Wednesday, August 17, 2011

तय करो किस ओर हो तुम...... !



 हर उस व्यक्ति के हर उस लड़ाई में शामिल हुआ जाए जो किसी भी मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों के पक्ष में हो। जो संविधान प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन को रोक सके। सिविल सोसाइटी को अन्ना-अन्ना बनाना हो तो बनाएं लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि हम आज की तारीख में हैं कि तरफ, अन्ना की तरफ, भ्रष्टाचार विरोध की तरफ, किसी व्यक्ति या पार्टी के विपक्ष में या फिर लोकतांत्रिक अधिकारों की तरफ। तय करो किस ओर हो तुम...... !

16 अगस्त को अन्ना और सहयोगियों की गिरफ्तारी व रिहाई और अन्ना का तिहाड़ में ही अनशन पर डट जाना वगैरह घटनाओं से हम सभी अवगत हैं। टी.वी. स्क्रीन की भीड़ 10 करोण बतायी गयी, भीड़ में अन्ना के लिए जान देने तक की बातें की गयीं, अधिकतर चैनलों और अखबारों अन्ना ही छाए रहे। मजेदार बात यह है कि हर शहर में अन्ना भीड़ का एजण्डा और भीड़ टी.वी. का एजेण्डा दिखा। टी.वी. रिपोर्टर्स का चींखना-चिल्लाना ऐसा जैसे वो टी.वी. स्क्रीन से सचमुच ही बाहर निकल आएं। पिछले हफ्ते ऐसा लगा था कि जात-पात और आरक्षण का मुद्दा सर्व प्रमुख है लेकिन इस जाते हुए सप्ताह में भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा रहा। यह भी पहली बार नहीं हुआ था। इससे पहले जून माह में भी जन्तर-मन्तर और रामदेव के रामलीला वाली घटना में भी हुआ था। टी.आर.पी. मीडिया से अलग देखा जाय तो भ्रष्टाचार एक अहम समस्या तो है ही जिस पर अन्ना के सबब ही सही देशवासियों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। लेकिन सरकार अन्ना और नागरिक समाज के हस्तक्षेप को कदम-कदम पर टालने की कोशिश कर रही है। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के बयान का भाव यह है कि “कानून संसद द्वारा बनाया जाना चाहिए न कि मैदान में बैठे सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह द्वारा।” गृहमंत्री के बयान को यदि संसदीय लोकतंत्र के आइने में देखा जाय तो इसमें गलत क्या है? मेरी बातों का यह मतलब नहीं कि मैं चिदम्बरम या यूपीए की राजनीति और कार्यशैली से सहमत हूँ। ध्यान दिलाना चाहता हूँ संसदीय लोकतंत्र में जनलोकपाल के समर्थक जन गण के मन की भूमिका पर। अलग-अलग शहरों में अन्ना के समर्थन में होने वाले विरोध-प्रदर्शनों को देखकर यह आभास हुआ कि अन्ना और सिविल सोसाइटी भी मुद्दा बन चुके हैं सरकार के लिए।
संविधान में निहित शक्तियां संसद से लेकर सड़क तक समान रूप से आहूत की गयी हैं। पूरी व्यवस्था बनायी गयी है कि जनगण अपने मूलाधिकारों का प्रयोग करके अपनी पसन्द का “अन्ना” संसद में भेजे। लेकिन शासक वर्ग के चरित्र के आगे सारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का दम तोड़ देना मौजूदा दौर की भयावह त्रासदी कही जानी चाहिए। क्योंकि यह दौर साइबर युग कहा जा रहा है। जमीन तो जमीन चांद और मंगल तक उड़ानें भरी जा रही हैं। ऐसे में अन्ना में यदि आने वाले कल की कोई साफ-सुथरी छवि दिखाई देती है तो नागरिक समाज की जय करना ही चाहिए।
