Thursday, June 26, 2014

खरा उतरने का समय

दुनिया भर में बनारस की अलग पहचान रही है। यहां की धार्मिक संस्कृति और साड़ियों की कारीगरी हमेशा से देश और दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं। लेकिन मंदिरों, गलियों और बुनकरों की इस नगरी को करीब से देखने और समझने करने का अवसर कम ही लोगों को नसीब होता है। कई बार ऐसा भी होता है कि करीब के लोग, यहां तक कि बनारस में ही रहते हुए बहुत से लोग सुबह-ए-बनारस और परंपरागत साड़ियों पर की जाने वाली बुनकरों की कारीगरी को देखने, समझने और महसूस करने से महरूम रह जाते हैं। ऐसे समय में यदि चुनावी नफ़ा-नुक़सान से अलग बनारस को नए प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र के तौर पर देखा जाए तो यहां के लोगों में बेहतरी की नयी उम्मीदें ज़रूर नज़र आती हैं।

नारस के लोग जिन समस्याओं से दो-चार रहे हैं, उनमें बिजली आपूर्ति सर्व प्रमुख है। खासकर जब मई-जून में पारा चढ़ता है और बिजली की आपूर्ति प्रभावित होती है, तो बिजली की समस्या हर जु़बान की कहानी बन जाती है। ऐसे में यदि शासन की ओर से 24 घंटे बिजली आपूर्ति के बाबत कोई पहल की जा रही है तो उम्मीद की नयी किरण का रौशन होना स्वाभाविक है। काबिले ज़िक्र है प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने कि 2 जून को बिजली के लिए रोते-बिलखते शहर बनारस में 24 घंटे बिजली की आपूर्ति का आदेश जारी किया। बेशक इसे मोदी इफेक्ट के रूप में देखा जाना चाहिए। क्योंकि बनारस अब प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र बन चुका है। फिर भी धन्नीपुर के निसार अंसारी को जैसे लागों को लगता है कि 24 घंटे बिजली की आपूर्ति जैसी कोई भी घोषणा तब तक बेमानी हैं, जब तक कि खंभों और तारों की स्थिति ठीक नहीं हो जाती है। दालमंडी में इलेक्ट्राॅनिक्स के दुकानदार फहीम भाई की बातों पर यक़ीन करें तो 24 घंटे अबाध बिजली की आपूर्ति कम से कम आज की तारीख में मुमकिन नहीं है। कारण बताते हुए फहीम भाई बताते हैं कि जर्जर हो चुके बिजली के तारों और ट्रांसफार्मर के सहारे इस काम को अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता। यदि ऐसी कोशिश होती भी है तो किसी तरह लोड उठा रहे ट्रांसफार्मर अपनी क्षमता से अधिक लोड नहीं झेल सकते। नतीजा यह होगा कि तारों के टूटने और ट्रांसफार्मर के जलने की घटनाएं बढ़ेंगी। बनारस जैसे तंग और घने शहर में इतनी बड़ी संख्या में ट्रांसफार्मर बदलना या मरम्मत करवाना बिजली विभाग के लिए मुश्किल काम होगा। ज़ाहिर है 24 घंटे बिजली की आपूर्ति तब तक मुमकिन नहीं, जब तक खंभों पर उलझन की तरह उलझे हुए तार बदले नहीं जाते।

