Sunday, June 19, 2016

पलायन का मिथक और ध्रुवीकरण की राजनीति


श्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली स्थित कैराना से कथित तौर पर 346 हिन्दू परिवारों के पलायन पर सियासत गरम है। कैराना शामली जिला का मुस्लिम बाहुल्य वाला कस्बा है। जहां हिन्दू और मुस्लिम आबादी का अनुपात क्रमशः 18.34 और 80.76 प्रतिशत है। पिछले दिनों यहां से पलायन की तथाकथित घटना का रहस्योद्घाटन सांसद हुकुम सिंह ने किया। मुमकिन है सांसद हुकुम सिंह की बात में दम हो। लेकिन जिस तरह से मीडिया में खबरें आ रही हैं और जिस तरह तथाकथित पलायन को कश्मीरी पंडितों के पलायन से जोड़कर प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है, उससे जाहिर होता है कि पलायन एक संवेदनशील सामाजिक-आर्थिक मुद्दा नहीं बल्कि संघ परिवार द्वारा खड़ा किया जाने वाला एक मिथक है। ऐसा मिथक जिसे अगामी विधान सभा चुनाव के पहले जनमत निर्माण के लिए राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके। इतिहास और वर्तमान का संदर्भ लिया जाए तो देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों और समाजों व समुदायों में हर दौर में अलग-अलग कारणों से पलायन का रूझान रहा है। लेहाजा कैराना के मामले में पलायन और इसके के विभिन्न पक्षों की अनदेखी नहीं की जा सकती।


पलायन दरअसल एक ऐसी समस्या है जिसकी जड़ें आमतौर पर गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी में छिपी होती हैं। इतिहास में ऐसा भी हुआ है कि बहुधा जातियों और समुदायों ने सामंती शोषण, दमन और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने की बजाय पलायन का विकल्प चुनना बेहतर समझा। यही कारण है कि देश के कई हिस्सों में पीढ़ी दर पीढ़ी पलायन होता रहा है। उदाहरण के तौर पर यदि पूर्वी उत्तर प्रदेश की बात करें तो गाज़ीपुर, बलिया और मऊ आदि जिलों में दो-तीन पीढ़ी पहले से ही पलायन का रूझान दिखाई देता है। कुछ गांव तो ऐसे हैं जहां घर-घर से लोग बंगाल गए, वहां पर स्थाई रूप से रहने लगे। उनके बाद की पीढ़ी रोजगार और आजीविका के अवसरों की तलाश में पलायन करना पड़ा। मेरे कई मित्र हैं जो अपने पैतृक गांव-कस्बा से अपना कारोबार बंद करके हाल-फिलहाल में बंगाल और असम गए है। पिछले दिनों एक फ्रांसीसी रिसर्चर कमेली बुआ से मुलाकात हुई। कमेली बुआ उत्तर प्रदेश और बिहार से पश्चिम बंगाल को होने वाले पलायन पर शोध कर रही हैं। उनके साथ विभिन्न गांवों का दौरा करने के बाद पलायन के कई अनछुए पहलुओं को करीब से समझने का अवसर मिला। पलायन वर्ग और जाति के आधार पर भी है और समुदाय के आधार पर भी है। पलायन का एक महत्वपूर्ण कारण स्थानीय संसाधनों में सहभागिता का न होना भी है। गांव वासियों से बातचीत के दौरान यही भी प्रकाश में आया कि पलायन के पीछे कई बार समाज का सामंती ढ़ांचा और इस पर आधारित शोषण, दमन और अत्याचार इस कद्र प्रछन्न होता है कि इस कारण से होने वाले पलायन की न तो पहचान हो पाती है और न ही इसकी आवाज समाज और सत्ता के विकेन्द्रित प्रतिष्ठानों तक पहुँच पाती है। जाहिर है पलायन अपने वृहद् सन्दर्भ में आर्थिक और सामजिक दोनों ही कारणों से होता रहा है।

इतिहास गवाह है कि पलायन इच्छित और अनिच्छित दोनों ही स्वरूपों में हुआ है। हुकुम सिंह या यूं कहें कि संघ परिवार के लोग जिस पलायन की बात कर रहे हैं वो पालयन अनिच्छित किस्म की है। लेकिन एक सवाल है। हुकुम सिंह की चिठ्टी पर सुनवाई में इतनी शीघ्रता और आतुरता क्यों है। उनके समकक्ष अन्य सांसद भी तो जनता के जमीनी मुद्दों और समस्याओं को अपनी चिट्ठियों के माध्यम से संसद और विधान मंडलों में उठाते रहे हैं। फिर हुकुम सिंह का हुक्म सर आँखों पर क्यों? संदेह की और भी वजहें हो सकती हैं जैसे कि उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष 2017 में विधान सभा चुनाव होना है। हर पांच साल पर होने वाले चुनाव की पूर्व संध्या पर आम जनता का बल लोकतान्त्रिक संस्थाओं की नुमाइन्दगी का दम-खम भरने वालों और इनमें दखल रखने वाले राजनेताओं व सियासी पार्टियों पर भारी पड़ता है। इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों ही शामिल हैं। एक के सामने अपनी पद और प्रतिष्ठा को बचाने की तो दूसरे के समक्ष अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने की चुनौती होती है। पार्टियों की आपसी चुनौतियों के बीच आम मतदाता ही सबसे बलवान होता है। उत्तर प्रदेश में सपा, भाजपा की स्थिति कुछ ऐसी ही है। एक सत्ता में है तो दूसरी पार्टी सत्ता प्राप्त करने की लालसा रखती है। इन दोनों की बीच में आम जनता वो धुरी है जिसका वोट इन्हें हर कीमत पर चाहिए।

