता का उद्देश्य भी पूरा होता है? ऊपर जिस महिला की प्राथमिक आवश्यकता का जिक्र किया गया है क्या उसकी जरूरत पूरी हो सकती है?
जरूरत पूरी हो या न हो, यक्ष प्रश्न यह है कि जरूरतों के निर्धारण का अधिकार किसे है? सरकार, समाज, व्यक्ति या फिर किसी निवेशक को! इस तरह के प्रश्न अपनी प्रासंगिकता ढ़ूढ़ रहे हैं जिनकी बदौलत करोणों लोग मूलभूत समस्याओं के समाधान के बजाय मोबाइल जैसी बेतार संचार यंत्र की अभिलाषा में सुबह-शाम गुजार रहे हैं। फिर तो इनतक इस तरह के यंत्र पहुंचने ही चाहिए। पहुच भी रहे हैं। देखिए भाव कितना गिर चुका है मोबाइल बाजार का। एक हजार रूपए के बजट में अच्छे ब्राण्ड का अच्छा मोबाइल गांव और शहर के बीच अपना आस्तित्व और स्तर की खोज में संघर्षरत्त नागरिकों की पहुंच के अन्दर है। लेकिन उस महिला को देखिए। क्या उसके लिए एक हजार की रकम भी जुटा पाना मुमकिन नहीं है? शायद नहीं! तभी तो उसके पास मोबाइल नहीं है। लेकिन इच्छाएं तो उसकी अपनी हैं। सो उसने ज़ाहिर किया कि उसकी पहली प्राथमिकता मोबाइल है। कहने का तात्पर्य यह भी नहीं है कि अन्य सभी लोग जिनकी इच्छा ज़ाहिर नहीं होती वो लाज़मी तौर पर मोबाइल के उपभोक्ता हैं। मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि “ये कौन है जो हवाओं के रूख बदलता है?” जो इच्छाएं हमारी हैं उस पर किसी और का राज कैसे चलता है? कौन है जो हमें विवश करता है कि हम हमारी मूलभूत समस्याओं को छोड़कर पहले मोबाइल जैसी किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष करें। क्या मोबाइल प्राप्ति से उक्त महिला जैसी लाखों-करोणों व्यक्तियों की आजीविका का समाधान हो सकता है? क्या उनके बच्चों की शिक्षा की उचित व्यवस्था हो सकती है? क्या उनके मुहल्ले में फैली गन्दगी और स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का निदान हो सकता है? क्या उनके छत और दरवाजा विहीन घरों को मुकम्मल तौर पर घर का दरजा प्राप्त हो सकता है? किसी भी व्यक्ति के लिए इन सवालों का जवाब मुश्किल नहीं है। ज़ाहिर है कि हमारी इच्छाओं को हमारी सरकारें पूंजीपरस्त निवेशकों के हाथों सौंपने का काम कर रही हैं। निवेश के लिए अनुकूल नीति बनाने के ध्येय में जनता महज उपभोक्ता बनकर रह जाती है। दूसरी तरफ निवेशानुकूल नीतियों में पब्लिक रिड्रेसल होने के बाद भीं आम जनता की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को आसमान की बुलन्दियों पर पहुंचाने के तमाम बिन्दु होते हैं। कहना होगा कि संचार क्रान्ति ने बेतार संचार के माध्यम से संवाद की नयी सुविधाएं उपलब्ध करायी हैं। लेकिन ज़मीन पर रहने वाले भोले-भाले लोगों की ज़मीनी समस्याओं के लिए कुछ खास नहीं किया।
योजनाओं-परियोजनाओं की लम्बी फेहरिस्त में देश में जो कुछ हो रहा है, उसका खामियाजा वंचितों को ही भुगतना पड़ रहा है। क्योंकि योजनाओं की अर्हता और पात्रता वंचितों को ध्यान में रखकर ही बनाएं जाते हैं। यह परिस्थितियां निराश करने वाली हैं कि एक महिला अपने अधिकारों की प्राप्ति और मूलभूत समस्याओं के निदान के बजाए मोबाइल की इच्छा रखती है। इसमें सरकार और उसकी नीतियों की बड़ी भूमिका है, विशेषकर उन नीतियों का जो जनता को उभोक्ता से आगे कुछ समझता ही नहीं। यही वजह है कि वंचित समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी दैनिक आवश्यकताओं और लोकप्रिय आवश्यकताओं के बीच फर्क को समझ नहीं पा रहा है। इन परिस्थितियों को विडम्बना भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वंचित समाज तक शिक्षा और जागरूगता पहुंचने से पहले ही बेतार संचार के विविध यंत्र अपनी चमक-दमक के साथ पहंुचा दिए जाते हैं। फिर इच्छाएं उसी रूप में, उसी गति से परवान चढ़ती हैं जैसे-जैसे फ्री काल्स और फ्री रोमिंग के पुरोधा चाहते हैं। इस प्रक्रिया में एकता, समानता और स्वतंत्रता का मूल दर्श बहुत पीछे रह जाता है।
PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_October_2011

Tuesday, October 11, 2011

विकल्प तलाशता हाशिए का मीडिया

"भूमण्डलीकरण की शब्दावली में यह दौर क्वालिटी और सर्विस का है। दुनिया भर में विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों में इस नाम का ढ़ोल बज रहा है। इस नाम पर बाजारवाद पिछले दो दशकों से हमारे देश में क्वालिटी और सर्विस के नाम पर लोगों को ठगता आ रहा है। हाशिए की मीडिया को विकल्पहीनता की ओर ले जाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जितना बड़ा निवेश, उतनी बड़ी खबर। दुर्भाग्य है कि इस पूंजी प्रायोजित मीडिया की दुनिया में मानवीय संवेदनाओं को तार-तार होते हुए हम नहीं देख पा रहे हैं।..."
मीडिया हमेशा से संचार और संवाद का प्रभावी माध्यम रहा है। कागज के अविष्कार से पहले पत्थर के शिलालेख, ताड़ के पत्ते और ताम्रपत्र मीडिया के प्रचलित माध्यम रहे हैं। समय, समाज और सत्ता परिवर्तन तथा विकास के स्थापित होते नए पड़ावों पर कागज और प्रिन्टिंग प्रेस के अविष्कार ने मीडिया को नयी पहचान दी। मीडिया का रंग-रूप और चरित्र लगातार बदलता रहा। राजाज्ञाओं और फरमानों के संचार वाली मीडिया का जन रूप भी सामने आया। मीडिया के विस्तार में ऐसा समय भी आया जब पूरा विश्व संचार क्रान्ति से रूबरू हुआ। एक बटन दबाया नहीं कि असंख्य पन्ने और संदेश दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच जाते हैं। लेकिन मीडिया के विस्तार यात्रा में कुछ बातें ऐसी हैं जो पीछे छूटती गई हैं। जैसे, जिस प्रिन्ट मीडिया का महत्व कम होना, जिसकी बदौलत समकालीन मीडिया के दूसरे रूपों का विकास हुआ, प्रस्तुति के स्तर पर जन विरोधी विषयों और विधियों का प्रयोग करना आदि। भूमण्डलीकरण के प्रत्यक्ष और परोक्ष हस्तक्षेप से पिछले दो दशकों में मीडिया का चरित्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है। चन्द बड़े घरानों को छोड़ दिया जाए तो मीडिया का बड़ा हिस्सा हाशिए पर पहुंच चुका है।
मौजूदा दौर में मीडिया खासकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की चर्चा जोरों पर है। हो भी क्यों न एक क्लिक में चैनल बदल जाते हैं, एक क्लिक में संदेश सात समुंदर पार पहुच जाते हैं। इसी को ग्लोबल वल्र्ड भी कहा जा रहा है। जहां सबकुछ एक कमरे बैठकर संचालित किया जाता है। काबिले गौर है कि आम तौर पर मीडिया से अभिप्राय समाचार पत्र और समाचार चैनलों से लगाया जाता है। जबकि मीडिया अपने विस्तृत अर्थों में वह सब है जिसके माध्यम से लिखित, मौखिक या दृश्य रूप में संवाद और संचार होता है। चिट्ठी-पत्री और रेडियो बीते जमाने की बातें लगती हैं, जिसका स्थान एस.एम.एस. और एम.एम.रेडियो ने लिया है। अखबार और पत्र-पत्रिकाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन इसके सापेक्ष बाजार की चुनौतियां भी बढ़ी हैं। बाजार के रवैये ने जन मानस में संवादहीनता और संवेदनहीनता को बढ़ाया है। यही कारण है कि आज कानटेन्ट से अधिक सर्कुलेशन पर ध्यान दिया जा रहा है। क्या छापें, कैसे छापें कि सर्कुलेशन बढ़ जाए। बाजारवाद ने प्रिन्ट मीडिया को इस दिशा में बहुत आगे पहुंचा दिया है। कल तक मीडिया के जो समूह औसत क्षमता रखते थे और जिन्होंने भूमण्डलीकरण के मंत्र को वेद और कुरान मानकर निवेशवादियों से दोस्ती कर ली। आज वही समूह बड़े मीडिया घरानों में शुमार किए जाते हैं। जिन्होंने बाजारवाद के साथ दोस्ती से इंकार कर दिया वो मीडिया समूह कमजोर पड़ गए और हाशिए की मीडिया बन कर रह गए। इनके अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के पास न तो चमक-दमक है और न ही सर्कुलेशन बढ़ाने का कोई नुस्खा। ऐसा संभव भी नहीं है कि अमृत बाजार के इतिहास को दोहराया जाए। क्योंकि अंग्रेजों की आर्थिक गुलामी और अमेरिकी चैधराहट निदेशित ॅज्व्ए प्डथ् और ॅठ की आर्थिक गुलामी में बड़ा फर्क है। इन संस्थाओं की छत्रछाया में मीडिया की जो विकास गाथा लिखी जा रही है उसमें खबर लाने-बनाने की कला बदल चुकी, रिपोर्टिंग और आलेख के आवरण नए अर्थ तलाश रहे हैं। एक पूरी की पूरी संस्कृति ने जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मीडिया को भी अपने पूंजीवादी आवरण से घेर रखा है। इस आवरण के बाहर की खबरों का कोई मोल नहीं रह गया है, ऐसा तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया के काम-काज से प्रतीत होता है। पूंजीवादी मीडिया जब जैसी खबर लिख या सुना दे, उसकी प्रमाणिकता पर कोई प्रश्न नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि मीडिया के छोटे-छोटे समूह, जो दरअसल मीडिया कर्मी और पाठक वर्ग दोनों ही स्तरों पर संख्या में अधिक हैं, की पहचान ‘‘हाशिए की मीडिया’’ तक सीमित है।
इन्हें मैं हाशिए की मीडिया कहना इसलिए बेहतर समझता हूं क्योंकि मेरी इस छोटी सी समझ में वैकल्पिक मीडिया की अवधारणा भी निहित है। संख्या बल की दृष्टि से हाशिए की मीडिया चन्द निवेशवादी पूंजीपति घरानों की मीडिया से अधिक मजबूत है। पाठक वर्ग अधिकतर वही हैं जिनका ताल्लुक समाज के निचले और पिछड़े तबके से है। सवाल यह भी है कि मीडिया पर एकछत्र राज करने वाले चन्द लोग शेष जनता की बातें न लिखकर भी उसी जनसमूह में बड़ा कद और पहचान कैसे रखते है? कहीं सामाजिक न्याय का तो कहीं महिला अधिकारों का और कहीं दोहरी नागरिकता और पहचान की समस्याओं से जूझने वाले मीडिया समूह विकल्पहीन क्यों हैं? अब तो शिक्षा, साक्षरता और जागरूकता भी पहले से बढ़ चुकी है।
ऐसा प्रतीत होता है कि तमाम छोटी-बड़ी उपलब्धियों के बाद भी सामंती, ब्राम्हणवादी और पूंजीवादी बंधनों की जकड़ ढ़ीली नहीं हो सकी हैं। शायद इसी वजह से हाशिए की मीडिया संपादक, संवाददाता, लेखक और पाठक किसी भी रूप में अपनी पहचान नहीं बना पा रही है।
भूमण्डलीकरण की शब्दावली में यह दौर क्वालिटी और सर्विस का है। दुनिया भर में विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों में इस नाम का ढ़ोल बज रहा है। इस नाम पर बाजारवाद पिछले दो दशकों से हमारे देश में क्वालिटी और सर्विस के नाम पर लोगों को ठगता आ रहा है। हाशिए की मीडिया को विकल्पहीनता की ओर ले जाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जितना बड़ा निवेश, उतनी बड़ी खबर। दुर्भाग्य है कि इस पूंजी प्रायोजित मीडिया की दुनिया में मानवीय संवेदनाओं को तार-तार होते हुए हम नहीं देख पा रहे हैं।
पिछले दिनों अन्ना आन्दोलन के विस्तार में हिन्दुस्तान के तमाम गांवों को भी शामिल हुआ बताया गया लेकिन पिछले एक महीने में यू.पी. के कम से कम 15 गांव के भ्रमण के दौरान एक व्यक्ति नहीं मिला जो अन्ना को जानता हो। कहने का मतलब यह कि पूंजी आधारित मीडिया का विस्तार और सीमाएं उतनी ही हैं जहां तक सैटेलाइट और बिजली की पहुंच है। जबकि हाशिए की मीडिया के सामने सारा आकाश खुला पड़ा है।
समय आ चुका है कि हाशिए की मीडिया विकल्पहीनता के भंवर से खुद को बाहर निकाले। इससे न सिर्फ हाशिए की मीडिया की अपनी पहचान बनेगी बल्कि निवेश आधारित पूंजीपरस्त मीडिया के वास्तविक चरित्र को भी समझा जा सकेगा। हाशिए की मीडिया को बताना होगा कि ‘‘हम जिन चुनौतियों का सामना करके दुर्गम क्षेत्रों से समाचार लाते हैं या पहुंचाते हैं, अब किसी पूंजीवादी मीडिया घराने के लिए नहीं करेंगे।’’ रही बात क्वालिटी और सर्विस की तो इस तथ्य से कबतक लुका-छिपी का खेल खेला जाता रहेगा कि तथाकथित मुख्य धारा के किसी भी मीडिया घराने की क्वालिटी और सर्विस हाशिए के मीडिया कर्मी के कन्धों पर ही टिकी है। जो कन्धा शोषक मीडिया समूहों के भार को वहन करके सर्विस और गुणवत्ता बनाए रख सकता है, वह कन्धा अपने समाज और देश के लिए क्या वैकल्पिक मीडिया के भार को नहीं उठा सकता? ये बातें परिसंकल्पनात्मक लग सकती हैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर देखा जाए तो बहुत ही व्यावहारिक हैं। यदि हाशिए की मीडिया के लोग वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित तौर पर मीडिया जगत को एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी चरित्र के कुप्रभावों से बचाया जा सकता है। ऐसी पहल जरूरी है क्योंकि मनोरंजन और समाचार के नाम पर कुछ भी किसी भी रूप में छापने, प्रकाशित और प्रसारित करने के चोर रास्तों को बन्द होना ही चाहिए।
PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_1-15_October_2011

