Sunday, June 19, 2016

पलायन का मिथक और ध्रुवीकरण की राजनीति


श्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली स्थित कैराना से कथित तौर पर 346 हिन्दू परिवारों के पलायन पर सियासत गरम है। कैराना शामली जिला का मुस्लिम बाहुल्य वाला कस्बा है। जहां हिन्दू और मुस्लिम आबादी का अनुपात क्रमशः 18.34 और 80.76 प्रतिशत है। पिछले दिनों यहां से पलायन की तथाकथित घटना का रहस्योद्घाटन सांसद हुकुम सिंह ने किया। मुमकिन है सांसद हुकुम सिंह की बात में दम हो। लेकिन जिस तरह से मीडिया में खबरें आ रही हैं और जिस तरह तथाकथित पलायन को कश्मीरी पंडितों के पलायन से जोड़कर प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है, उससे जाहिर होता है कि पलायन एक संवेदनशील सामाजिक-आर्थिक मुद्दा नहीं बल्कि संघ परिवार द्वारा खड़ा किया जाने वाला एक मिथक है। ऐसा मिथक जिसे अगामी विधान सभा चुनाव के पहले जनमत निर्माण के लिए राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके। इतिहास और वर्तमान का संदर्भ लिया जाए तो देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों और समाजों व समुदायों में हर दौर में अलग-अलग कारणों से पलायन का रूझान रहा है। लेहाजा कैराना के मामले में पलायन और इसके के विभिन्न पक्षों की अनदेखी नहीं की जा सकती।


पलायन दरअसल एक ऐसी समस्या है जिसकी जड़ें आमतौर पर गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी में छिपी होती हैं। इतिहास में ऐसा भी हुआ है कि बहुधा जातियों और समुदायों ने सामंती शोषण, दमन और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने की बजाय पलायन का विकल्प चुनना बेहतर समझा। यही कारण है कि देश के कई हिस्सों में पीढ़ी दर पीढ़ी पलायन होता रहा है। उदाहरण के तौर पर यदि पूर्वी उत्तर प्रदेश की बात करें तो गाज़ीपुर, बलिया और मऊ आदि जिलों में दो-तीन पीढ़ी पहले से ही पलायन का रूझान दिखाई देता है। कुछ गांव तो ऐसे हैं जहां घर-घर से लोग बंगाल गए, वहां पर स्थाई रूप से रहने लगे। उनके बाद की पीढ़ी रोजगार और आजीविका के अवसरों की तलाश में पलायन करना पड़ा। मेरे कई मित्र हैं जो अपने पैतृक गांव-कस्बा से अपना कारोबार बंद करके हाल-फिलहाल में बंगाल और असम गए है। पिछले दिनों एक फ्रांसीसी रिसर्चर कमेली बुआ से मुलाकात हुई। कमेली बुआ उत्तर प्रदेश और बिहार से पश्चिम बंगाल को होने वाले पलायन पर शोध कर रही हैं। उनके साथ विभिन्न गांवों का दौरा करने के बाद पलायन के कई अनछुए पहलुओं को करीब से समझने का अवसर मिला। पलायन वर्ग और जाति के आधार पर भी है और समुदाय के आधार पर भी है। पलायन का एक महत्वपूर्ण कारण स्थानीय संसाधनों में सहभागिता का न होना भी है। गांव वासियों से बातचीत के दौरान यही भी प्रकाश में आया कि पलायन के पीछे कई बार समाज का सामंती ढ़ांचा और इस पर आधारित शोषण, दमन और अत्याचार इस कद्र प्रछन्न होता है कि इस कारण से होने वाले पलायन की न तो पहचान हो पाती है और न ही इसकी आवाज समाज और सत्ता के विकेन्द्रित प्रतिष्ठानों तक पहुँच पाती है। जाहिर है पलायन अपने वृहद् सन्दर्भ में आर्थिक और सामजिक दोनों ही कारणों से होता रहा है।