बेशक आम जनता और मतदाता हर हाल में अपना सामजिक, आर्थिक और वैयक्तिक प्रगति चाहता है। आम मतदाताओं की इस इच्छा में ही उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका के मूलभूत प्रश्न छुपे होते हैं। जिसे अक्सर राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी एजेण्डे में उठाती रही हैं। मगर अफसोस कि विकास का एजेण्डा पेश करने वाली पार्टियों के कामकाज पर कैराना जैसे शहर सवाल बन कर खड़े हो जाते हैं। यदि साक्षरता के सूचकांक पर कैराना के विकास की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार कैराना में साक्षरता की दर 59.76 प्रतिशत दर्ज की गयी जो प्रदेश के 67.68 प्रतिशत और देश के 74.04 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से भी कम है। यदि सिर्फ कैराना शहर की साक्षरता की बात करें तो यहां 47.23 प्रतिशत व्यक्ति ही साक्षर हैं। कैराना शहर में पुरूष और महिला साक्षरता की दर (क्रमशः 55.16 और 38.24 प्रतिशत) न सिर्फ उत्तर प्रदेश की औसत साक्षरता की दर से कम है बल्कि शामली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और मेरठ आदि शहरों की औसत साक्षरता दर से काफी कम है। साक्षरता दर में यह कमी इस बात का संकेतक है कि यह शहर बरसों से उपेक्षित रहा है। जो लोग पलायन का मिथक खड़ा करने में लगे हुए हैं उनकी राजनीति पर कैराना शहर की साक्षरता दर गंभीर सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। सवाल लाज़मी है कि कैराना साक्षरता के सूचकांक पर औंधे मुंह क्यों गिरा पड़ा है? दिलचस्प बात यह है कि कैराना से शामली, सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर, मेरठ और देश की राजधानी नई दिल्ली सभी शहर करीब हैं। इन शहरों में साक्षरता दर प्रदेश और देश के औसत साक्षरता दर से अधिक है। कैराना जिस जिले का तहसील है उस जिले में भी साक्षरता दर 71 प्रतिशत से अधिक है। सवाल धर्म निरपेक्षता के तमाम अलमबरदारों से भी है कि हुकुम सिंह जैसे सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ अल्पसंख्यक बाहुल्य वाले क्षेत्र में जन प्रतिनिधि कैसे चुने जाते हैं? सवाल हुकुम सिंह जी से भी है कि वो कैसे जन प्रतिनिधि हैं, जो साक्षरता की बुरी स्थिति को न तो चिन्हित नहीं कर पाए और न ही यहां के लोगों को साक्षर बनाने हेतु कोई सार्थक कोशिश कर पाए। संदेह जायज है कि एक जन प्रतिनिधि के तौर पर सांसद हुकुम सिंह अपनी असफलताओं का ठीकरा पहले सांप्रदायिक आधार पर पलायन और फिर कानून व्यवस्था के चलते पलायन जैसे बहाने बनाकर राज्य सरकार के सर पर फोड़ना चाहते हैं। सात बार विधायक और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके मोदी लहर में सांसद बने हुकुम सिंह जी को पलायन के मिथक की जरूरत इसलिए पड़ी कि वो जनहित के एजेण्डा पर फेल हो चुके हैं। अगर हुकुम सिंह के विधायक और फिर सांसद रहते स्थानीय गुण्डों और माफियों का प्रभाव बढ़ा है तो इससे हुकुम सिंह की राजनीतिक गैर मौजूदगी भी जाहिर है। अच्छा होता कि वो अपने संसदीय क्षेत्र के गुण्डों-माफियाओं की सूची तैयार कर उनके खिलाफ कार्यवाही सुनिश्चित कराने के लिए कुछ साकारात्मक प्रयास किए होते। सांसद जी को पलायन पर शोध करना ही था तो बुंदेलखंड चले गए होते जहां पर विभिन्न कारणों से न सिर्फ किसानों, गरीबों और मज़दूरों को पलायन करना पड़ा है बल्कि आत्म हत्या के लिए भी मजबूर होना पड़ा है। यदि हिन्दू पलायन की वकालत कर रहे लोग विशेषकर सांसद हुकुम सिंह कभी बिहार जाते या यहां से दिल्ली, मुम्बई, सूरत, अहमदाबाद और हैदराबाद की ओर जाने वाली रेलगाड़ियों में एक के ऊपर एक लदे हुए सवारियों को यात्रा करते देखने का समय निकालते तो पलायन का दर्द शायद महसूस कर पाते।

अगर समय रहते उन्होंने ऐसा कोई प्रतीमान स्थापित किया होता तो उन्हें संघ की विषैली सांप्रदायिक एजेण्डे से इतर विकास के एजेण्डे पर सियासी माहौल बनाने का विकल्प खुला होता। लेकिन नहीं, कांग्रेस से अपनी राजनीति शुरू करने वाले हुकुम सिंह को संघ का एजेण्डा अधिक पसंद था। सो वो पलायन का मिथक खड़ा करने में लग गए। लगभग चार दशक का राजनीति का अनुभव रखने वाले हुकुम सिंह के अनुभव से उनके अपने ही संसदीय क्षेत्र के कैराना की साक्षरता दर की सूची कैसे छूट गयी। शायद संघ से नजदिकियों ने उन्हें सांप्रदायिक और फांसीवादी एजेण्डे का कायल बना दिया तभी तो उन्होंने साक्षरता की स्थिति सुधारने के बजाए पलायन का मिथक खड़ा करने के लिए तर्क की जगह कुतर्क कर रहे हैं।

तर्क का क्या है, तर्क मानव प्रवृत्ति का हिस्सा भी होता है और बहुधा मनुष्य तर्क गढ़ने की प्रवृत्ति में माहिर भी होते हैं। तर्क का होना वैज्ञानिकता और स्वाभाविकता का परिचायक होता है। लेकिन तर्क गढ़ने के पीछे कोई न कोई उद्देश्य या लक्ष्य छुपा होता है, जो नाकारात्मक होता है और जिसे आम तौर पर प्रकट नहीं होने दिया जाता है। गढ़े हुए तर्कों से जो परिणाम फलीभूत होते हैं वही प्रकट होते हैं। प्रकट परिणामों की प्रस्तुति सत्य और तथ्य की तरह की जाती है ताकि जनमानस इन्हें मानकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करे। कैराना में पलायन के पीछे जो कारण संघ परिवार द्वारा बताए जा रहे हैं, उसके पीछे भी यही उद्देश्य प्रतीत होता है कि वहां की जनता धार्मिक पहचान के आधार पर दो स्पष्ट समूहों में बंट जाए। फिर भी यह बात गले से नीचे नहीं उतरती कि ऐसी जगह जहां दो समुदायों की आबादी का अनुपात 80.14 और 19.86 प्रतिशत है, वहां पर धार्मिक पहचान के आधार पर समुदायों के विभाजन का लाभ किस तरह अल्पसंख्यक आबादी के नुमाइंदों या पार्टियों को मिल सकता है? 

