Thursday, June 26, 2014

खरा उतरने का समय

दुनिया भर में बनारस की अलग पहचान रही है। यहां की धार्मिक संस्कृति और साड़ियों की कारीगरी हमेशा से देश और दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं। लेकिन मंदिरों, गलियों और बुनकरों की इस नगरी को करीब से देखने और समझने करने का अवसर कम ही लोगों को नसीब होता है। कई बार ऐसा भी होता है कि करीब के लोग, यहां तक कि बनारस में ही रहते हुए बहुत से लोग सुबह-ए-बनारस और परंपरागत साड़ियों पर की जाने वाली बुनकरों की कारीगरी को देखने, समझने और महसूस करने से महरूम रह जाते हैं। ऐसे समय में यदि चुनावी नफ़ा-नुक़सान से अलग बनारस को नए प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र के तौर पर देखा जाए तो यहां के लोगों में बेहतरी की नयी उम्मीदें ज़रूर नज़र आती हैं।

नारस के लोग जिन समस्याओं से दो-चार रहे हैं, उनमें बिजली आपूर्ति सर्व प्रमुख है। खासकर जब मई-जून में पारा चढ़ता है और बिजली की आपूर्ति प्रभावित होती है, तो बिजली की समस्या हर जु़बान की कहानी बन जाती है। ऐसे में यदि शासन की ओर से 24 घंटे बिजली आपूर्ति के बाबत कोई पहल की जा रही है तो उम्मीद की नयी किरण का रौशन होना स्वाभाविक है। काबिले ज़िक्र है प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने कि 2 जून को बिजली के लिए रोते-बिलखते शहर बनारस में 24 घंटे बिजली की आपूर्ति का आदेश जारी किया। बेशक इसे मोदी इफेक्ट के रूप में देखा जाना चाहिए। क्योंकि बनारस अब प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र बन चुका है। फिर भी धन्नीपुर के निसार अंसारी को जैसे लागों को लगता है कि 24 घंटे बिजली की आपूर्ति जैसी कोई भी घोषणा तब तक बेमानी हैं, जब तक कि खंभों और तारों की स्थिति ठीक नहीं हो जाती है। दालमंडी में इलेक्ट्राॅनिक्स के दुकानदार फहीम भाई की बातों पर यक़ीन करें तो 24 घंटे अबाध बिजली की आपूर्ति कम से कम आज की तारीख में मुमकिन नहीं है। कारण बताते हुए फहीम भाई बताते हैं कि जर्जर हो चुके बिजली के तारों और ट्रांसफार्मर के सहारे इस काम को अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता। यदि ऐसी कोशिश होती भी है तो किसी तरह लोड उठा रहे ट्रांसफार्मर अपनी क्षमता से अधिक लोड नहीं झेल सकते। नतीजा यह होगा कि तारों के टूटने और ट्रांसफार्मर के जलने की घटनाएं बढ़ेंगी। बनारस जैसे तंग और घने शहर में इतनी बड़ी संख्या में ट्रांसफार्मर बदलना या मरम्मत करवाना बिजली विभाग के लिए मुश्किल काम होगा। ज़ाहिर है 24 घंटे बिजली की आपूर्ति तब तक मुमकिन नहीं, जब तक खंभों पर उलझन की तरह उलझे हुए तार बदले नहीं जाते।

