Friday, February 10, 2012

समतामूलक समाज के सापेक्ष सम्मान की लड़ाई


सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई नयी नहीं है। सामाजिक न्याय की दिशा में पहली बार छठीं शताब्दी ई॰पू॰ में बुद्ध और जैन धर्मों की तरफ से पहल की गयी। मध्यकालीन भारत में भी भक्ति और सूफी आंदोलनों के रूप में समानता के लिए आंदोलन चला। कबीर और नानक जैसे महान समाज सुधारकों ने इसी युग में जन्म लिया। जहां तक आधुनिक भारत में सम्मान और समानता का प्रश्न है तो ज्योतिबा फुले से लेकर डा॰ बी.आर. अंबेडकर तक यह कारवां आगे बढ़ा। 1947 में आजादी और उसके बाद 1950 में संविधान का लागू होना आधुनिक भारतीय इतिहास में एक लैण्डमार्क है कि कम से कम कानून इन तिथियों के बाद जाति, नस्ल, लिंग, धर्म, क्षेत्र और समुदाय के आधार पर किसी नागरिक के साथ न तो भेदभाव किया जाएगा और न ही शोषण होगा। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि अछूत समझा जाने वाला तबका विकास के मुख्य धारा में शामिल हो सके, राष्ट्रपति के विशेष अध्यादेश से आरक्षण की व्यवस्था की गयी। मण्डल के दौर में आरक्षण पर नए सिरे से बहस भी शुरू हुई। ओ.बी.सी. में क्रिमीलेयर के प्रावधान के अनुरूप अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था में भी इस प्रावधान की हिमायत की गयी। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश के साथ ही आरक्षण की नीति पर भी बहस के नए द्वार खुले। जैसे निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू करना, महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण, पसमांदा मुसलमानों के लिए सामाजिक स्टेटस के अनुकूल आरक्षण वगैरह।
आरक्षण के विरोधियों ने हर मोड़ पर अपनी आवाज़ बुलंद की। लेकिन सत्य यही है कि भेदभाव और शोषण पर आधारित  समाजिक व्यवस्था अभी भी मजबूत है। इस व्यवस्था का चरित्र भी अजीब है, जब जाहे, जहां चाहे और जैसे चाहे खुद को समायोजित कर लेती है। नब्बे के दशक में मण्डल कमीशन की अनुशंसाओं का लागू होना ऐसे ही प्रयासों और सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत्त पिछड़े लोगों की उपलब्धि थी। कम से कम शिक्षा और नौकरियों में अवसर के नए द्वार खुले। पिछड़ी जाति के लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिला। मण्डल कमीशन के अन्तर्गत लागू आरक्षण की व्यवस्था का साकारात्मक परिणाम व्यवहार में दिखाई देने लगा। लेकिन सामाजिक न्याय की राह में यह अन्तिम पड़ाव नहीं था। समय का चक्र घूमता रहा। विरोध-प्रदर्शन का लम्बा दौर चला। लेकिन पूर्व प्रधानपंत्री वी.पी. सिंह को याद करते हुए कहना पड़ रहा है कि उन्होंने जो किया वो इतिहास का एक अतिमहत्वपूर्ण फैसला था। पिछले बीस वर्षों में आरक्षण के माध्यम से अपनी हिस्सेदारी और हक प्राप्त करने वालों ने मेरिट के मिथ को धता-बता दिया है। फिर भी जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में पिछड़ी और दलित जातियों के लोगों के साथ भेदभाव बदस्तूर जारी है। मीडिया का हस्तक्षेप बढ़ने से घटनाएं प्रकाश में तो आ जा रही हैं। लेकिन सम्मान को ठेस पहुंचाने के कायदे और कानून शायद अभी भी संविधान से ऊपर हैं। ये कानून अदृश्य और अप्रतयक्ष हैं। ऐसे कानूनों से पार पाना कोई मामूली बात नहीं। यदि होता तो अभी हाल-फिलहाल में राजधानी की दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में ओ.बी.सी आरक्षण को लेकर बहस नहीं होती।