Sunday, September 4, 2011

ये वो सुबह तो नहीं .......


मीडिया घराना समर्पित भाव से आंदोलन के साथ याराना निभा रहा है। आंदोलन को “क्रान्ति” के नाम से महिमामंडित भी किया जा रहा है। टी.वी. पर दिख रही भीड़ को देखकर ऐसा लगता है कि यह भीड़ किसी भी आंदोलन को क्रान्ति के चरण में पहुंचाने के लिए काफी है। जब क्रान्ति की बात होती है तो फ्रांस और रूस के अलावा तीसरा नाम जुबां पर आता ही नहीं। अच्छा है विश्व इतिहास के पन्नों में भारत का नाम भी क्रान्ति होने वाले देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा। लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम जो अब आंदोलन बन चुका है और जो मीडिया की नज़र में क्रान्ति की चैखट तक पहुंच चुका है पर संशय भी व्यक्त किया जाने लगा है। कोई इसे कारपोरेट घराने का प्रायोजित आंदोलन बता रहा है तो कोई इस आंदोलन के अगुवा को सवर्णवादी बता रहा है। मीडिया के अनुसार इस आंदोलन के समक्ष सरकार घुटने टेकती नजर आ रही है। विरोध और सपोर्ट के सुरों के बीच बात अन्ना और अनशन पर आकर रूक सी गयी है। अन्ना समर्थक “मैं अन्ना हूँ” के नारे लगा रहे हैं और जो नहीं लगा रहे हैं उनमें से कुछ लोकपाल को स्टैंडिंग कमेटी में ले जाने की बात कर रहे हैं। इधर अन्ना दल (सिविल सोसाइटी) अड़े हैं कि बिल पेश करने से कम पर वो अनशन नहीं तोड़ेंगे। इन्हीं बातों के साथ सड़को पर चलती-फिरती भीड़ और आन्दोलन बन चुके अन्ना पर बहस जारी है।
मीडिया में बार-बार दिखाई जा रही तस्वीरों को देखकर सहज ही यकीन होता है कि अन्ना वास्तव में अन्ना नहीं रहे, अब वो आंधी बन चुके हैं और क्रान्ति का दरवाजा खटखटाया जा रहे हैं। पिछले दिनों के उनके बयान से भी ऐसा प्रतीत होता है कि यह आंधी कहीं यूपीए गठबंधन को उखाड़ न फेंके। भीड़ की अपनी ताकत होती है। अगर भीड़ सत्ता प्रतिष्ठानों पर जन दबाव बनाने के लिए हो तो इसकी सार्थतकता निश्चित तौर पर साबित होती है। और अगर उन्मादी है तो इसकी निरर्थकता भी सामने आ जाती है। बात वैचारिक धरातल की है कि भीड़ जिस वैचारिक धरातल पर खड़ी है वह धरातल कितनी मज़बूत और टिकाउ है?
भ्रष्टाचार हमारे देश की गंभीर समस्या बन चुकी है। इससे मुक्ति का सपना देखना आज़ादी के सपने देखने से कम नहीं है। ऐसे में यदि अन्ना युवाओं के रोल माॅडल बन चुके हैं तो यह इस समय की बड़ी उपलब्धि कही जानी चाहिए। क्योंकि किसी काॅमन समस्या के लिए काॅमन प्लेटफार्म पर इकट्ठा होना आज के दौर में चमत्कारिक है। जून से लेकर इस अगस्त के आखिरी पखवारे तक अन्ना के समर्थकों की संख्या लगातार बढ़ी है। समर्थकों की बढ़ती संख्या को देखकर सहज उम्मीद भी बढ़ती है कि क्या हमारा देश क्रान्ति के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है? यदि ऐसा है तो यह शुभ संकेत है, सिंगुर और नन्दीग्राम से लेकर भट्टा पारसौल जैसे स्थानों पर बसने वाले लोगों के लिए जहां कारपोरेट वल्र्ड को पहले तो खुली लूट की छूट दी गयी और फिर आन्दोलनकारियों का दमन किया गया। अभी उड़ीसा में क्या हो रहा है। पास्को के साथ सरकार क्या गुल खिला रही है? क़ाबिले गौर है कि आर्थिक विकास के लिए सुधारों की बयार चलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने अपने पिछले कार्यकाल के समय स्वयं सुधारों को मानवीय रूख ;भ्नउंद ंिबमद्ध देने की बात कही थी। यानि 1991 में उन्होंने जिन सुधारों को हरी झण्डी दिखाई थी वो कभी मानवीय थे ही नहीं। इसके विरोध में भी 1990 के दशक से ही आन्दोलन चल रहे हैं इस देश में। लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं है। निवेश और विदेशी निवेश आए दिन बढ़ता ही जा रहा है। पंूजीपती खेल रहे हैं और बाकी जनता मूक दर्शक। क्योंकि खेलने का अधिकार तो आर्थिक गुलामी की जंजीरों में कैद होता गया है एक के बाद एक। जिसके पास पूंजी बल्कि बड़ी पूंजी होगी वही खेलेगा। खेलने वाला हमारे स्टेट में कहीं रियल स्टेट खेल रहा है और कहीं माॅल-माल (शापिंग) खेल रहा है। इस खेल में मंहगाई कब दो अंकों में पहुंच गयी पता ही नहीं चला। बहरहाल, 90 के दशक में साम्प्रदायिकता ने नए सिरे से सर उठाया। 2002 में राज्य प्रायोजित दंगे कराए गए। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक संघियों के खिलाफ आंदोलन का इतिहास अभी जारी है। 1990 के दशक की तीसरी महत्वपूर्ण घटना मण्डल कमीशन की अनुशंसाओं का लागू किया जाना था। सामाजिक न्याय का सवाल एक बार फिर बहस का मुद्दा बना। यह सवाल अभी भी समाज को उद्वेलित कर रहा है और सामाजिक न्याय का आन्दोलन अपने प्रकार और विस्तार में जारी है। आए दिन हत्या, लूट और बलात्कार की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। इसके खिलाफ भी लोग लड़ रहे हैं। उत्तर-पूर्व हो या कश्मीर या फिर गुजरात हर जगह मानवाधिकारों का हनन हुआ है। इसके खिलाफ भी आंदोलन जारी हैं इस देश में। इरोम शर्मीला का अनशन और कुछ वर्ष पूर्व उत्तर-पूर्व में महिलाओं का नग्न विरोध-प्रदर्शन बहुत पुराना नहीं हुआ है।
जाहिर है पिछले दो दशकों का इतिहास आंदोलनों से भरा पड़ा है। कुछ तो कमी रही होगी जो ये आंदोलन अन्ना के आंदोलन का रूप नहीं ले सके। कमी अगुवा की तो होती ही है। कई बार साथ चलने वालों की भी कमी होती है। बहस यह नहीं है कि अन्ना का आंदोलन जिस जमीन पर खड़ा है वह जमीन उर्वर है कि बंजर। सवाल यह है कि अन्ना के आन्दोलन को क्यों न देश भर में चल रहे अन्य आन्दोलनों से जोड़ जाए। अभी जो मोमेन्टम बना हुआ है और जिस तरह से सड़कों पर (कम से कम नगरों में) जनता का हुजूम देखा जा रहा है ऐसी स्थिति में यदि सिविल सोसाइटी देश के उन आन्दोलनों से भी जुड़ जाए जिसे मीडिया ने अक्सर नज़र अंदाज़ किया है, तो सोने पे सुहागा हो जाए।
भ्रष्टाचार अभी की सबसे बड़ी समस्या है। इसके अलावा और भी समस्याएं हैं जो अपने आप में गंभीर हैं। सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अनुपालन न होना। किन्हीं अर्थों में यही भ्रष्टाचार है। पिछले दिनों एक अखबार (अमर उजाला, फिरोजाबाद, 22 अगस्त, 2011) में खबर छपी थी। जिसमें टोपी विक्रेता मयंक जैन कहते हैं कि “वैसे तो यह टोपी पांच रूपए में मिल जाती है, लेकिन आंदोलन के कारण डिमांड अधिक है इसलिए दस रूपया की मिल रही है।” खबर में लिखा था कि 60 रूपए का तिरंगा झण्डा 120 रूपए तक में बेचा गया। आश्चर्य की बात है कि खरीदार वही थे जिन्हें अन्ना समर्थन में जाकर नारे लगाने थे और कैन्डिल जलाने थे। एक्सप्रेस बज पर लूना देवन की रिपोर्ट भी काबिले गौर है। इस रिपोर्ट के अनुसार बंगलोर शहर के एक सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि “उन्होंने 2000 झण्डों का आर्डर दिया था और उन्हें सामान्य लागत मूल्य से भुगतान करना पड़ा।” (लिंक देखें http://expressbuzz.com/cities/bangalore/anna-movement-triggers-flags-sale/305965.html ”Gearing up for supporting the cause we had ordered for about 2,000 cotton flags and we had to pay double than the normal price” a city based social activist said.”)
चिन्तनीय है कि जो व्यक्ति भ्रष्टाचार का विरोध करने की तैयारी कर रहा है वही व्यक्ति एक व्यक्ति के नाम पर (जो युवाओं का आदर्श बन गया बताया जा रहा है) लागत से अधिक पैसे देता है। मुमकिन है कि जिस तिरंगा को 60 के बदले 120 में खरीदा गया उसकी भावनात्मक आवश्यकता उससे कहीं अधिक किसी आम आदमी को रही हो और वह उस तिरंगा को प्राप्त नहीं कर सका हो क्योंकि उसके पास दोगूनी कीमत अदा करने के लिए पैसे नहीं रहे हों। इसीलिए कहना पड़ रहा है कि ऊपर से चलकर नीचे आने वाले भ्रष्टाचार की अपनी सीमा है और नीचे से चलकर ऊपर जाने वाले भ्रष्टाचार की अपनी सीमा और अपना रूप है। ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित भ्रष्टाचार पर मैंने अपने आलेख “भ्रष्टाचार से निर्णायक लड़ाई”( देखें 16-30 जून का शिल्पकार टाइम्स, नई दिल्ली ) में विस्तार से चर्चा की है। बात करते हैं नीचे से ऊपर को जाने वाले भ्रष्टाचार की। याद रहे कि यह भ्रष्टाचार हमारे रगों में दौड़ रहा है। बी.पी.एल. बनवाना हो तो संभ्रान्तों की कतार आगे रहती है, वंचित छूट जाता है। राष्ट्र ध्वज तिरंगा खरीदना हो तो 60 के बदले 120 रूपए अदा करने वाला बढ़के लपक लेता है, कमजोर और दबा-कुचला अपनी भावनाओं को अपने सीने में दफन करके रह जाता है। सबसे भ्रष्ट कचहरी और इसमें कार्य करने वाला हर छोटा-बड़ा पदाधिकारी है। हर काम में जनता बीस से पचास रूपए जो न्यूनतम है देने को तैयार है। क्यूं भई? इसलिए कि हमें जल्दी रहती है। हम अपना काम समय से पहले और अपनी बारी का इंतजार कर रहे बाकी लोगों से पहले चाहते हैं। यह भी चाहते हैं कि औपचारिकता न निभानी पड़े।
मौजूदा हालात में पहले मुर्गी या अण्डा वाले सवाल में न उलझते हुए इस बिन्दु पर विचार-मन्थन और व्यावहारिक प्रयास शुरू किए जाने की ज़रूरत है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में जो छोटे-छोटे आंदोलन हैं वो भी भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन से जुड़ जाए। तभी इस आंदोलन में प्रत्येक नागरिक की भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। फिर दोहरा रहा हूँ कि यह समय निर्णायक हो सकता है, कैन्डिल लाइट प्रोसेसन क्रान्ति के मशालों से प्रज्जवलित हो सकती यदि यह आंदोलन अपने प्रसार सीमा में हर क्षेत्र, हर समुदाय और हर वर्ग की समस्याओं को समाहित कर ले। वरना फैज की नज़्म “ये वो सुबह तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर/चले थे यार की मिल जाएगी कहीं न कहीं” एक बार फिर प्रासंगिक हो उठेगा।