इतिहास गवाह है कि पलायन इच्छित और अनिच्छित दोनों ही स्वरूपों में हुआ है। हुकुम सिंह या यूं कहें कि संघ परिवार के लोग जिस पलायन की बात कर रहे हैं वो पालयन अनिच्छित किस्म की है। लेकिन एक सवाल है। हुकुम सिंह की चिठ्टी पर सुनवाई में इतनी शीघ्रता और आतुरता क्यों है। उनके समकक्ष अन्य सांसद भी तो जनता के जमीनी मुद्दों और समस्याओं को अपनी चिट्ठियों के माध्यम से संसद और विधान मंडलों में उठाते रहे हैं। फिर हुकुम सिंह का हुक्म सर आँखों पर क्यों? संदेह की और भी वजहें हो सकती हैं जैसे कि उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष 2017 में विधान सभा चुनाव होना है। हर पांच साल पर होने वाले चुनाव की पूर्व संध्या पर आम जनता का बल लोकतान्त्रिक संस्थाओं की नुमाइन्दगी का दम-खम भरने वालों और इनमें दखल रखने वाले राजनेताओं व सियासी पार्टियों पर भारी पड़ता है। इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों ही शामिल हैं। एक के सामने अपनी पद और प्रतिष्ठा को बचाने की तो दूसरे के समक्ष अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने की चुनौती होती है। पार्टियों की आपसी चुनौतियों के बीच आम मतदाता ही सबसे बलवान होता है। उत्तर प्रदेश में सपा, भाजपा की स्थिति कुछ ऐसी ही है। एक सत्ता में है तो दूसरी पार्टी सत्ता प्राप्त करने की लालसा रखती है। इन दोनों की बीच में आम जनता वो धुरी है जिसका वोट इन्हें हर कीमत पर चाहिए।

बेशक आम जनता और मतदाता हर हाल में अपना सामजिक, आर्थिक और वैयक्तिक प्रगति चाहता है। आम मतदाताओं की इस इच्छा में ही उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका के मूलभूत प्रश्न छुपे होते हैं। जिसे अक्सर राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी एजेण्डे में उठाती रही हैं। मगर अफसोस कि विकास का एजेण्डा पेश करने वाली पार्टियों के कामकाज पर कैराना जैसे शहर सवाल बन कर खड़े हो जाते हैं। यदि साक्षरता के सूचकांक पर कैराना के विकास की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार कैराना में साक्षरता की दर 59.76 प्रतिशत दर्ज की गयी जो प्रदेश के 67.68 प्रतिशत और देश के 74.04 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से भी कम है। यदि सिर्फ कैराना शहर की साक्षरता की बात करें तो यहां 47.23 प्रतिशत व्यक्ति ही साक्षर हैं। कैराना शहर में पुरूष और महिला साक्षरता की दर (क्रमशः 55.16 और 38.24 प्रतिशत) न सिर्फ उत्तर प्रदेश की औसत साक्षरता की दर से कम है बल्कि शामली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और मेरठ आदि शहरों की औसत साक्षरता दर से काफी कम है। साक्षरता दर में यह कमी इस बात का संकेतक है कि यह शहर बरसों से उपेक्षित रहा है। जो लोग पलायन का मिथक खड़ा करने में लगे हुए हैं उनकी राजनीति पर कैराना शहर की साक्षरता दर गंभीर सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। सवाल लाज़मी है कि कैराना साक्षरता के सूचकांक पर औंधे मुंह क्यों गिरा पड़ा है? दिलचस्प बात यह है कि कैराना से शामली, सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर, मेरठ और देश की राजधानी नई दिल्ली सभी शहर करीब हैं। इन शहरों में साक्षरता दर प्रदेश और देश के औसत साक्षरता दर से अधिक है। कैराना जिस जिले का तहसील है उस जिले में भी साक्षरता दर 71 प्रतिशत से अधिक है। सवाल धर्म निरपेक्षता के तमाम अलमबरदारों से भी है कि हुकुम सिंह जैसे सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ अल्पसंख्यक बाहुल्य वाले क्षेत्र में जन प्रतिनिधि कैसे चुने जाते हैं? सवाल हुकुम सिंह जी से भी है कि वो कैसे जन प्रतिनिधि हैं, जो साक्षरता की बुरी स्थिति को न तो चिन्हित नहीं कर पाए और न ही यहां के लोगों को साक्षर बनाने हेतु कोई सार्थक कोशिश कर पाए। संदेह जायज है कि एक जन प्रतिनिधि के तौर पर सांसद हुकुम सिंह अपनी असफलताओं का ठीकरा पहले सांप्रदायिक आधार पर पलायन और फिर कानून व्यवस्था के चलते पलायन जैसे बहाने बनाकर राज्य सरकार के सर पर फोड़ना चाहते हैं। सात बार विधायक और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके मोदी लहर में सांसद बने हुकुम सिंह जी को पलायन के मिथक की जरूरत इसलिए पड़ी कि वो जनहित के एजेण्डा पर फेल हो चुके हैं। अगर हुकुम सिंह के विधायक और फिर सांसद रहते स्थानीय गुण्डों और माफियों का प्रभाव बढ़ा है तो इससे हुकुम सिंह की राजनीतिक गैर मौजूदगी भी जाहिर है। अच्छा होता कि वो अपने संसदीय क्षेत्र के गुण्डों-माफियाओं की सूची तैयार कर उनके खिलाफ कार्यवाही सुनिश्चित कराने के लिए कुछ साकारात्मक प्रयास किए होते। सांसद जी को पलायन पर शोध करना ही था तो बुंदेलखंड चले गए होते जहां पर विभिन्न कारणों से न सिर्फ किसानों, गरीबों और मज़दूरों को पलायन करना पड़ा है बल्कि आत्म हत्या के लिए भी मजबूर होना पड़ा है। यदि हिन्दू पलायन की वकालत कर रहे लोग विशेषकर सांसद हुकुम सिंह कभी बिहार जाते या यहां से दिल्ली, मुम्बई, सूरत, अहमदाबाद और हैदराबाद की ओर जाने वाली रेलगाड़ियों में एक के ऊपर एक लदे हुए सवारियों को यात्रा करते देखने का समय निकालते तो पलायन का दर्द शायद महसूस कर पाते।

