Thursday, November 25, 2010

उप-राष्ट्रपति महामहिम हामिद अंसारी के उद्बोधन के निहितार्थ


इण्टर कालेज, मुहम्मदाबाद, ग़ाज़ीपुर

यह आलेख पिछले वर्ष 18 मार्च को महामहिम उप-राष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी के अपने गृह नगर युसूफपुर-मुहम्मदाबाद आगमन के दिन का है, जो इण्टर कालेज, मुहम्मदाबाद की वार्षिक पत्रिका “सोमरस“ में प्रकाशित हो रहा है। इस आलेख में महामहिम के उद्बोधन का सार-संक्षेप है जो उन्होंने इण्टर कालेज, मुहम्मदाबाद में दिया था। यह कालेज किसी समय में स्कूल हुआ करता था और महामहिम उपराष्ट्रपति ने प्राथमिक शिक्षा इसी स्कूल से प्राप्त की थी। लोगों को अपने क्षेत्र के हर ऐसे व्यक्ति से कुछ खास अपेक्षाएं होती हैं। सो यहां के लोग भी महामहिम से कुछ अपेक्षाएं रखते हैं। लेकिन उनके आगमन के डेढ़ बरस गुजर जाने के बाद भी यहां के लोगों को कभी यह नहीं लगा कि वे किसी महामहिम के गृह नगर के वासी हैं। राही मासूम रज़ा ने “आधा गांव” की भूमिका में लिखा है- “ग़ाज़ीपुर ज़िन्दगी के काफिलों के रास्तों पर नहीं है। जब कोई काफिला यहां से होकर गुजरता है तो यहां के लोग उस काफिले की धूल को इत्र समझकर अपने बदन और कपड़े पर छिड़क लेते हैं और खुश हो लेते हैं।” कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछले बरस 18 मार्च को महामहिम का नगर आगमन ऐसे ही किसी काफिला का हिस्सा रहा है।
पिछले 18 नवम्बर, 2010 को उप-राष्ट्रपति महामहिम हामिद अंसारी की माँ श्रीमती आशिया बेगम का स्वर्गवास हो गया। उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए इस आलेख को आप सभी तक पहुंचा रहा हूँ।


18 मार्च, 2009 को इण्टर कालेज, मुहम्मदाबाद में आयोजित अभिनन्दन समारोह में भारत के उपराष्ट्रपति, महामहिम श्री हामिद अंसारी के उद्बोधन से तीन बातें स्पष्ट होती हैं, जो हमें चिंतन का अवसर प्रदान करती हैं। उनके उद्बोधन का पहला महत्वपूर्ण बिंदु था “शिक्षा”। दूसरा औद्योगिक विकास और तीसरा “वर्क कल्चर” का प्रसार। संभव है अभिनंदन समारोह की व्यस्तता और अपने गाँव-मुहल्ले से निकले इस सपूत की एक झलक पाने की लालसा में महामहिम की बातें समारोह हिस्से तक सीमित हो कर रह गयीं हों। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए उनके उद्बोधन में छुपे भाव को समझने का प्रयास करना स्वाभाविक है। यदि मीडिया की बात करें तो अखबारों में महामहिम के हेलिकाप्टर और सड़कों की सफाई के अलावा कुछ अधिक पढ़ने को नहीं मिला और न ही यह लिखा गया कि इण्टर कालेज के इस पूर्व छात्र और युसूफपुर-मुहम्मदाबाद के मूल निवासी हामिद अंसारी का उपराष्ट्रपति होना इस कस्बे और जिले के लिए क्या मायने रखता है।
उनके नगर आगमन से पूर्व ही चर्चाओं का बाजार गरम था कि उनका आगमन मुहम्मदाबाद में किसी विश्वविद्यालय, मेडिकल कालेज या इंजीनीयरिंग कालेज की सौग़ात ले आएगा। इस तरह की चर्चाएं स्वाभाविक हैं और इससे क्षेत्र की जनता की आशाओं और अपेक्षाओं का अंदाजा होता है। साथ ही उनकी सोच का भी पता चलता है कि उनकी मूलभूत आवश्यकताएं क्या हैं। इण्टर कालेज में प्रधानाचार्य ने अभिनंदन पत्र में इस तरह के शिक्षण संस्थानों के अभाव का जिक्र करते हुए एक विश्वविद्यालय की स्थापना की इच्छा जाहिर की। ये अलग बात है कि एक उपराष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में कौन से विषय हैं और कौन से नहीं। वैसे भी यह पद संवैधानिक पद है। इसलिए