दरअसल कैराना मामले को प्रदेश और देशव्यापी स्तर पर होने वाले धु्रवीकरण की राजनीति से जोड़कर देखे जाने की ज़रूरत है। यदि एक बार धार्मिक पहचान के आधार पर पलायन का मिथक स्थापित करने में सांप्रदायिक ताकतों को सफलता मिल जाती है, तो ये ताकतें इस मिथक के बल पर पूरे देश में सांप्रदायिक वैमनस्व और दंगों का माहौल बनाने की हर संभव कोशिश करेंगे। ताकि अधिक से अधिक लोग हिन्दू और मुस्लिम पहचान को प्राथमिकता देते हुए वोट करें। इतिहास में दो दशक पीछे देखें तो संघ परिवार की यह मंशा और स्पष्ट हो जाती है। नब्बे के दशक में “जय श्री राम” का मिथक कुछ इसी तरह खड़ा किया गया। फिर देशभर में यात्रा, सभा और भाषणों के माध्यम से मिथकों को जनमानस की चेतना का हिस्सा बनाकर उन्हें आंदोलित किया गया। परिणाम स्वरूप शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका जैसे मूलभूत सवालों को मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे ने आच्छादित कर लिया। इस पूरे समय में सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक ताकतें फायदे में रहीं न कि आम जनता। वो जनता जो अलग-अलग धार्मिक, सामुदायिक, जातीय, लैंगिक और क्षेत्रीय पहचान रखने के बाद भी एक ही सड़क पर चलने, एक ही बाज़ार से अपनी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने और एक ही सामाजिक ताना-बाना में रहकर अन्तर्सामाजिक संबंधों का निर्वहन करने का आदी रही हो। एक समय ऐसा भी आया जब “जय श्री राम” का मिथक टूटा और सांप्रदायिक ताकतों की हार हुई। लेकिन यह भी सत्य है कि ये ताकतें हमारे देश के किसी न किसी हिस्से में हर दशक में कोई न कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा को अंजाम देने में सफल रही हैं। 1992, 2002 और 2013 के सांप्रदायिक दंगे इस बात की दलील हैं। ज़ाहिर है पलायन की सियासत के पीछे असल मकसद पलायन की स्थिति और कारणों का सही आंकलन कर पलायन करने वाले परिवारों तक राहत पहुंचाना नहीं बल्कि हिन्दू पलायन का मिथक खड़ा करके सांप्रदायिक उन्माद का माहौल बनाना है।

बहरहाल, संघ परिवार ने कैराना में पलायन का मिथक खड़ा करने के चक्कर में पलायन पर बहस व मुबाहसे की नई संभवनाएं पैदा की हैं। दर असल पलायन एक ऐसी प्रवृत्ति है जो जिसके पीछे गरीबी, रोजगार, आजीविका, सामंती/जातीय दमन आदि कारणों के अलावा सांप्रदायिक दंगा भी निहित होता है। लेकिन सांसद हुकुम सिंह का बार-बार अपने बयान का बदलना और अन्य जांच एजंसियों की रिपोर्ट के प्रकाश में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कैराना जैसे तमाम गांव-कस्बे जहां विकास के एजेण्डे को लागू करने में राजनेता और पर्टियां असफल रही हैं, वहां सांप्रदायिक उन्माद का माहौल बनाना चाहती हैं। ताकि जनता अपने-अपने धर्म और धार्मिक पहचान को बचाने की राजनीति में आमने-सामने खड़ी हो जाए और इस तरह धु्रवीकरण की सियासत खड़ी की जा सके, जिसे 2017 के चुनाव से पहले पूरा करने का सपना सांप्रदायिक ताकतों ने देखा है।

Friday, February 19, 2016

जे॰एन॰यू॰: महज अनुभव नहीं लोकतंत्र का दर्शन

Published in JNU Souvenir AAJ 2010

जे॰एन॰यू॰ के अनुभव लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। समझ नहीं आता कि अनुभवों के बिखरे संसार को किस तरह एक जगह इकट्ठा करूँ। हाॅस्टल के रूम और मेस से लेकर एड ब्लाॅक और लाइब्रेरी होते हुए स्कूल बिल्डिंग तो कभी ढ़ाबा, के॰सी॰, टेफला और पीएसआर की चढ़ाई का चित्र आँखों के सामने किसी चलचित्र की भाँति घूम रहा है। जे॰एन॰यू॰ में पहला दिन, क्लासमेट्स से परिचय, पहली क्लास, कांपते हाथों से पहली बार सेमीनार पेपर पढ़ना, थरथराते होंठों से प्रश्नों के उत्तर देना, एंडसेम के लिए दिन-दिन भर लाइब्रेरी में बैठे रहना और लाइब्रेरी के पीछे चट्टानों पर बैठकर हाथों में चाय के प्याले लिए दोस्तों के संग घंटों देश और दुनिया की चर्चाओं और परिचर्चाओं में दिमाग खपाना, कभी खाने की गुणवत्ता के लिए तो कभी मेस बिल और हाॅस्टल में सैनिटेशन के लिए हो हंगामा करना और कभी एड ब्लाॅक पर धरना-प्रदर्शन में शामिल होना वगैरह किसी भी छात्र के अनुभव संसार में एक नया अध्याय जोड़ने के लिए काफी होता है। 9.30 बजे के समय को तो शायद ही कोई छात्र भूल सकता है। दुनिया में अलग-अलग हिस्सों में इस समय पर चाहे जो भी होता हो। लेकिन जे॰एन॰यू॰ में यह समय किसी पब्लिक मीटिंग या टाॅर्च लाइट प्रोसेशन का होता है। इस बात को समझना बाहर वालों के लिए कठिन हो सकता है कि इतनी सारी एक्टीविटीज़ किस तरह से संभव होता है। लेकिन मैं अपने अनुभव के आधार पर इस बात का श्रेय इस विश्वविद्यालय के प्रोग्रेसिव और डेमोक्रेटिक वातावरण को देता हूँ। एक ऐसा वातावरण जो यहाँ की कम्यूनिटी लाइफ को ठोस आधार प्रदान करता है। यहाँ के छात्र-छात्राओं को उस दुनिया के बारे अवगत कराता है, जहाँ मानवीय मूल्यों, श्रेष्ठ परम्पराओं और विचारों का सम्मान होता है, जहाँ हक और इंसाफ के लिए आवाज़ बुलंद करने का हौसला मिलता है।


