Wednesday, October 23, 2013

लाल सलाम कॉमरेड...!



"आज चारबाग में लालबाग का मंजर जनांदोलनों के जीवित होने का एहसास जगा रहे थे। कहना होगा कि पिछले बीस साल से जारी आर्थिक सुधारों जनित कारपोरेट की लूट और सामाजिक जीवन में बाज़ार के बढ़ते प्रभुत्व के बाद भी इस देश में अभी जनांदोलनों की अपार संभावनाएं छिपी हुई हैं। क्योंकि रात भर रेलगाड़ी में जागने के बाद सुबह के समय में बिना शौच गए और बिना नाश्ता किए हज़ारों की संख्या में सुबह-सुबह रैली के लिए कतारबद्ध होना कोई मामूली काम नहीं है।"



बनारस स्टेशन रात के पौने बारह तक काॅमरेडों  के नारों से गुलज़ार रहा। ख़ास करके प्लेटफार्म नं॰ 9 जहां से बरेली एक्सप्रेस रवाना होती है। आज की बरेली एक्सप्रेस का नज़ारा ही अलग था। पी.जी. काॅलेज में एम.ए. की पढ़ाई कर रहे अरविंद मौर्या गाजीपुर और वाराणसी के विभिन्न भागों से आए हुए महिलाओं और पुरूषों के अलग-अलग समूहों को बार-बार दिशा निदेश दे रहे होते हैं। राम प्यारे जी के बारे में पूछने पर संदेह की दृष्टि से देखा, लेकिन परिचय के बाद गले लग गए। जब बरेली छूटी तो माहौल एक बार फिर देखने लायक हो गया। देश और समाज के विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों से जुड़े लखनऊ और बरेली तक के यात्रियों का सोने का अंदाज़ बता रहा था कि या तो वो पहली बार रेल में बैठने वाली संवेदनहीनता को कस के पकड़े हुए थे या फिर उन्हें पब्लिक प्ससेज पर बैठने और सोने के बाबत आदतों और मूल्यों की जानकारी नहीं थी। तभी तो एक के बाद एक, नीचे-ऊपर किसी भी सीट पर बैठने की काॅमरेडों की कोशिशें बेकार साबित हो रही थीं। लगभग 1000 की संख्या में होने के बाद भी काॅमरेडों की संख्या इतनी नहीं थी कि बिहार जाने वाली किसी रेलगाड़ी से बरेली एक्सप्रेस की तुलना की जाए। फिर भी सीट रिजर्व कराकर यात्रा कर रहे यात्रियों के लिए “लाल सलाम” वालों की यह यात्रा परेशानी का सबब तो थी ही। ऐसी परिस्थितियों में, खास करके पब्लिक डोमेन में तालमेल बनाकर रहना अच्छा संकेतक माना जाता है। और हो भी क्यों नहीं, आठ-दस घंटे के लिए सीट रिजर्व करा लेने से रेल का इंजन और बोगियां यात्रियों की थोड़े ही हो जाती हैं। लेकिन कौन समझाए, रात के उन मुसाफिरों को जो रात भर के रिजर्वेशन में एक इंच भी छोड़ना नहीं चाहते थे। बस यूं समझिए कि ऐसों को समझाना बहुत दुशवार होता है। खास करके तब जब ऐसों को समझ जाना चाहिए कि पब्लिक डोमेन में पब्लिक के साथ कैसे रहना चाहिए।