कुछ बातें नागरिक समाज के बारे में। न्यूज चैनलों और अखबारों की तस्वीरों में नागरिक समाज संख्या देखते बनती है। यह समाज अन्ना जैसों के लिए कैन्डिल जलाते फिर रहा है। वैसे कैन्डिल जलाने की परंपरा आमिर खाँ अभिनित “रंग दे बसंती” के बाद काफी मजबूत हुई है। वरना मैं तो बचपन से मशाल जुलूस ही जानता था। जो लोकतांत्रिक आवाज़ को बुलन्द करने का सूचक समझा जाता रहा है। लेकिन अब मशालों से पर्यावरण को खतरा पहुंच रहा है। इसलिए कैन्डिल जलाओ। लो भई गया जमाना मशाल जुलूस का और आया जमाना कैन्डिल मार्च का। याद आया मार्च महीने में ही भगत सिंह को फांसी दी गयी थी। बहरहाल बात सिविल समाज की है तो सुनते-सुनते अब यह कोई पार्टी या सियासी जमात जैसा नाम लगने लगा है। इस समाज की व्यापक परिभाषा क्या है, बताना होगा इस देश की जनता को। मेरा निजी विचार है कि टी.वी. पर जो दस करोण लोग अन्ना-अन्ना चिल्ला रहे हैं, कम से कम उन्हें इसी सिविल समाज के प्लेटफार्म पर इकटठा करके यह बात बता देनी चाहिए कि लोकतंत्र में हमने पहली गलती कहां की थी, जिसके परिणाम स्वरूप सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की तूती बोल रही है। 15 अगस्त और 26 जनवरी को हम आपस में संदेशों का आदन-प्रदान करके इन अवसरों को समारोहपूर्वक मना लेते हैं। लेकिन आज़ादी के संघर्ष और संवैधानिक अधिकारों और दायित्वों के बारे में जरा भी नहीं सोचते। काश ऐसा संभव होता कि सौ करोण से अधिक आबादी वाले इस देश के मतदाताओं की आधी संख्या को भी यह बात समझ में आ जाती कि गुप्त मतदान की प्रणाली में ही तमाम शक्तियां छुपी हुई हैं। किसी अच्छे चरित्र वाले को हम क्यों नहीं भेजते संसद में। वोट का अधिकार आजादी की लड़ाई से अलग नहीं कीे जा सकती। फिर सड़क से संसद पहुंचने का रास्ता तो यही है न कि हम अपने प्रतिनिधि चुने और भेजें। कहा जा सकता है कि परिस्थितियां ऐसी रही नहीं कि हम अपना मताधिकार स्वतंत्र रूप से प्रयोग कर सकें। जब से अपराध और राजनीति का गठजोड़ हुआ है तब से तो ऐसा असंभव सा प्रतीत हो रहा है। लेकिन परिस्थितियां ऐसी भी नहीं हैं कि हम हर बात के लिए विवश हो चुके हैं। ताजा उदाहरण अन्ना का ही ले लीजिए। अन्ना और उनके सहयोगियों को देर तक गिरफ्तार नहीं रखा जा सका। ये बात अलग है कि अन्ना जेल में ही डट गए।
मैं तो यह कहता हूं, हे अन्ना आप आहवान करो उन 10 करोण लोगों का जो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में आप के पक्ष में खड़ा बताए जाते हैं। व्हिप जारी करो इनको कि आने वाले चुनावों में ये लोग अपने-अपने क्षेत्रों के अन्ना को ही चुन कर संसद और विधान मण्डलों में भेजें। यदि ऐसा होता है तो गृहमंत्री के मुंह पर जोरदार तमाचा होगा। इस तमाचे का अर्थ यह होगा कि हर क्षेत्र से अन्ना जैसे जब एक छत के नीचे बैठेंगे तो जन-लोकपाल के रास्ते में आने वाली अड़चनें खुद-ब-खु़द ख़त्म हो जाएंगी। एक फायदा यह भी होगा कि भ्रष्ट छवि के नेताओं की जमात भी स्वतः हाशिए पर पहुच जाएगी। तीसरा लाभ यह कि जिस बेदर्दी से हुकूमत विरोध प्रदर्शनों को नेस्तनाबूद करने के मंसूबों को आगे बढ़ा रही है, उस मंसूबे पर भी लगाम लग सकेगा। अन्ना समर्थकों से यह भी तकाजा है कि जब देश के सभी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों पर अघोषित कफ्र्यू लागू है तो वहां पर विरोध-प्रदर्शन के मूलाधिकारों की बहाली के लिए सिविल सोसाइटी प्रयास करेगी।
यह बहस जारी रहेगी। अभी तक के लिए इतना ही कि सोनिया या मायावती मुर्दाबाद करने से बेहतर है कि हम भ्रष्टाचार हो बरबाद के नारे लगाएं। हर उस व्यक्ति के हर उस लड़ाई में शामिल हुआ जाए जो किसी भी मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों के पक्ष में हो। जो संविधान प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन को रोक सके। सिविल सोसाइटी को अन्ना-अन्ना बनाना हो तो बनाएं लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि हम आज की तारीख में हैं कि तरफ, अन्ना की तरफ, भ्रष्टाचार विरोध की तरफ, किसी व्यक्ति या पार्टी के विपक्ष में या फिर लोकतांत्रिक अधिकारों की तरफ। तय करो किस ओर हो तुम...... !

