Wednesday, September 27, 2017

बुनियादी शिक्षा में सुरक्षा के सरोकार: व्यक्ति, समाज और सरकार


शिक्षक दिवस के ठीक दो दिन बाद 8 सितम्बर 2017 अन्तर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस की सुबह हरियाणा के गुरूग्राम स्थित एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल में कक्षा दो में पढ़ने वाले एक बच्चे की हत्या हुई। खबरों में यौन अपराध को हत्या का कारण बताया गया। आरोपी बस कन्डक्टर को गिरफ्तार कर लिया गया। अभिभावकों ने बड़ी संख्या में स्कूल के सामने विरोध-प्रदर्शन और तोड़फोड़ करके अपने गुस्से का इजहार किया। स्कूल की प्रिन्सिपल को सस्पेन्ड कर दिया गया और मांग करने वालों ने स्कूल को अविलम्ब बन्द करने की मांग की। विरोध-प्रदर्शन कर रहे अभिभावकों को यह कहते हुए भी सुना गया कि “स्कूल वाले फीस अधिक लेते हैं और बस वालों से उनकी सेटिंग है।” इन सबके बीच शासन प्रशासन अपना काम तो कर ही रहा है। जो सबसे महत्वपूर्ण है, वो यह कि जांच करके एक रिपोर्ट प्रस्तुत करना। जांच में घटना का विवरण, कारण और अन्य जानकारियां हो सकती हैं। फिर भी मुझ जैसे लेखक को महसूस होता है कि इस घटना के प्रकाश में सिर्फ निजी स्कूलों की ही नहीं बल्कि शासन-प्रशासन की भूमिका के साथ-साथ व्यक्ति और समाज की महत्वाकांक्षा की जांच भी हानी चाहिए। क्योंकि इस घटना ने एक तरफ जहां हमें हमारी शिक्षण व्यस्था के दोष से अवगत कराया है, वहीं दूसरी तरफ इस घटना ने शिक्षण व्यवस्था के प्रति व्यक्ति और समाज के दृष्टिकोण और दायित्व को भी उजागर किया है कि आखिर हमारा समाज अपने बच्चों की शिक्षा के लिए किस प्रकार का शिक्षण व्यवस्था तैयार कर रहा है? सवाल यह भी है कि क्या हमारा समाज निजी महत्वाकांक्षाओं वाली व्यवस्था के अधीन खुद को समर्पित कर चुका है या सामूहिक प्रतिनिधित्व वाली लोकतांत्रिक संस्थाओं में नयी संभावनाओं के बीज भी बोना चाहता है।

कोई भी स्कूल अपने समाज की सीमाओं से परे नहीं हो सकता है। इस आलोक में प्रथम दृष्टिया कहा जा सकता है कि स्कूल प्रबन्धन की लापरवाही के कारण ही बच्चे की जान गयी होगी। स्कूल प्रबन्धन और बाल शिक्षा के सिद्धान्तों के अनुरूप स्कूल प्रबन्धन को इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता कि वो बच्चे के पारिवारिक पृष्ठभूमि से लेकर उसके समाज और स्कूल के आस-पास के वातावरण आदि का संज्ञान ले और तत्संबन्धी विवरण रखे। ऐसा करने से किसी भी स्कूल प्रबन्धन के पास इस तरह की घटना को टालने की संभावना अधिक होती है। अगर बाल शिक्षा में गाइडेन्स की भाषा में कहा जाए तो स्कूल प्रबन्धन द्वारा इकट्ठा की गयी इस तरह की जानकारी चेक बॉक्स का काम करती है। चूंकि हरियाणा के गुरूग्राम के जिस स्कूल में बच्चे की हत्या की घटना घटी है, वो स्कूल नामी-गिरामी है, इसलिए ऐसे स्कूलों के प्रबन्ध कर्ताओं से ऐसी लापरवाही की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वैसे भी निजी स्कूल वाले या कोई भी निजी प्रतिष्ठान अपने स्टॉफ से कम समय और कम पारिश्रमिक में अधिक काम