ब बनारस की पहचान कबीर और ताना-बाना से कम, बल्कि गंगा और मोदी से अधिक होने लगी है। फहीम भाई इलेक्ट्राॅनिक्स की दुकान वाले, लक्ष्मन व मो॰ इस्माइल जैसे रिक्शा चालकों के अलावा इश्तियाक़ अंसारी जैसे कारीगरों को कभी कबीर के बारे में पढ़ने-सुनने का अवसर नहीं मिला, लेकिन हालिया चुनाव से पहले की मोदी वाली लहर और सुनामी को इन जैसों ने खूब महसूस किया। अब तो हवा का रूख भी इधर का ही हो चुका है। मोदी जी शपथ ग्रहण कर चुके हैं और गंगा मइया को दुरूस्त रखने, इसे पर्यटन और यातायात माध्यम के रूप में विकसित करने और इसके पानी से बिजली बनाने आदि के लिए मंत्रीस्तरीय कवायद भी शुरू हो चुकी है। ऐसे में अगर चुनाव के दौरान मोदी विरोधी रहे बहुत से बनारसियों का अकीदा चुनाव बाद मोदी मय होने लगा है, जो इसमें चैंकने की बात नहीं है। इश्तियाक अंसारी जैसे नौजवानों पर नए प्रधानमंत्री के कामकाज की शैली का असर ज़रूर देखा जा सकता है। उनके मुताबिक यदि बिजली की आपूर्ति 24 घंटे होने लगे तो यहां के बुनकर महिला-पुरूष और बच्चों को लगातार कई-कई रात जागकर साड़ियों का ताना-बाना ठीक करने में अपनी नींदे नहीं गंवानी पड़ेंगी। औसत काम दिन में ही पूरा हो जाया करेगा। यह बात क़ाबिले ज़िक्र है कि बनारस के बुनकरों को रातों में लगातार जागकर साड़ी का ताना-बाना ठीक करना होता है, ताकि उनकी ज़िन्दगी का ताना-बाना ठीक रहे। यही वजह है कि कठिन परिस्थितियों में ज़िन्दगी गुज़र-बसर करने वाले बुनकर अपनी स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी ज़रूरतों को नज़र अंदाज़ करके दूसरों के तन के लिए खूबसूरत लिबास तैयार करते हैं। ऐसी कठिन परिस्थिति में बिजली की अनियमित आपूर्ति से बुनकर परिवारों की स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ-साथ उनकी आजीविका का परंपरागत विकल्प भी बुरी तरह प्रभावित होता है।

बुनकर बस्तियों का हाल यह है कि जैसे ही बिजली आती है, ये बस्तियां गुलज़ार हो उठती हैं, जैसे ज़िन्दगी पटरी पर दौड़ने लगती है। दूसरी ओर बिजली कटते ही इन मुहल्लों में मातमी सन्नाटा छा जाता है। पेशे से अध्यापिका नासरीन बताती हैं कि तंग गलियों से प्रतिदिन होकर गुजरना, काॅलेज पहुंचना छात्र जीवन में हर दिन नयी चुनौती हुआ करती थी। जब चुनौतियों का सामना करने का हौसला किया तो ज़िन्दगी में नए रंगों और उमंगों के दिन आए। बेशक नासरीन की ज़िन्दगी में अच्छे दिनों की शुरूआत करीब दस बरस पहले हो चुकी थी। लेकिन जो नहीं बदला, वो तंग गलियों में प्रतिदिन कई मन कूड़ों के ढ़ेर की मौजूदगी। हालांकि सफाई कर्मियों को गाहे-बगाहे गलियों की नालियों को साफ करते देखा जा सकता है लेकिन नासरीन जैसी महिलाओं को यह नाकाफी लगता है। कहती हैं कि अगर गंगा मइया की सफाई और शुद्धिकरण के साथ-साथ प्रधानमंत्री जी की नज़र हमारी गलियों पर भी पड़ती तो बनारस की सुंदरता को चार चांद लग जाती। नासरीन को मालूम है कि गलियां स्थानीय निकायों का विषय है। इसीलिए वो इन निकायों में भी मोदी इफेक्ट देखना चाहती हैं। ताकि नदी और जल प्रबंधन की तरह गलियों के लिए कोई ठोस और प्रभावी गार्बेज मैनेजमेन्ट का उपाय ढ़ूंढ़ा जा सके।

हना नहीं होगा कि बुनकरों की ज़िन्दगी न सिर्फ काम के बोझ तले दबी हुई है बल्कि ध्वनि और वायु प्रदूषण ने इनके स्वास्थ्य को बुरी तरह नुकसान पहंुचाया है। बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से इनकी वंचना की कहानी किसी से छिपी नहीं है। समय पर उचित इलाज की सुविधा न मिल पाने की वजह से बहुत से बुनकरों को तो बेवक्त ही मौत का शिकार होना पड़ता है। दुःख की बात तो यह है कि दस्तकार फोटा पहचान पत्र और बुनकर स्वास्थ्य बीमा योजना जैसी सुविधा भी इनकी ज़िन्दगी में कोई खास बदलाव नहीं ला सके हैं।

