Monday, January 21, 2013

सवाल आधी दुनिया के अधिकार का


जिम्मेदारी बनती है उस नेतृत्व की जो आम जनता की भागीदारी वाले आंदोलनों की भावना को समझे और राजनीतिक चेतना के विकास में मददगार की भूमिका अदा करे। कुछ ऐसे कि खुद को गैर राजनीतिक बताने वाले या लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया से खुद को बाहर रखने वाले लोगों का राजनीति से अलगाव समाप्त हो सके और वो खुलकर राजनीतिक गतिविधियों में अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगें। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हमारी संसदीय प्रक्रिया में तमाम चीजें राजनीति से ही तय होती है। ...
दिल्ली गैंग रेप की घटना दिसम्बर के आखिरी दो हफ्तों तक प्रमुखता से मीडिया में छाई रही है। मीडिया से इतर सामाजिक स्तर पर भी देश के विभिन्न हिस्सों में हजारों की संख्या में लोगों को बैनर-पोस्टर के साथ सड़कों पर देखा गया। एक माह पुरानी सामूहिक बलात्कार के दोषियों को कोई फांसी की सूली पर चढ़ाने की मांग कर रहा है तो कोई फास्ट ट्रैक अदालतों में मुकदमें की सुनवाई की ज़रूरत बता रहा है। अधिवक्ताओं का एक बड़ा समूह आरोपियों के पक्ष में किसी भी वकील द्वारा पैरवी नहीं होने देने की वकालत कर रहा है। न्याय के प्राकृतिक सिद्धान्तों के हिस्से के तौर पर किसी भी आरोपी को “एमिकस क्यूरी” के तहत सरकारी वकील की सुविधा का भी अधिवक्ताओं ने विरोध किया है। बहरहाल, पिछले दिनों इण्डिया गेट से शुरू हुए विरोध-प्रदर्शनों की लहर की तीव्रता को मीडिया की आंखों से देश भर में फैलता हुआ देखा गया। संवेदना के सागर में राजनीतिक दलों और राजनेताओं को भी डूबते-उतराते देखा गया। लेकिन लैंगिक भेदभाव और मुहावरा बन चुके हर बीस मिनट में एक बलात्कार की घटना को अपने सियासी एजेण्डा का हिस्सा बनाने के सवाल पर शिक्षा से लेकर संसद तक महिला आरक्षण विधेयक का राग अलापने वाले राजनेताओं की चुप्पी से एक बार फिर साफ हो गया है कि इनकी संवेदना महिला आरक्षण की सियासत तक सीमित है। पितृ सत्ता और पूंजी सत्ता की चुनौतियां इनके लिए कोई खास मायने नहीं रखती हैं।

गौर तलब है कि दिल्ली गैंग रेप पर संवेदना के कैंडल लाइट जलाने वाले आंदोलनकारी साथियों का जोश अभी ठण्डा भी नहीं पड़ा था कि दक्षिणपंथी खेमे से महिला विरोधी बयानों की घिसी-पिटी श्रृंखला जारी करने से परहेज नहीं किया गया। महिलाओं के बारे में वो तमाम बातें और मिथक एक बार फिर से दोहराए जा रहे हैं, जिन्हें लिंगभेद के आधार पर सभ्यता के विकास के किसी न किसी पड़ाव पर संस्थागत रूप दिया गया है। ऐतिहासिक रूप से लिंगभेद जनित सामाजिक पिछड़ेपन का दंश झेलने वाली महिलाओं के लिए ड्रेस कोड के हिमायतियों की भावनाएं इस कदर फूट रही हैं कि उन्हें यह कहने में भी संकोच और शर्म का एहसास नहीं हो रहा है कि “रात में लक्जरी बस में बैठने की ज़रूरत क्या थी?” 16 दिसम्बर 2012 के यौन उत्पीड़न की घटना से जन्मे आन्दोलन के दौरान सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक और वेलेण्टाइन डे जैसे कुछ एक अवसरों पर पौरूषता का प्रदर्शन करने वाले समान नागरिक संहिता के ठेकेदारों को भी संवेदना से तार-तार होते देखा गया। लेकिन जब समस्या के मूल जड़ पर वार करने की बात होती है तो यही लोग संवेदनहीन हो जाते हैं। कहना होगा कि जब तक महिलाओं के खिलाफ गर्भ से शुरू होने वाले भेदभाव को राजनीतिक एजेण्डे में केन्द्रीय महत्व नहीं मिलेगा तब तक बेटियों के साथ अत्याचार किसी न किसी रूप में जारी रहेगा।

चूंकि राजकाज और सामाजिक आचार तय करने में राजनीति और नेतृत्व दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। दिल्ली गैंग रेप की घटना ने एक बार फिर देश की राजनीति और नेतृत्व को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। ज़रूरी है कि उन चोटी के राजनेताओं, चाहे वो पुरूष हों या महिला, दोनों के इरादों और उनके व उनकी पार्टी के राजनीतिक एजेण्डे की पड़ताल की जाए कि वो किस हद तक महिला-पुरूष की साक्षी दुनिया की आधी आबादी को न्याय दिलाने के पक्ष में खड़े हैं। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि सड़क से संसद तक आंसू बहाने वाले ऐसे नेता दलगत एजेण्डा से ऊपर उठने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। हमारे नेता कठोर से कठोर कानून बनाने की बात तो करते हैं लेकिन किसी भी कानून के प्रभावी क्रियान्वयन की धज्जियां उड़ाने वालों को प्रश्रय देना नहीं भूलते। इसे पिछले दो दशकीय राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण के रूप में भी देखा जाना चाहिए, जो समग्र राजनीतिक परिदृश्य को मजबूर और लाचार बनाती है। शायद यह बड़ी वजह है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा को जन्म देने और बनाए रखने वाले तमाम कारक समाप्त होने के बजाए और अधिक उग्र और क्रूर रूप में सामने आ रहे हैं। महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाओं में कनविक्शन रेट का कम होना ऐसी ही मजबूरी और लाचारी की दास्तान बयान करती है।