लेने के लिए बदनाम रहे हैं। सरकार भी इस मंतव्य से सहमत है। दिलचस्प यह भी है कि जबसे निजीकरण की बयार चली है तब से कामकाज के इस तरीके को कारपोरेट के साथ-साथ सरकारें भी बढ़ावा दे रही हैं। बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि बस चालक स्कूल का स्टॉफ नहीं था और उसकी किसी अध्यापक या अध्यापिका की भांति टीचिंग-लर्निंग का हिस्सा मानकर ट्रेनिंग नहीं की गयी हो। ज्ञात हो सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बच्चों को माता-पिता और अध्यापक-अध्यापिका के केन्द्र में रखकर शैक्षिक क्रिया-कलाप सम्पन्न होता है। ज़रूरी है कि स्कूल बस (चालक और खलासी के साथ) को संचालित करने वाले व्यक्ति/संस्था को भी माता-पिता और अध्यापक-अध्यापिका की तरह एक छोर पर रखा जाए। सरकारों को इस बिन्दु पर शोधपरक समझदारी विकसित कर इस दिशा में कानून भी बनाने की जरूरत है। ताकि स्कूल जाते हुए बच्चों के परिवेश में जो भी चीजें, व्यक्ति या बातें हों, उन्हें उनकी शिक्षा को प्रभावित करने वाले साकारात्मक अथवा नाकारात्मक कारक के रूप में मान्यता मिल सके। जब ऐसी मान्यता मिल जाएगी तो बस चालक हो या खलासी या सड़क और बाजार, हर व्यक्ति के अन्दर और हर एक स्थान पर बच्चों को एक ऑब्जेक्ट के रूप में देखने का नजरया विकसित होगा। एक ऐसा ऑब्जेक्ट जिसके बारे में कहा जाता है कि बच्चे देश के भविष्य हैं। न जाने कितने गीत और कविताएं इन पर लिखे और गाए गए है। उदाहरण के तौर पर “इनमें मेरे आने वाले जमाने की तस्वीर है.....“, “बच्चे मन के सच्चे.....”, “आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं.....”, “मुझे दुश्मन के बच्चों को पढ़ाना है.....” वगैरह-वगैरह। ऐसे आदर्श सामाजिक परिस्थिति में कोई भी बच्चा “सेक्सुअल एब्यूज“ यानि यौन शोषण या वायलेन्स (हिंसा) का शिकार नहीं होगा।

जाहिर है हम स्कूल से जुड़े विभिन्न व्यक्तियों, कर्मचारियों और संस्थाओं को सीखने-सिखाने के विषय पर निरंतर संवेदीकरण करते रहें तो मुमकिन है कि बच्चों को विभिन्न कारणों से हिंसा का शिकार बनने से बचाया जा सकता है। लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि आजादी के बाद से अब तक हमने शिक्षा के क्षेत्र में जो प्रयोग किए गए हैं, उनका प्रभाव क्या पड़ा? खासकर 1991 में जब आर्थिक सुधारों से अनुप्राणित निजीकरण की शुरूआत हुई। निस्संदेह आर्थिक सुधारों ने बुनियादी शिक्षा को निजीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ाया है। इसे प्रगति के रूप भी देखा जा सकता है और बुनियादी शिक्षा के पतन के तौर पर भी परिभाषित किया जा सकता है। प्रगति इसलिए क्योंकि बुनियादी शिक्षा में नित नए प्रयोग हुए और माण्टेसरी एवं किण्डरगार्टेन की शिक्षण प्रणाली का विस्तार हुआ। लेकिन दूसरी तरफ इन नए प्रयोगों की आड़ में सरकारों ने बुनियादी शिक्षा में पूंजी की भूमिका को प्रमुखता से स्थापित किया। पूंजी की भूमिका को बढ़ाने का सवाल शिक्षा के बाजारीकरण के सवाल से जुड़ा हुआ है। यह सवाल हमें इस दिशा में विचार करने का अवसर देता