Wednesday, June 25, 2014

अच्छे दिनों की शुरूआत और चुनौतियां

मोदी बतौर प्रधानमंत्री भारतीय अवाम के एजेण्डा पर किस सहजता से काम कर पाते हैं? खासकर सामाजिक न्याय और धर्म निरपेक्षता के संवैधानिक संकल्पों को आगे बढ़ाने में उनकी पहलकदमी क्या होगी? इस सवाल पर इसलिए भी गौर करने की ज़रूरत है, क्योंकि मोदी का संबंध राजनीति के जिस घराने से है, उस घर में समाज के विभिन्न वर्गों एवं समुदायों से लेकर स्त्रियों तक के लिए मनुवादी विचारों से प्रेरित आचार संहिता लागू करने में विश्वास रहा है।


रेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और कैबिनेट के गठन के बाद हर तरफ अच्छे दिन आने की बातें आम हैं। वाकई “अबकी बार/मोदी सरकार” और “अच्छे दिन आने वाले हैं” की मुहिम सफल हुई है। अबकी बार यह भी हुआ है कि पिछले कई संसदीय चुनावों के बाद ऐसा जनादेश आया है जिसमें एक गठबंधन को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ है। दूसरी तरफ कांग्रेस को भाजपा के 285 के मुकाबिले महज 48 सीट पर ही संतोष करना पड़ा है। यदि बंगाल और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों को छोड़ दें तो क्षेत्रीय दलों विशेषकर वो जिनका यू.पी., बिहार और झारखण्ड की राजनीति में पिछले दो दशकों से खास असर रहा है, को भी हाशिए पर पहुंचना पड़ा है। देखना यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से मोदी ने सक्रिय रहकर पूरे माहौल को अपने पक्ष में किया और जिस तरह मोदी लहर और सुनामी के रूप में उभरे या उभारे गए हैं, वह मोदी बतौर प्रधानमंत्री भारतीय अवाम के एजेण्डा पर किस सहजता से काम कर पाते हैं? खासकर सामाजिक न्याय और धर्म निरपेक्षता के संवैधानिक संकल्पों को आगे बढ़ाने में उनकी पहलकदमी क्या होगी? इस सवाल पर इसलिए भी गौर करने की ज़रूरत है, क्योंकि मोदी का संबंध राजनीति के जिस घराने से है, उस घर में समाज के विभिन्न वर्गों एवं समुदायों से लेकर स्त्रियों तक के लिए मनुवादी विचारों से प्रेरित आचार संहिता लागू करने में विश्वास रहा है।
गौर तलब है कि मतगणना वाले दिन एनडीए को पूर्ण बहुमत की तरफ बढ़ते देख राजनाथ सिंह ने प्रेस वार्ता के दौरान कहा कि इस बार के चुनाव में जाति और धर्म के बंधन टूट गए हैं। उन्होंनेे “जस्टिस फाॅर आॅल और अपीजमेन्ट फाॅर नाॅन” की बात की। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी पार्टी “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” के एजेण्डे पर खड़ी हुई थी और सरकार बनने के बाद इसी के इर्द-गिर्द काम करेगी। बीजेपी के पार्टी अध्यक्ष द्वारा संघ परिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रतिबद्धता को दोहराना स्वाभाविक है। लेकिन यह विचार का विषय है कि एक समय में दो अलग-अलग मत या बातें एक साथ कैसे आगे बढ़ सकती हैं? गृहमंत्री का कार्यभार संभाल चुके राजनाथ सिंह का चुनाव नतीजों के दिन वाला बयान कुछ ऐसा है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और जस्टिस फाॅर आॅल दोनों बातें एक साथ इसलिए भी मुमकिन नहीं है क्योंकि जब हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो समान नागरिक संहिता जैसा संवेदनशील मुद्दा स्वतः सामने आ जाता है। अगर देश और संविधान की बात करें तो भारत जैसे देश की सामाजिक, सामुदायिक और सांस्कृतिक विविधता को समाप्त करके समान नागरिक संहिता को थोपना न्यायोचित नहीं। यानि अन्यायपरक ढ़ंग से ही ऐसी किसी संहिता को लागू किया जा सकना मुमकिन है। ऐसे में पार्टी अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह की बातें कम से कम उन लोगों को गुमराह करने वाली हैं जिनका संबंध समाज के पिछड़े और वंचित तबके से रहा है, खासकर वो समुदाय जो ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से मुख्य धारा के विकास से दूर रहे हैं और जिन्हें सामाजिक न्याय की सबसे अधिक ज़रूरत रही है। समान नागरिक संहिता का मामला ऐसा है कि यदि किसी व्यक्ति को पैन्ट-शर्ट पसन्द है तो उसे कुर्ता-पाजामा पहनने के लिए मजबूर होना पड़े। ज़ाहिर है ऐसी कोई भी नीति देश की सामाजिक व सामुदायिक विविधता को अक्षुण्य बनाए रखने में बाधक होगी। वैसे भी नयी सरकार के लिए समान नागरिक संहिता जैसा कोई कदम उठाना आसान काम नहीं होगा। 