सबसे पहले झेलम हाॅस्टल की बात करूंगा। 1998 में जब मैं जे॰एन॰यू॰ आया तो उस समय यहाँ हाॅस्टल की समस्या चल रही थी। इस समस्या के समाधान के लिए स्टूडेन्ट्स आर्गनाइजेशन्स एड ब्लाॅक पर लगातार धरना प्रदर्शन कर रहे थे। रात में मेस टेबल पर पैम्फलेट्स आ जाते थे। बताना चाहता हूँ कि पैम्फलेट्स की परम्परा इस विश्वविद्यालय में ऐसी रही है जैसे दाल में नमक। जिस दिन डिनर के समय पैम्फलेट्स नहीं आते उस दिन भोजन में कोई कमी सी महसूस होती है। दरअसल छात्र-छात्राओं के एक हाथ में भोजन का निवाला होता है तो दूसरे हाथ में पैम्फलेट होता है। कितना खाना है या कितना खाया से ज्यादा महत्वपूर्ण पैम्फलेट पढ़ना होता है। फिर मेस टेबल पर अगली सुबह, दोपहर और शाम बहस का न ख़त्म होने वाला सिलसिला। कहना चाहता हूँ पैम्फलेट्स निश्चित तौर पर हमें वाहय जगत से जोड़ने में महत्वपूर्ण कड़ी होते थे। किसी समाचार पत्र की तरह। लेकिन ये महज समाचार पत्र नहीं होते थे बल्कि छात्र-छात्राओं की संवेदना को जगाने का सशक्त माध्यम भी होते थे। 

पैम्फ्लेट के माध्यम से छात्र समुदाय तक न सिर्फ देश दुनिया की अद्यतन सूचनाएं आसानी से पहुंच जाती हैं

बल्कि जे॰एन॰यू॰ में छपने वाले पैम्फ्लेट्स समकालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक घटनाक्रम के प्रति छात्र-छात्राओं को सेन्सटाइज़ करने में भी महत्वपूर्ण होते हैं। पैम्फ्लेट्स की परम्परा हमें कई बार इतिहास में थोड़ा पीछे भी ले जाती है। आज़ादी से पहले की उस परंपरा से जोड़ती है जिसकी बुनियाद खुदीराम बोस, भगत सिंह और लाजपत जैसों के हाथों पड़ी थी। 1947 में भारत के आज़ाद होने के बाद आज 21वीं सदी के दूसरे दशक तक का सफर ढ़ेर-सारे राजनीतिक उतार-चढ़ाव और सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और सांस्कृतिक बदलावों से भरा पड़ा है। भूमण्डलीकरण और इससे जनित मानवीय जीवन की चुनौतियां भी बढ़ी हैं। संचार और तकनीकी क्रांति ने हमारे लिए नित नई मशीनें और माध्यम पैदा किये हैं, जिनका उपयोग आज पूरा विश्व कर रहा है। बदलते-बदलते हम आज इतना बदल चुके हैं कि हमारे हाथ से क़लम फिसल सा गया है। कलम का सिपाही अब हम अपने बच्चों को कलम पकड़ना नहीं सिखाते। हमारी उंगलियां कम्प्यूटर के कीबोर्ड पर थिरकती हैं। निश्चित तौर पर विद्युतीय तारों और संकेतों द्वारा अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में भी आसानियां पैदा हुई हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि इसने लेखन की परंपरागत विधियों से खिलवाड़ भी किया है। क्षण भर में किसी संदेश को एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक पहुंचाना संभव है। लेकिन संवेदनाओं के टूटते-बिखरते संसार को बचाना मुश्किल होता जा रहा है। इस संदर्भ में जे॰एन॰यू॰ के पैम्फ्लेट्स महज छात्र समुदाय के राजनीतिक सोच की अभिव्यक्ति भर नहीं होते बल्कि एक संवेदनायुक्त और संवादयुक्त समाज के निर्माण और विकास के सशक्त माध्यम होते हैं। यदि देखा जाय तो तेजी से बदलते वैश्विक परिस्थितियों में एक अहम चुनौती बढ़ती हुई संवादहीनता और संवेदनहीनता है।