Saturday, August 13, 2011

मदरसों का सामाजिक परिप्रेक्ष्य


अधिकतर बच्चे सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से आते हैं। बहुत बच्चे ऐसे हैं जो यतीम होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनके सरपरस्त मजदूरी कर सकने की भी स्थिति में नहीं होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके समक्ष बाल्यकाल में ही पेट की आग बुझाने की चुनौती होती है। आर्थिक बदहाली का शिकार ऐसे बच्चे मीडिल क्लास की तरह सरकारी या गैर-सरकारी संसाधनों की पहुंच से कोसों दूर होते हैं। ये बच्चे सिविलाइजेशन की प्रक्रिया से भी अलग-थलग रह जाते हैं। यदि मदरसों की छत न मिले तो ये बच्चे भी कहीं कूड़ा बिनते नजर आते या जेब काटते होते या फिर कहीं बंधुवा बाल श्रमिक होते।

मदरसों को लेकर तरह-तरह भ्रान्तियां हैं। कोई मदरसों को धार्मिक शिक्षा तक सीमित समझता है तो कोई इसे सीधे आतंकवाद से जोड़कर देखता है और कोई रूढि़वाद की पनाहगाह बताता है। लेकिन मदरसों के शैक्षिक और सामाजिक चरित्र तथा भूमिका पर बातें कभी-कभार ही होती हैं। अधिकतर बातों का संदर्भ आतंकवाद की बढ़ती-घटती घटनाएं होती हैं। सत्य और तथ्य चाहे जो हो, मौजूदा दौर की सच्चाई है कि हर विस्फोट के बाद मदरसा जांच एजेंसियों के निशाने पर आ जाते हैं। मदरसा ही क्यों, माइनारिटी स्टेटस रखने वाले दूसरे शैक्षिक संस्थान भी संदेह के घेरे में रहते हैं। इस संदर्भ में यदि मदरसों का छोड़ दिया जाए तो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और हाल में माइनारिटी स्टेटस प्राप्त करने वाले जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की सेक्यूलर छवि भी धूमिल हो रही है। निश्चित तौर पर नौजवानों का एक हिस्सा आतंकवादियों के नापाक इरादों का शिकार हुआ है। लेकिन कुछ सिरफिरों के चलते पूरे समुदाय को ही शक के घेरे में लाना ठीक नहीं है। यह एजेण्डा दरअसल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक आरएसएस और वीएचपी जैसे हिन्दुवादी संगठनों का रहा है। किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं। मदरसों में पढ़ाई जाने वाली दीनी किताबें या धार्मिक शिक्षा एक प्रबल पक्ष है, जो अक्सर मीडिया में बहस का मुद्दा होता है। लेकिन यह आधा सच है। यदि पूरी हकीकत जाननी है तो हमें मदरसों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी ध्यान देना होगा।
पहली महत्वपूर्ण बात यह कि मदरसा आवासीय शिक्षण संस्थान के बेहरीन उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। शिक्षा में स्कूल का संगठन महत्वपूर्ण पक्ष होता है। मदरसों का अनुशासन और आन्तरिक संगठन अपनी जगह काबिले तारीफ है। सवाल यह है कि मदरसे मुख्य धारा से जुड़े नहीं हैं। यदि मदरसा शिक्षा बोर्ड से मान्यता प्राप्त स्कूलों (मदरसों) की बात करें तो उत्तर प्रदेश में ही 1500 से अधिक मदरसे हैं जिन्हे बोर्ड की मान्यता प्राप्त है। बोर्ड की मान्यता प्राप्त होने का मतलब है कि इतनी बड़ी तादाद में मदरसे सरकारी नीतियों और दिशा निदेशों का पालन करते हैं। रही बात अलग से मदरसा शिक्षा बोर्ड के आस्तित्व की तो संविधान की अनु॰ 30(1) के तहत भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शिक्षण संस्थान खोलने और चलाने का मूलाधिकार प्राप्त है।
