Monday, May 16, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई

भारत को सोने की चिडि़या कहा जाता है। चार-पाँच रूपए मूल्य की काॅपी पर तिरंगा ध्वज के साथ मेरा भारत महान” लिखकर बच्चों को अपने देश की महानता का बोध कराया जाता है। लेकिन आज भ्रष्टाचार नामक दीमक व्यवस्था को चाट-चाट कर इतना खोखला कर दिया है कि भारत की महानता न सिर्फ धूल-धूसरित हो रही है बल्कि नागरिक समाज त्राही-त्राही कर रहा है। संविधान द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाएं भ्रष्टाचार के दावानल में धँू-धँू कर के जल रही हैं। भ्रष्टाचार स्वतंत्र भारत में शुरू से ही अज्ञात नहीं रहा है। आजादी के बाद भ्रष्टाचार की पहली घटना जीप घोटाला नेहरू के समय में ही प्रकाश में आया था। हाँ 80 और फिर 90 के दशक में इसका बेलगाम विस्तार हुआ। तब से लेकर आज तक एक से बढ़कर एक घोटालों और इनमें शामिल हाई प्रोफाइल लोगों तथा इनकी शह पर या परिस्थितिजन्य कारणों से भ्रष्टाचार की खेती करने वाले साधारण जनों के नाम सामने आ चुके हैं। लेकिन कुछ एक मामलों को छोड़ दिया जाय तो प्रायः भ्रष्टचार में लिप्त व्यक्ति कानूनी दाव-पेंचों से बच निकलते हैं। पिछले दिनों जब अन्ना हजारे जन्तर-मन्तर पर बैठे तो ऐसा लगने लगा कि जनता की आवाज को एक काॅमन प्लेटफार्म मिल गया। लेकिन जन लोकपाल पर गठित समित में नागरिक समाज के दो प्रतिनिधियों पर वंशवाद और फिर सी॰डी॰ प्रकरण के आरोपों से पूरे अभियान की किरकिरी करने की कोशिश की जा रही है।
कहना नहीं है कि लोकपाल बिल का मुख्य उद्देश्य जनतंत्र की उच्च संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना है। हम जानते हैं कि किसी भी अपराध के लिए भारतीय संविधान में एक नहीं बल्कि कई-कई अनुच्छेद और धाराएं हैं। जिनपर प्रभावी ढ़ंग से अमल किया जाय तो भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकती है। साथ ही समाज और देश की ढे़रों समस्याओं से समय रहते निजात भी मिल जाए। लेकिन रसूख प्रिय और कबूतरबाजी में ज़ोर आज़माइश करने वाले नेताओं पर किसी भी मामले में मुकदमा चलाना और उन्हें सजा दिलवाना टेढ़ी खीर है। लोकपाल बिल सत्ता के शिखर पर बैठे ऐसे राजनेताओं और उनतक पहुंच रखने वाले लोगों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की जांच और दोषी पाए जाने पर उन पर मुकदमा चलाने तथा जेल भेजने का प्रावधान करता है। गौर करने की दूसरी बात यह है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे पहुंचता है। मौजूदा दौर में आम लोगों की धारणा है कि व्यवस्था का हर अंग भ्रष्टाचार की जद में है। जिसे समाप्त करना मुश्किल है। यह धारणा किसी पौराणिक-धार्मिक मान्यता की तरह स्थापित चुका है। लोग यह नहीं सोचते कि भारतीय राजव्यवस्था में यह धारणा स्थापित और विकसित कैसे हुआ? ध्यान रहे कि सोशल मोबिलिटी के सिद्धांत के अनुसार सामाजिक गतिशीलता अपवर्ड यानि नीचे से ऊपर की ओर बढ़ती है। लेकिन राजकाज में प्रचलित डाक्ट्रिन आफ इनफिल्ट्रेशन” के सिद्धांत के अनुसार शासन-प्रशासन की अच्छी-बुरी चीजें ऊपर से नीचे पहुंचती हैं। जैसे लोक कल्याणकारी योजनाएं और इन योजनाओं के साथ भ्रष्टाचार की बुराई। इस संदर्भ में देखा जाए तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति ही भ्रष्टाचार के मूल स्रोत हैं। ज्यादातर मामलों में ये लोग कानून की धज्जियां उड़ाने और जनता की आँखों में धूल झोंकने में कामयाब रहते हैं। भ्रष्टाचार के कुछ एक हाई प्रोफाइल मामलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर मामलों में भ्रष्टाचारी चोरी और सीनाजोरी की कहावत को चरितार्थ करते नजर आते हैं। परिस्थितियां ऐसी बन चुकी हैं कि हर व्यक्ति चाहे वो सरकारी बाबू हो या कोई आम नागरिक हेरा-फेरी के लिए विवश है। छोटे-छोटे काम के लिए लोगों को न सिर्फ सरकारी दफतरों के चक्कर लगा-लगाकर अपनी चप्पल घिसानी पड़ती है बल्कि जेब भी ढ़ीली करनी पड़ती है। दलालवाद के इस दौर में जन लोकपाल बिल के रूप में यदि उम्मीद की नई किरण देखी और दिखाई जा रही है तो इसमें बुरा क्या है?