जे॰एन॰यू॰ के असाइनमेन्ट्स यहाँ के छात्र-छात्राओं को हाॅस्टल से स्कूल और स्कूल से लाइब्रेरी तक खूब दौड़ाते हैं। लाइब्रेरी में बैठकर असाइइनमेन्ट्स को पूरा करना कठिन कार्य होता है। लेकिन पैम्फ्लेट्स इस कठिन कार्य को असान बनाने में मददगार होते हंै। पढ़ने की आदत हो या लिखने की कला दोनों ही दृष्टि से पैम्फ्लेट्स हमारी सहायता करते हैं। पैम्फ्लेट्स से जुड़ी एक रोचक बात जो इस वक्त याद आ रही है, बताता हूँ। जब मैं 1998 ई॰ में पहली बार एक असाइनमेन्ट (टर्म पेपर) लिख रहा था तो मेरे एक सीनियर ने बताया कि ‘‘वो तो पैम्फ्लेट्स के पीछे के खाली हिस्से पर ही अपना असाइनमेन्ट लिख लिया करते हैं।’’ मैंने हैरानी से उनसे पूछा कि ‘‘फिर फेयर करते होंगे।’’ उन्होंने बताया कि ‘‘नहीं पैम्फ्लेट पर ही फेयर करते हैं।’’ कहना चाहता हूँ कि जे॰एन॰यू॰ से पहले और न ही बाद में अबतक कोई ऐसी जगह देखी जहां इतनी अद्भुत बातें होती हों। इसे विश्वविद्यालय में व्याप्त आर्थिक विविधता का नाम दिया जाना चाहिए। जिसकी वजह से गरीब घरों से आने वाले छात्र-छात्राओं द्वारा पैम्फ्लेट्स के उपयोग पर टीचर्स नाराज़ नहीं बल्कि ख़ुश होते हैं। और इससे कहीं अधिक ख़ुशी की बात इस तरह की तरकीबों की खोज कर विभिन्न वस्तुओं की उपयोगिता को बढ़ाने पर होती है।

हास्टल और कैन्टीन्स से लेकर एड ब्लाॅक, लाइब्रेरी और स्कूल बिल्डिंग्स हर जगह हाथों से बनाए गए पोस्टर अनायास ही हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। ये पोस्टर कोई आम पोस्टर नहीं होते थे। पोस्टरों के तीन पक्षों पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ, जिसके प्रभाव से शायद ही कोई अछूता रहता है। पहला यह कि संवाद करते ये पोस्टर छात्रों-छात्राओं में देश-दुनिया की समस्याओं के प्रति बौद्धिक समझदारी विकसित करते हैं। दूसरा यह कि इन पोस्टरों में जो रचनात्मकता होती है वो किसी प्रेस से छपी पोस्टर में मिलना मुश्किल है। तीसरा यह कि पोस्टर वर्कशाप उन छात्र-छात्राओं की रचनात्मक प्रतिभा को उभारने का अवसर प्रदान करता है जो अबतक किन्हीं कारणों से ऐसे अवसरों से वंचित रह गए होते हैं। 

वर्कशाप सिर्फ पोस्टरों के ही नहीं होते हैं बल्कि इस विश्वविद्यालय में ड्रामा क्लब, म्यूजिक क्लब, लिट्रेरी क्लब और यूनेस्को क्लब के वर्कशाप भी हुआ करते हैं। ये वर्कशाप भी नये-पुराने विद्यार्थियों में एक हेल्दी संवाद स्थापित करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन क्लबों का प्रतिनिधित्व लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए प्रतिनिधि ही करते हैं। किसी विश्वविद्यालय में ऐसी छोटी-छोटी लोकतांत्रिक संस्थाओं का आस्तित्व सिर्फ औपचारिकता नहीं होती बल्कि इन संस्थाओं के तत्वाधान में समय-समय पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में छात्र-छात्राओं और टीचर्स की बड़ी संख्या में उपस्थिति संवाद की डोर को और मजबूत करती है।

सच कहूँ तो जे॰एन॰यू॰ की न केवल भौगोलिक स्थिति विलक्षण है बल्कि इस विश्वविद्यालय की ढ़ेरों परंपराएं अपने आप में अद्भुत हैं, जो देश और दुनिया को आइना दिखाते हैं। इस विश्वविद्यालय की लोकतांत्रिक परंपरा देश और दुनिया के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करते हैं। संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित समानता, स्वतंत्रता, न्याय, पंथनिरपेक्षता और समाजवाद की मूल भावना यहाँ के शैक्षिक और सामुदायिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। इस विश्वविद्यालय में सीनियर और जूनियर स्टूडेन्ट्स में कोई भेद नहीं। कम से कम मैं जितने समय तक यहाँ छात्र रहा तबतक किसी की रैगिंग नहीं देखी। बी॰ए॰, एम॰ए॰, एम॰फिल॰ और पी॰एच॰डी॰ हर कोर्स में पढ़ने वाले छात्र-छात्रा एक साथ भोजन करते हुए, बात करते हुए और योजनाएं बनाते हुए देखे जा सकते हैं। आपस में इस तरह का साहचर्य सीखने के नए अवसर प्रदान करता है न कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में किसी तरह की बाधा उत्पन्न करता है। गौरतलब है कि इलाहाबाद, बी॰एच॰यू॰, ए॰एम॰यू॰ और डी॰यू॰ इस मामले में बिल्कुल अलग हैं। बहरहाल झेलम मेस की एक छोटी सी घटना का जिक्र करूंगा। मैं अभी नवागन्तुक छात्र था। भोजन करने के पश्चात वाटर कूलर में ही हाथ धोने लगा। मुझे यह पता नहीं था कि इस टैंक का प्रयोजन पानी पीना था न कि हाथ धोना। हाॅस्टल के एक सीनियर ने मुझे बताया कि हाथ वाश बेसिन में धोते हैं। मुझे उनकी बातें बुरी नहीं लगीं। मैंने सीखा कि पानी पीने की जगह कुल्ली नहीं करते। इससे कहीं अधिक यह सीखा कि किसी भी गलत बात को रोकने के लिए हौसले की जरूरत होती है।