आरक्षण के पीछे मूल भावना “सम्मान” का रहा है। क्योंकि भेदभाव के ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ को वर्तमान से अलग नहीं किया जा सकता। इतिहास का अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक भेदभाव के मानक दैवीय या अलौकिक नहीं हैं बल्कि इन्हें मनुष्यों ने ही स्थापित किया है। इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति जानता है कि मनुस्मृति जैसी किताबों के सहारे भेदभाव को संस्थागत रूप प्रदान किया गया। इससे इतर कुछ संस्थाएं ऐसी भी खड़ी की गयीं जो बिल्कुल अप्रत्यक्ष और अदृश्य थीं। विकास के कालक्रम में ये संस्थाएं जिनकी मान्यता नहीं हैं अभी भी आस्तित्व में हैं। ध्यान दिलाना चाहता हूँ उन गालियां की तरफ जो समाज के पिछड़े और दलित तबके का केन्द्र में रखकर बनायी गयीं और जो आज भी हमारे सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। अपने गांव-मोहल्ले में चलते-फिरते लोगों का गुस्सा जब गालियों के माध्यम से व्यक्त होता है तो इनमें महिलाएं और पिछड़े-दलित ही निशाने पर होते हैं। उदाहरण भी प्रस्तुत कर देता हूँ। स्कूल के दिनों में जब बच्चे आपस में एक दूसरे स मजाक करते थे या चिढ़ाते थे तो प्रेम पूर्वक कही गयी कुछ बातें और उन बातों का निहितार्थ अब समझ में आता है। जैसे- “अहिर-बहिर बम्बोकड़ा क लासा, अहिरा पदलस भइल तमाशा।” यह गाली मजाक लगती है लेकिन किसी पिछड़े के मनोबल को बाल्यावस्था में ही तोड़ने के लिए काफी है। “चोरी-चमारी” में चोरी शब्द समझ में आता है लेकिन “चमारी” का अर्थ विचारणीय है। इसी तरह बात-बात में प्रगतिशील लोगों के मुंह से भी सुना जा सकता है “डोम हउव का” या फिर “जोलहा-जपाटी” और “धुनिया” वगैरह। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी गालियां पिछड़ों, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को लक्ष्य करके किसी साजिश के तहत व्यवहार में लायी गयीं।
बहरहाल आज़ादी के बाद से लेकर अबतक सम्मान के इस संघर्ष में यदि वी.पी. सिंह जैसे कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो आरक्षण विरोधियों को ऐसा लगता है कि आरक्षण से उनका हिस्सा मारा जा रहा है। कहना नहीं है कि प्रोफेशनल कोर्सेज के दौर में नयी पीढ़ी के बच्चों की सोच भी प्रोफेशनल बनती जा रही है। कहा जाता है कि हर आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वजों से एक कदम आगे झंडा फहराती है। लेकिन सामाजिक विकास के सूचकांक पर देखा जाय तो आरक्षण विरोधियों ने अपने पूर्वजों से पीछे ही झंडा फहराया है। 2006-07 में एम्स के तथाकथित मेरिटोरियस डाॅक्टरों को जिन्होंने हिप्पोक्रेटिक शपथ को भी तिलांजली दे दी थी और आरक्षण विरोध की जंग में शामिल हो गये थे। गौर करने की बात यह है कि समान्यतः साइंस स्ट्रीम के छात्र-छात्रा जनआंदोलनों का हिस्सा बनते कभी-कभार ही देखा गया है। लेकिन जब आरक्षण की बात होती है तो ये मरीजों को मरता छोड़ आंदोलन में शामिल हो जाते हैं। इनका कहना है कि आरक्षण से अयोग्य डाॅक्टर बन जाएंगे। ध्यान देने की बात है कि पहले से सामाजिक रूप से सशक्त परिवारों से संबंध रखने वाले बच्चे जब प्राइवेट मेडिकल या इंजीनियरिंग कालेजों में कैपीटेशन की बड़ी रकम अदा करके डाॅक्टर या इंजीनियर बन जाते हैं तो उस समय इनका विरोध न जाने कहां चला जाता है।