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_1-15_SEPTEMBER_2011

मुर्तजा नाई


उत्तर प्रदेश में 20 मई तक स्कूलों में गर्मी की छुट्टी हो जाती है। कई बरसों बाद इस साल मैं भी छुट्टियां मनाने निकला। करीब 20 दिनों तक स्टेशन, रेलगाड़ी, होटल और पर्यटन स्थलों की सैर। इस सफर में दोस्तों और संबंधियों से भेंट-मुलाकात। नयी-पुरानी बातें। चलती रेलगाड़ी से खेतों, मैदानों, जंगलों और पहाड़ों को देखना। कैमरा और मोबाइल से तमाम मंजरों को कैद करना। कभी स्टेशनों पर चिपके इश्तेहारों की तस्वीर खींचना तो कभी दीवरों के कोनों में पान के थूके हुए पीकों की तस्वीरें उतारना। कम्यूटर और इन्टरनेट की सुविधा मिलते ही इन तस्वीरों को फेसबुक पर पब्लिश करना और ई मेल द्वारा मित्रों को प्रेषित करना। सचमुच इलेक्ट्रानिक यंत्रों ने हमारी यात्राओं में रोचकता का नया पुट भरा है। लेकिन नएपन के इस ताने-बाने में आंखों के कैमरे से खींचे गए कुछ चित्रों को शब्द दे रहा हूँ, जो अबतक मेरे लिए परेशानी का सबब बने हुए थे।
लगातार यात्रा की थकान और मुजफ्फरनगर में हफ्ते दिन विराम। विकास भवन के सामने स्थित रामपुरम और रामपुरम में गली नं॰ 3 के पास स्थित मुर्तजा नाई की दुकान। ज़ाहिर है बाल बनवाने के लिए पर्याप्त और उचित समय।
मुर्तजा नाई अपनी दुकान में ‘‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’’ पढ़ते हुए ग्राहकों का इंतेजार कर रहे हैं। उनकी दुकान में टी॰वी॰ नहीं है। आमदनी इतनी कि वो दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला और पंजाब केशरी आदि अखबारों में छपी ख़बरें नहीं पढ़ सकते। बहरहाल काफी दिनों बाद ऐसा हुआ था कि मुझे बिना लाइन लगाए ही बाल बनवाने का अवसर मिला था। मैं इस अवसर को खोना नहीं चाहता था। अगले ही क्षण मैं मुर्तजा नाई की दुकान में था। मुर्तजा नाई को बताने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि मुझे हेयर कट करवाना है या दाढ़ी शेव करवानी है। मेरे बाल जो इस कदर बड़े और बिखरे हुए थे। बंेच पर अखबार रखकर उन्होंने ड्रावर से अपनी कैंची और कंघी निकाली। मेरे बालों पर पानी छिड़का और हो गए शुरू अपनी धुन में। कभी-कभी मेरा ध्यान उनके चेहरे पर पड़ जाता। पुराने जमाने की ऐनक और ऐनक के पीछे एक जोड़ी आँखे इस तरह कैंची, कंघी के साथ मेंरे सर के बालों पर संक्रेंदित हैं मानो मुर्तजा नाई कोई बड़ा और गंभीर कार्य रहे हों।
छोटे समझे जाने वाले मुर्तजा नाई कद-काठी से काफी लम्बे हैं, लेकिन उनके चेहरे की झुर्रियां और दुबला-पतला शरीर उनके काम में काई बाधक नहीं है। कभी-कभी बचपन में सुनी और सुनाई गयी चुटकुलों की याद ताजी हो जाती कि नाई के सामने अच्छे-अच्छों को सर झुकाना पड़ता है। विचारों की श्रृंखला में यह विचार भी आता है कि छोटे समझे जाने वाले लोगों द्वारा किया जाने वाला काम क्या बड़ा नहीं होता? क्या ऐसे लोगों के कार्य में तत्परता, गंभीरता और समर्पण नहीं होती?
आँखों की पुतलियों को ऊपर उठाकर कर आइने में देखने की कोशिश। मुर्तजा नाई का चेहरा उनके हाथ और अपने सर पर तेजी से फिरती कंघी-कैंची को देख पा रहा हूँ मैं। जब आँखें बन्द करता तो आँखों के सामने बुनकरों, लोहारों, कुम्हारों, बढ़इयों, धोबियों, बांसफोरों, मोचियों की दस्तकारी-शिल्पकारी और मनोरंजन करके दूसरों को खुश करके अपनी आजीविका चलाने वाले वाले नटों की कलाकारी, काम के प्रति उनका समर्पण के चित्र चलचित्र की भाँति घूम जाते। नए सिरे से मैंने महसूस किया कि छोटे और तुच्छ समझे जाने वाले लोगों के काम में गजब की गंभीरता और समर्पण होती है। लेकिन उनकी दक्षता का उचित सम्मान नहीं किया जाता। अनगिनत बालों को काटकर एक निश्चित आकार प्रदान करना, शेव करते वक्त रेजर को चेहरे पर इस तरह चलाना कि स्कीन कहीं कटने न पाए जैसे काम नाइयों की कलात्मक दक्षता का प्रमाण है। इसी तरह दूसरे उद्यमों में भी निम्न वर्ग के लोंगों की मेहनत और दक्षता देखी जा सकती है।
मुर्तजा नाई से मेरा कोई परिचय नहीं है। फिर भी मैं उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि को जानने और समझने की जिज्ञासा को रोक नहीं पाता। जबतक वो बाल बनाते रहे, तबतक मरे प्रश्नों के उत्तर भी देते रहे।
मुर्तजा नाई अपने पेशे के विस्तार की कहानी सुनाते हुए बताते हैं कि इनका कुल-खानदान किसी ईरानी-तूरानी या अफगानी नस्ल का नहीं है लेकिन इन्हें अपने हुनर, पेशा और सामाजिक स्थिति से काफी सन्तुिष्ट हैं। कहते हैं ‘‘अब तो हर कोई नाई का काम कर रहा है। मुजफ्फरनगर में खानदानी नाई लगभग 200 ही हैं लेकिन जब नाई यूनियन की मीटिंग होती है तो इनकी संख्या कोई 1000 से अधिक होती है।’’ अच्छा है जब देश में ट्रेड यूनियनों का एक-एक करके अवसान हो रहा है तो कम से कम नाई यूनियन मीटिंग तो कर रहा है।
यह बात हम-आप, सभी जानते हैं कि जजमानी व्यवस्था में नाइयों की सामाजिक स्थिति क्या रही है। शादी-ब्याह और अन्य अवसरों पर कैंची-स्तूरा के माहिरों की उपस्थिति आवश्यक हुआ करती है। सामंतवाद टूटा तो जजमानी भी कमजोर हुई। बीसवीं सदी के आखरी दशक में नई अर्थव्यवस्था ने जजमानी व्यवस्था पर इतना कड़ा प्रहार किया कि अब न तो जजमान को नाइयों का इंतेजार रहता है और न ही नाइयों के पास समय है कि वो अपनी दुकान छोड़कर दरवाजे-दरवाजे भटका करें। हालांकि प्रतिस्पर्धा के नए दौर में खानदानी नाइयों में पुश्तैनी काम को छोड़कर दूसरा कार्य करने का रूझान बढ़ा है लेकिन जो इस पेशे से अभी भी जुड़े हुए हैं उनके समक्ष नए जमाने के ब्यूटी पार्लरों ने नई चुनौती खड़ी की है। मुर्तजा जैसे नाइयों का सुखद अनुभव यह है कि नीच या छोटा समझा जाने वाला यह पेशा अब हर कोई अपना रहा है। यानि जात-पात का बंधन कमजोर हो रहा है। मुर्तजा का सोचना बिल्कुल ठीक है कि बड़ी पूंजी ने बड़ी भूमिका निभाई है। ब्यूटी पार्लरों ने जात-पात से कहीं अधिक लिंग अधारित भेदभाव को कम किया है। रोजगार की दृष्टि से लेडिज ब्यूटी पार्लरों के चलन से महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। सदर रोड, मुहम्मदाबाद के तनु और कृष्णा ब्यूटी पार्लरों में कार्यरत महिलाओं को ही देखिए शादी ब्याह के मौकों पर घण्टा-दो घण्टा में एक दुल्हन सजाकर 1500 से 3000 रूपए की आमदनी कर लेती हैं।
अन्यों की तरह मुर्तजा नाई भी इस प्रगति से खुश हैं। कहते हैं ‘‘हमारा काम अब हर कोई कर रहा है।’’ होते-होते हमारी बातें शादी-ब्याह तक पहुंचती हैं। इस सवाल पर मुर्तजा नाई का चेहरा उतर सा जाता है। मिनटों पहले जो मुर्तजा नाई अन्तर्जातीय कार्य के लिए प्रसन्नता व्यक्त कर रहा था वही मुर्तजा नाई पलभर में यू टर्न ले चुका होता है। ‘‘क्यों भई जब अलग-अलग जातियों के लोग एक दूसरे के पेशे को अपनाकर अपनी आजीविका चला सकते हैं तो फिर एक दूसरे के बच्चों के साथ शादी-ब्याह क्यों नहीं कर सकते? मैंने पूछा।
मुर्तजा नाई अन्तर्जातीय विवाह को गलत मानते हैं। कहते हैं ‘‘ऐसी शादियों से गांव-मुहल्ले का माहौल गन्दा होता है। ऐसे युवकों और युवतियों को तड़ीपार कर दिया जाता है।’’
मुर्तजा नाई अपने उस्तरे से मेरी कलम में कांट-छांट करते हैं। उनकी दुकान में एक दूसरा ग्राहक प्रवेश करता है। शायद मुर्तजा नाई के परिचित हैं। जमाने के बारखिलाफ वो भी हमारी बातों में शामिल हो जाता है। बरखिलाफ इसलिए कि कोई किसी सामाजिक विषय पर होने वाली गुफ्तगू में यूंही शामिल नहीं होना चाहता। तो इसका मतलब यह समझा जाय कि संवाद के स्तर पर सामाजिकता टूट रही है। बिल्कुल नहीं, जबतक मुर्तजा नाई जैसे लोग हैं संवाद और सामाजिकता की डोर कमजोर हो ही नहीं सकती।
नया ग्राहक यानि शर्मा जी जल्दी में है, लेकिन मुर्तजा नाई की दुकान में होने वाली बातें उनको इतनी रोचक लगती हैं कि उनकी जल्दबाजी इत्मीनानी में बदल जाती है। शायद हमारी बातें शर्मा जी के लिए अपने काम से अधिक महत्वपूर्ण हैं। बीच में ही बोल पड़ते हैं ‘‘अन्तर्जातीय विवाह सर्वथा उचित है। ऐसी शादियों का विरोध केवल नीची जाति वालों के यहां है। बड़े लोगों को देखिए, जवान बच्चे आपस में प्रेम करते हैं, कोर्ट मैरेज करते हैं तो न माँ-बाप को और न ही गांव-मुहल्ले वालों को कोई आपत्ति होती है। कुछ मामले तो जाति से ऊपर उठकर अन्तर्धामिक विवाहों के भी हैं।
मुर्तजा नाई मेरी कलम ठीक कर चुके हैं। अब वो बारीकबीनी से में सर के कटे बालों की नोंक-पलक सुधारते हुए कलम तथा चेहरे का जायजा ले रहे हैं। कहीं बाल छूट तो नहीं गया, कलम बराबर तो है। साथ ही उनका ध्यान शर्मा जी की बातों पर भी होता है। इसबार मुर्तजा नाई की प्रतिक्रिया साकारात्मक होती है। शर्मा जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहते हैं ‘‘अन्तर्जातीय विवाह में अभी समय लगेगा। ठीक ही रहेगा। इन दिनों लड़का ढ़ूंढ़ना बहुत मुश्किल हो गया है।’’ आइना में मेरे सर के पीछे आइना दिखाते हैं। ‘‘ठीक बना है सर!’’ ‘‘आपने जो बना दिया सब ठीक! लेकिन लड़की ढ़ूंढ़ना भी अब उतना ही मुश्किल हो चुका है मुर्तजा साहब जितना कि लड़का। अच्छा है पे्रम विवाह की परम्परा आगे बढ़े।’’ मैंने कहा।
मुर्तजा नाई के हाथों में पाउडर का डिब्बा इस बात का संकेतक कि मेरा बाल बन चुका है। दुकान में एक और व्यक्ति दाखिल होता है। उम्र कोई 65 बरस। उन्हें भी जल्दी है लेकिन उनके आग्रह को मुर्तजा नाई स्वीकारते या ठुकराते शर्मा जी अपनी बारी से उन्हें सूचित करते हैं। शर्मा जी ने बेंच पर रखे ‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’ उनके हाथों में देते हुए कहा ‘‘दस मिनट बैठ जाएं चचा, मुझे जल्दी है।’’ वो बुजुर्ग व्यक्ति पास रखी कुर्सी पर बैठ जाता है। मुर्तजा नाई कटे हुए बालों को साफ कर रहे हैं। शर्मा जी की जल्दबाजी बढ़ रही है। शायद मेरे जाने का वक्त हो चुका है। शर्मा जी मेरी जगह कुर्सी पर बैठते हैं। चलते-चलते मैंने उनका नाम पूछा। वो अपना नाम महेन्द्र शर्मा बताते हैं। इससे पहले कि मैं दुकान से बाहर निकलता शर्मा जी ने जोर देकर कहा। ‘‘हम ब्राम्हणों में सबसे ऊँचे हैसियत वाले पंडित हैं।’’ अपने पिताजी के मित्र शिव शर्मा की याद बरबस ही चली आयी। जिनका इसी साल देहान्त हो गया। हाथों में बंसुली लिए आधी पालथी मारी उनकी तस्वीर आँखों के सामने घूम गयी। मेरी बहन की शादी में उन्होंने जो डबल बेड बनाया था वो मेरे कस्बे का पहला डबल बेड था।
संभव है महेन्द्र जी ब्राम्हणों वाले ही शर्मा हों। उच्च कुल वाले शर्मा हों। चेहरे और बात-चीत से तो ऐसा नहीं लगा। मैंने मुर्तजा नाई को पैसे दिए। अपनी बारी के इंतेजार में ‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’ के पन्ने पलट रहा बुजुर्ग व्यक्ति कुर्सी से उठा और दुकान से बाहर निकल गया .......................।

