Friday, February 10, 2012

समतामूलक समाज के सापेक्ष सम्मान की लड़ाई


सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई नयी नहीं है। सामाजिक न्याय की दिशा में पहली बार छठीं शताब्दी ई॰पू॰ में बुद्ध और जैन धर्मों की तरफ से पहल की गयी। मध्यकालीन भारत में भी भक्ति और सूफी आंदोलनों के रूप में समानता के लिए आंदोलन चला। कबीर और नानक जैसे महान समाज सुधारकों ने इसी युग में जन्म लिया। जहां तक आधुनिक भारत में सम्मान और समानता का प्रश्न है तो ज्योतिबा फुले से लेकर डा॰ बी.आर. अंबेडकर तक यह कारवां आगे बढ़ा। 1947 में आजादी और उसके बाद 1950 में संविधान का लागू होना आधुनिक भारतीय इतिहास में एक लैण्डमार्क है कि कम से कम कानून इन तिथियों के बाद जाति, नस्ल, लिंग, धर्म, क्षेत्र और समुदाय के आधार पर किसी नागरिक के साथ न तो भेदभाव किया जाएगा और न ही शोषण होगा। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि अछूत समझा जाने वाला तबका विकास के मुख्य धारा में शामिल हो सके, राष्ट्रपति के विशेष अध्यादेश से आरक्षण की व्यवस्था की गयी। मण्डल के दौर में आरक्षण पर नए सिरे से बहस भी शुरू हुई। ओ.बी.सी. में क्रिमीलेयर के प्रावधान के अनुरूप अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था में भी इस प्रावधान की हिमायत की गयी। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश के साथ ही आरक्षण की नीति पर भी बहस के नए द्वार खुले। जैसे निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू करना, महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण, पसमांदा मुसलमानों के लिए सामाजिक स्टेटस के अनुकूल आरक्षण वगैरह।
आरक्षण के विरोधियों ने हर मोड़ पर अपनी आवाज़ बुलंद की। लेकिन सत्य यही है कि भेदभाव और शोषण पर आधारित  समाजिक व्यवस्था अभी भी मजबूत है। इस व्यवस्था का चरित्र भी अजीब है, जब जाहे, जहां चाहे और जैसे चाहे खुद को समायोजित कर लेती है। नब्बे के दशक में मण्डल कमीशन की अनुशंसाओं का लागू होना ऐसे ही प्रयासों और सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत्त पिछड़े लोगों की उपलब्धि थी। कम से कम शिक्षा और नौकरियों में अवसर के नए द्वार खुले। पिछड़ी जाति के लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिला। मण्डल कमीशन के अन्तर्गत लागू आरक्षण की व्यवस्था का साकारात्मक परिणाम व्यवहार में दिखाई देने लगा। लेकिन सामाजिक न्याय की राह में यह अन्तिम पड़ाव नहीं था। समय का चक्र घूमता रहा। विरोध-प्रदर्शन का लम्बा दौर चला। लेकिन पूर्व प्रधानपंत्री वी.पी. सिंह को याद करते हुए कहना पड़ रहा है कि उन्होंने जो किया वो इतिहास का एक अतिमहत्वपूर्ण फैसला था। पिछले बीस वर्षों में आरक्षण के माध्यम से अपनी हिस्सेदारी और हक प्राप्त करने वालों ने मेरिट के मिथ को धता-बता दिया है। फिर भी जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में पिछड़ी और दलित जातियों के लोगों के साथ भेदभाव बदस्तूर जारी है। मीडिया का हस्तक्षेप बढ़ने से घटनाएं प्रकाश में तो आ जा रही हैं। लेकिन सम्मान को ठेस पहुंचाने के कायदे और कानून शायद अभी भी संविधान से ऊपर हैं। ये कानून अदृश्य और अप्रतयक्ष हैं। ऐसे कानूनों से पार पाना कोई मामूली बात नहीं। यदि होता तो अभी हाल-फिलहाल में राजधानी की दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में ओ.बी.सी आरक्षण को लेकर बहस नहीं होती।