उनसे किसी योजना या स्कीम की घोषणा की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। लेकिन इस पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को नजर अंदाज़ भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि यह पद देश का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान का पद है, जिसपर हामिद अंसारी 12वें उपराष्ट्रपति के रूप में आसीन हैं। उनकी इच्छाओं में उनके गृह नगर ही नहीं बल्कि देश के हर नागरिक की इच्छा स्वतः शामिल है। इसलिए क्षेत्र वासियों की उनसे अपेक्षा को गलत भी नहीं कहा जा सकता है।
महामहिम ने अपने उद्बोधन में सर्व प्रथम अपने विद्यालयी दिनों को याद करते हुए कहा कि “यादें तो याद करने के लिए होती हैं।” महामहिम ने अपनी मातृभूमि को याद करते हुए कहा कि “इंसान दुनिया के किसी कोने में चला जाय लेकिन अपना घर, अपने लोग और अपनी मिट्टी से लगाव बना रहता है।” महामहिम के इन शब्दों को महज औपचारिक नहीं समझा जा सकता है। इनमें ऐसे व्यक्तियों के विकास की कहानी छुपी है जो देश के उच्च पदों पर आसीन तो हैं लेकिन उन्हें अपने घर और अपने लोगों से दूर रहने की व्यथा भी झेलनी पड़ती है। शायद अपने घर से संवेदनात्मक लगाव की भावना ही है कि महामहिम मुहम्मदाबाद आए और अपने गृह जनपद गाजीपुर को विकास के मुख्य धारा में शामिल करने इच्छा जाहिर की।
महामहिम ने अपने उद्बोधन में शिक्षा पर विशेष बल दिया। उन्होंने शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि शिक्षा हर व्यक्ति के लिए जरूरी है। उन्होंने उच्च शिक्षा से अधिक स्कूली शिक्षा को महत्वपूर्ण बताया। उन्हीं के शब्दों में कि “देश की आबादी को देखते हुए एक नहीं बल्कि दस-बारह विश्वविद्यालयों की आवश्यकता है लेकिन उससे भी अधिक आवश्यक स्कूल हैं। क्योंकि उच्च शिक्षण संस्थानों में टीचर्स और प्रोफेसरों की उपस्थिति में बच्चे अपनी पढ़ाई आप करते हैं जबकि स्कूल वह स्थान होते हैं जहाँ व्यक्ति सीखता है।” यदि व्यापक संदर्भों में देखा जाए तो देश भर में चल रहे सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मिल योजना, निःशुल्क ड्रेस वितरण और छात्रवृत्ति की व्यवस्था वगैरह में महामहिम की स्कूल शिक्षा से संबंधित बातों का सार निहित है।
शिक्षा एक व्यापक विषय है। इसमें साहित्य और समाज से लेकर विज्ञान और तकनीक की शिक्षा शामिल है। हम जानते हैं कि 1986 की नई शिक्षा नीति में व्यसायपरक शिक्षा के महत्व को प्रमुखता से स्वीकार किया गया है। देश भर में तकनीकी शिक्षण की व्यस्था के लिए पालिटेक्निक और इंजीनियरिंग कालेज की स्थापना भी की गयी है। लेकिन दुर्भाग्यवश गाजीपुर शिक्षा के इस क्षेत्र में पहले की तरह आज भी पिछड़ा हुआ है। इस सच्चाई से महामहिम भी भली भाँति अवगत हैं। शायद यही वजह है कि उन्होंने कहा कि “आज के दौर में हमारे बच्चों का टेक्निकल होना जरूरी है। उन्होंने अमेरिका का उदाहरण देते हुए टेक्निकल एजूकेशन के महत्व पर प्रकाश डाला कि “यदि अमेरिका में किसी डाक्टर की फीस 250 डालर है तो किसी बढ़ई की फीस भी डाक्टर से कम नहीं है।” महामहिम ने टेक्निकल एजूकेशन को व्यापक सामाजिक संदर्भों से जोड़ते हुए कहा कि समाज का हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है और कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता।