है कि एक के बाद एक हमारी सरकारें बुनियादी शिक्षा के तंत्र पर समाज के विविध समुदायों की निर्भरता को कम करने संबंधी नीतियां बनाती रही हैं। शिक्षा का निजीकरण (बाजारीकरण) सरकार के कामकाज के इसी रवैये की अभिव्यक्ति है। कहा जा सकता है कि निजीकरण की नीती में आत्मनिर्भरता का पुट है। यह नीती गुणवत्ता और सेवा की प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत है। लेहाजा देश भर में निजी स्कूलों का बड़ा नेटवर्क देखा जा सकता है। जिनके होर्डिंग्स पर क्वालिटी एजूकेशन के एक से एक वादे लिखे रहते हैं। इनके पाठ्यक्रम में महंगी किताबें होती हैं, महंगे अध्यापक/अध्यापिका हो सकते हैं, पूंजी प्रायोजित संभ्रान्त संस्कृति का प्रदर्शन हो सकता है, लेकिन समाजिक सरोकारों का मूल्य, परंपरा और संस्कार के रूप में सर्वथा अभाव रहता है। ऐसी स्थिति पूंजी प्रायोजित शिक्षण संस्थाओं और मानवीय संवेदनाओं के बीच की खाई को बढ़ाने वाली होती है। ऐसे में अमानवीय कुमनोवृत्तियों को समय रहते चिन्हित करना संभव नहीं होता। यदि हरियाणा वाली घटना की बात करें तो इस संभावना से इंकार मुश्किल है कि पूंजी की प्रधानता ने ही स्कूल प्रबन्धन को बस चालक के मन की बात को पढ़ने से वंचित रखा। यह घटना हमें यह सीख भी देती है कि किसी भी स्कूल में वाहन चालक के लिए न्यूनतम शैक्षिक और सामाजिक अर्ह्ता का निर्धारण वक्त की जरूरत है। जिस तरह से रेल के परिचालन के लिए ड्राइवरों के स्वास्थ्य की जांच वगैरह का नियम है, उसी तरह से स्कूल वाहनों के परिचालकों का समय-समय पर सामान्य स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक परीक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

अक्सर ऐसी खबरें भी आती हैं कि ड्राइवर की गलती या लापरवाही से स्कूली वाहन पलट गया, बच्चे घायल हो गए या मर गए। ऐसे मामलों में अभिभावकों का गुस्सा भी देखने में आता है। तोड़फोड़ से लेकर आगजनी सबकुछ पलभर में कर देते हैं। गौरतलब है कि जो अभिभावक अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए नामी-गिरामी स्कूलों में भेजता है। वही अभिभावक अपने बच्चे के साथ कुछ अप्रिय होने पर हिंसक और क्रूर क्यों हो जाता है? यही रवैया निजी नर्सिंग होम या निजी अस्पतालों या निजी प्रैक्टिशनरों के साथ देखा गया है। जब तक गुणवत्ता और सेवा मिलता रहता है, तब तक तो अभिभावक स्कूलों की ओर और तीमारदार अस्पताल की ओर नजर नहीं करते। लेकिन जैसे ही कुछ उन्नीस-बीस होता है, अभिभावक और तीमारदार अपनी नागरिक जिम्मेदारियों को भूलकर हिंसक हो उठते हैं। शायद इसलिए कि अभिभावक और तीमारदार के रूप में हमारी महत्वाकांक्षा उस शिखर पर पहुंच चुकी है, जहां से हमें अपनी वैयक्तिक इच्छाओं के अलावा किसी और के दुःख-दर्द की पीड़ा महसूस नहीं होती है। शायद इन्हीं कारणों और परिस्थितियों के चलते हम अपने बच्चों के लिए पूंजी प्रायोजित स्कूलों को चुनते हैं। जहां मैं, मेरा का बोध ज्यादा होता है और सामाजिक संवेदना का अभाव होता है। दूसरी बात यह कि यदि पूंजी प्रायोजित स्कूल या अस्पताल फीस अधिक ले रहे हैं और उन्हें बच्चों और मरीजों की चिन्ता नहीं है तो हम अपने बच्चों का दाखिला सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं कराते? या सरकार पर दबाव क्यों नहीं बनाते कि शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी सरकार खुद उठाए।