आरक्षण के पीछे मूल भावना “सम्मान” का रहा है। क्योंकि भेदभाव के ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ को वर्तमान से अलग नहीं किया जा सकता। इतिहास का अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक भेदभाव के मानक दैवीय या अलौकिक नहीं हैं बल्कि इन्हें मनुष्यों ने ही स्थापित किया है। इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति जानता है कि मनुस्मृति जैसी किताबों के सहारे भेदभाव को संस्थागत रूप प्रदान किया गया। इससे इतर कुछ संस्थाएं ऐसी भी खड़ी की गयीं जो बिल्कुल अप्रत्यक्ष और अदृश्य थीं। विकास के कालक्रम में ये संस्थाएं जिनकी मान्यता नहीं हैं अभी भी आस्तित्व में हैं। ध्यान दिलाना चाहता हूँ उन गालियां की तरफ जो समाज के पिछड़े और दलित तबके का केन्द्र में रखकर बनायी गयीं और जो आज भी हमारे सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। अपने गांव-मोहल्ले में चलते-फिरते लोगों का गुस्सा जब गालियों के माध्यम से व्यक्त होता है तो इनमें महिलाएं और पिछड़े-दलित ही निशाने पर होते हैं। उदाहरण भी प्रस्तुत कर देता हूँ। स्कूल के दिनों में जब बच्चे आपस में एक दूसरे स मजाक करते थे या चिढ़ाते थे तो प्रेम पूर्वक कही गयी कुछ बातें और उन बातों का निहितार्थ अब समझ में आता है। जैसे- “अहिर-बहिर बम्बोकड़ा क लासा, अहिरा पदलस भइल तमाशा।” यह गाली मजाक लगती है लेकिन किसी पिछड़े के मनोबल को बाल्यावस्था में ही तोड़ने के लिए काफी है। “चोरी-चमारी” में चोरी शब्द समझ में आता है लेकिन “चमारी” का अर्थ विचारणीय है। इसी तरह बात-बात में प्रगतिशील लोगों के मुंह से भी सुना जा सकता है “डोम हउव का” या फिर “जोलहा-जपाटी” और “धुनिया” वगैरह। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी गालियां पिछड़ों, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को लक्ष्य करके किसी साजिश के तहत व्यवहार में लायी गयीं।
बहरहाल आज़ादी के बाद से लेकर अबतक सम्मान के इस संघर्ष में यदि वी.पी. सिंह जैसे कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो आरक्षण विरोधियों को ऐसा लगता है कि आरक्षण से उनका हिस्सा मारा जा रहा है। कहना नहीं है कि प्रोफेशनल कोर्सेज के दौर में नयी पीढ़ी के बच्चों की सोच भी प्रोफेशनल बनती जा रही है। कहा जाता है कि हर आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वजों से एक कदम आगे झंडा फहराती है। लेकिन सामाजिक विकास के सूचकांक पर देखा जाय तो आरक्षण विरोधियों ने अपने पूर्वजों से पीछे ही झंडा फहराया है। 2006-07 में एम्स के तथाकथित मेरिटोरियस डाॅक्टरों को जिन्होंने हिप्पोक्रेटिक शपथ को भी तिलांजली दे दी थी और आरक्षण विरोध की जंग में शामिल हो गये थे। गौर करने की बात यह है कि समान्यतः साइंस स्ट्रीम के छात्र-छात्रा जनआंदोलनों का हिस्सा बनते कभी-कभार ही देखा गया है। लेकिन जब आरक्षण की बात होती है तो ये मरीजों को मरता छोड़ आंदोलन में शामिल हो जाते हैं। इनका कहना है कि आरक्षण से अयोग्य डाॅक्टर बन जाएंगे। ध्यान देने की बात है कि पहले से सामाजिक रूप से सशक्त परिवारों से संबंध रखने वाले बच्चे जब प्राइवेट मेडिकल या इंजीनियरिंग कालेजों में कैपीटेशन की बड़ी रकम अदा करके डाॅक्टर या इंजीनियर बन जाते हैं तो उस समय इनका विरोध न जाने कहां चला जाता है।
पिछले दिनों मैं मऊ जा रहा था। ट्रेन में कुछ छात्रों से मुलाकात हुई। बातों का दौर शुरू हुआ। बात शिक्षा, नौकरी से होते हुए आरक्षण तक आ पहुंची। लड़कों की तारीफ करना चाहूंगा। बहुत भोले और शिष्ट थे। लेकिन आरक्षण के सवाल पर उनका यू टर्न लेना मेरे लिए हतप्रभ होने का विषय नहीं था। क्योंकि यह मेरे लिए कोई नया अनुभव नहीं था। कहना चाहता हूं कि उदारीकरण के इस दौर में बच्चों की पूरी परवरिश आधुनिकता के दायरे में हो रही है लेकिन सम्मान देने और लेने का संस्कार पीढि़यों पुरानी है। कहा जाता है कि पूंजीवाद मनुष्य को दकियानूसी सामाजिक मूल्यों और परंपराओं की जकड़ से मुक्त करता है। लेकिन यहां तो मामला ही अलग है। 2008 मे 27 नवम्बर को जिस दिन वी.