पिछले दिनों मैं मऊ जा रहा था। ट्रेन में कुछ छात्रों से मुलाकात हुई। बातों का दौर शुरू हुआ। बात शिक्षा, नौकरी से होते हुए आरक्षण तक आ पहुंची। लड़कों की तारीफ करना चाहूंगा। बहुत भोले और शिष्ट थे। लेकिन आरक्षण के सवाल पर उनका यू टर्न लेना मेरे लिए हतप्रभ होने का विषय नहीं था। क्योंकि यह मेरे लिए कोई नया अनुभव नहीं था। कहना चाहता हूं कि उदारीकरण के इस दौर में बच्चों की पूरी परवरिश आधुनिकता के दायरे में हो रही है लेकिन सम्मान देने और लेने का संस्कार पीढि़यों पुरानी है। कहा जाता है कि पूंजीवाद मनुष्य को दकियानूसी सामाजिक मूल्यों और परंपराओं की जकड़ से मुक्त करता है। लेकिन यहां तो मामला ही अलग है। 2008 मे 27 नवम्बर को जिस दिन वी.पी. सिंह का निधन हुआ था उससे एक दिन पहले मुम्बई का बम हादसा हो गया था। पिछड़ों को सामाजिक समानता की सौगात देने वाले इस व्यक्ति का कद छोटा होते हम सबने देखा था। चलिए मान लेते हैं टी.आर.पी मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज जरूरी है। लेकिन 2009 और 2010 में इस तिथि को तो कहीं कोई बम विस्फोट नहीं हुआ था। फिर वी.पी. सिंह के योगदानों को मीडिया में प्रखुता से क्यों नहीं प्रस्तुत किया गया। जाहिर है निवेश और मुनाफे के सिद्धांतों पर खड़े बड़े-बड़े मीडिया घरानों में भी ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से वर्चस्व प्रधान लोगों का ही प्रभाव है। इस बात को अगस्त माह के भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन से भी जोड़कर देखा जा सकता है। मीडिया का पूंजीवादी और दलित-पिछड़ा विरोधी चरित्र उजागर हो जाता है। एक अन्ना जो भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे, तो अधिकतर समय उनके आंदोलन, अनशन और स्वास्थ्य वगैरह समाचार और चर्चा-परिचर्चा का विषय बने हुए थे। देखा जाए तो अन्ना को अभी जन लोकपाल जैसा कोई कानून पास करवाना है। दूसरी तरफ आज से लगभग दो दशक पहले वी.पी. सिंह ने मण्डल को पास करवाया था और लागू भी करवाया था। जिससे शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिला। लेकिन मीडिया के लिए इंसान का परिमाणात्मक दुःख-दर्द कोई मायने नहीं रखती। आज की बाजार परस्त मीडिया के लिए मनुष्य का मनुष्य के साथ भेदभाव कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए संदेह होता है कि मीडिया का चरित्र पूंजीवादी होने के साथ-साथ ब्राम्हणवादी भी है। कहना पड़ रहा है कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालयों के गठन से काम नहीं चलने वाला है। सरकार ने जिस तरह से अन्ना के खिलाफ इच्छा शक्ति का प्रदर्शन किया या जिस तरह घुटने टेके। ठीक उसी तरह हर क्षेत्र में ब्राम्हणवादी व्यवस्था के प्रच्छन्न प्रभावों को समाप्त करने के लिए इच्छा शक्ति दिखाए तो कोई बात बने। वरना सामाजिक न्याय के नाम पर अन्याय करने वाले बहरूपियों का बोलबाला यूं ही बना रहेगा।