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_AUGUST_2011

लक्षित अर्थव्यवस्था में समाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य


सरकार का मंतव्य समझ से परे है कि वह बी.पी.एल सर्वे के माध्यम से गरीबों को सही मायने में चिन्हित करना चाहती है या फिर गरीबों की जो सूची है उसमें इनकी संख्या घटाकर (एक तरह का एडजस्टमेन्ट) देश और दुनिया के सामने अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करना चाहती है। यदि ऐसा है तो सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य क्या है?


योजना आयोग ने भारत में सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण (बी.पी.एल. सर्वेक्षण) के लिए 13 बिन्दु का मानक बनाया है। प्रत्येक सवाल पर 0 से 4 अंक निर्धारित किए गए हैं। जिस परिवार को 54 अंकों में से यदि 15 या इससे कम अंक मिलेगा तो उस परिवार को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों में शामिल किया जाएगा अन्यथा नहीं। आयोग द्वारा तय किए गए मानकों को समकालीन सामाजिक और आर्थिक बदलावों के साथ देखा जाय तो इसमें कई विषंगतियां हैं। विशेषकर उन प्रभावों और कारकों को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता जिनके परिणाम स्वरूप मानव जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव परिलक्षित हुए हैं। यदि राजधानी की बात करें तो किसी भी मलिन बस्ती में टी.वी. की उपलब्धता नव-उदारवादी सुधार का स्वाभाविक परिणाम है। कोई दो राय नहीं है कि उपभोक्तावाद ने संभ्रान्तों और मध्य वर्ग तक नित नयी सुविधाएं पहुंचायी है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आम लोग जिनके समक्ष आजीविका की कठिन चुनौतियां हैं, उन लोगों को भी टी.वी., फ्रीज और मोबाइल का उपभोक्ता बनने के लिए विवश किया है। इस सवाल पर अलग से विचार किया जाएगा कि कोई कारपोरेट घराना किसी व्यक्ति को किन माध्यमों और किन अदाओं से प्रभावित या विवश करता है। फिलहाल बात करते हैं उपभोक्तावादी संस्कृति और सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण के बीच तादाम्य की।
उपभोक्तावाद के प्रसार में टी.वी. ने बड़ी भूमिका निभाई है। पिछले दो दशकों में एक तरफ जहां समाचारों की तेजी में इजाफा हुआ है वहीं दूसरी तरफ मनोरंजन का भाव तेजी से गिरा है। इतना गिर चुका है कि हर घर-दरवाजे से लेकर हर गिरे-पड़े व्यक्ति तक इसने पैंठ बनाई है। पहले ना से हाँ हुआ, फिर हाँ से ब्लैक एण्ड व्हाइट और फिर कलर हुआ। कलर भी इतना हुआ (बल्कि किया गया) कि अमीरी-गरीबी के फर्क के बगैर ही इसने पूरे देश को एक सूत्र में बांध दिया। राष्ट्र की इससे बेहतर कल्पना और कहां देखी जा सकती है जहां पर लाख-करोण कमाने वालों के घर में भी टी.वी. की वही फ्रीक्वेन्सी पहुंच रही है और वहां जहां छप्पर के सुराख से पानी टप-टप गिरता हो वहां भी वही फ्रिक्वेन्सी पहुँच रही है। मोबाइल का मामला भी कुछ ऐसा ही है। अमीर हो या गरीब दोनों के लिए काॅल की दरें एक समान है। फिर मोबाइल के स्वामित्व के आधार पर किसी को गरीबी रेखा से नीचे और किसी को ऊपर कैसे माना जा सकता है? यदि फोन या मोबाइल ही गरीब-अमीर का प्रतीक है तो फिर सर्वे करने की जरूरत ही नहीं है, राजा भी कह चुके हैं कि ‘‘मैं गली के हर व्यक्ति के लिए वहन करने योग्य बनाना चाहता था।’’ (his effort was to make cellular phone services affordable to the man on the street.; The Economic Times, July 25, 2011.) मतलब हर हाथ में मोबाइल पहुंचाना चाहते थे ये जनाब। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि पहले तो सरकार दाम गिराकर गरीबों तक मोबाइल, टी.वी. और फ्रीज जैसे उपकरण पहुंचा रही है और फिर उन्हें गरीबी रेखा से नीचे होने के अधिकार से वंचित कर रही है। ताकि ये लोग ‘‘भोजन का अधिकार’’, ‘‘शिक्षा का अधिकार’’, और ‘‘आजीविका का अधिकार’’ से खुद ब खुद बेदखल हो जाएं। ऐसे में सरकारी खजाने पर भार भी कम पड़ेगा। कौन समझाए कि बाजारपरस्ती से कल्याणकारी कार्य संभव नहीं है। जब एन.एस.एस.ओ. जैसी संस्थाएं मान रही हैं कि आर्थिक सुधारों के बाद अब तक गरीब और अमीर के बीच का फासला बढ़ा है तो फिर समाजिक-आर्थिक सर्वे के मानकों में सावधानी क्यों नहीं बरती गयी। कैबिनेट मंत्री जयराम रमेश मानकों में विषंगतियों के बाबत बयान देते हैं कि ’’प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, बी.पी.एल. की सूची में शामिल करने और इस सूची से बाहर करने संबंधी मानक को मंत्रीमण्डल द्वारा अनुमोदित किया जा चुका है, अब इसमें कुछ नहीं हो सकता।’’(that was not possible anymore as the census exercise was already under way and as both the exclusion and inclusion criteria were approved by the Cabinet; The Hindu, August 9, 2011.)  यदि जय राम रमेश की बातों पर यकीन किया जाय तो मानना होगा कि कोई भी प्रस्ताव या विधि-विधान सही हो या गलत, नागरिक हित में या नहीं यदि मंत्रीमण्डल द्वारा पारित कर दिया जाता है तो इसे सही करार दिया जा सकता है। यदि अब भी समझने में किसी किस्म की दिक्कत आ रही है तो ‘‘2जी स्पेक्ट्रम’’ की ऐनक लगाएं। सुनने में ‘‘2जी स्पेक्ट्रम’’ घोटाला नहीं, कोई अन्तर्राष्ट्रीय ब्राण्ड प्रतीत होता है। वैसे भी यह दौर ब्राण्डों का दौर है। ब्राण्ड बेचो, ब्राण्ड कमाओ, बा्रण्ड खरीदो, ब्राण्ड खाओ और ब्राण्ड ही पचाओ। बाकी औपचारिकताओं के लिए ए राजा, ओ राजा तो हैं ही। याद आया, यदि रामलखन का फिल्मी संगीत (ए जी, ओ जी...) के बजने का आभास हो तो समझिए कि सबकुछ ठीक नहीं (जी) चल रहा है।
उक्त संदर्भ में टी.वी., फोन, मोबाइल और दो पहिया वाहन आदि की उपलब्धता को बी.पी.एल. सर्वे से जोड़कर देखा जाए तो चैंकना तय है। योजना आयोग के अनुसार शहरी क्षेत्र में यदि किसी व्यक्ति के घर में टी.वी. है या ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति के पास जुगाड़ के तौर पर दो पहिया वाहन है तो वह गरीब नहीं समझा जाएगा। फिर तो सैंकड़ों चैनलों की मायाजाल में गिरफ्तार शहरी झुग्गी-झोपडियों और शहरी कल्चर (शायद उपभोक्तावादी कल्चर) से आच्छादित दूर-दराज के गांवों और कस्बों के लोगों के लिए सावधानी बरतने का समय आ चुका है। तुमने अपने भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च होने वाला जो पैसा बचाकर मनोरंजन का सस्ता साधन खरीदा था उसे कहीं गुप्त स्थान पर छिपा दो यानि सही सूचना न दो। वरना तुम रिक्शा चलाने वाले, ठेला खींचने वाले, दुकानों पर रात दस बजे तक ड्यूटी बजाने वाले, मल्टी स्टोरी को अपना पसीना बहा-बहाकर चमकाने वाले लोगों, तुम गरीबों में नहीं गिने जाओगे। फिर तो झूठ बोलने के लिए प्रेरणा भी मिल ही रही है।
ऐसा इसलिए भी है कि नई आर्थिक सुधारों ने लक्षित अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है। इसमें लक्ष्य भेदने के लिए जरूरी है कि तयशुदा समयावधि से पहले ही लक्ष्य हासिल कर लिया जाए। पंचवर्षीय योजनाओं का मतलब और महत्व समझ में आता है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम गोल (सहस्राब्दि लक्ष्य में भारत में 2015 तक गरीबी रेखा के 22 प्रतिशत तक पहुंचने का आंकलन प्रस्तुत किया गया है।) को प्राप्त करने की अभिलाषा ने शायद हमारे नीति निर्धारकों को अंधा बना दिया है। लक्ष्य निर्धारित करना और प्राप्त करना अच्छी परंपरा है। लेकिन यह भी देखना होता है कि परिस्थितियां अनुकूल हैं या प्रतिकूल। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की तयशुदा संख्या प्रतिशत में प्राप्त करना ही प्रमुख लक्ष्य बन चुका है। यदि ऐसा है तो फिर इस देश की आधी आबादी के लिए इस वर्ष का बी.पी.एल. सर्वे निराश करने वाला कदम है। हांलाकि एन.एस.एस.ओ. (National Sample Survey Organization) की 2004-05 के 61वें राउण्ड की गणना के अनुसार भारत की 27.5 (28) प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। जबकि एन. सी. सक्सेना समिति की हालया रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल आबादी का लगभग 50 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की सूची में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन चण्डीगढ़ से शुरू हो चुका 2011 का सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण शायद ही रूके। ऐसे में बढ़ती मुद्रा स्फीति और मंहगाई को सर्वे से संबद्ध करके न देखना इस बात का सूचक है कि बी.पी.एल. सर्वे के माध्यम से गरीबों की पहचान करना प्राथमिकता नहीं बल्कि सरकारी काम-काज और शासन-प्रशासन की औपचारिकताओं को अंजाम तक पहुंचाना ही सर्व प्रमुख लक्ष्य है। सरकार का मंतव्य समझ से परे है कि वह बी.पी.एल सर्वे के माध्यम से गरीबों को सही मायने में चिन्हित करना चाहती है या फिर गरीबों की जो सूची है उसमें इनकी संख्या घटाकर (एक तरह का एडजस्टमेन्ट) देश और दुनिया के सामने अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करना चाहती है। यदि ऐसा है तो सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य क्या है?