जाहिर है महामहिम काम के आधार पर विद्यमान सामाजिक भेद-भाव को गलत मानते हैं। उनके अनुसार वर्क कल्चर ही किसी समाज या देश को विकास के रास्ते पर आगे ले जा सकता है। इसी मंशा से मुहम्मदाबाद (गाजीपुर) के विशेष आलोक में उन्होंने उद्योग-धन्धों की आवश्यकता और स्थापना की बात कही। उम्मीद की जानी चाहिए की महामहिम की इच्छाएं आने वाले दिनों में फलीभूत होंगी और गाजीपुर में भी उद्योग-धन्धों का विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। ताकि यहाँ के नौजवानों को काम के लिए इधर-उधर भटकना न पड़े। जब औद्योगिक विकास होगा तो वर्क कल्चर स्वतः ही विकसित होगी। साथ ही जिले की आर्थिक स्थिति बेहतर होगी और तभी समृद्धि तथा चहुमुखी विकास भी संभव हो सकेगा।
कहा जा सकता है कि महामहिम के उद्बोधन में एक तरफ जहाँ गाजीपुर जैसे पिछड़े क्षेत्र के विशेष आलोक में शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक विकास का दर्शन निहित है वहीं दूसरी तरफ इस क्षे़त्र की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की चिंताएं भी है। वरना महामहिम को कहना नहीं पड़ता कि देश भर में चल रहे विकास कार्यों में मुहम्मदाबाद-युसूफपुर का हिस्सा जरूर मिलेगा। आशा की जानी चाहिए कि अगली बार जब भी महामहिम गृह जनपद ग़ाज़ीपुर पधारेंगे तो जनपद वासियों के पास शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का रोना नहीं रहेगा।

Wednesday, November 3, 2010

गतिहीन होता कुम्हार का चाक


‘‘आया रे खिलौने वाला खेल-खिलौने लेकर आया रे.......। शायद ये बीते दिनों की बात हो चुकी है कि हमारे गांव-मुहल्लों के बच्चे इस धुन पर झूमते थे। मौजूदा दौर में अवशेष रह गए मेला जैसे कुछ अवसरों पर खिलौने वाले दिखाई ज़रूर देते हैं लेकिन यह भी सत्य है कि पिछले बीस बरसों में खिलौने वाले एक-एक करके लुप्त प्राय होते गए हैंजैसे पक्षियों या जानवरों की कोई प्रजाति लुप्त हो जाती है। पक्षियों और जानवरों के संरक्षण की चिंता तो है इस देश और दुनिया को हैलेकिन हाड़-मांस का एक पुतला जो पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चों के मनोरंजन के लिए माटी के पुतलों को अपनी कला से ढ़ालता आ रहा है उसकी चिंता शायद ही किसी को है।







बताना नहीं है कि हाड़-मांस का यह पुतला कुम्हार कहा जाता है। कुम्हार दिन रात मेहनत करके पहले तो मिट्टी इकट्ठा करता है, फिर इसमें से ईंट-कंकरीट के टुकड़ों को अलग करके इसे चिकना बनाता है। तब इस मिट्टी से तरह-तरह के खिलौने बनाता है, आग में पकाता है और बेचता है। बन्दर, तोता, कुत्ता, बिल्ली, हाथी, ऊंट, मछली, बत्तख, मुर्गा-मुर्गी, कोयल, कौवा, भालू, गुड्डा-गुड्डी, विभिन्न प्रकार देवी-देवताओं और घरों का प्रतिरूप तथा सुराही और मटका जैसे मृद्भाण्डों से लेकर दियरी (दीपक) और हमारे गंवई घरों की छतों के लिए खपरैल वगैरह सबकुछ कुम्हार की कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। इस काम में कुम्हार के परिवार का हर सदस्य चाहे वो बच्चा हो, जवान हो या बूढ़ा, महिला हो या पुरूष सभी एक मजदूर की हैसियत से काम करते हैं। लेकिन अथक परिश्रम के बाद भी इनके चाक की गति धीमी पड़ती जा रही है। मौजूदा दौर लाल-पीले कार्डों यानि बी॰पी॰एल॰-ए॰पी॰एल॰ कार्डों का दौर है। लेकिन गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाली मूंगा देवी बताती हैं कि ‘‘पहले तो उन्हें कार्ड बनवाने में महीनों सरकारी बाबुओं की चिरौरी करनी पड़ी और जब कार्ड बना भी तो पीला कार्ड यानि ए॰पी॰एल॰ कार्ड बना, जो कि गरीबी रेखा से ऊपर जीवनयापन करने वाले परिवारों को जारी किया जाता है।’’