इस लेख के माध्यम से इस ओर भी ध्यान दिलाना चाहता हूं कि कोई भी समाज तभी आगे बढ़ा है जब उस समाज के अन्दर से नेतृत्व उभरा है। ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से पिछड़े और वंचित तबकों की एक कमजोरी रही है वह अपने नेतृत्व को स्वीकारने के बजाय धन, बल और छल के नेतृत्व को सहजता से स्वीकार कर लेता है। उदाहरण के तौर पर पंचायत चुनाओं में जो सीट महिलाओं के लिए या दलितों के लिए सुरक्षित होते हैं वहां महिलाओं के पीछे उनके पति खड़े रहते हैं और पतियों के सर पर किसी सम्पन्न-सम्भ्रांत का हाथ होता है। यानि सशक्तिकरण और सम्मान घूम फिर कर पहले की तरह सम्भ्रांतों के चैखट पर ही पहुंच जाते हैं। ऐसे किसी भी क्षेत्र का दौरा किया जाए तो स्थितियां कमोबेश ऐसी ही मिलेंगी।
अब समय आ चुका है कि मौजूदा दौर में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हो रही प्रगति से कदमताल करते हुए गांव-मोहल्ले, स्कूल-काॅलेज और नौकरियों के प्रतिष्ठानों से लेकर सार्वजनिक जीवन के हर उस स्थान पर अदृश्य रूप में होने वाले भेदभाव की पड़ताल की जाए। सड़क से लेकर संसद तक बौद्धिक परिपक्वता के साथ यह बात बताई जाए कि आरक्षण का संबंध नौकरियां प्राप्त करना नहीं बल्कि समतामूलक व्यवस्था के सापेक्ष सम्मान प्राप्त करने का अबतक का सबसे बेहतर उपाय है। सम्मान की लड़ाई अभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंची पायी है। पिछड़ों-दलितों ने संवैधानिक रूप से एक सोपान जरूर तय किया है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति भी दर्ज की है। लेकिन अभी भी पाने को बहुत कुछ बाकी है।

ओ.बी.सी. आरक्षण की समीक्षा के बजाए 4.5 प्रतिशत कोटा अतार्किक

पिछले कुछ दिनों से मुस्लिम आरक्षण पर बहस तेज है। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सभी दल यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि इनमें मुसलमानों का कौन कितना बड़ा हमदर्द है। 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटा के माध्यम से 64 बरस के आजाद भारत के इतिहास में नया अध्याय जोड़ने की कोशिशें जारी हैं। कैबिनेट के इस फैसले को कुछ लोग देश बांटने वाला, कुछ लोग मुस्लिम ध्रुवीकरण, कुछ लोग विशेषकर मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने वाला और कुछ लोग पिछड़ों को बांटने वाला फैसला बता रहे हैं। सवाल यह भी है कि 27 प्रतिशत ओ.बी.सी. आरक्षण के अन्दर 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटा निर्धारित करने वाले फैसले के पीछे कहीं केन्द्र सरकार की सोची समझी चुनावी रणनीति तो नहीं है? मुख्य धारा की पार्टियों से तो ऐसे सवालों की गुंजाइश बनती ही है कि पिछले 64 बरसों में नहीं तो कम से कम मण्डल लागू होने के 18 बरसों के शैक्षिक-सामाजिक विकास के बाद केन्द्र सरकार का इस नतीजे पर पहुंचना क्या तार्किक है? यदि पिछले 18 बरसों की बात करें तो यह सवाल उन छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों पर भी समान रूप से लागू होता है, जिन्हें दलित-पिछड़ा आंदोलनों के राजनीतिक नेतृत्व का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गौर तलब है कि संवैधानिक प्राविधान और दलित-पिछड़ा आंदोलन में उभार के बाद भी ओ.