कल से आज तक ग़ालिब का यह शेर बार-बार याद आया कि “बस कि दुशवार है हर काम का आसां होना/आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान होना।” बहरहाल, रैली में भाग लेने जा रहे महिला-पुरूष दोनों एक के बाद एक यात्रियों से थोड़ी जगह छोड़ने की नाकाम गुज़ारिश करते और आगे बढ़ जाते। सीट तो मेरे पास भी थी लेकिन हम तो एक से दो हो गए थे। कुछ यात्रियों को बात समझ में आ भी गयी। चाहे खुशी-खुशी या फिर दुःखी-दुःखी, उन्होंने अपने-अपने बर्थ पर थोड़ी-थोड़ी जगह दे दी। इतनी जगह कि तशरीफ रखने भर का एहसास हो। और इस एहसास में किसी तरह रात गुज़र जाए। रात भर काॅमरेडों के साथ हम भी सोते-जागते रहे। अलसुबह ताजपुर मांझा की कुछ काॅमरेड महिलाओं की आवाज़ देश और दुनिया की नही ंतो कम से कम ताजपुर मांझा जैसे गांव की सदियों पुरानी कहानियों की सच्चाई बयान कर रही थी। मैं ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था। वो जितना कह-सुन रही थीं, मेरे अन्दर उससे कहीं अधिक सुनने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। मन में यह विचार भी आ रहा था कि बरेली एक्सप्रेस आज लेट हो, तो हो जाए। लेकिन घटिया ट्रेनों की सूची में अगली कतार में शामिल और एक्सप्रेस बन जाने के कई सालों के बाद भी पैसेन्जर कहलाने का दंश झेल रही बरेली एक्सप्रेस आज भी 7 बजे तक लखनऊ जंक्शन पहुंच गयी। लखनऊ पहुंचा तो ऐसा लगा कि हम चारबाग नहीं बल्कि लालबाग रेलवे स्टेशन पहुंच गए हैं। इसकी दो वजह थी। एक तो चार बाग रेलवे स्टेशन पहले से लाल रंग में रंगा हुआ उस पर से लाल झंडों के साथ लाल सलाम-लाल सलाम के नारों की गूंज। स्टेशन के सामने एक पण्डाल में कुछ लोग माइक की मदद से भीड़ को दिशा-निदेश दे रहे थे। थोड़ा और बाहर निकला तो कुछ और काॅमरेडों का सामना हुआ जो बरेली, चंदौली और सोनभद्र आदि स्थानों से आए हुए थे। मन हो रहा था कि रूकूं, थोड़ी देर और रूक जाऊं। लेकिन समय हर बार की तरह इस बार भी हाथ पकड़कर आॅटो की ओर ले गया और मैं एक बार फिर ढ़ांक के तीन पांत उसी गोमती नगर में जिसके बारे में कहा जाता हैं कि प्रदेश नीतियां यहीं से बनती हैं और यहीं से यह प्रदेश शासित और संचालित होता है। इस कहने के पीछे भी कई वजह है, जिस पर फिर कभी चर्चा होगी। फिलहाल आज चारबाग में लालबाग का मंजर जनांदोलनों के जीवित होने का एहसास जगा रहे थे। कहना होगा कि पिछले बीस साल से जारी आर्थिक सुधारों जनित कारपोरेट की लूट और सामाजिक जीवन में बाज़ार के बढ़ते प्रभुत्व के बाद भी इस देश में अभी जनांदोलनों की अपार संभावनाएं छिपी हुई हैं। क्योंकि रात भर रेलगाड़ी में जागने के बाद सुबह के समय में बिना शौच गए और बिना नाश्ता किए हज़ारों की संख्या में सुबह-सुबह रैली के लिए कतारबद्ध होना कोई मामूली काम नहीं है। इस मामूली काम में शामिल महिलाओं और पुरूषों को मैं भी लाल सलाम करता हूं। कुसूम और साथियों की बातें निश्चित तौर पर न सिर्फ हमारी संवेदना को झिंझोड़ती हैं बल्कि ऐसी परिस्थितियों और इनमें छिपी जीवन की चुनौतियों का एक पक्ष सामने लाती हैं। मेरे लिए इनका यह मामूली काम बेशक यादगार रहेगा, ढे़र सारी यात्राओं में से कुछ यादगार यात्राओं और इस दौरान सहेजे गए अनुभवों की तरह। कहने को तो कुसूम और मंजू ने बहुत कुछ कहा, गालियां भी दीं। वो गालियां जो पुरूषों द्वारा रचा गया और जिनका स्वरूप स्त्री विरोधी है। मैं तो हतप्रभ रह गया कि इन महिलाओं को आखिर हुआ क्या है? लेकिन महिला जीवन की त्रासदियों को देखते हुए कहना होगा कि इस होने में ही इनके जीवित रहने की गुंजाइशें छिपी हैं। इस होने ने ही शायद सुषुम जैसियों को अपने जीवन के कुछ कटु अनुभवों को सामूहिक रूप से अभिव्यक्त करने का साहस दे दिया है।