दूसरी बात मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों की। मालूम हो कि अधिकतर बच्चे सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से आते हैं। बहुत बच्चे ऐसे हैं जो यतीम होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनके सरपरस्त मजदूरी कर सकने की भी स्थिति में नहीं होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके समक्ष बाल्यकाल में ही पेट की आग बुझाने की चुनौती होती है। आर्थिक बदहाली का शिकार ऐसे बच्चे मीडिल क्लास की तरह सरकारी या गैर-सरकारी संसाधनों की पहुंच से कोसों दूर होते हैं। ये बच्चे सिविलाइजेशन की प्रक्रिया से भी अलग-थलग रह जाते हैं। यदि मदरसों की छत न मिले तो ये बच्चे भी कहीं कूड़ा बिनते नजर आते या जेब काटते होते या फिर कहीं बंधुवा बाल श्रमिक होते। बहरहाल संघी मानसिकता के लोगों द्वारा इनकी टोपी, लुंगी और दाढ़ी को आतंकवाद के प्रतीक के रूप में प्रतिबिम्बित करने से इनके समझ राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पहचान का संकट और पेंचीदा हो जाता है। कुछ देर के लिए मान लिया जाय कि मदरसे शिक्षा के उचित स्थान नहीं हैं तो हजारों की संख्या में गरीब बच्चों के शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्था क्या है? खास करके उनके लिए जिनका परिवार गरीबी रेखा से नीचे नहीं बल्कि बहुत नीचे जीवन यापन कर रहा है। एक्शन एड के एक अध्ययन में आश्चर्यचकित कर देने वाले तथ्य सामने आए हंै कि अभी भी ग्रामीण मुसलमानों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की औसत आय मात्र 11 रूपए है।
संघी मानसिकता के लोगों का कहना है कि मदरसे आतंकवाद की पाठशाला हैं। इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना बयानों से एक तरफ जहां भावनात्मक स्तर पर संविधान प्रदत्त अल्पसंख्यकों की धार्मिक और शैक्षिक स्वतंत्रता की अवहेलना होती है वहीं दूसरी तरफ इन्हें रोजमर्रा जीवन में भेदभाव की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। दो बातें हैं, एक तो मदरसे आधुनिक शिक्षा से दूर हैं और दूसरे इनकी छवि संदेहास्पद है। कहना पड़ रहा है कि छवि तो हमारे प्राथमिक पाठशालाओं की भी खराब है। इतनी खराब कि खुद इन स्कूलों के प्रशिक्षित अध्यापक-अध्यापिकाओं के बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। ज्ञात हो कि निजी स्कूलों के अधिकतर अध्यापक-अध्यापिका अप्रशिक्षित होते हैं। लेकिन उनका कार्य निष्पादन प्राथमिक स्कूलों के प्रशिक्षित और अनुभवी अध्यापकों-अध्यापिकाओं से अधिक और अच्छा होता है। तो क्या इस संदर्भ में यह मान लिया जाना चाहिए कि प्राथमिक विद्यालय भी आधुनिक शिक्षा से दूर हैं। यह जानकर हैरानी होती है कि ढ़ेर