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद दरअसल संघ परिवार का एजेण्डा रहा है। 90 के दशक में जब बीजेपी का पहली बार देश व्यापी स्तर पर उभार हुआ था, उस वक्त भी यह एजेण्डा उनके साथ था। यह एजेण्डा बीजेपी ने उस समय भी अपने साथ रखा जब श्री अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बने। लेकिन इस एजेण्डा पर अमल कर पाना बाजपेयी जी की सरकार के लिए भी नामुमकिन ही रहा। अब जब बीजेपी खुद 282 सीटों के साथ बहुमत के लिए ज़रूरी 272 का लक्ष्य हासिल कर चुकी है तो भी संसद के दूसरे सदन यानि राज्य सभा और विभिन्न राज्यों में प्रतिनिधित्व को देखकर ऐसा नहीं लगता कि बीजेपी संघ परिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिन्दुत्वादी एजेण्डे को मूर्त रूप दे पाने में सफल हो पाएगी। बेशक संविधान के नीति निदेशक तत्व वाले अध्याय में समान नागरिक संहिता की बात कही गयी है। लेकिन यह भी कहा गया है कि राज्य अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा भी करेगा। फिर सरकार बदलते ही भारत-पाक, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर माहौल में गरमी पैदा करने का मकसद क्या है? दर असल इस ऐजेण्डा के दो मायने हैं। एक यह कि इसे हिन्दू समुदाय के समक्ष ऐसी रूमानी रात की तरह पेश किया जाता रहा है जिसकी कोई सुबह ही नहीं है। दूसरी तरफ इस ऐजेण्डा के सहारे विभिन्न समुदायों के अंदर डर और खौफ की भावना भरते रहना एक लम्बी रणनीति का हिस्सा रहा है। ताकि यह भावना धीरे-धीरे हर किसी को यह कहने के लिए मानसिक तौर पर तैयार कर ले कि हां रेगिस्तान में वो जो दूर दिख रहा है वह पानी है। फिर यह समझना मुश्किल नहीं है कि ऐसे ही भ्रम का नाम ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। जो सिर्फ एक के लिए नहीं बल्कि दोनों समुदायों के सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक विकास को प्रभावित कर रहा है। यहां तक कि अवाम का एजेण्डा कहीं पीछे छूटता नज़र आ रहा है।

ज़ाहिर है उक्त परिस्थितियों में न्याय कर पाने के संवैधातिक रास्ते तो आगे भी खुले रहेंगे। लेकिन सास्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेण्डा को आगे बढ़ाने का मतलब संविधान की भावना को ठेस पहुंचाने जैसा होगा। ऐसे में दूसरी तरफ अगर मोदी जी इस मोर्चे पर काम न कर पाएं तो यह संघ को असंतुष्ट करने जैसा होगा। ठीक उसी तरह जैसे बाजपेयी जी के साथ हुआ था। फिर भी कहना होगा कि समय ने मोदी जी के हाथ में एक बड़ा अवसर सौंपा है। यदि वो चाहें तो न्याय की दिशा में पहलकदमी करते हुए न सिर्फ आम जनता तक अपनी पहुंच मजबूत बना सकते हैं बल्कि ऐसा करने से अवाम के एजेण्डा से ध्यान भटकाने के इल्ज़ाम से भी बरी रहेंगे।

इन्क़िलाबी नज़र
वृहस्पतिवार, 5 जून, 2014

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