नारस जितना बड़ा शहर है, यहां की गलियां उतनी ही तंग हैं। गर्मी और हवा के गरमा-गरम थपेड़ों को झेलते-झेलते शाम के सात बज चुके होते हैं। बीएचयू से कैण्ट के लिए आॅटो में सवार हुआ तो सारथी के रूप में ज्ञानचन्द्र सोनकर से मुलाक़ात हुई। दुर्गाकुण्ड पर उन्होंने जिस वृद्ध व्यक्ति को आॅटो से ड्राप किया, उससे किराए के पैसे नहीं लिए। पूछने पर ज्ञानचन्द्र ने बताया कि वो बूढ़े व्यक्तियों और पढ़ने वाले बच्चों से किराए के पैसे नहीं लेते। क्षण भर के लिए ऐसा लगा कि समाजशास्त्र और सोशल वर्क में बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेने के बाद भी जिन मानवीय गुणों और नागरिक जिम्मेदारियों का बोध नयी पीढ़ी के बच्चों को नहीं हो पा रहा है, वह बोध मूल्य के रूप में ज्ञानचन्द्र जैसे आॅटो चालकों के अन्दर कूट-कूट कर भरा है। बहरहाल, ज्ञानचन्द्र की थकी हुई आंखें उनकी अधूरी रातों की पूरी कहानी बयान कर रही होती हैं। उनके घर तक बिजली की पहुंच ज़रूर है, लेकिन बिजली उनके घर पहुंचती रात में एक बजे बाद है। दिन भर आॅटो चलाने के बाद जब घर पहुंचते हैं, तो ज्ञानचन्द्र को रात एक बजे तक बिजली का इंतेजार करना पड़ता है। लेकिन ज्ञानचन्द्र जैसे बनारस के आॅटो चालक इस बात से बेख़बर हैं कि बिजली का होना उनके स्वास्थ्य और आजीविका के लिए क्या मायने रखती है।

नारस में ऐसे आॅटो चालकों की संख्या कम नहीं जो ज्ञानचन्द्र सोनकर की तरह पिछले बीस बरसों या इससे भी अधिक समय से आॅटो चलाकर अपने परिवार की आजीविका चला रहे हैं। लेकिन अब तक उनके पास अपना एक अदद आॅटो नहीं हो पाया है। ज्ञानचन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने पर अच्छा महसूस कर रहे हैं। लेकिन इनके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि बीस साल के अथक परिश्रम के बाद भी इनके पास अपना खुद का आॅटो क्यों नहीं है? यह कहना बेमानी नहीं कि ज्ञानचन्द्र जैसे बनारस के आॅटो चालकों के पास जब तक अपना आॅटो नहीं हो जाता, लक्षमन और मु॰ इस्माइल जैसे रिक्शा चालकों को मुनासिब मेहनताना नहीं मिलने लगता, फहीम भाई जैसे इलेक्ट्राॅनिक्स के दुकानदारों और बुनकर बस्तियों तक नियमित रूप से बिजली नहीं पहुंचने लगती, तब तक इनके जीवन में अच्छे दिनों की शुरूआत हो ही नहीं सकती है।

बेशक गलियों की तंगी को दूर करना नामुमकिन है। लेकिन गंगा सफाई और घाटों की मरम्मत के सापेक्ष बनारस की गलियों के लिए विशेष सफाई प्रबंधन की योजना तो बनायी ही जा सकती है। मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद बनारस में कामकाज की गति देखकर यहां के लागों में नयी अपेक्षाएं जन्मी हैं। अवाम के जमात में वो भी शामिल हैं जो पहले से “अबकी बार/मोदी सरकार” की रट लगा रहे थे और वो लोग भी हैं जो शपथ ग्रहण के बाद मोदी इफेक्ट से अछूते नहीं रहे हैं। जिन्हें मालूम है कि मोदी संघ के समर्पित सिपाही हैं और राजनाथ सिंह के शब्दों में नयी सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेण्डे के इर्द-गिर्द काम करेगी। ऐसे लागों में वरूणा नदी के दोनों तरफ विकास की एक समान तस्वीर देखने की अपेक्षा, बजरडीहा की गलियों की दुर्दशा ठीक करने की अपेक्षा, लोहता और धन्नीपुर जैसी ग्रामीण बस्तियों के ऊपर हाई टेंशन तारों के ख़तरों से जनता को महफूज़ रखने की अपेक्षा जगी है। बावजूद इसके कि इन लोगों को यह भी पता है कि मोदी के दामन पर 2002 के गुजरात नरसंहारों के खूनी दाग़ हैं। बावजूद इसके इनका अक़ीदा है कि न्याय, अन्याय से और पुरस्कार, दण्ड से बेहतर होता है। जाम और भीड़ से जूझते शहर बनारस के लोगों की उम्मीदों पर मोदी को खरा उतरने का यह अच्छा समय है।

जनसत्ता, 22 जून, 2014
http://epaper.jansatta.com/292406/Jansatta.com/Jansatta-Hindi-22062014#page/15/1

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