बहरहाल, मौजूदा हालात ऐसे हैं कि जिसे देखो वही देश की बात कर रहा है। क्या इससे पहले देश नहीं था और क्या इसके बाद देश बचेगा नहीं। बेशक देश शर्मसार हुआ है, लेकिन यह पहली बार नहीं है। जितना हमने-आपने सुना और देखा, उतना तो ज़रूर हुआ है। अपराध और राजनीति के गठजोड़ ने न्याय और समानता की राह में बाधाएं भी खड़ी की हैं। अपराध और राजनीति के गठजोड़ को पोषण प्रदान करने वाली गैर बराबरी के सिद्धान्तों पर खड़ी भूमण्डलीकरण की नीतियां पितृसत्तात्मक मूल्य और परम्परा को भी मज़बूत कर रही हैं। लिहाजा यौन उत्पीड़न की घटनाओं को निजीकरण और विनिवेश से जोड़कर देखने और समझने की भी जरूरत है। विशेषकर उन तर्कों और तार्किक व्यक्तियों के लिए जो यह समझते हैं कि अगर बस में वो दोनों नहीं चढ़ते तो उनके साथ ऐसा नहीं होता। निजीकरण और विनिवेश की बात उन लोगों को भी समझ में आनी चाहिए जो यह कहते फिर रहे हैं कि वह बस चार्टर बस थी, इसलिए ऐसा हुआ। इन लोगों को ही देश मान लिया जाय तो भी ज़ाहिर है सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाओं पर जनता का विश्वास अभी बाकी है। फिर सवाल यह है कि लोगों का वह हुजूम, जो फांसी से नीचे की बात ही नहीं करता, देश और दुनिया के संदर्भ में निजिकरण, विनिवेश और भूमण्डलीकरण की नीतियों का विरोध क्यों नहीं करता?

दिल्ली में जन्तर-मन्तर से लेकर इंडिया गेट तक के विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों में आम लोगों ने बड़े पैमाने पर भाग लिया।  यह भी कहा गया कि इनमें अधिकतर का किसी राजनीतिक संगठन या पार्टी से कोई संबंध नहीं था। कहा जा सकता है कि सामूहिक बलात्कार से उपजा आंदोलन आम जनता की सहभागिता वाला आंदोलन था। यह आन्दोलन अन्ना और केजरीवाल के आंदोलन के बरखिलाफ महिलाओं के यौन उत्पीड़न और हिंसा के विरोध में जारी मौजूदा आंदोलन के जनवादी चरित्र को उजागर करता है। लेकिन दूसरी तरफ दिसम्बर 2012 और जनवरी 2013 के इंडिया गेट और जन्तर-मन्तर के आंदोलन से यह भी पता चलता है कि वे लोग जो इस आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे उन्हें दरअसल चमकीली राजनीति और पिकनिक के एहसास वाला विरोध-प्रदर्शन अधिक रास आता है। खासकर उन लोगों के लिए जो राजनीति से खुद को अलग-थलग रखते रहे हैं। अगर यक़ीन न हो तो पिछले दो लोकसभा और विधान सभा के चुनावों में ऐसे लागों की मतदाता के रूप में भागीदारी का प्रतिशत का संज्ञान लिया जा सकता है।

ज़ाहिर है ये वही लोग हैं जो शहरीकरण की मौजूदा प्रक्रिया में पूंजीवाद अनुप्राणित विकास की उध्र्वाधर रूपरेखा तय करने से लेकर नव उदारवादी सुधारों से प्रेरित हर उस कदम को मौन सहमति देने वालों में शामिल रहे हैं। फिर शहर तो शहर है। इतना कुछ होने के बाद भी शायद शहर का एकाकीपन इन पर भारी नहीं पड़ रहा है। दाद के हक़दार हैं वो तमाम लोग जिन्होंने देर से ही सही, अपनों के नुकसान के डर से ही सही, परदेस में असुरक्षा के चलते ही सही, मशाल जुलूस के बजाए कैंडिल लाइट के ज़रिए ही सही, प्रतिरोध की मशाल को जलाए रखने की जिम्मेदारी उठाई है। अच्छा होता कि ऐसे आन्दोलनों के सहारे सुख-सुविधा और उपभोग की वैतरणी पार करने वाले भी “ले मशाले चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के...” का हिस्सा बनते।

मौजूदा हालात में जिम्मेदारी बनती है उस नेतृत्व की जो आम जनता की भागीदारी वाले आंदोलनों की भावना को समझे और राजनीतिक चेतना के विकास में मददगार की भूमिका अदा करे। कुछ ऐसे कि खुद को गैर राजनीतिक बताने वाले या लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया से खुद को बाहर रखने वाले लोगों का राजनीति से अलगाव समाप्त हो सके और वो खुलकर राजनीतिक गतिविधियों में अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगें। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हमारी संसदीय प्रक्रिया में तमाम चीजें राजनीति से ही तय होती है। राजनीति में आधी आबादी का आनुपातिक प्रतिनिधित्व जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं के लिए लोकतांत्रिक स्थान बनाएगा। समाज बदलाव के उस स्पर्श को छूकर महसूस कर सकेगा कि बेटियां हिंसा और आबरूरेज़ी के लिए पैदा नहीं होती हैं बल्कि समाज और देश के विभिन्न क्रिया कलापों में इनकी भी समान भागीदारी और हिस्सेदारी है।

                                                       कैनविज टाइम्स, 19 जनवरी 2013