ब बनारस की पहचान कबीर और ताना-बाना से कम, बल्कि गंगा और मोदी से अधिक होने लगी है। फहीम भाई इलेक्ट्राॅनिक्स की दुकान वाले, लक्ष्मन व मो॰ इस्माइल जैसे रिक्शा चालकों के अलावा इश्तियाक़ अंसारी जैसे कारीगरों को कभी कबीर के बारे में पढ़ने-सुनने का अवसर नहीं मिला, लेकिन हालिया चुनाव से पहले की मोदी वाली लहर और सुनामी को इन जैसों ने खूब महसूस किया। अब तो हवा का रूख भी इधर का ही हो चुका है। मोदी जी शपथ ग्रहण कर चुके हैं और गंगा मइया को दुरूस्त रखने, इसे पर्यटन और यातायात माध्यम के रूप में विकसित करने और इसके पानी से बिजली बनाने आदि के लिए मंत्रीस्तरीय कवायद भी शुरू हो चुकी है। ऐसे में अगर चुनाव के दौरान मोदी विरोधी रहे बहुत से बनारसियों का अकीदा चुनाव बाद मोदी मय होने लगा है, जो इसमें चैंकने की बात नहीं है। इश्तियाक अंसारी जैसे नौजवानों पर नए प्रधानमंत्री के कामकाज की शैली का असर ज़रूर देखा जा सकता है। उनके मुताबिक यदि बिजली की आपूर्ति 24 घंटे होने लगे तो यहां के बुनकर महिला-पुरूष और बच्चों को लगातार कई-कई रात जागकर साड़ियों का ताना-बाना ठीक करने में अपनी नींदे नहीं गंवानी पड़ेंगी। औसत काम दिन में ही पूरा हो जाया करेगा। यह बात क़ाबिले ज़िक्र है कि बनारस के बुनकरों को रातों में लगातार जागकर साड़ी का ताना-बाना ठीक करना होता है, ताकि उनकी ज़िन्दगी का ताना-बाना ठीक रहे। यही वजह है कि कठिन परिस्थितियों में ज़िन्दगी गुज़र-बसर करने वाले बुनकर अपनी स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी ज़रूरतों को नज़र अंदाज़ करके दूसरों के तन के लिए खूबसूरत लिबास तैयार करते हैं। ऐसी कठिन परिस्थिति में बिजली की अनियमित आपूर्ति से बुनकर परिवारों की स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ-साथ उनकी आजीविका का परंपरागत विकल्प भी बुरी तरह प्रभावित होता है।

बुनकर बस्तियों का हाल यह है कि जैसे ही बिजली आती है, ये बस्तियां गुलज़ार हो उठती हैं, जैसे ज़िन्दगी पटरी पर दौड़ने लगती है। दूसरी ओर बिजली कटते ही इन मुहल्लों में मातमी सन्नाटा छा जाता है। पेशे से अध्यापिका नासरीन बताती हैं कि तंग गलियों से प्रतिदिन होकर गुजरना, काॅलेज पहुंचना छात्र जीवन में हर दिन नयी चुनौती हुआ करती थी। जब चुनौतियों का सामना करने का हौसला किया तो ज़िन्दगी में नए रंगों और उमंगों के दिन आए। बेशक नासरीन की ज़िन्दगी में अच्छे दिनों की शुरूआत करीब दस बरस पहले हो चुकी थी। लेकिन जो नहीं बदला, वो तंग गलियों में प्रतिदिन कई मन कूड़ों के ढ़ेर की मौजूदगी। हालांकि सफाई कर्मियों को गाहे-बगाहे गलियों की नालियों को साफ करते देखा जा सकता है लेकिन नासरीन जैसी महिलाओं को यह नाकाफी लगता है। कहती हैं कि अगर गंगा मइया की सफाई और शुद्धिकरण के साथ-साथ प्रधानमंत्री जी की नज़र हमारी गलियों पर भी पड़ती तो बनारस की सुंदरता को चार चांद लग जाती। नासरीन को मालूम है कि गलियां स्थानीय निकायों का विषय है। इसीलिए वो इन निकायों में भी मोदी इफेक्ट देखना चाहती हैं। ताकि नदी और जल प्रबंधन की तरह गलियों के लिए कोई ठोस और प्रभावी गार्बेज मैनेजमेन्ट का उपाय ढ़ूंढ़ा जा सके।

हना नहीं होगा कि बुनकरों की ज़िन्दगी न सिर्फ काम के बोझ तले दबी हुई है बल्कि ध्वनि और वायु प्रदूषण ने इनके स्वास्थ्य को बुरी तरह नुकसान पहंुचाया है। बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से इनकी वंचना की कहानी किसी से छिपी नहीं है। समय पर उचित इलाज की सुविधा न मिल पाने की वजह से बहुत से बुनकरों को तो बेवक्त ही मौत का शिकार होना पड़ता है। दुःख की बात तो यह है कि दस्तकार फोटा पहचान पत्र और बुनकर स्वास्थ्य बीमा योजना जैसी सुविधा भी इनकी ज़िन्दगी में कोई खास बदलाव नहीं ला सके हैं।