बी.सी. में शामिल अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ क्यों नहीं मिला। ऐसे में विचार जरूरी है कि अल्पसंख्यक आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए पिछले दो दशक की उपलब्धियों की समीक्षा की जाए या 4.5 प्रतिशत अलग को कोटे का प्राविधान किया जाए।
ग़ौर तलब है कि इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई में दलित-पिछड़ा की शब्दावली में एक नए शब्द “पसमांदा” की वृद्धि हुई। हालांकि कि इसके प्रयास बीसवी सदी के अन्तिम दशक में ही शुरू हो चुके थे। इसका पूरा श्रेय ‘‘मसावात की जंग’’ नामक किताब के लेखक अली अनवर को है। यह किताब मूलतः बिहार के पसमांदा मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का शोधपरक चित्र प्रस्तुत करता है। यह किताब देश भर में मुस्लिम समाज में व्याप्त सामाजिक अन्याय और भेदभाव के चरित्र को उजागर करता है। यद्यपि पहले से ही मुस्लिम समाज में जाति स्तरीकरण पर प्रो॰ इम्तियाज़ अहमद जैसे समाज विज्ञानियों के महत्वपूर्ण शोध उपलब्ध हैं। लेकिन ऐसे अध्ययनों को आंदोलन का रूप देने में ‘‘मसावात की जंग’’ का उल्लेखनीय योगदान रहा है। ‘‘मसावात की जंग’’ ने सामाजिक आंदोलन तो खड़ा किया लेकिन अफसोस कि अभी तक यह आंदोलन अपने राजनीतिक लक्ष्यों तक पहुंच नहीं सका।
बहरहाल “मसावात की जंग” (2001) और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट (2005) और सामाजिक स्तरीकरण के इतिहास से इस बात को बल मिलता है कि अन्य समाजों की तरह मुसलमानों में भी जाति व्यवस्था का प्रभाव रहा है। पसमांदा मुसलमानों के 75 से 80 प्रतिशत हिस्से को समाज और देश में कभी उचित सम्मान नहीं मिला। यही कारण है कि पसमांदा मुसलमानों को मण्डल कमीशन की संस्तुतियों में ओ.बी.सी. के अन्तर्गत अधिसूचित किया गया। मण्डल और उसके बाद की परिस्थितियों में पसमांदा मुसलमान कम से कम सर उठाने की स्थिति में आया है और अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने की प्रक्रिया में है, लेकिन उन्हें आरक्षण का लाभ उस अनुपात में आज तक नहीं मिल सका। मुमकिन है सरकार इस बात से वाकिफ हो और इसी पृष्ठभूमि में 4.5 प्रतिशत कोटे को मंजूरी दी गयी हो। लेकिन सरकार का संदर्भ 1992 के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट की धारा 2 (सी) का है, न कि शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों या अन्य अल्पसंख्यकों का। सवाल लाजमी है कि पिछड़े मुसलमान जो एक सामान्य भारतीय नागरिक के तौर पर जब 18 बरसों में मण्डल के अन्तर्गत लाभान्वित नहीं हो सके तो चुनावी पिटारे से निकलने वाले 4.5 प्रतिशत कोटे के अन्दर कोटे से कैसे लाभान्वित होंगे। मुस्लिम समाज के जाति स्तरीकरण को देखा जाए तो इस कोटे के माध्यम से पिछड़ेपन की वंचना सहने वाले पिछड़ों और अगड़ेपन के आकंठ में डूबे संभ्रांतों को एक ही पंिक्त में लाकर खड़ा कर देना कहां तक उचित है?