कुछ लोग यह सुझाव दे रहे हैं कि विद्यालयों में सीसीटीवी कैमरे अनिवार्य कर देने चाहिएं। एडवोकेट जैनेश कश्यप का विचार है कि स्कूल में सीसीटीवी कैमरों को संचालित करने के लिए अलग से एक ऑपरेटर की नियुक्ति करनी चाहिए, जो नित्य प्रतिदिन इसे देखा और जांचा करे। दिनेश चन्द्र राय इण्टर कॉलेज मुहम्मदाबाद में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे हैं। उनकी जिज्ञासा “यह व्यवस्था कौन करेगा?“ का जवाब देते हुए एडवोकेट जैनेश कश्यप अपने फेसबुक वाल पर लिखते हैं कि “यह व्यवस्था विद्यालय प्रशासन को करनी चाहिए। उनके ऊपर अभिभावकों व जिला प्रशासन का दबाव होना चाहिए।”  एडवोकेट जैनेश कश्यप और दिनेश चन्द्र राय की बातों से जाहिर होता है कि अगर स्कूल प्रबन्धन सीसीटीवी कैमरा का बन्दोबस्त करले और इसके लिए एक ऑपरेटर रख ले तो बच्चों के साथ होने वाली आपराधिक घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकी जा सकती है। तकनीक के इस्तेमाल से हमारे जीवन में आसानिया पैदा हुई हैं। चूंकि बात एक यौन अपराध के आइने में एक बच्चे की नृशंस हत्या के संदर्भ में हो रही है, तो हमें देखना पड़ रहा है कि तकनीक ने मानव मन को उसकी नैसर्गिक दोष युक्त सोच से मुक्त करने में क्या भूमिका निभाया? इस सवाल पर गौर करने से ऐसा प्रतीत होता है कि हम तकनीक के क्षेत्र में, तकनीक के इस्तेमाल से कामयाबी की तमाम सीढ़ियां चढ़ने के बाद भी मानव मन में साकारात्मक सामाजिक सोच युक्त संवेगों की प्रबल धारा प्रवाहित करने में असफल रहे हैं। इस आलोक में यह सवाल लाजमी है कि किसी स्कूल या प्रतिष्ठान में स्थापित सीसीटीवी कैमरा जैसे किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण या यंत्र को ऑपरेट करने वाले की अर्ह्ता (सामाजिक और मनोवैज्ञानिक) की जांच कौन करेगा? ऐसे ऑपरेटरों के लिए न्यूनतम योग्यता का निर्धारण कौन करेगा और इनके लिए जो भी पाठ्यक्रम बनाया जाएगा, उसकी पढ़ाई की फीस कितनी होगी? किन संस्थानों को ऐसी शार्ट टर्म या लान्ग टर्म कोर्स कराने के लिए भारत या प्रदेश सरकारों की ओर से अधिसूचित किया जाएगा? इन सवालों के बीच इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि स्कूलों में कैमरा नहीं होना चाहिए। बिल्कुल होना चाहिए, लेकिन क्या यह उचित होगा कि हम अपने ही समाज के लोगों के साथ अविश्वास के संबंधों को मजबूत करें। क्या ऐसा करना लिंग आधारित विविधता और निजता को बनाए रखने की दृष्टि से उचित होगा? क्योंकि किसी भी बुराई के पीछे बहुत से कारक होते हैं। इनमें सबसे प्रमुख हमारा समाज और समाज में रहने वाले विभिन्न सामाजिक समूहों की सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, सास्कृतिक परिस्थितियां और गतिविधियां