सारे मदरसे प्राथमिक स्कूलों से भी आगे हैं। कम से कम मान्यता प्राप्त मदरसों में सरकारी किताबें ही पढ़ाई जाती हैं। यदि बनारस के डा॰ मोहम्मद आरिफ की बातों पर यकीन करें, जिन्होंने मदरसों पर काफी काम भी किया है तो इनके मुताबिक मदरसों में प्रदेश सरकार द्वारा मान्य वो किताबें भी पढ़ाई जा रही हैं जिनके कुछ अध्याय काफी विवादित हैं, जिसमें सास्कृतिक राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। इस तरह की किताबें सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ाई जाती हैं जो राष्ट्रीय एकता और साझी विरासत वाली संस्कृति को नुकसान पहंुचाती हैं।
जाहिर है माडर्नाइजेशन के दौर में मदरसों में वो बातें भी बताई जा रही हैं जो खुद मदरसों के बुनियादी ढ़ांचे के खिलाफ हैं। यहां कहना चाहूंगा कि ये बातें अल्पसंख्यकों को इसलिए पता नहीं चल पाती हैं क्योंकि मदरसों पर उलेमा वर्ग का अच्छा खासा प्रभाव है। उलेमा होना अपने आप में अति महत्वपूर्ण है। लेकिन यह वर्ग सरकारी-गैर सरकारी योजनाओं को अपने हिसाब से चलाना चाहता है। इस नियमन और संचालन में उलेमा वर्ग अकेले नहीं होता। मुख्यधारा का ही व्यक्ति उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करता है। मुख्यधारा का व्यक्ति कोई जनप्रतिनिधि, कोई अफसर या कोई बाबू हो सकता है। मान्यता प्राप्त मदरसे मुख्य धारा से अच्छी तरह जुड़े हुए हैं लेकिन दुःख की बात है कि मदरसों के माध्यम से अल्पसंख्यकों तक पहुंचने वाली सरकारी सुविधाओं का लाभ उनतक नहीं पहुंच पाता। आम मुसलमानों को तो किसी योजना या स्कीम की जानकारी तक नहीं होती। फतेहपुर की रूबीना की बातों से पता चलता है कि स्थानीय प्रतिनिधि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए सरकारी योजनाओं की जानकारी अपने तक सीमित रखता है। बताता भी है तो समय निकल जाने के बाद। इन्टरनेट और दूसरे संचार माध्यमों तक पहुंच नहीं होने के कारण भी मुस्लिम अल्पसंख्यक कल्यारकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में इन्हें मुख्य धारा में शामिल करने का एजेण्डा भी पीछे रह जाता है।
जाहिर मदरसों के बारे में हमें अपनी राय बदलने की जरूरत है। मेरा भी व्यक्तिगत अनुभव यही रहा है कि मदरसे सिर्फ धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का केन्द्र हैं। लेकिन मुझे अपनी धारणा बदलनी पड़ी। मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों से बातचीत, खासकर उन बच्चों से जिन्हें उच्च शिक्षा का अवसर मिला, जो जामिया, जेएनयू डीयू, बीएचयू और एएमयू जैसे देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रहे हैं या कर चुके हैं और वो जो एक बेहतर समाज और देश के सपनों को सच कर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी पहचान को स्वीकार करना होगा। अवसर हर व्यक्ति के लिए विकास खिड़कियां खोलता है। इस संदर्भ में मदरसों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पक्षों से सामाजिकता का पाठ सीखा जाना चाहिए।