मूंगा देवी अपनी विवशता बताते हुए कहती हैं ‘‘भइया, तहसील-कचहरी से लेकर नगर पालिका तक कहीं कोई सुनवाई नहीं है। मिट्टी का धन्धा तो पहले से ही मन्दा है, ऊपर से प्लास्टिक उद्योग ने हमारी आजीविका पर लात मारने का काम किया है।’’ मूंगा देवी जैसी और भी महिलाएं हैं जो कुम्हकारी में दक्ष हैं और अपने घर वालों के काम में तड़के तीन बजे से ही हाथ बटाने लगती हैं। लेकिन इन महिलाओं के लिए नरेगा जैसी रोजगार योजनाओं का कोई अर्थ नहीं है।

जब से आर्थिक सुधार शुरू हुए हैं तब से इनकी बदहाली और बढ़ी है। मुक्त बाज़ार व्यवस्था ने कुम्हारों के परम्परागत पेशे पर पानी फेरने का काम किया है। मुक्त बाज़ार व्यवस्था के कारण ही बच्चे इको-फ्रेण्डली खिलौनों से दूर और इको-इनेमी खिलौनों के करीब होते गये हैं। परिश्रम और कला के प्रदर्शन के अलावा कुम्हार बेचारा कर भी क्या सकता है। उसके परंपरागत पेशे पर भी गुणवत्ता और बाज़ार की प्रतिस्पर्धा का खतरा मंडला रहा है। आर्थिक सुधारों के पैरोंकारों को कौन बताए कि कुम्हार के चाक पर बनी हर वस्तु गुणवत्ता की कसौटी पर खरी होती है। इनकी मेहनत में किसी एनर्जेटिक पिल या रसायन की मिलावट नहीं होती है। इनके द्वारा इकट्ठा की गयी मिट्टी शुद्ध होती है। दुर्भाग्य से इनका कोई ब्राण्ड नहीं होता। ज़ाहिर है ब्राण्ड नहीं तो प्रतिस्पर्धा कैसी ? प्रतिस्पर्धा का महत्व तो उनके लिए है जिनका नाम देश-विदेश के किसी नामी पत्र-पत्रिका में छपने वाले धनहरियों की सूची में होता है। जैसे टाटा, बिरला, अंबानी इत्यादि। जिनके ब्राण्ड उत्पाद चाहे जहाज हो या सुई, अच्छा हो या घटिया हो, किसी शापिंग मॉल की शोभा बनते हैं। चलिए कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि मुक्त बाजार की नीति भेदभाव परक नहीं है। तो क्या हमें कुम्हार के चाक का कोई नमूना सामान्य रूप से बाजार में या किसी शापिंग मॉल में दिखाई देता है? नहीं दिखेगा क्योंकि नई आर्थिक नीति ने उनके उत्पादों को इस लायक नहीं छोड़ा कि वो पूंजीवाद के दंगल में अपनी कला का लोहा मनवा सकें।

ये बात किसी से छिपी नहीं है कि आज का बाज़ार सस्ते और हानिकारक खिलौनों से भरा पड़ा है। सस्ते तो कुम्हार के हाथ के बने खिलौने भी होते हैं। लेकिन प्लास्टिक खिलौनों के आगे उनकी पूछ कहाँ। मुहम्मदाबाद (ग़ाज़ीपुर) के कुम्हार मोहन राम प्रजापति जिन्हें मुक्त बाज़ार और प्लास्टिक उद्योग की जानकारी नहीं है, कहते हैं कि ‘‘प्लास्टिक के खिलौनों, कप, प्लेट और गिलास से उनका पेशा बुरी तरह प्रभावित हुआ है।’’ मोहन राम महंगाई की परिभाषा तो नहीं जानते लेकिन महंगाई की मार उनसे और उन जैसे लोगों से बेहतर कोई नहीं जानता है। कहते हैं ‘‘हर वस्तु का मूल्य बढ़ चुका है लेकिन उनके द्वारा बनाए चुक्के, दीपों, सुराहियों और अन्य वस्तुओं का मूल्य लगभग पहले जितना ही है। जब मूल्य बढ़ाते हैं तो इन वस्तुओं के बचेखुचे खरीदार भी यूज एण्ड थ्रो प्रकार की वस्तुओं को तरजीह देते हैं।’’ज़ाहिर है महंगाई दो अंकों की आसमान छू रही है। छठें वेतन आयोग ने नौकरशाहों के लिए खूब किया। और हाल-फिलहाल में हमारे सांसदों के वेतन-भत्ता में भी लगभग 300 प्रतिशत की वृद्धि हुई। लेकिन कुम्हार जो दिन-रात कड़ी मेहनत करता है, उसे वृद्धा पेन्शन तो दूर दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है।