शामिल होती हैं। उदाहरण स्वरूप कई बार माता-पिता हैरान होते हैं कि उनका बच्चा गाली कहां से सीखता है। जब कि न तो उनके स्कूल में गालियां सिखाने की कोई क्लास होती है और न ही घर का कोई सदस्य गाली देता या देती है। यह भी सत्य और तथ्य है कि ज्यादातर गालियां महिला केन्द्रित होती हैं। यानि हम अपने बच्चों से कुछ अच्छा करने की उम्मीद एक ऐसे सामाजिक परिवेश में करते हैं, जहां मर्दानापन यानि पितृसत्तात्मक सोच से अनुप्राणित गालियां और अन्य गतिविधियां होती हैं। जिसका सीधा संबंध शक्ति के दो ध्रुवों से होता है। जो धु्रव अपने आप में मजबूत होता है, वो कमजोर के साथ अन्याय, भेदभाव, अपमान, अनादर, हिंसा और क्रूरता जैसे व्यवहार करता है। अनुभव बताता है कि बच्चे अपने सामाजिक परिवेश में ही गालियां सीखते हैं। जैसे मुहल्ले में खेलकूद के समय, घर से बाहर कहीं आते-जाते समय। गालियां देता कौन है? हमारे-आप जैसे लोग ही गालियां देते हैं। दूसरी तरफ बलवान का बल कहीं न कहीं उसके सामाजिक ढ़ांचे के स्वरूप और उसकी परंपरागत प्रवृत्तियों से अक्षुण्य रहता है। इस उदाहरण का संदर्भ इसलिए भी देना पड़ा है कि हम अकेले कुछ तय नहीं कर सकते हैं। विशेषकर ऐसे समाज में जहां पितृसत्ता और अलोकतांत्रिक मूल्य अभी बहुत मजबूत है। इसीलिए ऐसा मुमकिन है कि जो सीसीटीवी कैमरा स्कूल के कर्मचारियों की निगरानी करने के मकसद से लगा हो, क्या पता उसका उपयोग ऑपरेटर अपने कुंठित भावनाओं को तृप्त करने के लिए करने लगे। इस घटना में ड्राइवर को एक ऐसे ही ऑपरेटर के तौर पर देखा जाए तो अंदाजा होता है कि सीसीटीवी सुरक्षा के साथ-साथ अपने नाकारात्मक प्रभावों में ऐसी हिंसक घटनाओं को जन्म दे सकता है। इसलिए जरूरी है कि पहले हम और हमारा समाज संवेदनशील बने। शिक्षा का दृष्टिकोण विकसित करे। किसी भी सामाजिक-शैक्षिक कार्य में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करे। वैसे भी स्कूल-कॉलेज को चन्द कैमरों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। बल्कि इसके लिए संवेदनशील, समझदार और जिम्मेदार स्कूल प्रबन्धन के साथ-साथ परिपक्व और प्रशिक्षित मानव मन की जरूरत होती है। तब जाकर कहीं बचपन को संवारने और निखाने की साधना पूरी होती है।

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रवक्ता मेरी एक मित्र कंचन जो इस समय यूरोप के बूडापेस्ट में हैं, इस घटना को कर्मचारियों और अन्य स्टॉफ के लिए अलग से टॉयलेट होने और न होने से जोड़कर देखती हैं। वो अपने फेसबुक वाल पर लिखती हैं कि “आम तौर पर जैसे रेजिडेंशियल कॉलोनी में काम करने के लिए आने वाली घरेलू नौकरानियों के लिए कॉलोनी में कोई टॉयलेट नहीं होते और वे किसी घर में चुपके से चली जाती हैं या सभ्य लोगों की रिहाईश के किसी किनारे निपट लेती हैं। ऐसे ही स्कूल में बस ड्राइवर, कंडक्टर, कर्मचारियों के लिए भी बच्चों से अलग कोई अलग टॉयलेट की व्यवस्था नहीं करने की मानसिकता खतरे पैदा करते हैं।... कितना शर्मनाक है लगता है कि हम अपने बच्चों को इन्सानों से डरना सिखाते हैं!!” 