बातचीत के दौरान अपनी वंचना की दास्तान सुनाते हुए इन महिलाओं ने बाबू साहेबों जि़क्र बार-बार किया। ग्राम प्रधानी पर उनका कब्ज़ा नहीं रहा। फिर भी इन महिलाओं को लगता है कि जब पहली बार 2 लाख की रकम भी वोटरों का मन नहीं बदल सकी। तो धोबी जाति का पपेट प्रधान बनाया गया। पुकारी की मानें तो “धाबिए जीतल ह... लेकिन रूनझुन जइसे कहेलन, ओइसे चले लन। रूनझुन के बाबत पूछने पर पुकारी बताती हैं कि “पहिले क परधान रहलन ह। अब त मथारे क हो गइल बा। हमन क ना जनली हं जा कि बाढ़ क पइसा आइल बा। त कुल नाम कटवा देहलन हं। अब बताव कि गरीब भूखन मरत बा त ओकर नाम कटा गइल। अउर तू परधान बाड़ त तोहरा घरे पांच बोड़ा गेंहूं पहुंच गइल।” पुकारी की हां में हां मिलाते हुए सुषुम ने बताया कि सेकट की घड़ी में उन्हें दो-दो मुट्ठी लाई ही नसीब हुआ। वो भी किसी को मिला और किसी को नहीं मिला। होते-होते यह बात राशन के वितरण तक पहुंच गयी। बेशक पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम हमेशा से सवालों के घेरे में रहा है। पात्र और अपात्र की सीमाएं तय करने से लेकर सब्सिडी वाले गल्ले और तेल के वितरण में काला बाज़ारी भी होती रही है। लेकिन अब सुषुम जैसी महिलाएं कम से कम इस बात को कहने में सक्षम नज़र आती हैं कि “दू-दू अजूरी लाई से इन्सान का पेट भला कैसे भर सकता है?” पुकारी जैसी महिलाओं को अच्छी तरह पता है कि हफ्ता दिन के लिए ही सही सरकार की ओर से गरीबों के लिए कुछ तो मदद है। सवालिया अंदाज़ में कहती हैं कि “सरकार भेजत बा गरीबन के बांटे खातिर कि तोहरे के घरे रखे के?” राशन के सवाल को आगे बढ़ाते हुए मैंने राशन न मिलने की वजह जाननी चाही तो संजू देवी ने जो कहा वह वाकई प्रीविलेज्ड क्लास को अपनी पढ़ाई, समझदारी और कुशलता के बारे में नए सिरे से सोचने पर मजबूर करती है। कहती हैं “हमहन क का जानी जां। तू पढ़ल बाड़... तू मालिक बाड़... तू चल्हांक बाड़...! त का जानके तू नइख देत।” कहना होगा कि जमींदारी प्रथा के अवसान के बाद, जब भद्र जन पढ़ लिख गए तो इस दृष्टि से इनको एक बार फिर ऐतिहासिक बढ़त मिल गयी। और वो जो वंचित थे... शोषित थे और जिन्हें ऐसे अवसर नहीं मिल पाए बावजूद इसके कि संविधान में समानता और न्याय का वादा किया गया था, एक बार फिर ऐतिहासिक रूप से पिछड़ गए। ऐसे हालात में अगर संजू जैसी महिलाएं अगर संविधान द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाओं की असफलता के लिए भद्रजनों को जिम्मेदार ठहराती हैं तो इसमें चौंकने की बात नहीं है। संजू की बातें सामाजिक गतिशीलता पर गम्भीर सवाल है। क्योंकि अपवर्ड सोशल मोबिलिटी होगी तभी गरीबों और वंचितों को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिल सकेगा। लेकिन यहां तो सारा मामला चुनाव और वोट तक सिमटता जा रहा है।