कहना पड़ रहा है कि बुरे लोगों के लिए हर अच्छी बात बुरी होती है। बात करते हैं अन्ना, शांति और सरकार की। अन्ना हजारे की पहचान सर्व विदित है। स्वामी रामदेव का वंशवाद का आरोप क्षण भर के लिए निराशा का कारण बना। आम जनता का एक बड़ा हिस्सा उनके विश्वास में आने लगा। आए भी क्यों न! ऐसा होना स्वाभाविक है। क्योंकि वंशवाद समकालीन भारतीय राजनीति की उभयनिष्ठ पहचान के संकेतकों में एक है। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो मीडिया में चल रहे उठा-पटक से इतर मामले की तह तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। दूसरे ही दिन स्वामी रामदेव ने शांति भूषण और प्रशांत भूषण के पक्ष में स्पष्टीकरण दिया। इस स्पष्टीकरण को पिता-पुत्र के रूप में दो विधि विशेषज्ञों के पक्ष में दिया गया स्पष्टीकरण भी कहा जा सकता है। यह भी पूछा जा सकता है कि क्या पूरे भारत में यही दो व्यक्ति विधि की विशेषज्ञता रखते हैं? यह सवाल अपनी जगह सही भी है लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि देश में विभिन्न मुद्दों पर चल रहे जनान्दोलनों से कौन लोग कितने समय से जुड़े रहे हैं। इस संदर्भ में विधि विशेषज्ञ की हैसियत से शांति भूषण का कैरियर अच्छा कहा जा सकता है। उन्होंने ही सन् 1977 ई॰ में बतौर विधि मंत्री लोकपाल बिल का मसौदा संसद में पेश किया था। इसके बाद भी वो लगातार एक वकील की हैसियत से भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल रहे हैं। देश के कई भ्रष्ट न्यायधीशों को बेनकाब करने में उनके प्रयास सराहनीय रहे हैं। इस कार्य में उन्हें अपने पुत्र के रूप एक बेटा नहीं बल्कि ऐसा सहयोगी मिला जिससे पिता पुत्र की निजी पहचान पीछे रह गयी। ऐसा प्रतीत होता है कि लोकपाल पर बनी समिति में नागरिक समाज के प्रतिनिधि के रूप में शांति भूषण और प्रशांत भूषण पिता-पुत्र नहीं बल्कि ऊर्जा के दो ऐसे रूप हैं जो लोकपाल के स्वरूप को तय करने के लिए जरूरी हैं।
रही बात सी॰डी॰ प्रकरण वाले राजनेता की तो ऐसे व्यक्तियों की पहचान किसी से छिपी नहीं है। ऐसे लोग किसी सर्वव्यापी वस्तु की तरह राजनीति, फिल्म और उद्योग हर जगह समान रूप से मौजूद हैं। ये लोग राजनीति के नाम पर दलालवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुछ एक मामलों में इन जैसे लोगों का बयान साबित करता है कि भ्रष्टों की सूची में इनका नाम स्वर्णाच्छरों में लिखा जाना चाहिए। ऐसे लोग जब आपस में खूब छानते रहते हैं तो एक दूसरे को बड़ा भाई बताकर शिष्टाचार दिखाते हैं। जब आपस में मतभेद होता है तो कहते नहीं थकते कि मैं बोलूंगां तो फलां जेल के अन्दर होंगे। तब तो बोल ही देना चाहिए। यदि किसी के बोलने से किसी भ्रष्ट या पापी को उसके किए की सजा मिल जाए तो लोकतंत्र के लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है? लेकिन बोलेंगें नहीं, क्योंकि वो तो खुद भी उसी स्कूल के विद्यार्थी रहे हैं जहां भ्रष्टाचार और दलाली का ‘क, , , घ और ड. मिन्स कुछ नहीं पढ़ा और पढ़ाया जाता है। मीडिया के पास ऐसे लोगों के बयानों के तमाम फुटेज पड़े हैं। जिसे पूरा देश देखता-सुनता है लेकिन महसूस नहीं करता। यदि महसूस करता तो ऐसे बयानों का संज्ञान लिया जाता और हर बयान के अन्दर निहीत किसी गैर सामाजिक, गैर विधिक कार्य को किए जाने और उसपर परदा डालने वालों की खैरियत पूछी जाती।