आरक्षण की पृष्ठभूमि, नीति और राजनीति के संदर्भ में यह समय समीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है। इसलिए कि विश्लेषण और समीक्षा के बाद उन कारणों का पता चल सकता है कि मण्डल कमीशन लागू होने के बाद मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिन्दू पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का पूरा-पूरा लाभ क्यों नहीं मिला? यह भी कि केन्द्र और राज्य की नौकरियों में खाली पड़ी ओ.बी.सी. की सीटों को समय रहते क्यों नहीं भरा जा सका।
उक्त बातें अल्पसंख्यक आरक्षण से संबंधित सरकार की मंशा को संशय के घेरे में ले आती है। यदि राजनीतिक रूप से देखा जाए तो इस फैसले से पिछड़े समाजों में लोकतंत्रीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है वह कमजोर हो सकती है। क्योंकि जाति विन्यास में “जिसकी लाठी/उसकी भैंस” वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी 27 प्रतिशत में शामिल कर लिए गए हैं। सर्वाधिक लाभ उन लोगों को मिलने की संभावना है जो पहले से ही संभ्रांत और समृद्ध हैं। खासकर वे लोग जो आरक्षण की मूल भावना और सिद्धान्त का आरम्भ से ही विरोध करते आए हैं। ऐसे में कोटे के अन्दर 4.5 प्रतिशत कोटा का टोटा जातीय दम्भ और सामंती वर्चस्व के दावानल में अल्पसंख्यक पिछड़ों को कुछ और सदियों तक जलाता रहेगा। मेरा मानना है कि आरक्षण की लड़ाई महज शिक्षा और नौकरी की लड़ाई नहीं है। यह लड़ाई समतामूलक समाज के निर्माण और सम्मान की लड़ाई है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए।

Wednesday, February 1, 2012

असंतुलित होता बाल लिंग अनुपात और भविष्य की चुनौतियां


"यह बिन्दु विचारणीय है कि कोई माता-पिता अपनी ही सन्तान के साथ दोहरा रवैया क्यों अपनाता है? ऐसे दौर में जबकि शिक्षा और साक्षरता के ग्राफ में लगातार वृद्धि दर्ज की गयी है, तो ऐसे समय में लिंगभेद की घटनाएं भी निरन्तर बढ़ी हैं। यद्यपि शिक्षा के चलते “हम दो-हमारे दो” के साकारात्मक परिणाम जरूर आए हैं। लेकिन पढ़े-लिखे समाजों में भ्रूण हत्या की घटनाओं का बढ़ता ग्राफ लैंगिक भेदभाव की नयी कहानी बयान करता है। जनगणना 2011 के प्रोविजनल आंकड़े हमें और हमारी सोच को सचेत करने के लिए काफी हैं। यदि अब भी हम मान्यताओं और धारणाओं की कैद से बाहर नहीं निकलेंगे और बच्चियों के जन्म से संबंधित पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए जागरूक नहीं होंगे तो हमें बीस बरस बाद आने वाले भयावह परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।"


भारतीय समाज में औरतों के साथ भेदभाव कोई नई बात नहीं है। इस विषय पर चर्चा परिचर्चा भी खूब होती है। हमारे देश में तो सरकारों ने महिला सशक्तिकरण के लिए अलग से योजनाओं का क्रियान्वयन भी किया है। यहां तक कि घरेलू हिंसा निरोधक कानून को भी अमल में लाया गया है। लेकिन दुःख की बात है कि महिलाओं के साथ भेदभाव का ग्राफ घटने के बजाय और अधिक बढ़ा है। बाहर से भले ही महिलाओं की स्थिति में सुधार के कुछ तत्व दिखाई दे रहे हों जैसे शिक्षा और नौकरियों में उनकी बढ़ती तादाद वगैरह। जनगणना 2011 में महिला-पुरूष लिंगानुपात में सुधार भी हुआ है लेकिन जब नज़र 0 से 6 वर्ष के बच्चों की आबादी पर पड़ती है तो हमें हैरान होना पड़ता है। क्योंकि इस आयु वर्ग में लिंगानुपात पिछले दस वर्षों में असंतुलित हुआ है। 