हम जानते हैं ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से छोटी समझी जाने वाली जातियां विकास के मुख्य धारा से दूर रही हैं। मुक्त बाज़ार व्यवस्था के प्रसार से हाशिए और मुख्यधारा यानि गरीब और अमीर के बीच की खाई और बढ़ी है। कुम्हकारी ही नहीं बल्कि हर तरह का लघु उद्योग इस व्यवस्था के आगे दम तोड़ता नज़र आ रहा है। सिर्फ कुम्हार का चाक ही नहीं डगमगा रहा है बल्कि बैकरी, कपड़ा और ताला जैसे छोटे-छोटे उद्योगों पर भी मुक्त बाज़ार व्यवस्था की सीधी मार पड़ रही है। जुलाहे का ताना-बाना लड़खड़ा रहा है, बरफी, पेड़ा, समोसा और पापड़ी का स्वाद फीका पड़ रहा है।
ऐसा नहीं कि आर्थिक सुधारों ने हमें सिर्फ निराश ही किया है। उदारीकरण के नवयुग में हर तीन महीने के बाद ब्राण्ड बदल लेने वाले उत्पादों का चलन भी बढ़ा है। टकाटक, मुर्गे की टांग, कुरकुरे और कुरमुरे कुछ ऐसे ही उत्पाद हैं जहां रोजगार की कुछ नयी संभावना बनी है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि लघु उद्योग के विकास के नाम पर मिलावटखोरी और मुनाफाखोरी दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। यही हाल खिलौनों का है। बेनटेन जैसे चाइनीज खिलौने लोकप्रिय हुए हैं। बल्कि ये कहना चाहिए कि कॉर्टून नेटवर्क और हंगामा जैसे टी॰वी॰ चैनलों के माध्यम से लोकप्रिय बनाए गए हैं। दुःख की बात तो यह है कि प्लास्टिक के बने खिलौनों से बच्चों को होने वाले स्वास्थ्य संबंधी नुकसान की खबरें आने के बाद भी इस तरह के खिलौनों के विदेशी और देशी ब्राण्ड अबाध रूप से हमारे बच्चों के हाथों तक पहुंचाए जा रहे हैं।
भूमण्डलीकरण अपने मूल अर्थां में आगे बढ़ रहा है, लेकिन तीसरी दुनिया के देशों के लिए एक दावानल की तरह, जो उदारवाद के नाम पर हमारे कुम्हारों, बुनकरों, ताला साजों और इस तरह के अन्य दस्तकारों की जिन्दगियां लीलता जा रहा है।
 दरअसल मुक्त बाज़ार पहले हमें अपने ज़मीनी सरोकारों से मुक्त कर रहा है फिर अपने उत्पादों को हम तक पहुंचा रहा है। यही कारण है कि आर्थिक सुधारों की बयार में कुम्हार का चाक और बुनकर का चरखा गतिहीन होते जा हैं। वरना पहले हमारी किताबों में कुम्हार का चाक नाम से एक अध्याय ही हुआ करता था। फिर भी हमें याद रखना चाहिए कि चाक के अविष्कार ने ही दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाया। यदि चाक का अविष्कार नहीं हुआ होता तो आज हमारे पास न तो इतना समृद्ध भौतिक विज्ञान होता और न ही गणित और ज्यामिती।

Tuesday, November 2, 2010

कमरे में कैद “ग्लोबल दुनिया ” में संवाद की सीमाएं और संभावनाएं

व्यक्ति, समाज और संवाद का संबंध अटूट है। फिर भी न जाने क्यों हम और हमारा समाज ऐसी विकट परिस्थितियों से घिरे हुए हैं जिसमें संवाद की संभावनाएं क्षीण पड़ती जा रही है। कहने को सूचना क्रांति ने दुनिया को एक कमरे में कैद कर दिया है जिसे ग्लोबल वर्ल्ड कहा जा रहा है। टेलीविजन, इण्टरनेट और मोबाइल इसके अग्रदूत हैं। जबसे इन आविष्कारों का चलन बढ़ा है हमारे समक्ष नयी चुनौतियां भी खड़ी हुई हैं। हम घंटों किसी बड़े मोबाइल सेवा प्रदाता कम्पनी के लुभावने कारोबारी स्कीम का लाभ उठाते हुए अपने किसी चहेते से बात करते रहते हैं, टी॰वी॰ देखते रहते हैं या फिर इण्टरनेट पर सरफिन में व्यस्त रहते हैं। ये बात अलग है कि हमारे घर में अम्मा ने खाना खाया कि नहीं भइया किसी दूसरे शहर गए हुए हैं, कब आएंगे जैसे लोगों की सुध लेने के लिए न तो समय है और न ही शब्द। आपका और हमारा