बहरहाल चन्द सिरफेरे नेताओं के आरोपों के कारण किसी आंदोलन की किरकिरी नहीं होनी चाहिए। देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बहुत कुछ चल रहा है। इस दौर की चुनौती यह है कि एक एक तरफ जहां अवाम को काॅमन प्लेटफार्म पर लाना है वहीं भ्रष्टाचार के मुद्दा पर नेतृत्व को भी बचाना है। सबको पता है कि जनप्रतिनिधियों में सांसद निधि और वेतन-भत्ता में वृद्धि जैसे मुद्दों पर गजब की सहमति है। लेकिन जब बात जन समस्याओं और सुविधाओं की होती है, जैसे महिला आरक्षण बिल, शिक्षा पर बजट, रोजगार, बिजली, पानी और सड़क इत्यादि की, तो हर नेता अपना पल्ला झाड़ते दिखता है। राजनेता हमारा प्रतिनिधित्व करने के बजाय चन्द मुट्ठी भर संभ्रातों और पूंजीपतियों की सेवा में लगे हुए हैं। सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार हमारा काॅमन इश्शू है। फिर भी इस सवाल पर हम अपने आप को एक काॅमन प्लेटफार्म पर इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है इस मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए। कहना नहीं होगा कि यह तर्क किसी मुद्दे को डिपोलिटिसाइज और असल मुद्दे से ध्यान डाइवर्ट करने का है। जब सभी मामले राजनीति से ही तय होने हैं तो राजनीति होनी चाहिए। अच्छे और सच्चे लोगों की राजनीति। लिंग, जाति, धर्म, वंश और अवसरवाद से परे आम जनता की राजनीति। भ्रष्टाचार से त्रस्त अवाम की राजनीति न कि दलालवाद के पुरोधाओं की राजनीति।
 इतिहास हमें रास्ता भी दिखाता है। जैसे 1936 ई॰ में प्रगतिशील आंदोलन के समय विभिन्न भाषाओं के कवि एवं साहित्यकार एक प्लेटफार्म पर इकट्ठा हुए थे। मौजूदा दौर द्रुतगामी परिवर्तनों का है। यह समय संचार क्रांति द्वारा जनित बेतार माध्यमों का है। पल में राय बनती है और दूसरे पल बिगड़ती है। यह समय सजग और सचेत रहने का है। कम से कम उन चुनौतियों से जो आधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्वाभाविक परिणति हैं। जिससे भ्रष्टाचार को अलग करके नहीं देखा जा सकता। अन्ना को महज चार दिनों में गांधी का अवतार बनाने वाले टी॰आर॰पी॰ मीडिया के सापेक्ष वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने और प्रभावी बनाने की भी चुनौती है। ताकि छोटे-छोटे समूहों में बिखरे हुए जन समूहों को एक काॅमन प्लेटफार्म पर लाया जा सके। और तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी जा सकेगी।

दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक शिल्पकार टाइम्स के १६-३० जून, २०११ के अंक में प्रकाशित.