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_AUGUST_2011

Wednesday, August 17, 2011

तय करो किस ओर हो तुम...... !



 हर उस व्यक्ति के हर उस लड़ाई में शामिल हुआ जाए जो किसी भी मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों के पक्ष में हो। जो संविधान प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन को रोक सके। सिविल सोसाइटी को अन्ना-अन्ना बनाना हो तो बनाएं लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि हम आज की तारीख में हैं कि तरफ, अन्ना की तरफ, भ्रष्टाचार विरोध की तरफ, किसी व्यक्ति या पार्टी के विपक्ष में या फिर लोकतांत्रिक अधिकारों की तरफ। तय करो किस ओर हो तुम...... !

16 अगस्त को अन्ना और सहयोगियों की गिरफ्तारी व रिहाई और अन्ना का तिहाड़ में ही अनशन पर डट जाना वगैरह घटनाओं से हम सभी अवगत हैं। टी.वी. स्क्रीन की भीड़ 10 करोण बतायी गयी, भीड़ में अन्ना के लिए जान देने तक की बातें की गयीं, अधिकतर चैनलों और अखबारों अन्ना ही छाए रहे। मजेदार बात यह है कि हर शहर में अन्ना भीड़ का एजण्डा और भीड़ टी.वी. का एजेण्डा दिखा। टी.वी. रिपोर्टर्स का चींखना-चिल्लाना ऐसा जैसे वो टी.वी. स्क्रीन से सचमुच ही बाहर निकल आएं। पिछले हफ्ते ऐसा लगा था कि जात-पात और आरक्षण का मुद्दा सर्व प्रमुख है लेकिन इस जाते हुए सप्ताह में भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा रहा। यह भी पहली बार नहीं हुआ था। इससे पहले जून माह में भी जन्तर-मन्तर और रामदेव के रामलीला वाली घटना में भी हुआ था। टी.आर.पी. मीडिया से अलग देखा जाय तो भ्रष्टाचार एक अहम समस्या तो है ही जिस पर अन्ना के सबब ही सही देशवासियों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। लेकिन सरकार अन्ना और नागरिक समाज के हस्तक्षेप को कदम-कदम पर टालने की कोशिश कर रही है। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के बयान का भाव यह है कि “कानून संसद द्वारा बनाया जाना चाहिए न कि मैदान में बैठे सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह द्वारा।” गृहमंत्री के बयान को यदि संसदीय लोकतंत्र के आइने में देखा जाय तो इसमें गलत क्या है? मेरी बातों का यह मतलब नहीं कि मैं चिदम्बरम या यूपीए की राजनीति और कार्यशैली से सहमत हूँ। ध्यान दिलाना चाहता हूँ संसदीय लोकतंत्र में जनलोकपाल के समर्थक जन गण के मन की भूमिका पर। अलग-अलग शहरों में अन्ना के समर्थन में होने वाले विरोध-प्रदर्शनों को देखकर यह आभास हुआ कि अन्ना और सिविल सोसाइटी भी मुद्दा बन चुके हैं सरकार के लिए।
संविधान में निहित शक्तियां संसद से लेकर सड़क तक समान रूप से आहूत की गयी हैं। पूरी व्यवस्था बनायी गयी है कि जनगण अपने मूलाधिकारों का प्रयोग करके अपनी पसन्द का “अन्ना” संसद में भेजे। लेकिन शासक वर्ग के चरित्र के आगे सारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का दम तोड़ देना मौजूदा दौर की भयावह त्रासदी कही जानी चाहिए। क्योंकि यह दौर साइबर युग कहा जा रहा है। जमीन तो जमीन चांद और मंगल तक उड़ानें भरी जा रही हैं। ऐसे में अन्ना में यदि आने वाले कल की कोई साफ-सुथरी छवि दिखाई देती है तो नागरिक समाज की जय करना ही चाहिए।
कुछ बातें नागरिक समाज के बारे में। न्यूज चैनलों और अखबारों की तस्वीरों में नागरिक समाज संख्या देखते बनती है। यह समाज अन्ना जैसों के लिए कैन्डिल जलाते फिर रहा है। वैसे कैन्डिल जलाने की परंपरा आमिर खाँ अभिनित “रंग दे बसंती” के बाद काफी मजबूत हुई है। वरना मैं तो बचपन से मशाल जुलूस ही जानता था। जो लोकतांत्रिक आवाज़ को बुलन्द करने का सूचक समझा जाता रहा है। लेकिन अब मशालों से पर्यावरण को खतरा पहुंच रहा है। इसलिए कैन्डिल जलाओ। लो भई गया जमाना मशाल जुलूस का और आया जमाना कैन्डिल मार्च का। याद आया मार्च महीने में ही भगत सिंह को फांसी दी गयी थी। बहरहाल बात सिविल समाज की है तो सुनते-सुनते अब यह कोई पार्टी या सियासी जमात जैसा नाम लगने लगा है। इस समाज की व्यापक परिभाषा क्या है, बताना होगा इस देश की जनता को। मेरा निजी विचार है कि टी.वी. पर जो दस करोण लोग अन्ना-अन्ना चिल्ला रहे हैं, कम से कम उन्हें इसी सिविल समाज के प्लेटफार्म पर इकटठा करके यह बात बता देनी चाहिए कि लोकतंत्र में हमने पहली गलती कहां की थी, जिसके परिणाम स्वरूप सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की तूती बोल रही है। 15 अगस्त और 26 जनवरी को हम आपस में संदेशों का आदन-प्रदान करके इन अवसरों को समारोहपूर्वक मना लेते हैं। लेकिन आज़ादी के संघर्ष और संवैधानिक अधिकारों और दायित्वों के बारे में जरा भी नहीं सोचते। काश ऐसा संभव होता कि सौ करोण से अधिक आबादी वाले इस देश के मतदाताओं की आधी संख्या को भी यह बात समझ में आ जाती कि गुप्त मतदान की प्रणाली में ही तमाम शक्तियां छुपी हुई हैं। किसी अच्छे चरित्र वाले को हम क्यों नहीं भेजते संसद में। वोट का अधिकार आजादी की लड़ाई से अलग नहीं कीे जा सकती। फिर सड़क से संसद पहुंचने का रास्ता तो यही है न कि हम अपने प्रतिनिधि चुने और भेजें। कहा जा सकता है कि परिस्थितियां ऐसी रही नहीं कि हम अपना मताधिकार स्वतंत्र रूप से प्रयोग कर सकें। जब से अपराध और राजनीति का गठजोड़ हुआ है तब से तो ऐसा असंभव सा प्रतीत हो रहा है। लेकिन परिस्थितियां ऐसी भी नहीं हैं कि हम हर बात के लिए विवश हो चुके हैं। ताजा उदाहरण अन्ना का ही ले लीजिए। अन्ना और उनके सहयोगियों को देर तक गिरफ्तार नहीं रखा जा सका। ये बात अलग है कि अन्ना जेल में ही डट गए।
मैं तो यह कहता हूं, हे अन्ना आप आहवान करो उन 10 करोण लोगों का जो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में आप के पक्ष में खड़ा बताए जाते हैं। व्हिप जारी करो इनको कि आने वाले चुनावों में ये लोग अपने-अपने क्षेत्रों के अन्ना को ही चुन कर संसद और विधान मण्डलों में भेजें। यदि ऐसा होता है तो गृहमंत्री के मुंह पर जोरदार तमाचा होगा। इस तमाचे का अर्थ यह होगा कि हर क्षेत्र से अन्ना जैसे जब एक छत के नीचे बैठेंगे तो जन-लोकपाल के रास्ते में आने वाली अड़चनें खुद-ब-खु़द ख़त्म हो जाएंगी। एक फायदा यह भी होगा कि भ्रष्ट छवि के नेताओं की जमात भी स्वतः हाशिए पर पहुच जाएगी। तीसरा लाभ यह कि जिस बेदर्दी से हुकूमत विरोध प्रदर्शनों को नेस्तनाबूद करने के मंसूबों को आगे बढ़ा रही है, उस मंसूबे पर भी लगाम लग सकेगा। अन्ना समर्थकों से यह भी तकाजा है कि जब देश के सभी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों पर अघोषित कफ्र्यू लागू है तो वहां पर विरोध-प्रदर्शन के मूलाधिकारों की बहाली के लिए सिविल सोसाइटी प्रयास करेगी।
यह बहस जारी रहेगी। अभी तक के लिए इतना ही कि सोनिया या मायावती मुर्दाबाद करने से बेहतर है कि हम भ्रष्टाचार हो बरबाद के नारे लगाएं। हर उस व्यक्ति के हर उस लड़ाई में शामिल हुआ जाए जो किसी भी मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों के पक्ष में हो। जो संविधान प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन को रोक सके। सिविल सोसाइटी को अन्ना-अन्ना बनाना हो तो बनाएं लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि हम आज की तारीख में हैं कि तरफ, अन्ना की तरफ, भ्रष्टाचार विरोध की तरफ, किसी व्यक्ति या पार्टी के विपक्ष में या फिर लोकतांत्रिक अधिकारों की तरफ। तय करो किस ओर हो तुम...... !