जाति, धर्म और समुदाय भारतीय समाज के विशिष्ट लक्षण हैं। अरावली की श्रेणियों, जिसे दिल्ली रीज़ कहा जाता है, पर अवस्थित इस विश्वविद्यालय में भेदभाव के संस्थागत ढ़ांचे नहीं हैं जिस प्रकार से हमारी सामाजिक व्यवस्था में पाए जाते हैं। समानता महज छात्रों-छात्रों और छात्राओं-छात्राओं तक सीमित नहीं बल्कि रात्रि के दो बजे जे॰एन॰यू॰ की कटीली झाडि़यों से होकर हाॅस्टल से लाइब्रेरी और स्कूल आॅफ लाइफ साइंसेज तक लड़कियों का बेरोक-टोक, बेखौफ आना-जाना स्वतंत्रता और समानता का आदर्श प्रस्तुत करता है। इसी संदर्भ में GSCASH भी प्रासंगिक हो जाता है। ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट के निदेशानुसार GSCASH जैसी संस्था की स्थापना देशव्यापी स्तर पर करना सरकार का भी लक्ष्य है लेकिन जे॰एन॰यू॰ को छोड़कर शायद ही कोई स्थान या संस्थान ऐसा है जहाँ लिंग आधारित भेदभाव और शोषण को रोकने के लिए व्यक्ति को सेंसटाइज़ करने जैसी कोई युक्ति प्रभावी ढ़ंग से लागू है। किसी भी समाज या समुदाय में हर तरह के लोगों का होना लाज़मी है। सो जे॰एन॰यू॰ भी इस विविधता का गवाह है। बात उस समय की है जब मैं झेलम हाॅस्टल का प्रेसीडेन्ट चुना गया था। हाॅस्टल प्रेसीडेन्ट की तमाम जिम्मेदारियों में एक अहम काम Annual Hostel Day Celebration (हाॅस्टल नाईट) को सफलतापूर्वक
सम्पन्न कराना होता है। जे॰एन॰यू॰ प्रशासन पिछले कई वर्षों से इस प्रयास में था कि सभी हाॅस्टल्स को मिलाकर एक समेकित कार्यक्रम हो। इसके पीछे प्रशासन की सबसे बड़ी दलील लड़कियों को Tease करने (छेड़ने) की बढ़ती हुई घटनाएं थीं। इस विषय पर सभी छात्रावासों के अध्यक्ष और छात्र संघ तथा डीन के बीच मीटींग हुई और नतीजा यह निकला कि सभी प्रतिनिधि मिलकर Self Vigilance की Team बनाएंगे और इस तरह की घटनाओं को होने से रोकने में प्रशासन की मदद करेंगे। हम सभी ने हाॅस्टल नाइट का वैयक्तिक सुख त्यागकर इस बात को साबित किया कि सेक्सुअल हरासमेंट को रोकने के लिए किसी सामाजिक समागम को समाप्त नहीं किया जाना चाहिए। बल्कि ऐसे आयोजनों को और उत्साह से करके यह संदेश देना चाहिए सामाजिक समागम लोगों को जोड़ने के लिए होता है न कि तोड़ने के लिए। वैसे भी हमें पढ़ाई पूरी करने के बाद एक बार फिर उसी समाज में वापस जाना है जहाँ सेक्सुअल हरासमेंट की घटनाएं बडें पैमाने पर घटित होती हैं। इसलिए छात्र-छात्राओं को सेन्सटाइज करना ही देश और समाज के दीर्घकालिक हित में है।

वर्ष 1991 भारत में आर्थिक सुधारों के नाम रहा तो 1992 बाबरी मस्जिद के विध्वंश के कारण इतिहास में दर्ज हुआ। इन वर्षाें में मैं इलाहाबाद में सी॰ए॰वी॰ इण्टर काॅलेज में छात्र था। इसी दौरान मैंने सुना था कि जे॰एन॰यू॰ से पढ़ाई करने के बाद 10000-15000 तक की नौकरी तुरंत मिल जाती है। रोजगार हर हाल में जरूरी है। 1986 की नई शिक्षा नीति में भी व्यवसायपरक शिक्षा के प्रसार पर जोर दिया गया है और नई आर्थिक नीतियों के चलते शिक्षा में निजी क्षेत्र का हस्तक्षेप बढ़ा है। पिछले बीस बरस में व्यवसाय के नए अवसर अवश्य सृजित हुए हैं लेकिन आर्थिक सुधारों से जनित शिक्षा के बाज़ारीकरण के अनुभव हमें ये भी बताते हैं कि फिस्कल डिफीसिट को संभालने में शिक्षा की मूल भावना और उद्देश्यों की अवहेलना भी हुई है। बेलगाम फीस वृद्धि और सेल्फ फाइनेंस्ड कोर्सेज के कारण आम छात्र शिक्षा के अनेक अवसरों से वंचित है।

मौजूदा परिस्थितियों में जे॰एन॰यू॰ जैसे विश्वविद्यालय का आस्तित्व उम्मीद की किरण दिखाता है। इस विश्वविद्यालय की एडमिशन पाॅलिशी और लोकतांत्रिक परंपरा कुछ ऐसी है कि यहाँ समाज के हर तबके और हर वर्ग के छात्र-छात्रा अपनी योग्यता के आधार पर प्रवेश पाते हैं। यहाँ छात्र-छात्रा विश्वविद्यालय में उपलब्ध संसाधनों तक लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर होने वाले भेदभाव के बिना ही अपनी पहुंच रखते हैं। निजी तौर पर मैं कह सकता हूँ कि मैंने जे॰एन॰यू॰ को इसके उच्च शिक्षा की गुणात्मक विशेषताओं से ही नहीं बल्कि इससे कहीं अधिक इसकी लोकतांत्रिक परंपराओं के कारण समझ पाता हूँ। दरअसल यह विश्वविद्यालय शिक्षा का बेहतर माहौल तो देता ही है साथ में आगामी जीवन के लिए ऐसी लीडरशिप के बीज तत्व तैयार करता है जो अन्य विश्वविद्यालय में अप्राप्य है। मूलाधिकारों की बात हो या फिर मूल कत्र्तव्यों की या भारत के कल्याणकारी राज्य होने की, संविधान के हर उपबन्ध को यहाँ व्यवहार रूप में देखा, समझा और महसूस किया जा सकता है।