नारस जितना बड़ा शहर है, यहां की गलियां उतनी ही तंग हैं। गर्मी और हवा के गरमा-गरम थपेड़ों को झेलते-झेलते शाम के सात बज चुके होते हैं। बीएचयू से कैण्ट के लिए आॅटो में सवार हुआ तो सारथी के रूप में ज्ञानचन्द्र सोनकर से मुलाक़ात हुई। दुर्गाकुण्ड पर उन्होंने जिस वृद्ध व्यक्ति को आॅटो से ड्राप किया, उससे किराए के पैसे नहीं लिए। पूछने पर ज्ञानचन्द्र ने बताया कि वो बूढ़े व्यक्तियों और पढ़ने वाले बच्चों से किराए के पैसे नहीं लेते। क्षण भर के लिए ऐसा लगा कि समाजशास्त्र और सोशल वर्क में बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेने के बाद भी जिन मानवीय गुणों और नागरिक जिम्मेदारियों का बोध नयी पीढ़ी के बच्चों को नहीं हो पा रहा है, वह बोध मूल्य के रूप में ज्ञानचन्द्र जैसे आॅटो चालकों के अन्दर कूट-कूट कर भरा है। बहरहाल, ज्ञानचन्द्र की थकी हुई आंखें उनकी अधूरी रातों की पूरी कहानी बयान कर रही होती हैं। उनके घर तक बिजली की पहुंच ज़रूर है, लेकिन बिजली उनके घर पहुंचती रात में एक बजे बाद है। दिन भर आॅटो चलाने के बाद जब घर पहुंचते हैं, तो ज्ञानचन्द्र को रात एक बजे तक बिजली का इंतेजार करना पड़ता है। लेकिन ज्ञानचन्द्र जैसे बनारस के आॅटो चालक इस बात से बेख़बर हैं कि बिजली का होना उनके स्वास्थ्य और आजीविका के लिए क्या मायने रखती है।

नारस में ऐसे आॅटो चालकों की संख्या कम नहीं जो ज्ञानचन्द्र सोनकर की तरह पिछले बीस बरसों या इससे भी अधिक समय से आॅटो चलाकर अपने परिवार की आजीविका चला रहे हैं। लेकिन अब तक उनके पास अपना एक अदद आॅटो नहीं हो पाया है। ज्ञानचन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने पर अच्छा महसूस कर रहे हैं। लेकिन इनके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि बीस साल के अथक परिश्रम के बाद भी इनके पास अपना खुद का आॅटो क्यों नहीं है? यह कहना बेमानी नहीं कि ज्ञानचन्द्र जैसे बनारस के आॅटो चालकों के पास जब तक अपना आॅटो नहीं हो जाता, लक्षमन और मु॰ इस्माइल जैसे रिक्शा चालकों को मुनासिब मेहनताना नहीं मिलने लगता, फहीम भाई जैसे इलेक्ट्राॅनिक्स के दुकानदारों और बुनकर बस्तियों तक नियमित रूप से बिजली नहीं पहुंचने लगती, तब तक इनके जीवन में अच्छे दिनों की शुरूआत हो ही नहीं सकती है।

बेशक गलियों की तंगी को दूर करना नामुमकिन है। लेकिन गंगा सफाई और घाटों की मरम्मत के सापेक्ष बनारस की गलियों के लिए विशेष सफाई प्रबंधन की योजना तो बनायी ही जा सकती है। मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद बनारस में कामकाज की गति देखकर यहां के लागों में नयी अपेक्षाएं जन्मी हैं। अवाम के जमात में वो भी शामिल हैं जो पहले से “अबकी बार/मोदी सरकार” की रट लगा रहे थे और वो लोग भी हैं जो शपथ ग्रहण के बाद मोदी इफेक्ट से अछूते नहीं रहे हैं। जिन्हें मालूम है कि मोदी संघ के समर्पित सिपाही हैं और राजनाथ सिंह के शब्दों में नयी सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेण्डे के इर्द-गिर्द काम करेगी। ऐसे लागों में वरूणा नदी के दोनों तरफ विकास की एक समान तस्वीर देखने की अपेक्षा, बजरडीहा की गलियों की दुर्दशा ठीक करने की अपेक्षा, लोहता और धन्नीपुर जैसी ग्रामीण बस्तियों के ऊपर हाई टेंशन तारों के ख़तरों से जनता को महफूज़ रखने की अपेक्षा जगी है। बावजूद इसके कि इन लोगों को यह भी पता है कि मोदी के दामन पर 2002 के गुजरात नरसंहारों के खूनी दाग़ हैं। बावजूद इसके इनका अक़ीदा है कि न्याय, अन्याय से और पुरस्कार, दण्ड से बेहतर होता है। जाम और भीड़ से जूझते शहर बनारस के लोगों की उम्मीदों पर मोदी को खरा उतरने का यह अच्छा समय है।