Saturday, August 13, 2011

मदरसों का सामाजिक परिप्रेक्ष्य


अधिकतर बच्चे सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से आते हैं। बहुत बच्चे ऐसे हैं जो यतीम होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनके सरपरस्त मजदूरी कर सकने की भी स्थिति में नहीं होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके समक्ष बाल्यकाल में ही पेट की आग बुझाने की चुनौती होती है। आर्थिक बदहाली का शिकार ऐसे बच्चे मीडिल क्लास की तरह सरकारी या गैर-सरकारी संसाधनों की पहुंच से कोसों दूर होते हैं। ये बच्चे सिविलाइजेशन की प्रक्रिया से भी अलग-थलग रह जाते हैं। यदि मदरसों की छत न मिले तो ये बच्चे भी कहीं कूड़ा बिनते नजर आते या जेब काटते होते या फिर कहीं बंधुवा बाल श्रमिक होते।

मदरसों को लेकर तरह-तरह भ्रान्तियां हैं। कोई मदरसों को धार्मिक शिक्षा तक सीमित समझता है तो कोई इसे सीधे आतंकवाद से जोड़कर देखता है और कोई रूढि़वाद की पनाहगाह बताता है। लेकिन मदरसों के शैक्षिक और सामाजिक चरित्र तथा भूमिका पर बातें कभी-कभार ही होती हैं। अधिकतर बातों का संदर्भ आतंकवाद की बढ़ती-घटती घटनाएं होती हैं। सत्य और तथ्य चाहे जो हो, मौजूदा दौर की सच्चाई है कि हर विस्फोट के बाद मदरसा जांच एजेंसियों के निशाने पर आ जाते हैं। मदरसा ही क्यों, माइनारिटी स्टेटस रखने वाले दूसरे शैक्षिक संस्थान भी संदेह के घेरे में रहते हैं। इस संदर्भ में यदि मदरसों का छोड़ दिया जाए तो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और हाल में माइनारिटी स्टेटस प्राप्त करने वाले जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की सेक्यूलर छवि भी धूमिल हो रही है। निश्चित तौर पर नौजवानों का एक हिस्सा आतंकवादियों के नापाक इरादों का शिकार हुआ है। लेकिन कुछ सिरफिरों के चलते पूरे समुदाय को ही शक के घेरे में लाना ठीक नहीं है। यह एजेण्डा दरअसल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक आरएसएस और वीएचपी जैसे हिन्दुवादी संगठनों का रहा है। किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं। मदरसों में पढ़ाई जाने वाली दीनी किताबें या धार्मिक शिक्षा एक प्रबल पक्ष है, जो अक्सर मीडिया में बहस का मुद्दा होता है। लेकिन यह आधा सच है। यदि पूरी हकीकत जाननी है तो हमें मदरसों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी ध्यान देना होगा।
पहली महत्वपूर्ण बात यह कि मदरसा आवासीय शिक्षण संस्थान के बेहरीन उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। शिक्षा में स्कूल का संगठन महत्वपूर्ण पक्ष होता है। मदरसों का अनुशासन और आन्तरिक संगठन अपनी जगह काबिले तारीफ है। सवाल यह है कि मदरसे मुख्य धारा से जुड़े नहीं हैं। यदि मदरसा शिक्षा बोर्ड से मान्यता प्राप्त स्कूलों (मदरसों) की बात करें तो उत्तर प्रदेश में ही 1500 से अधिक मदरसे हैं जिन्हे बोर्ड की मान्यता प्राप्त है। बोर्ड की मान्यता प्राप्त होने का मतलब है कि इतनी बड़ी तादाद में मदरसे सरकारी नीतियों और दिशा निदेशों का पालन करते हैं। रही बात अलग से मदरसा शिक्षा बोर्ड के आस्तित्व की तो संविधान की अनु॰ 30(1) के तहत भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शिक्षण संस्थान खोलने और चलाने का मूलाधिकार प्राप्त है।
दूसरी बात मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों की। मालूम हो कि अधिकतर बच्चे सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से आते हैं। बहुत बच्चे ऐसे हैं जो यतीम होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनके सरपरस्त मजदूरी कर सकने की भी स्थिति में नहीं होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके समक्ष बाल्यकाल में ही पेट की आग बुझाने की चुनौती होती है। आर्थिक बदहाली का शिकार ऐसे बच्चे मीडिल क्लास की तरह सरकारी या गैर-सरकारी संसाधनों की पहुंच से कोसों दूर होते हैं। ये बच्चे सिविलाइजेशन की प्रक्रिया से भी अलग-थलग रह जाते हैं। यदि मदरसों की छत न मिले तो ये बच्चे भी कहीं कूड़ा बिनते नजर आते या जेब काटते होते या फिर कहीं बंधुवा बाल श्रमिक होते। बहरहाल संघी मानसिकता के लोगों द्वारा इनकी टोपी, लुंगी और दाढ़ी को आतंकवाद के प्रतीक के रूप में प्रतिबिम्बित करने से इनके समझ राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पहचान का संकट और पेंचीदा हो जाता है। कुछ देर के लिए मान लिया जाय कि मदरसे शिक्षा के उचित स्थान नहीं हैं तो हजारों की संख्या में गरीब बच्चों के शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्था क्या है? खास करके उनके लिए जिनका परिवार गरीबी रेखा से नीचे नहीं बल्कि बहुत नीचे जीवन यापन कर रहा है। एक्शन एड के एक अध्ययन में आश्चर्यचकित कर देने वाले तथ्य सामने आए हंै कि अभी भी ग्रामीण मुसलमानों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की औसत आय मात्र 11 रूपए है।
संघी मानसिकता के लोगों का कहना है कि मदरसे आतंकवाद की पाठशाला हैं। इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना बयानों से एक तरफ जहां भावनात्मक स्तर पर संविधान प्रदत्त अल्पसंख्यकों की धार्मिक और शैक्षिक स्वतंत्रता की अवहेलना होती है वहीं दूसरी तरफ इन्हें रोजमर्रा जीवन में भेदभाव की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। दो बातें हैं, एक तो मदरसे आधुनिक शिक्षा से दूर हैं और दूसरे इनकी छवि संदेहास्पद है। कहना पड़ रहा है कि छवि तो हमारे प्राथमिक पाठशालाओं की भी खराब है। इतनी खराब कि खुद इन स्कूलों के प्रशिक्षित अध्यापक-अध्यापिकाओं के बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। ज्ञात हो कि निजी स्कूलों के अधिकतर अध्यापक-अध्यापिका अप्रशिक्षित होते हैं। लेकिन उनका कार्य निष्पादन प्राथमिक स्कूलों के प्रशिक्षित और अनुभवी अध्यापकों-अध्यापिकाओं से अधिक और अच्छा होता है। तो क्या इस संदर्भ में यह मान लिया जाना चाहिए कि प्राथमिक विद्यालय भी आधुनिक शिक्षा से दूर हैं। यह जानकर हैरानी होती है कि ढ़ेर सारे मदरसे प्राथमिक स्कूलों से भी आगे हैं। कम से कम मान्यता प्राप्त मदरसों में सरकारी किताबें ही पढ़ाई जाती हैं। यदि बनारस के डा॰ मोहम्मद आरिफ की बातों पर यकीन करें, जिन्होंने मदरसों पर काफी काम भी किया है तो इनके मुताबिक मदरसों में प्रदेश सरकार द्वारा मान्य वो किताबें भी पढ़ाई जा रही हैं जिनके कुछ अध्याय काफी विवादित हैं, जिसमें सास्कृतिक राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। इस तरह की किताबें सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ाई जाती हैं जो राष्ट्रीय एकता और साझी विरासत वाली संस्कृति को नुकसान पहंुचाती हैं।
जाहिर है माडर्नाइजेशन के दौर में मदरसों में वो बातें भी बताई जा रही हैं जो खुद मदरसों के बुनियादी ढ़ांचे के खिलाफ हैं। यहां कहना चाहूंगा कि ये बातें अल्पसंख्यकों को इसलिए पता नहीं चल पाती हैं क्योंकि मदरसों पर उलेमा वर्ग का अच्छा खासा प्रभाव है। उलेमा होना अपने आप में अति महत्वपूर्ण है। लेकिन यह वर्ग सरकारी-गैर सरकारी योजनाओं को अपने हिसाब से चलाना चाहता है। इस नियमन और संचालन में उलेमा वर्ग अकेले नहीं होता। मुख्यधारा का ही व्यक्ति उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करता है। मुख्यधारा का व्यक्ति कोई जनप्रतिनिधि, कोई अफसर या कोई बाबू हो सकता है। मान्यता प्राप्त मदरसे मुख्य धारा से अच्छी तरह जुड़े हुए हैं लेकिन दुःख की बात है कि मदरसों के माध्यम से अल्पसंख्यकों तक पहुंचने वाली सरकारी सुविधाओं का लाभ उनतक नहीं पहुंच पाता। आम मुसलमानों को तो किसी योजना या स्कीम की जानकारी तक नहीं होती। फतेहपुर की रूबीना की बातों से पता चलता है कि स्थानीय प्रतिनिधि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए सरकारी योजनाओं की जानकारी अपने तक सीमित रखता है। बताता भी है तो समय निकल जाने के बाद। इन्टरनेट और दूसरे संचार माध्यमों तक पहुंच नहीं होने के कारण भी मुस्लिम अल्पसंख्यक कल्यारकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में इन्हें मुख्य धारा में शामिल करने का एजेण्डा भी पीछे रह जाता है।
जाहिर मदरसों के बारे में हमें अपनी राय बदलने की जरूरत है। मेरा भी व्यक्तिगत अनुभव यही रहा है कि मदरसे सिर्फ धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का केन्द्र हैं। लेकिन मुझे अपनी धारणा बदलनी पड़ी। मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों से बातचीत, खासकर उन बच्चों से जिन्हें उच्च शिक्षा का अवसर मिला, जो जामिया, जेएनयू डीयू, बीएचयू और एएमयू जैसे देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रहे हैं या कर चुके हैं और वो जो एक बेहतर समाज और देश के सपनों को सच कर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी पहचान को स्वीकार करना होगा। अवसर हर व्यक्ति के लिए विकास खिड़कियां खोलता है। इस संदर्भ में मदरसों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पक्षों से सामाजिकता का पाठ सीखा जाना चाहिए।

नई दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक ‘‘शिल्पकार टाइम्स’’ 1-15 अगस्त के अंक में प्रकाशित

Friday, August 12, 2011

भावना, योजना और जाति-जनगणना के बीच भ्रम की स्थिति क्यों?


" सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से खाद्य सुरक्षा का सही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर एक-एक करके अन्य नीतियों के क्रियान्वयन में भी इस जनगणना की मदद ली जा सकेगी। ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति और परिवार तक पहुंच सके। यदि इस बात पर यकीन करें तो मानना होगा कि हमारे समाज में जात-पात की समस्या समाप्त हो चुकी है। सर्व शिक्षा अभियान, मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सम्पूर्ण सफाई अभियान जैसी योजनाओं की रेलमपेल में सम्मान का सवाल बहुत पीछे रह गया है।........"

गणना 2001 के बाद सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण (बी.पी.एल. सर्वेक्षण) का पहला दौर जुलाई महीने में शुरू हुआ। इस बार बी.पी.एल सर्वेक्षण में दो नयी बातें हो रही हैं। पहला यह कि पहली बार शहरी क्षेत्रों में भी यह सर्वे हो रहा है और दूसरी बात यह कि इस सर्वे के साथ ही जाति जनगणना भी की जा रही है। मालूम हो कि जाति जनगणना इससे पहले 1931 में की गयी थी। 80 बरस के बाद (आज़ादी के 64 बरस बाद) हो रही इस जनगणना को लेकर प्रबुद्ध वर्ग में बहस तेज हो रही है। इस बीच “आरक्षण” फिल्म के कानटेन्ट और प्रस्तुति ने भी ध्यान आकर्षित किया है। अखबार, टी.वी. से लेकर फेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट पर भी घमासान मचा हुआ है। कोई फिल्म पर प्रतिबंध लगाने, तो कोई रिलीज करने का पक्षधर है। कोई सस्ती लोकप्रियता की कसौटी पर परख रहा है और यह कह रहा है कि फिल्म देखने के बाद ही तय किया जाय कि वास्तव में फिल्म किसी जाति विशेष की भावनात्मक ठेस पहुंचाती है या नहीं। यूंही हो-हल्ला मचाने से प्रोड्यूसर-डाइरेक्टर का बिजनेस बढ़ेगा। बहरहाल आरक्षण का मुद्दा ही केन्द्र में है। 1931 के बाद और आजाद भारत में पहली बार हो रही जाति जनगणना जाति आधारित भेदभाव की यह व्यापक स्वीकारोक्ति है। लेकिन जाति जनगणना को लेकर कई सवाल अनुत्तरित हैं। पहला यह कि इस जनगणना से हमें क्या हासिल होने वाला है? क्या उन जातियों की पहचान और संख्या सामने आ सकेगी जिनकी अभी तक अलग से कोई सूची उपलब्ध नहीं है? क्या करोणों रूपए खर्च करने के बाद इस जनगणना से प्राप्त आंकड़े जातिगत विविधता प्रधान भारत के गरीबों और पिछड़ों के लिए नीति बनाने में सहायक होंगे? और अन्ततः क्या जात-पात की भेदभाव परक व्यवस्था कमजोर हो सकेगी? इन्हीं सवालों के चलते ‘‘समाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना, 2011’’ की प्रक्रिया, प्रयुक्त माध्यम और परिणाम को लेकर जिज्ञासाएं भी हैं और उहापोह की स्थिति भी।
जनगणना से जुड़े सवालों में पहला सवाल यह कि जब इस वर्ष 9 से 28 फरवरी के बीच सम्पन्न जनगणना में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की गिनती हो चुकी है तो जाति जनगणना के नाम पर उन्हीं को फिर से गिनने की आवश्यकता क्या है? 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की आबादी क्रमशः 16.2 और 8.2 प्रतिशत थी। जाहिर है कुल आबादी में अनुसूचित जाति/जनजाति की संख्या पहले से मालूम है। जनगणना, 2011 के आंकड़ों के सामने आते ही 2001 के आंकड़े में होने वाले बदलाव भी सामने आ जाएंगे।
रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त के अनुसार जाति जनगणना में केवल चार कटेगरी होंगे, पहला “अनुसूचित जाति”, दूसरा “अनुसूचित जनजाति”, तीसरा “अन्य” और चैथा “कोई जाति नहीं”। भारत सरकार की वेवसाइट http://rural.nic.in पर यह भी लिखा है कि अनुसूचित जाति सिर्फ हिन्दू, सिक्ख और बौद्ध धर्म के अनुयायियों में होंगे। बिल्कुल ठीक लिखा है। सबकुछ संविधान के दायरे में लिखा गया है। लेकिन यह बात समझ से परे है कि इस जाति जनगणना का लाभ क्या है, जिसमें सिर्फ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को ही गिनना प्रमुख ध्येय है। जनगणना 2011 से यदि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी घटा दिया जाय तो अन्य जातियों और बिना जाति के लोगों की संख्या ऐसे ही सामने आ जाएगी। फिर अलग से 2000 करोण रूपए खर्च करने की जरूरत क्या है? बी.पी.एल. के साथ हो रहे इस सर्वे को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग, सामान्य वर्ग और मुस्लिम व इसाई दलितों का अलग जातिगत आंकड़ा प्राप्त किया जा सकेगा। और उन्हीं आंकड़ों के अनुसार मानव संसाधनों को नियोजित किया जा सकेगा।
लेकिन यह जनगणना तो छलावा प्रतीत होता है। क्योंकि इस जनगणना से पिछड़ी और सामन्य जातियों के लोगों के बीच विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। जिस तरह से “अनुसूचित जाति”, “जनजाति”, “अन्य” और “बिना जाति” के लोगों के बीच खींचने की कोशिश जा रही है। यह तो यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) की परीक्षा में दिए जाने वाले विकल्पों के समान है, कि उत्तर इन्हीं चार में से कोई एक चुनना है। या फिर आजकल टी.आर.पी. मीडिया द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों की तरह हैं जिनमें पहले से तय तीन-चार प्रश्नों के अलावा पांचवा या छठा का कोई विकल्प नहीं होता। किसी मायने में यह लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भी है कि उत्तरदाता के समक्ष अपनी समस्या और समस्या के परिमाण को व्यक्त करने का कोई विकल्प ही नहीं दिया जाता है। ऐसे में उन जातियों का क्या होगा जिनका संबंध न तो सामान्य वर्ग से है और न ही अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से। मण्डल कमीशन के अनुसार इनकी आबादी 54 प्रतिशत है। आबादी का यह हिस्सा भी सामाजिक न्याय के संघर्ष में शामिल रहा है। फिर इनकी गिनती “अन्य” विकल्प के अन्तर्गत क्यों किया जा रहा है? क्या ये जातियां कर्म और जातिगत भेदभावों के कारण सामाजिक वंचनाओं का शिकार नहीं रही हैं या नहीं हैं।
चिन्ता की बात यह भी है कि मुस्लिम और ईसाई भी इस देश के नागरिक हैं। भारतीय समाज की कल्पना इन दो को छोड़कर कैसे की जा सकती है। मुस्लिम और ईसाई आबादी का एक खास हिस्सा ऐतिहासिक रूप से दलित रहा है। लेकिन यह तबका धर्म परिवर्तन के कारण अनुसूचित जाति होने के लाभ से वंचित है। जबकि धर्म परिवर्तन करके बुद्ध या सिक्ख हो जाने पर यह पाबन्दी नहीं है। सच्चर कमेटी ने भी इस बात को माना है कि 1950 के राष्ट्रपति के अध्यायदेश द्वारा अनुसूचित जाति की सीमा तय करते समय कर्म के आधार पर अछूत समझे जाने वाले सिर्फ हिन्दुओं को ही शामिल किया गया। जबकि गै़र हिन्दुओं को, जो मुस्लिम या ईसाई थे और जिनकी सामाजिक स्थिति भी हिन्दु दलित के समान थी, को छोड़ दिया गया, जो ओ.बी.सी. के अन्तर्गत अधिसूचित हैं। यदि मुस्लिम समाज की बात करें तो कम से कम हलालखोर जैसी जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा संविधान संशोधन के बगैर संभव नहीं है। फिर सच्चर और रंगनाथ जैसी कमेटी और आयोग की अनुशंशाओं का क्या औचित्य है? 
सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से खाद्य सुरक्षा का सही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर एक-एक करके अन्य नीतियों के क्रियान्वयन में भी इस जनगणना की मदद ली जा सकेगी। ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति और परिवार तक पहुंच सके। यदि इस बात पर यकीन करें तो मानना होगा कि हमारे समाज में जात-पात की समस्या समाप्त हो चुकी है। सर्व शिक्षा अभियान, मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सम्पूर्ण सफाई अभियान जैसी योजनाओं की रेलमपेल में सम्मान का सवाल बहुत पीछे रह गया है। जिस सम्मान को प्राप्त करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था को लागू किया गया था, सम्मान की वह भावना विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं की भेंट चढ़ने वाली है। आरक्षण के समर्थकों सुनों ध्यान से तुम्हारी गिनती ओबीसी में नहीं होने वाली। तुम बहुत सशक्त हो चुके हो। अब तुम्हें अपनी जाति के सामने दिए बाॅक्स में कोड संख्या 3 भरना है। यही कोड सामान्य जाति के लोग भी भरेंगे। इस कोड का मतलब यह है कि आपकी गिनती अन्य पिछड़ों में नहीं बल्कि सामान्यों के साथ होगी। शायद सरकार इस मत से सहमत हो चुकी है कि आरक्षण का लाभ पिछड़ों को जितना मिलना था मिल चुका। लेकिन सरकार यह भूल रही है कि आरक्षण का लाभ पिछड़ों की कुछ जाति विशेष को ही मिल पाया है।
सवाल घूम फिरकर वहीं आ पहुंचता है। आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक सम्मान की भावना से जुड़ी है। सम्मान का संबंध संसाधनों की समान रूप से उपलब्धता, पहुंच और अवसरों में समानता से है। यदि मौजूदा प्रणाली के तहत हो रही जाति जनगणना से दलितों-पिछड़ों की सामाजिक स्थिति में साकारात्मक बदलाव आने की संभावना है तब तो ऐसी जनगणना का स्वागतम् है। अन्यथा भावनाओं और योजनाओं में गड्मड् करके खिचड़ी पकाने से भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।