कल्याणकारी राज्य से एक बात याद आई। 1998-2000 के समय में जे॰एन॰यू॰ का डीन कार्यालय ‘‘डीन आॅफ स्टूडेन्ट्स वेलफेयर’’ कहलाता था। लेकिन बाद के समय में ‘‘वेलफेयर’’ शब्द तिरोहित कर दिया गया। और डीन कार्यालय ‘‘डीन आॅफ स्टूडेन्ट्स’’ बन कर रह गया। मेरे कहने का अर्थ यह है कि शायद ऐसा नए आर्थिक सुधारों के दबाव में हुआ हो। इसी तरह पिछले तीन-चार बरसों में कैम्पस सुन्दरीकरण और मरम्मत के नाम पर विनीर्माण के जो काम हुए और किए जा रहे हैं, उनमें भी वेलफेयर कम बल्कि विकास के नए प्रतिमानों को छूने की कोशिश अधिक दिखती है। शायद सादगीयुक्त कुर्ता और झोले में सुन्दरता देखने-परखने वाले छात्रों की पहचान भी मिटती जा रही है। इनफार्मेशन-टेक्नोलाॅजी की धूप-छावँ में जवान होती नययी पीढ़ी जे॰एन॰यू॰ को नए आयाम दे रही है।

ज़ाहिर है प्रगतिशील और बुद्धिजीवियों का विश्वविद्यालय जे॰एन॰यू॰ भी आज भूमण्डलीकरण जनित चुनौतियों से दो-चार है। जिन छात्र आंदोलनों के बल पर देश के युवा नाज करते थे, ऊर्जा प्राप्त करते थे, आज वहाँ भी छात्र संघ पर प्रतिबंध है। 2007 में NDTV की रिपोर्टर अमृता प्रधान ने जब मुझसे लिंगदोह कमीशन की संस्तुतियों के जे॰एन॰यू॰ में लागू करने की संभावना के बारे में मेरे विचार जानने चाहे थे तो उस समय मैंने कहा था कि संभव है, देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में इस कमीशन की संस्तुतियों के अनुरूप छात्र संघों के चुनाव होने लगें। लेकिन जे॰एन॰यू॰ के छात्र संघ के कार्यप्रणाली और कार्यशैली को देखते इसे लागू करना संभव नहीं होगा। तीन-चार बरस बाद अब सोचता हूँ कि मैं कितना गलत था। लिंगदोह की संस्तुतियों के अनरूप चुनाव कराना तो दूर की बात यहाँ तो पूरा का पूरा छात्र संघ ही प्रतिबंधित है। इसे मैं ट्रेजडी कहूंगा। एक ऐसी ट्रजडी जो सिर्फ जे॰एन॰यू॰ की नहीं बल्कि समूचे देश के विश्वविद्यालयों और युवाओं की ट्रेजडी है। 

जे॰एन॰यू॰ की मौजूदा स्थिति चिन्ताजनक और निराशाजनक है जरूर लेकिन प्रोफेसर आनंद कुमार की बातों पर यकीन करें तो जब सारे रास्ते बंद हो गए हों तो ऐसे में इतिहास में थोड़ा पीछे देखना चाहिए। वहीं से नयी ऊर्जा और स्फूर्ति प्राप्त होती है। इस संदर्भ में सन् 2005 का नेशले आउटलेट के खिलाफ छात्र आंदोलन हमें रास्ता दिखाता प्रतीत होता है कि किस तरह इस देश में तेजी से बढ़ते काॅरपोरेट प्रभाव को धूल चटाया जाय। याद आते हैं वो दिन जब कैम्पस के छात्र बिना वैचारिक और राजनीक भेदभाव के बड़ी तादाद में नेशले आउटलेट के विरोध में चल रहे आंदोलन का हिस्सा बने थे। और कारपोरेट वल्र्ड को संदेश दिया था कि हम उत्पाद का उपभोग करेंगे न कि उपभोक्तावादी संस्कृति का अनुकरण करेंगे। नेशले को अपना आउटलेट हटाना पड़ा था। जे॰एन॰यू॰ सीख देता है कि किस प्रकार वैश्विक संदर्भों में काॅरपोरेट विश्व द्वारा प्रायोजित उपभोक्तावादी संस्कृति से खुद को अक्षुण्य रखते हुए विकास की नई मंजिलों तक पहुंच जाए।

बहरहाल ये घटनाएं मेरे लिए इसलिए खास हैं क्योंकि कि राजनीतिक रूप से अलग-अलग खेमों में बंटे छात्र समुदाय का काॅमन इश्श्ूज़ के लिए काॅमन प्लेटफार्म पर आना जे॰एन॰यू॰ की विलक्षण विशेषता रही है। इस बात को मैं दावे के साथ इस लिए भी लिख पा रहा हूँ क्योंकि मैंने चंदू पर बनी फिल्म में देखा था कि चंदू के लिए आंदोलनरत्त छात्र-छात्राओं में वो चेहरे भी शामिल थे जो उनसे राजनीतिक सहमति नहीं रखते थे।