पी. सिंह का निधन हुआ था उससे एक दिन पहले मुम्बई का बम हादसा हो गया था। पिछड़ों को सामाजिक समानता की सौगात देने वाले इस व्यक्ति का कद छोटा होते हम सबने देखा था। चलिए मान लेते हैं टी.आर.पी मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज जरूरी है। लेकिन 2009 और 2010 में इस तिथि को तो कहीं कोई बम विस्फोट नहीं हुआ था। फिर वी.पी. सिंह के योगदानों को मीडिया में प्रखुता से क्यों नहीं प्रस्तुत किया गया। जाहिर है निवेश और मुनाफे के सिद्धांतों पर खड़े बड़े-बड़े मीडिया घरानों में भी ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से वर्चस्व प्रधान लोगों का ही प्रभाव है। इस बात को अगस्त माह के भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन से भी जोड़कर देखा जा सकता है। मीडिया का पूंजीवादी और दलित-पिछड़ा विरोधी चरित्र उजागर हो जाता है। एक अन्ना जो भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे, तो अधिकतर समय उनके आंदोलन, अनशन और स्वास्थ्य वगैरह समाचार और चर्चा-परिचर्चा का विषय बने हुए थे। देखा जाए तो अन्ना को अभी जन लोकपाल जैसा कोई कानून पास करवाना है। दूसरी तरफ आज से लगभग दो दशक पहले वी.पी. सिंह ने मण्डल को पास करवाया था और लागू भी करवाया था। जिससे शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिला। लेकिन मीडिया के लिए इंसान का परिमाणात्मक दुःख-दर्द कोई मायने नहीं रखती। आज की बाजार परस्त मीडिया के लिए मनुष्य का मनुष्य के साथ भेदभाव कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए संदेह होता है कि मीडिया का चरित्र पूंजीवादी होने के साथ-साथ ब्राम्हणवादी भी है। कहना पड़ रहा है कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालयों के गठन से काम नहीं चलने वाला है। सरकार ने जिस तरह से अन्ना के खिलाफ इच्छा शक्ति का प्रदर्शन किया या जिस तरह घुटने टेके। ठीक उसी तरह हर क्षेत्र में ब्राम्हणवादी व्यवस्था के प्रच्छन्न प्रभावों को समाप्त करने के लिए इच्छा शक्ति दिखाए तो कोई बात बने। वरना सामाजिक न्याय के नाम पर अन्याय करने वाले बहरूपियों का बोलबाला यूं ही बना रहेगा।
इस लेख के माध्यम से इस ओर भी ध्यान दिलाना चाहता हूं कि कोई भी समाज तभी आगे बढ़ा है जब उस समाज के अन्दर से नेतृत्व उभरा है। ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से पिछड़े और वंचित तबकों की एक कमजोरी रही है वह अपने नेतृत्व को स्वीकारने के बजाय धन, बल और छल के नेतृत्व को सहजता से स्वीकार कर लेता है। उदाहरण के तौर पर पंचायत चुनाओं में जो सीट महिलाओं के लिए या दलितों के लिए सुरक्षित होते हैं वहां महिलाओं के पीछे उनके पति खड़े रहते हैं और पतियों के सर पर किसी सम्पन्न-सम्भ्रांत का हाथ होता है। यानि सशक्तिकरण और सम्मान घूम फिर कर पहले की तरह सम्भ्रांतों के चैखट पर ही पहुंच जाते हैं। ऐसे किसी भी क्षेत्र का दौरा किया जाए तो स्थितियां कमोबेश ऐसी ही मिलेंगी।
अब समय आ चुका है कि मौजूदा दौर में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हो रही प्रगति से कदमताल करते हुए गांव-मोहल्ले, स्कूल-काॅलेज और नौकरियों के प्रतिष्ठानों से लेकर सार्वजनिक जीवन के हर उस स्थान पर अदृश्य रूप में होने वाले भेदभाव की पड़ताल की जाए। सड़क से लेकर संसद तक बौद्धिक परिपक्वता के साथ यह बात बताई जाए कि आरक्षण का संबंध नौकरियां प्राप्त करना नहीं बल्कि समतामूलक व्यवस्था के सापेक्ष सम्मान प्राप्त करने का अबतक का सबसे बेहतर उपाय है। सम्मान की लड़ाई अभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंची पायी है। पिछड़ों-दलितों ने संवैधानिक रूप से एक सोपान जरूर तय किया है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति भी दर्ज की है। लेकिन अभी भी पाने को बहुत कुछ बाकी है।