ट्रेन अपनी रफ्तार से आगे बढ़ी जा रही थी। मल्हौर कब पीछे छूट गया, पता ही नहीं चला। लेकिन अभी भी हम सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर अटके हुए थे। जब गेंहू और चावल की बात चली तो यह भी पता चला कि वंचना के शिकार चमटोल वासियों को आधुनिक होते भारत में आज भी कर्ज पर खेत की भूमि लेनी पड़ती है। विचारणीय है कि जो समुदाय मेहनतकश रहा है, भूखे पेट रहकर काम करना न सिर्फ कर गुलामी के दौर में बल्कि आज़ाद भारत में भी जिस समुदाय का मशगला रहा है, उस समुदाय के लागों को दो फसल के लिए 12000 से 14000 रूपए तक में खेती की एक बीघा ज़मीन लेनी पड़ती है। फसल हुआ तो और नहीं हुआ तो बारह से चैदह हज़ार की इस रकम की अदायगी ज़मींदार को करनी होती है। अन्यथा हम-आप गांव जाकर आंखों देखा बयान कर सकते हैं। क्योंकि मुख्य धारा की मीडिया के पास इन सच्चाइयों रूबरू होने का वक्त नहीं है। सुषुम जैसी विधवा की बात करें तो वो इस स्थिति में भी नहीं हैं कि किसी ज़मींदार से उधार की खेत ले सकें। अपनी बेबसी बयान करते हुए कहती हैं कि “बाबू साहब क टहल कर त समझिहन कि 50 रूपिया क काम कइले बाडि़न... लेकिन 20-30 रूपिया देके कहेलन कि जो भाग।” जब मैंने टहल के बारे पूछा तो सुषुम ने अपनी बातों को विस्तार देते हुए कहा कि “अरे भइया का बताईं। गरीब बानी जा। हमार मरद ना ह। मुं गइल... छोट-छोट लइकन के छोड़ के। केहू कहेला त बरतन माज के खाइलीं जा... झाड़ू लगा लेहिलीजां... कउनो सहारा नइखे त का कइलजा? चार ठो बाल-बच्चा बा, त कइसे जिहन। पिंशिन बनावे के कहल जाई त कहिहन कि राति के अइहे। त के आपन इज़्ज़त गंवावे जाई राति के। जे राति के जाई ओकर पिंशिन बनवा दिहन, लाल कार्ड बनवा दिहन।” मैं सुषुम की बातों को गम्भीरता से सुन रहा होता हूं। यक़ीन नहीं होता है कि ज़मींदारी टूटने और भूमि सुधार लागू तथा केन्द्र और राज्य सरकार की ढे़रों योजनाओं के बरसों से क्रियान्वयन के बाद भी वंचितों के साथ अभाव और अत्याचार क्या वाकई अभी भी है। स्पष्टता के लिए मैंने एक बार फिर ज़ोर देकर आस-पास बैठी महिलाओं से पूछा। उन्होंने मुझसे भी ज्यादा ज़ोर देकर कहा कि “हां अभी भी ऐसा होता है।” कुछ देर के लिए मुझे लगा कि मैत्रेयी पुष्पा जैसी किसी लेखिका के किसी उपन्यास की कई महिला पात्र मेरे आस-पास बैठी अपने संघर्ष की कहानियां बयान कर रही हों।

सुषुम, संजू, हंसा और पुकारी सब की सब अपने आस-पास की सच्चाइयों से हर दिन रूबरू होती हैं लेकिन यह बात उनकी समझ से परे है कि उन जैसों के साथ ही ऐसा क्यों होता है? वो यह भी नहीं जानतीं कि उनकी गरीबी का राज़ क्या है? इन्हें यह भी पता नहीं कि इन जैसों को लिंग, जाति, धर्म और क्षेत्र का दंश क्यों सहना पड़ता है? सब कुछ के बाद इन्हें उम्मीद है कि आज नहीं तो कल “यू॰पी॰ बचाओ... लोकतंत्र बचाओ” नामक 21 अक्टूबर को लखनऊ में आयोजित यह रैली उनके जीवन में नए सौगात लाएगी। लोग अचानक से खड़े हुए तो लगा कि गाड़ी रूकी हुई है। खिड़की से बाहर भीड़ और भीड़ के पीछे रेलवे स्टेशन सा मंजर। बात आगे जारी रहने का कोई मौका नहीं। बातचीत के चलते जो बचे रह गए थे, वो भी खड़े होकर बाहर निकलने की कोशिश में लग गए। जो रात में अपनी बर्थ पर दो इंच एडजस्ट करने को तैयार नहीं थे वो गंतव्य तक पहंुचने के बाद अब दो मिनट ट्रेन के अन्दर रूकने को तैयार नहीं थे। बहरहाल, मैं मोती चचा और राम प्यारे भाई को ढूंढंता हुआ बाहर निकला। इससे पहले कि सुषुम, संजू, पुकारी, और हंसा देवी को मैं धन्यवाद कहता वो रैली में आए लोगों के साथ घुल-मिल चुकी थीं। सोचता हूं कि कभी इनके गांव जाना हुआ तो इनसे ज़रूर मिलूंगा। इनके गांव जाना इसलिए भी मुमकिन है कि मेरी बड़ी बहन की ससुराल इत्तेफ़ाक़ से इन्हीं के गांव में है।

यह आलेख दिनांक 20 अक्टूबर 2013 को बनारस से लखनऊ की यात्रा के संस्मरण पर आधारित है.
इस आलेख में सभी व्यक्तियों के नाम काल्पनिक हैं.