अगर समय रहते उन्होंने ऐसा कोई प्रतीमान स्थापित किया होता तो उन्हें संघ की विषैली सांप्रदायिक एजेण्डे से इतर विकास के एजेण्डे पर सियासी माहौल बनाने का विकल्प खुला होता। लेकिन नहीं, कांग्रेस से अपनी राजनीति शुरू करने वाले हुकुम सिंह को संघ का एजेण्डा अधिक पसंद था। सो वो पलायन का मिथक खड़ा करने में लग गए। लगभग चार दशक का राजनीति का अनुभव रखने वाले हुकुम सिंह के अनुभव से उनके अपने ही संसदीय क्षेत्र के कैराना की साक्षरता दर की सूची कैसे छूट गयी। शायद संघ से नजदिकियों ने उन्हें सांप्रदायिक और फांसीवादी एजेण्डे का कायल बना दिया तभी तो उन्होंने साक्षरता की स्थिति सुधारने के बजाए पलायन का मिथक खड़ा करने के लिए तर्क की जगह कुतर्क कर रहे हैं।

तर्क का क्या है, तर्क मानव प्रवृत्ति का हिस्सा भी होता है और बहुधा मनुष्य तर्क गढ़ने की प्रवृत्ति में माहिर भी होते हैं। तर्क का होना वैज्ञानिकता और स्वाभाविकता का परिचायक होता है। लेकिन तर्क गढ़ने के पीछे कोई न कोई उद्देश्य या लक्ष्य छुपा होता है, जो नाकारात्मक होता है और जिसे आम तौर पर प्रकट नहीं होने दिया जाता है। गढ़े हुए तर्कों से जो परिणाम फलीभूत होते हैं वही प्रकट होते हैं। प्रकट परिणामों की प्रस्तुति सत्य और तथ्य की तरह की जाती है ताकि जनमानस इन्हें मानकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करे। कैराना में पलायन के पीछे जो कारण संघ परिवार द्वारा बताए जा रहे हैं, उसके पीछे भी यही उद्देश्य प्रतीत होता है कि वहां की जनता धार्मिक पहचान के आधार पर दो स्पष्ट समूहों में बंट जाए। फिर भी यह बात गले से नीचे नहीं उतरती कि ऐसी जगह जहां दो समुदायों की आबादी का अनुपात 80.14 और 19.86 प्रतिशत है, वहां पर धार्मिक पहचान के आधार पर समुदायों के विभाजन का लाभ किस तरह अल्पसंख्यक आबादी के नुमाइंदों या पार्टियों को मिल सकता है? 