Monday, May 16, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई

भारत को सोने की चिडि़या कहा जाता है। चार-पाँच रूपए मूल्य की काॅपी पर तिरंगा ध्वज के साथ मेरा भारत महान” लिखकर बच्चों को अपने देश की महानता का बोध कराया जाता है। लेकिन आज भ्रष्टाचार नामक दीमक व्यवस्था को चाट-चाट कर इतना खोखला कर दिया है कि भारत की महानता न सिर्फ धूल-धूसरित हो रही है बल्कि नागरिक समाज त्राही-त्राही कर रहा है। संविधान द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाएं भ्रष्टाचार के दावानल में धँू-धँू कर के जल रही हैं। भ्रष्टाचार स्वतंत्र भारत में शुरू से ही अज्ञात नहीं रहा है। आजादी के बाद भ्रष्टाचार की पहली घटना जीप घोटाला नेहरू के समय में ही प्रकाश में आया था। हाँ 80 और फिर 90 के दशक में इसका बेलगाम विस्तार हुआ। तब से लेकर आज तक एक से बढ़कर एक घोटालों और इनमें शामिल हाई प्रोफाइल लोगों तथा इनकी शह पर या परिस्थितिजन्य कारणों से भ्रष्टाचार की खेती करने वाले साधारण जनों के नाम सामने आ चुके हैं। लेकिन कुछ एक मामलों को छोड़ दिया जाय तो प्रायः भ्रष्टचार में लिप्त व्यक्ति कानूनी दाव-पेंचों से बच निकलते हैं। पिछले दिनों जब अन्ना हजारे जन्तर-मन्तर पर बैठे तो ऐसा लगने लगा कि जनता की आवाज को एक काॅमन प्लेटफार्म मिल गया। लेकिन जन लोकपाल पर गठित समित में नागरिक समाज के दो प्रतिनिधियों पर वंशवाद और फिर सी॰डी॰ प्रकरण के आरोपों से पूरे अभियान की किरकिरी करने की कोशिश की जा रही है।
कहना नहीं है कि लोकपाल बिल का मुख्य उद्देश्य जनतंत्र की उच्च संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना है। हम जानते हैं कि किसी भी अपराध के लिए भारतीय संविधान में एक नहीं बल्कि कई-कई अनुच्छेद और धाराएं हैं। जिनपर प्रभावी ढ़ंग से अमल किया जाय तो भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकती है। साथ ही समाज और देश की ढे़रों समस्याओं से समय रहते निजात भी मिल जाए। लेकिन रसूख प्रिय और कबूतरबाजी में ज़ोर आज़माइश करने वाले नेताओं पर किसी भी मामले में मुकदमा चलाना और उन्हें सजा दिलवाना टेढ़ी खीर है। लोकपाल बिल सत्ता के शिखर पर बैठे ऐसे राजनेताओं और उनतक पहुंच रखने वाले लोगों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की जांच और दोषी पाए जाने पर उन पर मुकदमा चलाने तथा जेल भेजने का प्रावधान करता है। गौर करने की दूसरी बात यह है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे पहुंचता है। मौजूदा दौर में आम लोगों की धारणा है कि व्यवस्था का हर अंग भ्रष्टाचार की जद में है। जिसे समाप्त करना मुश्किल है। यह धारणा किसी पौराणिक-धार्मिक मान्यता की तरह स्थापित चुका है। लोग यह नहीं सोचते कि भारतीय राजव्यवस्था में यह धारणा स्थापित और विकसित कैसे हुआ? ध्यान रहे कि सोशल मोबिलिटी के सिद्धांत के अनुसार सामाजिक गतिशीलता अपवर्ड यानि नीचे से ऊपर की ओर बढ़ती है। लेकिन राजकाज में प्रचलित डाक्ट्रिन आफ इनफिल्ट्रेशन” के सिद्धांत के अनुसार शासन-प्रशासन की अच्छी-बुरी चीजें ऊपर से नीचे पहुंचती हैं। जैसे लोक कल्याणकारी योजनाएं और इन योजनाओं के साथ भ्रष्टाचार की बुराई। इस संदर्भ में देखा जाए तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति ही भ्रष्टाचार के मूल स्रोत हैं। ज्यादातर मामलों में ये लोग कानून की धज्जियां उड़ाने और जनता की आँखों में धूल झोंकने में कामयाब रहते हैं। भ्रष्टाचार के कुछ एक हाई प्रोफाइल मामलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर मामलों में भ्रष्टाचारी चोरी और सीनाजोरी की कहावत को चरितार्थ करते नजर आते हैं। परिस्थितियां ऐसी बन चुकी हैं कि हर व्यक्ति चाहे वो सरकारी बाबू हो या कोई आम नागरिक हेरा-फेरी के लिए विवश है। छोटे-छोटे काम के लिए लोगों को न सिर्फ सरकारी दफतरों के चक्कर लगा-लगाकर अपनी चप्पल घिसानी पड़ती है बल्कि जेब भी ढ़ीली करनी पड़ती है। दलालवाद के इस दौर में जन लोकपाल बिल के रूप में यदि उम्मीद की नई किरण देखी और दिखाई जा रही है तो इसमें बुरा क्या है?
कहना पड़ रहा है कि बुरे लोगों के लिए हर अच्छी बात बुरी होती है। बात करते हैं अन्ना, शांति और सरकार की। अन्ना हजारे की पहचान सर्व विदित है। स्वामी रामदेव का वंशवाद का आरोप क्षण भर के लिए निराशा का कारण बना। आम जनता का एक बड़ा हिस्सा उनके विश्वास में आने लगा। आए भी क्यों न! ऐसा होना स्वाभाविक है। क्योंकि वंशवाद समकालीन भारतीय राजनीति की उभयनिष्ठ पहचान के संकेतकों में एक है। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो मीडिया में चल रहे उठा-पटक से इतर मामले की तह तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। दूसरे ही दिन स्वामी रामदेव ने शांति भूषण और प्रशांत भूषण के पक्ष में स्पष्टीकरण दिया। इस स्पष्टीकरण को पिता-पुत्र के रूप में दो विधि विशेषज्ञों के पक्ष में दिया गया स्पष्टीकरण भी कहा जा सकता है। यह भी पूछा जा सकता है कि क्या पूरे भारत में यही दो व्यक्ति विधि की विशेषज्ञता रखते हैं? यह सवाल अपनी जगह सही भी है लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि देश में विभिन्न मुद्दों पर चल रहे जनान्दोलनों से कौन लोग कितने समय से जुड़े रहे हैं। इस संदर्भ में विधि विशेषज्ञ की हैसियत से शांति भूषण का कैरियर अच्छा कहा जा सकता है। उन्होंने ही सन् 1977 ई॰ में बतौर विधि मंत्री लोकपाल बिल का मसौदा संसद में पेश किया था। इसके बाद भी वो लगातार एक वकील की हैसियत से भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल रहे हैं। देश के कई भ्रष्ट न्यायधीशों को बेनकाब करने में उनके प्रयास सराहनीय रहे हैं। इस कार्य में उन्हें अपने पुत्र के रूप एक बेटा नहीं बल्कि ऐसा सहयोगी मिला जिससे पिता पुत्र की निजी पहचान पीछे रह गयी। ऐसा प्रतीत होता है कि लोकपाल पर बनी समिति में नागरिक समाज के प्रतिनिधि के रूप में शांति भूषण और प्रशांत भूषण पिता-पुत्र नहीं बल्कि ऊर्जा के दो ऐसे रूप हैं जो लोकपाल के स्वरूप को तय करने के लिए जरूरी हैं।
रही बात सी॰डी॰ प्रकरण वाले राजनेता की तो ऐसे व्यक्तियों की पहचान किसी से छिपी नहीं है। ऐसे लोग किसी सर्वव्यापी वस्तु की तरह राजनीति, फिल्म और उद्योग हर जगह समान रूप से मौजूद हैं। ये लोग राजनीति के नाम पर दलालवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुछ एक मामलों में इन जैसे लोगों का बयान साबित करता है कि भ्रष्टों की सूची में इनका नाम स्वर्णाच्छरों में लिखा जाना चाहिए। ऐसे लोग जब आपस में खूब छानते रहते हैं तो एक दूसरे को बड़ा भाई बताकर शिष्टाचार दिखाते हैं। जब आपस में मतभेद होता है तो कहते नहीं थकते कि मैं बोलूंगां तो फलां जेल के अन्दर होंगे। तब तो बोल ही देना चाहिए। यदि किसी के बोलने से किसी भ्रष्ट या पापी को उसके किए की सजा मिल जाए तो लोकतंत्र के लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है? लेकिन बोलेंगें नहीं, क्योंकि वो तो खुद भी उसी स्कूल के विद्यार्थी रहे हैं जहां भ्रष्टाचार और दलाली का ‘क, , , घ और ड. मिन्स कुछ नहीं पढ़ा और पढ़ाया जाता है। मीडिया के पास ऐसे लोगों के बयानों के तमाम फुटेज पड़े हैं। जिसे पूरा देश देखता-सुनता है लेकिन महसूस नहीं करता। यदि महसूस करता तो ऐसे बयानों का संज्ञान लिया जाता और हर बयान के अन्दर निहीत किसी गैर सामाजिक, गैर विधिक कार्य को किए जाने और उसपर परदा डालने वालों की खैरियत पूछी जाती।
बहरहाल चन्द सिरफेरे नेताओं के आरोपों के कारण किसी आंदोलन की किरकिरी नहीं होनी चाहिए। देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बहुत कुछ चल रहा है। इस दौर की चुनौती यह है कि एक एक तरफ जहां अवाम को काॅमन प्लेटफार्म पर लाना है वहीं भ्रष्टाचार के मुद्दा पर नेतृत्व को भी बचाना है। सबको पता है कि जनप्रतिनिधियों में सांसद निधि और वेतन-भत्ता में वृद्धि जैसे मुद्दों पर गजब की सहमति है। लेकिन जब बात जन समस्याओं और सुविधाओं की होती है, जैसे महिला आरक्षण बिल, शिक्षा पर बजट, रोजगार, बिजली, पानी और सड़क इत्यादि की, तो हर नेता अपना पल्ला झाड़ते दिखता है। राजनेता हमारा प्रतिनिधित्व करने के बजाय चन्द मुट्ठी भर संभ्रातों और पूंजीपतियों की सेवा में लगे हुए हैं। सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार हमारा काॅमन इश्शू है। फिर भी इस सवाल पर हम अपने आप को एक काॅमन प्लेटफार्म पर इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है इस मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए। कहना नहीं होगा कि यह तर्क किसी मुद्दे को डिपोलिटिसाइज और असल मुद्दे से ध्यान डाइवर्ट करने का है। जब सभी मामले राजनीति से ही तय होने हैं तो राजनीति होनी चाहिए। अच्छे और सच्चे लोगों की राजनीति। लिंग, जाति, धर्म, वंश और अवसरवाद से परे आम जनता की राजनीति। भ्रष्टाचार से त्रस्त अवाम की राजनीति न कि दलालवाद के पुरोधाओं की राजनीति।
 इतिहास हमें रास्ता भी दिखाता है। जैसे 1936 ई॰ में प्रगतिशील आंदोलन के समय विभिन्न भाषाओं के कवि एवं साहित्यकार एक प्लेटफार्म पर इकट्ठा हुए थे। मौजूदा दौर द्रुतगामी परिवर्तनों का है। यह समय संचार क्रांति द्वारा जनित बेतार माध्यमों का है। पल में राय बनती है और दूसरे पल बिगड़ती है। यह समय सजग और सचेत रहने का है। कम से कम उन चुनौतियों से जो आधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्वाभाविक परिणति हैं। जिससे भ्रष्टाचार को अलग करके नहीं देखा जा सकता। अन्ना को महज चार दिनों में गांधी का अवतार बनाने वाले टी॰आर॰पी॰ मीडिया के सापेक्ष वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने और प्रभावी बनाने की भी चुनौती है। ताकि छोटे-छोटे समूहों में बिखरे हुए जन समूहों को एक काॅमन प्लेटफार्म पर लाया जा सके। और तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी जा सकेगी।

दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक शिल्पकार टाइम्स के १६-३० जून, २०११ के अंक में प्रकाशित.