Saturday, September 8, 2018

बदलते दौर में शिक्षक दिवस ‘समारोह’ के मायने


डा॰ सर्वपल्ली राधा कृष्णन की जन्म तिथि शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। हमारे बीच कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने इस तिथि को एक आदर्श शिक्षक के गुण-दोषों को उजागर करने और आदर्श शिक्षक बनने-बनाने की दिशा में एक लैण्ड मार्क के तौर पर अपनाया है। लेकिन पिछले कुछ बरसों में स्कूलों में शिक्षक दिवस मनाने का जो अंदाज़ देखा गया है, वह आदर्श शिक्षक/शिक्षिका के प्रतिमानों की झलक धूमिल कर देने वाली रही है। एक तरफ देश के प्रधानमंत्री देश के बहुसंख्यक छात्र/छात्राओं तक सीधी अपनी बात पहंुचाने की कोशिश कर रहे होते हैं, वहीं दूसरी तरफ बहुत से स्कूलों में पैसा, पार्टी, केक, पेय पदार्थ और उपहारों के लेन-देन ने शिक्षक दिवस समारोह का बदला हुआ अंदाज़ दिखाया है। इस लेख के माध्यम से यह जानने की कोशिश की जा रही है कि सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में छात्र/छात्राओं और शिक्षक/शिक्षिकाओं के बीच शिक्षक दिवस मनाए जाने के क्या मायने हैं?

पिछले कुछ बरसों में शिक्षा के क्षेत्र में ढे़रों बदलाव आए हैं। प्राथमिक शिक्षा के व्यावसायिक केन्द्रों यानी निजी स्कूलों और तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्रों में विशेषकर आए दिन बच्चों को भांति-भांति के प्रोजेक्ट बनाते और प्रस्तुत करते देखा जा सकता है। शिक्षक दिवस भी एक अवसर है, जिसके उपलक्ष्य में छोटे-छोटे बच्चों को पार्टियों की तैयारी करते देखा जा रहा है। खासकर छोटे-छोटे बच्चों को बड़ी-बड़ी पार्टियों की तर्ज पर अपनी कक्षाओं में केक और कैन्डिल का इंतेज़ाम करते देखा जा सकता है। इस वर्ष पांच सितंबर को मैं खु़द ऐसे अनुभव से होकर गुज़रा, जहां बच्चों के मन में अपने गुरूजनों के लिए अपार उत्साह था। 5 सितंबर को बच्चों में जो उत्साह मैंने देखी, शायद हमारे बचपन के समय में वैसा उत्साह नहीं होता था। यह उत्साह बार-बार मुझे इस दिशा में विचार के लिए प्रेरित कर रहा था शिक्षक दिवस का उत्साह कई मायनों में कृत्रिम है।
कक्षाओं का बच्चों द्वारा सजाया जाना, ब्लैक बोर्ड पर चाॅक से और बाकी दीवारों पर रंग-बिरंगे कागजों की मदद से हैप्पी टीचर्स डे का अंकन नए दौर के अनुरूप अध्यापक और अध्यापिकाओं के लिए संदेश था कि बच्चे उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। चाहे वह अध्यापक/अध्यापिका अपने आचार, विचार और व्यवहार में कैसा भी हो। बच्चों की तरफ से होने वाली इस पहल की सबसे सुन्दर बात यह लगी कि उनके मन में अपने अध्यापकों के लिए सम्मान भाव व्यक्त करने में किसी भी तरह का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र जैसी कोई मान्यता नहीं थी। फिर भी यह देखने में आया कि बच्चों की नज़र में वही अध्यापक/अध्यापिका खास रहे, जो अधिक समय तक उनके साथ रहते हैं। इसमें कम क्षमता वाले क्लास टीचर भी शामिल हैं और वो अध्यापक भी जो अपने विषय संबंधी बच्चों की कमज़ोरियों को दूर करने में बच्चों के सहयोगी की भूमिका में होते हैं।

बहरहाल, शिक्षक दिवस के अवसर पर बहुत से बच्चों को केक, कैन्डिल और गुब्बारों की व्यवस्था करते देखना उत्साहजनक और मन को भाने वाला था। लेकिन सबकुछ के बाद भी कम से कम मेरे लिए यह चिंता का विषय भी था। एक तरफ प्रधानमंत्री बच्चों से सीधे बात कर रहे थे, दूसरी ओर मैं अपनी चिंता को अपने मित्रों के साथ साझा कर रहा था। निश्चित तौर पर मैंने वैचारिक तौर पर खुद को अलग-थलग पाया। इसलिए कि अधिकतर मित्रों की राय यही थी कि बच्चों द्वारा कक्षा में केक और कैन्डिल पाटी करने में कोई बुराई नहीं है। फिर भी कहना पड़ रहा है कि शिक्षा के विमर्श में यह बात शामिल किया जाना चाहिए कि जिन बच्चों के माता-पिता के समक्ष पब्लिक और काॅनवेन्ट स्कूलों की मंहगी शिक्षण व्यवस्था को अपनाए जाने की विवशता है, उन अभिभावकों पर अलग से शिक्षक दिवस जैसे अवसरों पर केक, कैन्डिल और गुब्बारें के साथ उपहार प्रदान करने की परंपरा का थोपा जाना कहां तक उचित है? ऐसी परंपरा को आत्मसात करके और इसे बढ़ावा देकर हमारे शिक्षक/शिक्षिका आदर्श शिक्षक/शिक्षिका का कोई कीर्तिमान कैसे बना सकते हैं?