जनसत्ता, 22 जून, 2014
http://epaper.jansatta.com/292406/Jansatta.com/Jansatta-Hindi-22062014#page/15/1

किशोरावस्था की चुनौतियां और हम

बाल्यावस्था से किशोरावस्था की ओर बढ़ते बच्चों के समक्ष न सिर्फ संख्यात्मक और परिमाणात्मक शैक्षिक चुनौतियां होती हैं बल्कि उन्हें शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक बदलावों के दौर से गुज़रना होता है। अभिभावक या अध्यापक/अध्यापिका की भूमिका में हम कई बार तानाशाह की भूमिका निभाने लगते हैं। कुछ ऐसा करने की कोशिशें आम होती हैं कि कहीं बच्चा बिगड़ न जाए, गलत रास्ते पर न चला जाए आदि-आदि। इसलिए सुबह नींद खुलते ही हम अपने शब्दों का चाबुक बाल मनोविज्ञान की पीठ पर चलाने लगते हैं। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है, जब तक कि बच्चा थक हार कर सो न जाए।

अगर देखा जाए तो कई मामलों में हमारा समाज बदला है, मूल्य और परंपराओं में बदलाव परिलक्षित हुए हैं। नयी शिक्षा नीति अपनाते-अपनाते हमने स्कूल के पाठ्यक्रम से लेकर स्कूल भूवन, ड्रेस और फीस आदि को नए प्रकार के शैक्षिक बदलाव का मानक बनाया है। यह भी हुआ है कि शारीरिक दण्ड को लेकर हमारा समाज मानसिक स्तर पर बदलाव के दौर से गुजरा है। बेटियों को पढ़ाना पहले सपना हुआ करता था, लेकिन अब ज़माने को बदलता हुआ देखा जा सकता है। अब हमारी बेटियां जिन पगडंडियों पर पैदल भी नहीं चल पाती थी, अब उन्हीं पगडंडियों पर साइकिल की घंटियां ट्रिनट्रिनाते अल सुबह मीलों दूर स्कूल-काॅलेज और ट्यूशन पढ़ने जाती हैं। इतना सारा बदलाव हुआ, लेकिन न जाने ऐसा क्या है कि हमारा समाज और इसका मिजाज़ किशोरावस्था के बच्चों के स्वाभाविक विकास को बार-बार नियंत्रित और संचालित करना चाहता है?