मैं समझता हूँ कि झेलम छात्रावास और इसके तत्वाधान में आयोजित होने वाले चाट महासम्मेलन के जिक्र के बिना मेरे अनुभव का यह हिस्सा अधूरा रहेगा। जे॰एन॰यू॰ विशेषकर झेलम मेस की ढे़र सारी चर्चाओं-परिचर्चाओं में एक प्रमुख विषय चाट परंपरा का होता है। जिसका अभिप्राय अपनी विद्वतापूर्ण बातों को पूरे विस्तार से कहने से है। प्रवेश के समय जब कोई छात्र हाॅस्टल में आता है और यदि कम समय में ही छात्रावासियों के साथ घुल-मिल जाता है तो पुराने छात्रावासी यह कहते नहीं थकते हैं कि डीन आॅफिस में बैठे श्री गुलाटी इनकी चाट झमताओं को देखते हुए ही पेरियार, कावेरी या अन्य छात्रावास के आग्रह को ठुकराकर इन्हें झेलम भेजा है। झेलम छात्रावास की कुछ शब्दावलियां जो याद रह गयीं हैं। किसी नवागन्तुक के लिए आपस में छात्र कुछ इस लहजे में बात करते हैं ‘‘आज ही गिरे हैं’’ (यानि आज ही आए हैं), ‘‘कहाँ विलुप्त हो गए थे सर’’ (अर्थात कहाँ चले गए थे) वगैरह।
झेलमवासी इन शब्दावलियों को चाट भाषा का नाम देते हैं। चाट भाषा जाकर जुड़ती है होली की पूर्व संध्या पर आयोजित होने वाले चाट महासम्मेलन से। वरिष्ठ छात्रों से पता चलता है कि चाट महासम्मेलन की परंपरा आज से करीब एक दशक पूर्व शुरू हुई थी। इस परंपरा की स्थापना का श्रेय भारतीय भाषा केन्द्र के शोध छात्र डा॰ हरिओम का है जो संप्रति कानपुर के जिलाधिकारी हैं। धन्य हो डा॰ साहब, बीड़ी-सिगरेट और गंगा ढ़ाबा का नशा क्या पहले से ही कम था!, जो यहाँ के छात्र समुदाय को चाट महासम्मेलन का वार्षिक नशा पकड़ा दिया। प्रत्येक वर्ष होने वाले इस आयोजन में मुझे 1999 में एक दर्शक छात्र के रूप में भाग लेने का मौका मिला। झेलम मेस दर्शकों से खचाखच भरा था। प्रोफेसर पुरूषोत्तम अग्रवाल मुख्य अतिथि की कुर्सी को शुशोभित कर रहे थे। गद्य और काव्य में रूचि रखने वाले अपनी रचनात्मक क्षमताओं का भरपूर प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन झेलम के निवासी कवि हृदय भरत प्रसाद त्रिपाठी को मंच से उतरना पड़ा था। पी॰एच॰डी॰ पूरा करने के बाद भरत जी को उत्तरपूर्व में लैक्चरशिप
का पद मिला लेकिन शोध छात्र रहते वो कभी मंच से अपनी कविताओं का वाचन नहीं कर सके। 1999 के चाट सम्मेलन की एक मजेदार बात यह भी है कि सभी छात्र-छात्रा चाट महानुभावों को सुन और देखकर आनंदित हो रहे थे। लेकिन सैंकड़ों की भीड़ (जो बढ़ते-बढ़ते अब हजारों मेें लगती है) में मुख्य अतिथि अग्रवाल सर का चेहरा क्रोध से फटा जान पड़ता था। सम्मेलन की समाप्ति पर उन्होंने छात्रों के लिए दो शब्द में ढ़ेरों उपदेश दिए थे। सतलज छात्रावास के वार्डेन और भारतीय भाषा केन्द्र में लैक्चरर होने के बाद भी उन्हें देर तक देखने की तमन्ना एन॰डी॰टी॰वी॰ पर ही पूरी होती थी। संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य मनोनित होने के बाद यह अवसर भी जाता रहा है।

चाट सम्मेलन का आने वाले दिनों में इतना विस्तार हुआ कि यह आयोजन चाट सम्मेलन से महासम्मेलन कहा जाने लगा। इसका आयोजन झलेम हाॅस्टल के मेस से बाहर बैडमिन्टन कोर्ट पर होने लगा। 2004-05 में जब मैं हाॅस्टल प्रसीडेन्ट था, उस वर्ष इसका आयोजन हाॅस्टल के अन्दर अवस्थित उस गड्ढे़ में हुआ जिसकी गड्ढ़े के रूप में कोई उपयोगिता नहीं थी। इसी वर्ष इस गड्ढे़ को चाटलीला मैदान कहा गया। इसी वर्ष पहली बार झेलम चाट सम्मेलन का मीडिया वालों ने लाइव कवरेज भी किया।

बहरहाल झेलम मेस और बैडमिन्टन कोर्ट से होता हुआ यह महासम्मेलन झेलम लाॅन तक पहुंच चुका है। जे॰एन॰यू॰ में इस तरह के आयोजन की सफलता यही है कि यह आयोजन देश के किसी भी हिस्से में होने वाले होली की हुड़दंग से अलग होता है। किसी पर व्यक्तिगत छींटाकशी से दूर यह महासम्मेलन हास्य के गुब्बारों में संवेदना के इन्द्रधनुषीय रंग लिए होता है।

संप्रति मैं जे॰एन॰यू॰ के फिल्टर वाटर और झेलम के स्वादिष्ट भोजन से दूर पूर्वांचल के गाज़ीपुर जिला के ग्रामीण क्षेत्र में बाल हृदय की गहराइयों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। जे॰एन॰यू॰ से भौगोलिक दूरी है जरूर लेकिन खुशी और सन्तुष्टि इस बात की है कि जे॰एन॰यू॰ के अनुभव पग-पग पर काम आते हैं। फेसबुक पर जब गंगा के माध्यम से अपने अनुभव लिखने की सूचना मिली तो यादें ताज़ा हो उठीं। अब जबकि यादों को शब्दों और वाक्यों के माध्यम से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ तो ऐसा महसूस कर रहा हूँ कि ढे़र सारे चट्टान, चट्टानों पर स्थित ढ़ाबे, ओपेन थिएटर, कटीली झाडि़यों वाले पेड़-पौधे विशेषकर अमलताश के फूल, सतलज से काॅवेरी के बीच के अजीब खुशबू वाले वृक्ष, ढे़रों पगडंडियां और लाल रंग की इमारतें और इन पगडंडियों तथा इमारतों में घूमते फिरते प्रगतिशील विचारों की श्रृंखला, टीचर्स का दोस्ताना व्यवहार, 9.30 बजे की गंगा ढ़ाबा से ताप्ती तक के जुलूस, थेसिस जमा करने का प्रेसर और हिलटाॅप की चढ़ाई, 615 से मुनिरका, बेर सराय, वसंत विहार और सरोजनी मार्केट की यात्रा वगैरह चित्र यहीं कहीं आस-पास ही बिखरे हैं। ये चित्र मुझे एक विश्वविद्यालय की भौगोलिक अवस्थिति और शिक्षण व्यवस्था की तस्वीर नहीं दिखाते बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का दर्शन कराते हैं।

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