3 comments:

  1. अपने गांव-मोहल्ले में चलते-फिरते लोगों का गुस्सा जब गालियों के माध्यम से व्यक्त होता है तो इनमें महिलाएं और पिछड़े-दलित ही निशाने पर होते हैं। उदाहरण भी प्रस्तुत कर देता हूँ। स्कूल के दिनों में जब बच्चे आपस में एक दूसरे स मजाक करते थे या चिढ़ाते थे तो प्रेम पूर्वक कही गयी कुछ बातें और उन बातों का निहितार्थ अब समझ में आता है। जैसे- “अहिर-बहिर बम्बोकड़ा क लासा, अहिरा पदलस भइल तमाशा।” यह गाली मजाक लगती है लेकिन किसी पिछड़े के मनोबल को बाल्यावस्था में ही तोड़ने के लिए काफी है। “चोरी-चमारी” में चोरी शब्द समझ में आता है लेकिन “चमारी” का अर्थ विचारणीय है। इसी तरह बात-बात में प्रगतिशील लोगों के मुंह से भी सुना जा सकता है “डोम हउव का” या फिर “जोलहा-जपाटी” और “धुनिया” वगैरह। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी गालियां पिछड़ों, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को लक्ष्य करके किसी साजिश के तहत व्यवहार में लायी गयीं। these lines are self-explanatory. A book can be complied on such derogatory and heinous remarks against backward people. As far as media is concerned you have rightly mentioned their biased approach while covering medical students agitation and Anna stir recently. But समय का चक्र ghoom raha hai, woh subh kabhi to ayegi......

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  2. Ali Asgar@ सोशल ब्रेनवाश में प्रकाशित लेख पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए शुक्रिया असगर साहब

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  3. Dear Dr,

    its very thought provoking article with humor, and fact.

    my salute to you.

    Navin Narayan

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