यह बात काबिले गौर है कि किशोर होते बच्चे अपने समय की छोटी-बड़ी पीढ़ियों में कई मायनों में अधिक मुश्किल दौर में होते हैं। फिर स्कूल हो या घर हर जगह वो निगाहों की धूरी हुआ करते हैं। दर असल इस अवस्था में इन्हें जिन संवेगों से होकर गुजरना पड़ता है उसमें बड़ी ऊर्जा होती है। आयु संबंधी हारमोनल सेक्रेशन बार-बार खुली फिज़ा की खुली हवा में घुलमिल जाने की कोशिश करती है। इस वजह से कई बार हमारे बच्चे वो सब कर गुजरते हैं, जिसकी उम्मीद हमें नहीं होती। हमें आश्चर्य इसलिए भी होता है, क्योंकि हम उनके साथ संरक्षक दोस्त के बजाए सांस्कृतिक पुुलिसिया का सा बरताव करते हैं। स्कूल के संदर्भ में कक्षा पांच के बाद यानि 10-12 वर्ष की आयु से बच्चों में किशोरावस्था के लक्षण उभरने लगते हैं तथा जिसके 19वें बरस तक जारी रहने की संभावना होती है। यह वह अवस्था होती है जब बच्चों में शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बदलाव बिजली की गति से होते हैं। इन बदलावों को विकास की संज्ञा देना उचित प्रतीत होता है। विकास के इस दौर से लड़के और लड़कियों दोनों को ही गुजरना होता है। यह जीवन का वह हिस्सा होता है जब बच्चों में किसी भी कार्य या बात के लिए आत्मविश्वास की भावना निरन्तर बढ़ती जाती है। लेकिन ध्यान रखना होता है कि बच्चों का आत्मविश्वास नितान्त ही असंगठित और बिखरा हुआ होता है। नए-नए प्रयोग करना यानि अपने मन की जिज्ञासाओं और आस-पास के वातावरण की घटनाओं को रहस्य मानकर उनसे परदा हटाने की कोशिशें उसके व्यक्तित्व विकास का स्वाभाविक हिस्सा होती हैं। लेकिन उसके मानसिक संवेगों में अस्थिरता उसका बराबर पीछा करती रहती है। ऐसे बच्चे घर और गांव-मुहल्ले से लेकर स्कूल-काॅलेज तक हर जगह अपनी श्रेष्ठता के झण्डे बुलन्द करना चाहते हैं। इस उम्र में बच्चों में सुनने के बजाय कहने की प्रवृत्ति अधिक होती है। देखने और समझने के बजाए दिखाने और समझाने की प्रवृत्ति होती है। कई बार यह प्रवृत्ति उन्हें स्थान और समय की सीमा से बाहर ले जाती है। इन्हें बोध नहीं होता कि किसी बात को किसी से कहने या साझा करने का उचित समय कब है और कब नहीं है। इसी तरह किशोरावस्था में बच्चों को समय का भी ध्यान नहीं रहता है। वो किस भी समय अपने इच्छित बात को मनवाने या काम को पूरा करवाने की ज़िद कर बैठते हैं। हालांकि अक्सर माता-पिता या अभिभावक ऐसी परिस्थितियों में डांटना और पिटाई एक मात्र समाधान मानते हैं। लेकिन ऐसे माता-पिता या अभिभावक को यह समझना होगा कि उपर्युक्त उल्लिखित बदलावों के साथ इन्हें खु़द को भी बदलने की आवश्यकता है।

हम अपने बच्चों में बदलाव तो चाहते हैं, खासकर तब जबकि हर बच्चे का मन और शरीर दोनों ही बदलाव के संक्रमण काल में होता है। एक सामान्य बच्चे के समक्ष जो चुनौतियां होती हैं, उन्हें अभिभावक समझने से कोशिश नहीं करते हैं। दर असल हम अच्छे मूल्यों की स्थापना और विकास से जुड़ी हुई अपनी हार्दिक इच्छा/सपना बच्चों के मन-मस्तिष्क पर थोपते रहते हैं। इस थोपने में बच्चों के अंदर लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास की संभावनाएं समाप्त होने लगती हैं और दूसरी तरफ बच्चे संशय का शिकार हाने लगते है। वो भावनात्मक संवेगों की ऐसी सवारी गाड़ी पर सवार होते हैं, जहां नए-नए प्रयोग, कठिन परिस्थितियों में दुष्कर कार्यों को करने की चुनौती, छोटी-छोटी बात पर वाद-विवाद और सबसे महत्वपूर्ण लैंगिक आकर्षण का होना सामान्य बात होती है। लेकिन इन सबमें जो मूल्य होते हैं, उन मूल्यों में न तो स्थायित्व होता है और न ही अनुभव की भट्टी में पका हुआ सौन्दर्यबोध।

कोई भी बच्चा अपने माता-पिता का प्रिय बच्चा होता है। उसमें कुछ खूबियां जन्मजात ज़रूर होती हैं लेकिन ज़्यादातर का विकास हमारे परिवेश में होता है। किसी भी बच्चे का परिवेश मुख्य रूप से घर, स्कूल और समाज से बनता है। इसलिए इन तीन स्थानों पर जो भी सामाजिक ईकाइयां आस्तित्व में होती हैं, उनका उचित ढ़ंग से कार्य करना बच्चों के हित में होता है। ऐसा ज़रूरी भी है, क्योंकि किशोरावस्था में बच्चों के मन को समझना और फिर उसके मनोबल व उत्साह को बढ़ना न सिर्फ उसके कैरियर के लिए अच्छा होता है बल्कि समाज निर्माण व देश के विकास के लिए भी ज़रूरी है।