इस संदर्भ में बताना जरूरी मालूम होता है कि जब मैं कहानियों पर शोध प्रबन्ध लिख रहा था, उस समय इकबाल मजीद की कहानी “पेशाब घर आगे है!” पढ़ी थी। कहानी में एक व्यक्ति को पेशाब के दबाव से होकर गुजरना पड़ता है। शहर की भीड़ में सबकुछ है, लेकिन न तो टॉयलेट है और न ही पेशाब के दबाव से उत्पन्न पीड़ा झेल रहे व्यक्ति को किसी दुकानदार की अनुमति है कि उसके दुकान के साइड में या पीछे पेशाब किया जा सके। इकबाल मजीद के कहानी “पेशाब घर आगे है!” का संदर्भ बहुत वृहद हो सकता है। यहां मित्र कंचन और संवेदनशील लेखिका ने इस दिशा में कुछ ऐसा लिखा, जिसको नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि हमारा समाज भी कहीं न कहीं ऐसे दबाव में है, जिससे मुक्ति के लिए कोई रास्ता देना नहीं चाहता। हमें अपने स्वार्थ की पूर्ति करने की लालसा है लेकिन कोई जन सुविधाओं के बारे में गंभीर नहीं है। जो लोग गंभीर हैं, उन्हें भी पूंजी आधारित निवेश और मुनाफा की फिक्र ज्यादा है। फलस्वरूप कमजोर पहचान वालों पर चैतरफा खतरा बढ़ा है। ऐसे में कंचन की टिप्पणी “कितना शर्मनाक है, लगता है कि हम अपने बच्चों को इन्सानों से डरना सिखाते हैं!!” बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों की सोई हुई संवेदना को कुरेदने वाली है। इनमें स्कूल प्रबन्धन से लेकर, स्कूल के टीचिंग स्टॉफ, नॉन टीचिंग स्टाफ, किताब बेचने वाले और अभिभावक के रूप में किताब खरीदने वाले सभी शामिल हैं।

वास्तव में पेशाब और शौच शहरों और गांवों दोनों ही जगहों पर एक बड़ी समस्या है। गांव में जहां लोग खुले में शौच करने के अभ्यस्त हैं, उन्हें विभिन्न स्वास्थ्य, संस्कार और स्वच्छता जैसे कारणों के चलते घर के अन्दर शौच करने का अभियान चलाया जा रहा है। फिर भी शाम ढ़लते ही गांव से लगे सड़कों और पगडंडियों के किनारे महिलाओं-पुरूषों की बड़ी संख्या में मौजूदगी चिन्ता का विषय है। उसमें भी कुछ स्वयं सेवक टॉर्च दिखाकर कैमरा से फोटो खींच लें या फिर किसी की बहन-बेटी के साथ अभद्र व्यवहार करें, तो हम-आप जैसे लोग कुछ करने में असमर्थ होते हैं। क्योंकि यहां भी डर और खौफ निजता के सवाल पर भारी पड़ता है। यह तो आउटडोर का मामला है। यदि “क्राइम इन इण्डिया” का संदर्भ लें तो ज्यादातर आपराधिक घटनाएं इनडोर यानि घर-मकान के अंदर होती हैं। ऐसी घटनाओं को अंजाम भी वही लोग देते हैं, जिनका संबंध बहुत करीब का होता या फिर जो परिचित और विश्वासी होते हैं। जाहिर है हम और हमारे समाज की सांसे तकनीक के सहारे नहीं चल सकती हैं। तकनीक का इस्तेमाल पीड़ित को राहत पहुंचाने के लिए करना ठीक है। तकनीक का इस्तेमाल किसी आम इंसान विशेषकर महिला, बच्चा, गरीब, पिछड़ा, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक वगैरह कमजोर पहचान वाले व्यक्तियों को हिंसा और यातना देने के लिए करना ठीक नहीं है। तकनीक के इस्तेमाल की पहली शर्त पूंजी है। पूंजी मजबूत लोगों के पास है या मजबूत लोगों का पूंजी पर नियंत्रण है। ऐसे में अगर सीसीटीवी कैमरे जैसे यंत्रों से स्कूल और समाज के संभ्रान्त वर्ग को ही सुरक्षा प्रदान किया जा सकता है। एक और मित्र महेन्द्र सिंह के फेसबुक वाल के माध्यम से गाजियाबाद स्थिति इन्दिरापुरम के एक स्कूल प्रबन्धन की बच्चों की सुरक्षा संबंधी चिन्ता का संज्ञान हुआ है। महेन्द्र सिंह जी ने अपने वाल पर स्कूल द्वारा भेजी गयी चिट्ठी पर लगाया है और स्कूल प्रबन्धन के संवेदनशील होने की बात कही है। 