गौर तलब है कि स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी दिवस, महिला दिवस, विज्ञान दिवस, मज़दूर दिवस की तरह ही शिक्षक दिवस को एक ऐसे अवसर के रूप में देखे जाने की ज़रूरत है, जब हम उन आदर्शों, मूल्यों, परंपराओं और संस्कारों की याद ताज़ा करते हैं, जिनके बलबूते एक बेहतर समाज की स्थापना और विकास का दमखम पेश किया जाता है। कम से कम भारतीय संविधान में कही गयी बराबरी, न्याय और आज़ादी का मतलब भी यही है कि हम समाज को उस दिशा में ले जाने की कोशिशों में अपना सहयोग दें, जिससे अच्छाई की परिभाषा और परिपाटी मज़बूत होती है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि हमारे बच्चों के अंदर शिक्षक दिवस को लेकर जो उत्साह है उसमें पार्टी और उपहार प्रधान तत्व बनते जा रहे हैं। ये वो तत्व हैं जिनका लगाम बाजार के हाथ में है। उदाहरण के तौर पर हम केक, कैन्डिल और पेय पदार्थों की ही बात करें तो बाल्यावस्था में ही बच्चों को यह बोध होना बाज़ार की ही देन है कि ऐसी वस्तुओं के उपभोग के बिना अध्यापकों/अध्यापिकाओं के प्रति उनका सम्मान अधूरा है। एक तर्क यह भी है कि सभी बच्चे थोड़े ऐसा करते हैं। लेकिन ऐसे तर्क संविधान के समतामूलक सिद्धांतों और व्यावहारिक आदर्शों के विपरीत असमानता का बोध कराने वाले हैं। इसे समझने के लिए किसी कक्षा का उदाहरण लिया जा सकता है। एक कक्षा में अलग-अलग जाति, धर्म, क्षेत्र, समाज, समुदाय और आर्थिक पृष्ठभूमि के परिवारों के बच्चे होते हैं। स्कूल की एक छत इन सभी के लिए समान होती है, एक ब्लैक बोर्ड और चाॅक के टुकड़े की उपियोगिता सभी बच्चों के लिए बराबर होती है। ऐसे में जब कुछ बच्चे अपने घरों से केक, कैन्डिल या पेन या अन्य उपहार लाते हैं और कक्षा में अपने प्रिय अध्यापकों/अध्यापिकाओं को देते हैं तो यह स्थिति उन छात्रों/छात्राओं के लिए अत्यधिक कठिन होती है। एक तरफ पूरा कक्षा उनकी आर्थिक कमज़ोरी या परेशानी से अवगत होता है तो दूसरी तरफ कक्षा में उपहारों के लेन-देन वाला वातावरण ऐसे पृष्ठभूमि के बच्चों का मनोबल तोड़ने वाला और उन्हें सीखने की प्रक्रिया में उनके उत्साह को कम करने वाला होता है। ऐसे बच्चों के मन में कुंठा की भावना का विकसित होना सामान्य बात होती है। फिर सवाल यह है कि ऐसा उत्साह बच्चों के किस काम का जो एक छत के नीचे बैठने वाले आधे से अधिक बच्चों को सीखने की उस प्रक्रिया से अलग-थलग कर दे, जहां से उसके व्यक्तित्व विकास की रूपरेखा तय होती है।

कुछ बातें उन शिक्षकों/शिक्षिकाओं और बच्चों की जो उपहार परंपरा में ही सम्मान प्राप्त करने और आशीर्वाद देने के आदी होते जा रहे हैं। समारोह का आयोजन करना और वो भी कक्षा के विभिन्न छात्र-छात्राओं के साथ मिलकर करना निश्चित तौर पर नयी पीढ़ी के बच्चों की क्रियाशीलता और रचनात्मकता को दर्शाने वाला है। लेकिन हमारे बच्चे जिन संस्कारों के वाहक बनाए जा रहे हैं, वह चिंता का विषय है। जिन उपहारों के दम पर हमारे बच्चे अपने अध्यापकों/अध्यापिकाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना चाहते हैं, उन्हें यह बताने की ज़रूरत है कि कोई भी सम्मान केक, कैन्डिल, पेय पदार्थ और पेन जैसे उपहारों से नहीं होता बल्कि आचरण और व्यवहार के श्रेष्ठ प्रदर्शन से होता है। यही बात अध्यापकों और अध्यापिकाओं के बारे में कही जा सकती है कि उनका आचरण बच्चों के लिए हमेशा से रोल माॅडल रहा है। हमने भी अपने बचपने में अपने अध्यापक/अध्यापिकाओं की नकल की है। उन मूल्यों को अपनाया है जो हमारे लिए श्रेयस्कर रहे हैं। लेकिन हमें इसके लिए कभी गुरू दक्षिणा के तौर पर न तो कभी पार्टी का आयोजन करना पड़ा और न ही कभी कलम या कोई अन्य उपहार देना पड़ा। मौजूदा दौर में गली-कूचों में खुलने वाले हर उस स्कूल में ऐसी परंपरा को उगते-पनपते देखा जा सकता है, जिसका रिमोट बाज़ार के हाथ में है। दुःख की बात यह है जिन अध्यापकों/अध्यापिकाओं के कंधे पर नयी पीढ़ी को संवैधानिक आदर्शों के अनुरूप शिक्षा के मूल उद्देश्यों को प्राप्त करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, वो बच्चों से प्राप्त उपहारों में ही एक शिक्षक होने का सम्मान ढ़ूंढ़ते फिर रहे हैं। शिक्षक दिवस की ऐसी कल्पना रखने वाले शिक्षकों और शिक्षिकाओं के लिए यदि शिक्षक दिवस का नाम उपहार दिवस या केक या पार्टी दिवस रख दिया जाता तो बेहतर होता।
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Published in Inquilabi Nazar, Lucknow, 12 September 2014