इन्क़िलाबी नज़र
शनिवार, 14 जून, 2014

Wednesday, June 25, 2014

अच्छे दिनों की शुरूआत और चुनौतियां

मोदी बतौर प्रधानमंत्री भारतीय अवाम के एजेण्डा पर किस सहजता से काम कर पाते हैं? खासकर सामाजिक न्याय और धर्म निरपेक्षता के संवैधानिक संकल्पों को आगे बढ़ाने में उनकी पहलकदमी क्या होगी? इस सवाल पर इसलिए भी गौर करने की ज़रूरत है, क्योंकि मोदी का संबंध राजनीति के जिस घराने से है, उस घर में समाज के विभिन्न वर्गों एवं समुदायों से लेकर स्त्रियों तक के लिए मनुवादी विचारों से प्रेरित आचार संहिता लागू करने में विश्वास रहा है।


रेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और कैबिनेट के गठन के बाद हर तरफ अच्छे दिन आने की बातें आम हैं। वाकई “अबकी बार/मोदी सरकार” और “अच्छे दिन आने वाले हैं” की मुहिम सफल हुई है। अबकी बार यह भी हुआ है कि पिछले कई संसदीय चुनावों के बाद ऐसा जनादेश आया है जिसमें एक गठबंधन को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ है। दूसरी तरफ कांग्रेस को भाजपा के 285 के मुकाबिले महज 48 सीट पर ही संतोष करना पड़ा है। यदि बंगाल और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों को छोड़ दें तो क्षेत्रीय दलों विशेषकर वो जिनका यू.पी., बिहार और झारखण्ड की राजनीति में पिछले दो दशकों से खास असर रहा है, को भी हाशिए पर पहुंचना पड़ा है। देखना यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से मोदी ने सक्रिय रहकर पूरे माहौल को अपने पक्ष में किया और जिस तरह मोदी लहर और सुनामी के रूप में उभरे या उभारे गए हैं, वह मोदी बतौर प्रधानमंत्री भारतीय अवाम के एजेण्डा पर किस सहजता से काम कर पाते हैं? खासकर सामाजिक न्याय और धर्म निरपेक्षता के संवैधानिक संकल्पों को आगे बढ़ाने में उनकी पहलकदमी क्या होगी? इस सवाल पर इसलिए भी गौर करने की ज़रूरत है, क्योंकि मोदी का संबंध राजनीति के जिस घराने से है, उस घर में समाज के विभिन्न वर्गों एवं समुदायों से लेकर स्त्रियों तक के लिए मनुवादी विचारों से प्रेरित आचार संहिता लागू करने में विश्वास रहा है।
गौर तलब है कि मतगणना वाले दिन एनडीए को पूर्ण बहुमत की तरफ बढ़ते देख राजनाथ सिंह ने प्रेस वार्ता के दौरान कहा कि इस बार के चुनाव में जाति और धर्म के बंधन टूट गए हैं। उन्होंनेे “जस्टिस फाॅर आॅल और अपीजमेन्ट फाॅर नाॅन” की बात की। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी पार्टी “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” के एजेण्डे पर खड़ी हुई थी और सरकार बनने के बाद इसी के इर्द-गिर्द काम करेगी। बीजेपी के पार्टी अध्यक्ष द्वारा संघ परिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रतिबद्धता को दोहराना स्वाभाविक है। लेकिन यह विचार का विषय है कि एक समय में दो अलग-अलग मत या बातें एक साथ कैसे आगे बढ़ सकती हैं? गृहमंत्री का कार्यभार संभाल चुके राजनाथ सिंह का चुनाव नतीजों के दिन वाला बयान कुछ ऐसा है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और जस्टिस फाॅर आॅल दोनों बातें एक साथ इसलिए भी मुमकिन नहीं है क्योंकि जब हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो समान नागरिक संहिता जैसा संवेदनशील मुद्दा स्वतः सामने आ जाता है। अगर देश और संविधान की बात करें तो भारत जैसे देश की सामाजिक, सामुदायिक और सांस्कृतिक विविधता को समाप्त करके समान नागरिक संहिता को थोपना न्यायोचित नहीं। यानि अन्यायपरक ढ़ंग से ही ऐसी किसी संहिता को लागू किया जा सकना मुमकिन है। ऐसे में पार्टी अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह की बातें कम से कम उन लोगों को गुमराह करने वाली हैं जिनका संबंध समाज के पिछड़े और वंचित तबके से रहा है, खासकर वो समुदाय जो ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से मुख्य धारा के विकास से दूर रहे हैं और जिन्हें सामाजिक न्याय की सबसे अधिक ज़रूरत रही है। समान नागरिक संहिता का मामला ऐसा है कि यदि किसी व्यक्ति को पैन्ट-शर्ट पसन्द है तो उसे कुर्ता-पाजामा पहनने के लिए मजबूर होना पड़े। ज़ाहिर है ऐसी कोई भी नीति देश की सामाजिक व सामुदायिक विविधता को अक्षुण्य बनाए रखने में बाधक होगी। वैसे भी नयी सरकार के लिए समान नागरिक संहिता जैसा कोई कदम उठाना आसान काम नहीं होगा। 