सौंदर्यबोध कम से कम इतना परिपक्व अवश्य है कि हम और आप स्वतंत्रतापूर्वक सोच सकते हैं कि 70 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण आबादी वाले इस देश में किस तरह देशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां राज कर रही हैं। ये बात किसी से छुपी नहीं है कि कर लो दुनिया मुट्ठी में”, सर जी क्या आइडिया है” , और ऐसी आजादी और कहाँ का पाठ इस देश के नागरिकों को किस तरह पढ़ाया जा रहा है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। भारतीय संविधान को देखिए, ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह के विज्ञापनों के पंचमार्क किसी विद्वान ने अपने शोध परक अध्ययन के बाद सीधे संविधान की उद्देशिका से खोज कर निकाले हांे। स्वतंत्रता, समानता और न्याय प्रत्येक भारतीय का मौलिक अधिकार है। कुछ मामलों को छोड़कर ये अधिकार विदेशियों को भी प्राप्त हैं। तो फिर संवाद करने का अधिकार भी संवैधानिक रूप से परिभाषित अवश्य है। शायद इसी पारिभाषिक अधिकार के अनुरूप स्वतंत्रता, समानता और न्याय में निहित संवाद की भाषा और संस्कृति की पूंजीवादी रूपरेखा तय की जा रही है। ऐसी आजादी और कहाँ” , किसी एक कंपनी की सेवा या उत्पाद के विज्ञापन का पंचमार्क है, लेकिन वस्तुतः ऐसे पंचमार्क उन कंपनियों के पूंजीवादी शोषक चरित्र के परिचायक हैं जिनका प्रधान उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। इसी तरह कर लो दुनिया मुट्ठी में यानि तीसरी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रांतिक देश के बाजार पर वर्चस्व कायम करो। विश्व व्यापार संगठन तो है ही बीच-बचाव के लिए। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह के पंचमार्क वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से अनुप्राणीत हैं जिसका बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ससम्मान दोहन कर रही हैं। इनके नित नए तेवर और कलेवर को देखते हुए कई बार ऐसा लगता है जैसे हम इक्कीसवीं सदी नहीं बल्कि अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं। कहा जा सकता है कि यदि हम-आप भी बहुराष्ट्रीय होते तो वास्तविक अर्थों में इक्कीसवीं सदी के जन-गण-मन.... होते।
इतिहास की गौरवमयी यादों को ताजा करने और प्रेरणा प्राप्त करने के लिए वर्ष के 365 दिनों में कई दिन ऐसे हैं जिसे हम धूमधाम से मनाते हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी ऐसे ही दिन हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे गौरवमयी इतिहास के पन्नों पर एक बार फिर गुलाम भारत में होने वाले आर्थिक दोहन के दिनों की यादों की परत चढ़ती जा रही है। हम जानते हैं कि दादा भाई नौरोजी ने आर्थिक दोहन का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। इससे इतर मार्क्सवादी मॉडल में श्रम और पूंजी के संबंधों पर विस्तार से वर्णन भी है। लेकिन संवाद की कारपोरेट भाषा ने हमारे सौंदर्यबोध को इस तरह कमरे में बैठा दिया है कि सच-झूठ और ब्लैक एण्ड ह्वाइट में अंतर करने की हमारी क्षमता क्षीण पड़ती जा रही है। हमें सैटेलाइट्स चैनलों, इण्टरनेट और मोबाइल मेसेजिंग के माध्यम से बताया जा रहा है कि हमारे जीवन का अर्थ क्या है ? हमारा जीवन लिरिल जैसे साबुन, गार्नियर जैसे क्रीम, पिज्जा जैसे व्यंजनों और ली कूपर जींस या रिबाक जैसे जूतों से पूर्ण होगा या फिर हमारे घरेलू व्यंजनों, परिधानों और प्रसाधनों से ?