जाहिर है इस पूरे प्रकरण में बच्चों की सुरक्षा ही चिन्ता का विषय है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि गुरूग्राम का मामला एक स्कूल का मामला नहीं, बल्कि पूरे देश का मामला है। इस संदर्भ में सभी राज्य सरकारों को नोटिस भी जारी की गयी है। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम सराहनीय है। लेकिन गौर करने का विषय यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के बयान और राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर देने भर से बच्चों के साथ होने वाली आपराधिक घटनाओं पर लगाम लगाया जा सकता है? मौजूदा दौर में जिस तरह से सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र में पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया है, उससे शिक्षा के न सिर्फ दो मॉडल, निजी और सरकारी दिखाई देते हैं, बल्कि विकास का निजी मॉडल देश के बहुसंख्यक परिवारों के बच्चों के लिए निराशा पैदा करने वाला रहा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट और सरकारों को इस दिशा में भी विचार करने की आवश्यकता है कि हमारे तंत्र में ऐसा क्या है कि निजी मॉडल में कुछ होता है तो उसकी गूंज सत्ता के गलियारों से लेकर सुप्रीम कोर्ट हर जगह सुनाई देती है। वहीं दूसरी तरफ किसी पांच साल की बेटी का बलात्कार होने पर भी सत्ता के पुराधाओं और सुप्रीम कोर्ट के कान पर जूं तक नहीं रेंगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी सरकारों और संविधान द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाएं जैसे स्कूल-कॉलेज और अस्पताल आदि को पतन के रास्ते पर जानबूझ कर ढ़केला जा रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकार शिक्षा पर बजट बढ़ाने और सरकारी स्कूलों के प्रसार की दिशा में काम करती, न कि अपने ही देश के बच्चों को पूंजीपतियों के रहमों करम पर छाड़ने के लिए सरकारी स्कूलों को हतोत्साहित करने वाले कानून बनाती। यदि वास्तव में सरकार और सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि जो बच्चे यौन हिंसा या बलात्कार जैसे किसी घटना का शिकार बन रहे हैं तो कार्यपालिका और न्यापालिका को शिक्षा शास्त्र के सिद्धान्तों को मद्दे नजर रखते हुए शिक्षा और समाज को एक समन्वित इकाई के तौर पर मान्यता देना चाहिए। जिसमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिए कि हर बच्चा देश के लिए महत्वपूर्ण है और बच्चों की शिक्षा सिर्फ मां-बाप और अध्यापक-अध्यापिका की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि उस समाज की भी जवाबदेही है जहां बच्चा आने-जाने, खेलने-कूदने जैसे विविध गतिविधियां करता है। जिन अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ हिंसात्मक आपराधिक घटनाओं की पीड़ा झेलनी पड़ रही है, उन्हें निजी स्कूलों के खिलाफ सरकारी सरकारी स्कूलों की बेहतरी के लिए आवाज उठानी चाहिए। ऐसे लोगों की आवाज में समाज के शिक्षित और जागरूक लोगों की आवाज भी मिलनी चाहिए। समाज के बेस्ट प्रैक्टिसेज को प्रचारित और प्रसारित करना समाज में आगे बढ़ चुके लोगों का नैतिक और सामाजिक दायित्व होना चाहिए। यदि “कॉरपोरेट सोशल रिस्पान्सिबिलिटी” मुमकिन है तो यह भी मुमकिन है कि “पीपल्स एजूकेशनल रिस्पॉन्सिबिलिटी” जैसी किसी युक्ति को लागू किया जाए। तब जाकर समाज में शिक्षा की दृष्टि पैदा होगी और बच्चों का बचपन सही मायनों में संवारा जा सकेगा। वरना टेक्नोक्रेसी का उफान और कमजार हो रहे लोकतांत्रिक मूल्य न सिर्फ बुनियादी शिक्षा के लिए खतरे पैदा करने वाले हैं, बल्कि मानव मन की विकृतियों को दिनों दिन बढ़ाने वाले हैं, जो संविधान में उल्लिखित लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप समाज के दीर्घकालिक हित में नहीं है।

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