2011 के आंकड़ों के अनुसार बाल लिंग अनुपात 2001 के 927 प्रति 1000 लड़कों की तुलना में 914 प्रति 1000 लड़के दर्ज किया गया। देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में यह अनुपात 2001 के 916 से घटकर 899 दर्ज किया गया। जो राष्ट्रीय स्तर पर -1.40 के नाकारात्मक गिरावट से अधिक -1.86 प्रतिशत। इस असंतुलन को पिछले बीस वर्षों के शैक्षिक, सामाजिक, ग्रामीण और शहरी विकास के संदर्भ में रखकर देखा जाए तो पता चलता है कि विकास के नए सोपानों को तय करने के बाद भी लिंगभेद के विषय पर प्रगतिशील सोच विकसित करने में सफलता नहीं मिल सकी है। शायद यही कारण है कि 0 से 6 वर्ष आयु में लडकियों की संख्या कम हुई है।

यहां मकसद सरकारी और गैर सरकारी आकडों की प्रस्तुति नहीं है बल्कि सामाजिक संदर्भों में लड़कियों और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव की घटनाओं मौजूदा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में समझना है। विशेषकर उन घटनाओं को जिन्हें समाज भेदभाव मानता ही नहीं है।
पहला उदाहरण उन महिलाओं का जिन्हें घर दहलीज की ज़ीनत समझा जाता है। बेशक 21वीं सदी की दूसरी दहाई में कुछ महिलाओं के नाम जरूर सुने जाते हैं जो उच्च शिक्षा से लेकर व्यापार और राजनीति में अहम भूमिका निभा रही हैं। लेकिन यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरा पहलू या तो हम देख नहीं पाते या हमें दिखाया नहीं जाता है। घर के अन्दर रहने वाली औरतों का दर्द सिक्के के इसी पहलू में छिपा होता है। सिक्के का यह पहलू सामाजिक मूल्यों, परंपराओं और संस्कृति के नाम पर छिपाया जाता रहा है।
महिलाओं के शोषण और उन पर होने वाले अत्याचारों को कम करने के लिए प्रीवेन्शन ऑफ डोमेस्टिक वाइलेन्स एक्ट, 2005 जैसा कानून भी प्रवर्तन में है। लेकिन 5 वर्ष बाद भी घरेलू हिंसा की घटनाओं में कोई खास कमी नहीं आई है। विभिन्न रूपों में होने वाला घरेलू हिंसा हर समाज की महिलाओं को झेलना पड़ता है। ये बात अलग है कि यह किसी स्थान पर कम और किसी जगह पर अधिक है। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश इस दृष्टि से अधिक संवेदनशील है। सामाजिक स्तरीकरण और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर देखा जाए तो हर जाति और धर्म में घरेलू हिंसा किसी न किसी रूप में मौजूद है। जहां तक मुस्लिम समाज का संबंध है तो इस समाज की महिलाओं का जिक्र तलाक, हलाला और परदा से आगे नहीं बढ़ पाता है। बहस का इस दायरे तक सीमित रहना इस बात का प्रमाण है कि सूचना-तकनीक के दौर में शिक्षा, नौकरी और समाज व राजनीति में मुस्लिम महिलाओं की भूमिका काफी सीमित है। इसके कारणों पर विचार करने का पहला दायित्व समुदाय का है। समुदाय चिन्तन करता भी है लेकिन तलाक, हलाला और परदा से आगे नहीं निकल पाता है। इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि अन्य समाजों के लोग इस सवाल पर प्रगतिशील सोच रखते हैं। घरेलू हिंसा के विभिन्न रूपों, माध्यमों और तरीकों पर विभिन्न समुदायों और समाजों के लोगों में मौन सहमति और विलक्षण समानता है। यह समानता लिंग आधारित भेदभाव को बरतने का है। घरेलू हिंसा के विभिन्न स्वरूप प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही रूपों में महिला रूपी मनुष्य के अधिकारों के हनन के कारक होते हैं। कैसे संभव होता है कि एक