संवाद के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है मौजूदा दौर में। हम दुनिया को एक कमरे में कैद करने में सक्षम हो चुके हैं। कमरे में बैठे-बैठे चाँद पर कदम रखने की बातें हो रही हैं लेकिन यह भी सच है कि नयी पीढ़ी संवाद के यथार्थ से दूर भी होती जा रही है। सौंदर्यबोध हमें बताता है दो चीजों में अंतर करने की कला। विचार करें तो हमारे सामने दो तरह के चित्र प्रकट होते हैं। एक तो पहले वाली दुनिया की जो कमरे में कैद नहीं थी। जो खेतों-खलिहानों की दुनिया थी, जो मजदूर, किसान और कामगारों की दुनिया थी। जो प्रगतीशील आंदोलनों की दुनिया थी। जो हलकू, घेसू, होरी, टोबा टेक सिंह और लाजवंती जैसों की दुनिया थी। जो प्रेमचंद्र, बेदी, कृष्णचन्द्र, मिण्टो और ईस्मत की दुनिया थी। एक ऐसी दुनिया जहाँ पर संकटों के बादलों को चीरते हुए कुछ साकारात्मक कर गुजरने का हौसला हुआ करता था, जहाँ संघर्षों के गीत गाए जाते थे। जहाँ ज़िन्दगी संवेदना के तारों में गुथी हुई थी। जहाँ विभिन्न सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विषंगतियों और समस्याओं के बाद भी जुल्म और अत्याचार के खिलाफ आवाजें़ बुलंद होती थीं। यह दुनिया आज की तरह नहीं थी लेकिन अपने समय की अद्भुत दुनिया थी। लाजपत के सर के जख्म भगत जैसों को सुनाई देती थी और भगत जैसे अपनी आवाज़ सत्ता के गलियारों में पहुँचाने का हौसला रखते थे। बिल्कुल खुली हुई थी यह दुनिया। गुलामी की जंजीरों में कैद होने के बाद भी कुटुंबकम की भावना और अपनेपन के सूत्र में बंधी हुई थी यह दुनिया।
अब देखिए कमरे में कैद ग्लोबल दुनिया की तस्वीर। रिमोट कहाँ है”, हेलो! मोबाइल चार्ज में लगा था”, “थ्री इडियट्स देखा कि नहीं! ” , “थोड़ा बिग बॉस तो लगाना!” , “नहीं आज तो डॉन्स इण्डिया डॉन्स का फाइनल है! याद करें क्या ये और ऐसे न जाने कितने वाक्य हमारे बेडरूम से नहीं निकलते हैं ? यदि निकलते हैं तो क्या हमारे बारामदों और रसोई घरों से होते हुए हमारे जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को प्रभावित नहीं करते हैं ? इस दुनिया की माया ही विचित्र है। इस दुनिया में रोचकता तो कूट-कूट कर भरी है। तभी तो हमारे समक्ष समाचारों में भी कैटरीना और शिल्पा की अदाओं पर विद्ववतापूर्ण बहस प्रस्तुत की जाती है। तेज और सबसे तेज या श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करने वाले कुछ चैनल तो संवाद की इस कला में इतने आगे हैं कि वो समाचार और आइटम नं॰ में अंतर ही भूलते जा रहे हैं। विद्वानों की बातों पर यकीन करें तो मामला टी॰आर॰पी॰ का है। इसलिए ऐसा स्वाभाविक रूप से घटित हो रहा है। सचमुच आर्थिक सुधारों के बाद सूचना और प्राद्योगिकी की तूफानी प्रगति ने हमारे लिए नई भाषा-शैली और शब्दकोश का ऐसा ताना-बाना बुना है जिसमें परंपरागत भाषा और संस्कृति के विकास की संभावनाएं क्षीण पड़ती जा रही हैं।