दरअसल कैराना मामले को प्रदेश और देशव्यापी स्तर पर होने वाले धु्रवीकरण की राजनीति से जोड़कर देखे जाने की ज़रूरत है। यदि एक बार धार्मिक पहचान के आधार पर पलायन का मिथक स्थापित करने में सांप्रदायिक ताकतों को सफलता मिल जाती है, तो ये ताकतें इस मिथक के बल पर पूरे देश में सांप्रदायिक वैमनस्व और दंगों का माहौल बनाने की हर संभव कोशिश करेंगे। ताकि अधिक से अधिक लोग हिन्दू और मुस्लिम पहचान को प्राथमिकता देते हुए वोट करें। इतिहास में दो दशक पीछे देखें तो संघ परिवार की यह मंशा और स्पष्ट हो जाती है। नब्बे के दशक में “जय श्री राम” का मिथक कुछ इसी तरह खड़ा किया गया। फिर देशभर में यात्रा, सभा और भाषणों के माध्यम से मिथकों को जनमानस की चेतना का हिस्सा बनाकर उन्हें आंदोलित किया गया। परिणाम स्वरूप शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका जैसे मूलभूत सवालों को मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे ने आच्छादित कर लिया। इस पूरे समय में सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक ताकतें फायदे में रहीं न कि आम जनता। वो जनता जो अलग-अलग धार्मिक, सामुदायिक, जातीय, लैंगिक और क्षेत्रीय पहचान रखने के बाद भी एक ही सड़क पर चलने, एक ही बाज़ार से अपनी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने और एक ही सामाजिक ताना-बाना में रहकर अन्तर्सामाजिक संबंधों का निर्वहन करने का आदी रही हो। एक समय ऐसा भी आया जब “जय श्री राम” का मिथक टूटा और सांप्रदायिक ताकतों की हार हुई। लेकिन यह भी सत्य है कि ये ताकतें हमारे देश के किसी न किसी हिस्से में हर दशक में कोई न कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा को अंजाम देने में सफल रही हैं। 1992, 2002 और 2013 के सांप्रदायिक दंगे इस बात की दलील हैं। ज़ाहिर है पलायन की सियासत के पीछे असल मकसद पलायन की स्थिति और कारणों का सही आंकलन कर पलायन करने वाले परिवारों तक राहत पहुंचाना नहीं बल्कि हिन्दू पलायन का मिथक खड़ा करके सांप्रदायिक उन्माद का माहौल बनाना है।

बहरहाल, संघ परिवार ने कैराना में पलायन का मिथक खड़ा करने के चक्कर में पलायन पर बहस व मुबाहसे की नई संभवनाएं पैदा की हैं। दर असल पलायन एक ऐसी प्रवृत्ति है जो जिसके पीछे गरीबी, रोजगार, आजीविका, सामंती/जातीय दमन आदि कारणों के अलावा सांप्रदायिक दंगा भी निहित होता है। लेकिन सांसद हुकुम सिंह का बार-बार अपने बयान का बदलना और अन्य जांच एजंसियों की रिपोर्ट के प्रकाश में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कैराना जैसे तमाम गांव-कस्बे जहां विकास के एजेण्डे को लागू करने में राजनेता और पर्टियां असफल रही हैं, वहां सांप्रदायिक उन्माद का माहौल बनाना चाहती हैं। ताकि जनता अपने-अपने धर्म और धार्मिक पहचान को बचाने की राजनीति में आमने-सामने खड़ी हो जाए और इस तरह धु्रवीकरण की सियासत खड़ी की जा सके, जिसे 2017 के चुनाव से पहले पूरा करने का सपना सांप्रदायिक ताकतों ने देखा है।