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद दरअसल संघ परिवार का एजेण्डा रहा है। 90 के दशक में जब बीजेपी का पहली बार देश व्यापी स्तर पर उभार हुआ था, उस वक्त भी यह एजेण्डा उनके साथ था। यह एजेण्डा बीजेपी ने उस समय भी अपने साथ रखा जब श्री अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बने। लेकिन इस एजेण्डा पर अमल कर पाना बाजपेयी जी की सरकार के लिए भी नामुमकिन ही रहा। अब जब बीजेपी खुद 282 सीटों के साथ बहुमत के लिए ज़रूरी 272 का लक्ष्य हासिल कर चुकी है तो भी संसद के दूसरे सदन यानि राज्य सभा और विभिन्न राज्यों में प्रतिनिधित्व को देखकर ऐसा नहीं लगता कि बीजेपी संघ परिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिन्दुत्वादी एजेण्डे को मूर्त रूप दे पाने में सफल हो पाएगी। बेशक संविधान के नीति निदेशक तत्व वाले अध्याय में समान नागरिक संहिता की बात कही गयी है। लेकिन यह भी कहा गया है कि राज्य अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा भी करेगा। फिर सरकार बदलते ही भारत-पाक, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर माहौल में गरमी पैदा करने का मकसद क्या है? दर असल इस ऐजेण्डा के दो मायने हैं। एक यह कि इसे हिन्दू समुदाय के समक्ष ऐसी रूमानी रात की तरह पेश किया जाता रहा है जिसकी कोई सुबह ही नहीं है। दूसरी तरफ इस ऐजेण्डा के सहारे विभिन्न समुदायों के अंदर डर और खौफ की भावना भरते रहना एक लम्बी रणनीति का हिस्सा रहा है। ताकि यह भावना धीरे-धीरे हर किसी को यह कहने के लिए मानसिक तौर पर तैयार कर ले कि हां रेगिस्तान में वो जो दूर दिख रहा है वह पानी है। फिर यह समझना मुश्किल नहीं है कि ऐसे ही भ्रम का नाम ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। जो सिर्फ एक के लिए नहीं बल्कि दोनों समुदायों के सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक विकास को प्रभावित कर रहा है। यहां तक कि अवाम का एजेण्डा कहीं पीछे छूटता नज़र आ रहा है।

ज़ाहिर है उक्त परिस्थितियों में न्याय कर पाने के संवैधातिक रास्ते तो आगे भी खुले रहेंगे। लेकिन सास्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेण्डा को आगे बढ़ाने का मतलब संविधान की भावना को ठेस पहुंचाने जैसा होगा। ऐसे में दूसरी तरफ अगर मोदी जी इस मोर्चे पर काम न कर पाएं तो यह संघ को असंतुष्ट करने जैसा होगा। ठीक उसी तरह जैसे बाजपेयी जी के साथ हुआ था। फिर भी कहना होगा कि समय ने मोदी जी के हाथ में एक बड़ा अवसर सौंपा है। यदि वो चाहें तो न्याय की दिशा में पहलकदमी करते हुए न सिर्फ आम जनता तक अपनी पहुंच मजबूत बना सकते हैं बल्कि ऐसा करने से अवाम के एजेण्डा से ध्यान भटकाने के इल्ज़ाम से भी बरी रहेंगे।

इन्क़िलाबी नज़र
वृहस्पतिवार, 5 जून, 2014