ही छत के नीचे जन्मने वाले मानव जीवों को लैंगिक पहचान के आधार पर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं और अवसरों से वंचित रखा जाता है। लड़कों के मामले में अवसरों के तमाम दरवाजे खुले रखे जाते हैं। जो दरवाजे बन्द होते हैं उन्हें भी खोलने के लिए हर प्रयास किए जाते हैं। लेकिन लड़कियों के मामले में अवसरों के सीमित दरवाजे ही खोले जाते हैं। यह सब करता भी मनुष्य है। वह मनुष्य जो अपने बच्चों का सबसे बड़ा शुभचिन्तक होता है।
जाहिर है मां-बाप के फैसलों जिनमें पुरूष प्रधानता होती है, से कोई नवजात शिशु लड़का बना दिया जाता है और कोई लड़की। किसी हद तक वैज्ञानिक प्रगति ने भी सामाजिक जड़ता को बढ़ाया है। वैज्ञानिक प्रगति पुरूष सत्ता की मान्यताओं को कमजोर या खत्म करने में नाकाम रहा है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आज भी समाज मनोवैज्ञानिक स्तर पर पुरूष सत्ता के अनुरूप पुत्र-प्रेम और संतानोत्पत्ति से संबंधित पुराने विचारों से आजाद नहीं हो सका है। पुरूष वर्चस्व अपने आस्तित्व को वंश बढ़ाने के लिए बचाए रखने की कोशिश करता है। इस फैसले में महिलाओं की भी सहमति होती है। क्योंकि वह शिक्षित नहीं होती हैं। क्योंकि उन्हें शिक्षा के अवसरों से वंचित रखा जाता है। अवसरों के अभाव में महिलाएं समाजीकरण की प्रक्रिया से अलग-थलग रह जाती हैं। परिणाम स्वरूप उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक भूमिका घर के रसोई तक सीमित रहती है।
लेकिन महिलाओं को रसोई तक सीमित रखने वाला पुरूष सत्तात्मक समाज यह नहीं सोचता की वह गाहे-बगाहे महिलाओं के श्रम से ही सामाजिक पूंजी खड़ी करता है। उदाहरण स्वरूप किसी के घर पर जब अतिथि आते हैं तो उन्हें चाय-पानी से लेकर स्वादिष्ट भोजन कराने और उनके जूठे बरतनों को साफ करने का दायित्व औरतों का ही होता है। इस काम में 8-10 साल की बच्चियां भी अपनी मां के साथ सहायिका की भूमिका में होती हैं।
यह बिन्दु विचारणीय है कि कोई माता-पिता अपनी ही सन्तान के साथ दोहरा रवैया क्यों अपनाता है? ऐसे दौर में जबकि शिक्षा और साक्षरता के ग्राफ में लगातार वृद्धि दर्ज की गयी है, तो ऐसे समय में लिंगभेद की घटनाएं भी निरन्तर बढ़ी हैं। यद्यपि शिक्षा के चलते “हम दो-हमारे दो” के साकारात्मक परिणाम जरूर आए हैं। लेकिन पढ़े-लिखे समाजों में भ्रूण हत्या की घटनाओं का बढ़ता ग्राफ लैंगिक भेदभाव की नयी कहानी बयान करता है। जनगणना 2011 के प्रोविजनल आंकड़े हमें और हमारी सोच को सचेत करने के लिए काफी हैं। यदि अब भी हम मान्यताओं और धारणाओं की कैद से बाहर नहीं निकलेंगे और बच्चियों के जन्म से संबंधित पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए जागरूक नहीं होंगे तो हमें बीस बरस बाद आने वाले भयावह परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। लिंगानुपात में असंतुलन कई पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों व घटनाओं को जन्म देता है। ज्ञात हो कि पिछले एक दशक में वयस्क लिंगानुपात में कमोबेश बढ़ोत्तरी के बाद भी लिंगभेद का कांटा हमारे मन मस्तिष्क में कहीं फंसा है। इस कांटे को मन से निकालना नितान्त आवश्यक है। अन्यथा 0 से 6 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों में असंतुलित लिंगानुपात बीस बरस बाद न जाने कितने भयावह परिणामों को सामने लाएगा।

31-01-2012