बहरहाल इतना तो अनुभव किया ही जा सकता है कि टी॰वी॰, मोबाइल और इण्टरनेट की इस ग्लोबल दुनिया में संवाद की सीमाएं असीमित हैं। हम काम से घर पर आते हैं तो पहले की तरह अपने घर परिवार वालों का कुशलक्षेम नहीं पूछते बल्कि जिनका कुशलक्षेम पूछने का संस्कारिक इतिहास रहा है उन्हीं से पूछा जाता है कि बिजली है कि नहीं! सास-बहु आ रहा है क्या ? क्या! अम्मा जी मर गयीं ?” अमोली, ज्योती, आनंदी, अर्चना और सिम्मी का क्या हुआ ?” राघव, मानव और ब्रिज कैसे हैं ?” जाहिर है संवाद की सीमाएं इस हद तक बढ़ चुकी हैं कि कारपोरेट कलाकार हमारे जीवन के अंतरंग साथी बनते जा रहे हैं और हमारे अपने हमसे दूर होते जा रहे हैं। यदि बालिका बधू की आनंदी को गोली लगती है तो उसके लिए हम सभी का हृदय करूणा और दया से भर जाता हैै लेकिन युवा हिन्दुस्तान के लाखों-करोणों घरों में जो लोग पूंजीवादी भूमण्डलीकरण से मर्माहत हैं और जीवन की अंतिम सांसे गिन रहे हैं या फिर भूखे पेट सो रहे हैं, उनकी अनकही कहानी हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती।
फॉस्ट लाइफ और जेनरेशन गैप जैसे मत अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन संवाद के संवेदनशील आइने में ऐसे मतों पर मुहर नहीं लगायी जा सकती है। क्योंकि व्यक्ति और परिवार सामाजिक ढ़ांचे की बुनियादी इकाई समझे जाते हैं और संवाद ही हमारी संवेदनाओं का वाहक होता है। लेकिन दुःख की बात है कि संवाद के यांत्रिकी और विद्युतीय तारों में हम इस तरह फंसते जा रहे हैं कि हम हमारे उम्र के पड़ोसियों और भाइयों तक से भी दूर होते जा रहे हैं। नकुशा और सिया के लिए हमारे मन में सहानुभूति तो होती है लेकिन अपने माँ-बाप और भाई के लिए कोई संवेदना नहीं होती। एक ही मुहल्ले में रहते हैं लेकिन अपने पड़ोसियों के लिए समय का अभाव रहता है। दरअसल पहले तो हम एक टी॰वी॰ में पूरा परिवार मनोरंजन करते थे और अब हर कमरे में कैद एक नई और रोचक दुनिया को देखने के लिए अलग-अलग कमरों में कैद रहने के आदी हो गए हैं।
समझा जा सकता है परिवारों, समाजों और हमारे-आप जैसों की बिखरती हुई सामाजिकता और संवेदनशीलता की भयावह स्थिति और ऐसी संवादहीन तथा संवेदहीन किसी भी परिस्थिति की गंभीरता को। कमरे में कैद ग्लोबल दुनिया में संवाद ही संवाद है। बच्चे पोगो देखते हैं, माँ सास-बहु और कारपोरेट घराने की ललिया और जमुनिया देखती है और बाप को बिग-बॉस एवं डॉन्स इण्डिया डॉन्स से फुर्सत नहीं होती है। सब के सब संवाद कर रहे होते हैं। फिर भी ऐसा लगता है कि संवाद की डोर कहीं न कहीं कमजोर पड़ रही है। आखिर क्यों हमारी संवेदना रीमोट कंट्रोल, माउस  और मोबाइल के बटन में कैद होती जा रही है ? आखिर क्यों हम कमरे में कैद ग्लोबल दुनिया के गुलाम होते जा रहे हैं ? क्या विकास की कीमत हमारे गूंगेपन, बहरेपन और अंधेपन की शक्ल में अदा होगी ? निश्चित तौर पर कमरे में कैद ग्लोबल दुनिया हमको यही प्रेरणा दे रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि संचार क्रांति ने दुनिया को कमरे में कैद करने की बजाय हमें, हमारी सोच और संवेदना को ही एक कमरे में कैद करने का काम किया है। ऐसी स्थिति में हमें अपने सौंदर्यबोध को जगाना होगा और संवाद की नई संभावनाएं भी तलाश करनी होगी जिसमें भावनाओं के तार विश्रृंखलित न होने पाएं, जहाँ हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्कारिक दुनिया को एक नई फलक मिल सके।