नई दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक ‘‘शिल्पकार टाइम्स’’ 1-15 अगस्त के अंक में प्रकाशित

Friday, August 12, 2011

भावना, योजना और जाति-जनगणना के बीच भ्रम की स्थिति क्यों?


" सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से खाद्य सुरक्षा का सही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर एक-एक करके अन्य नीतियों के क्रियान्वयन में भी इस जनगणना की मदद ली जा सकेगी। ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति और परिवार तक पहुंच सके। यदि इस बात पर यकीन करें तो मानना होगा कि हमारे समाज में जात-पात की समस्या समाप्त हो चुकी है। सर्व शिक्षा अभियान, मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सम्पूर्ण सफाई अभियान जैसी योजनाओं की रेलमपेल में सम्मान का सवाल बहुत पीछे रह गया है।........"

गणना 2001 के बाद सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण (बी.पी.एल. सर्वेक्षण) का पहला दौर जुलाई महीने में शुरू हुआ। इस बार बी.पी.एल सर्वेक्षण में दो नयी बातें हो रही हैं। पहला यह कि पहली बार शहरी क्षेत्रों में भी यह सर्वे हो रहा है और दूसरी बात यह कि इस सर्वे के साथ ही जाति जनगणना भी की जा रही है। मालूम हो कि जाति जनगणना इससे पहले 1931 में की गयी थी। 80 बरस के बाद (आज़ादी के 64 बरस बाद) हो रही इस जनगणना को लेकर प्रबुद्ध वर्ग में बहस तेज हो रही है। इस बीच “आरक्षण” फिल्म के कानटेन्ट और प्रस्तुति ने भी ध्यान आकर्षित किया है। अखबार, टी.वी. से लेकर फेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट पर भी घमासान मचा हुआ है। कोई फिल्म पर प्रतिबंध लगाने, तो कोई रिलीज करने का पक्षधर है। कोई सस्ती लोकप्रियता की कसौटी पर परख रहा है और यह कह रहा है कि फिल्म देखने के बाद ही तय किया जाय कि वास्तव में फिल्म किसी जाति विशेष की भावनात्मक ठेस पहुंचाती है या नहीं। यूंही हो-हल्ला मचाने से प्रोड्यूसर-डाइरेक्टर का बिजनेस बढ़ेगा। बहरहाल आरक्षण का मुद्दा ही केन्द्र में है। 1931 के बाद और आजाद भारत में पहली बार हो रही जाति जनगणना जाति आधारित भेदभाव की यह व्यापक स्वीकारोक्ति है। लेकिन जाति जनगणना को लेकर कई सवाल अनुत्तरित हैं। पहला यह कि इस जनगणना से हमें क्या हासिल होने वाला है? क्या उन जातियों की पहचान और संख्या सामने आ सकेगी जिनकी अभी तक अलग से कोई सूची उपलब्ध नहीं है? क्या करोणों रूपए खर्च करने के बाद इस जनगणना से प्राप्त आंकड़े जातिगत विविधता प्रधान भारत के गरीबों और पिछड़ों के लिए नीति बनाने में सहायक होंगे? और अन्ततः क्या जात-पात की भेदभाव परक व्यवस्था कमजोर हो सकेगी? इन्हीं सवालों के चलते ‘‘समाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना, 2011’’ की प्रक्रिया, प्रयुक्त माध्यम और परिणाम को लेकर जिज्ञासाएं भी हैं और उहापोह की स्थिति भी।
जनगणना से जुड़े सवालों में पहला सवाल यह कि जब इस वर्ष 9 से 28 फरवरी के बीच सम्पन्न जनगणना में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की गिनती हो चुकी है तो जाति जनगणना के नाम पर उन्हीं को फिर से गिनने की आवश्यकता क्या है? 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की आबादी क्रमशः 16.2 और 8.2 प्रतिशत थी। जाहिर है कुल आबादी में अनुसूचित जाति/जनजाति की संख्या पहले से मालूम है। जनगणना, 2011 के आंकड़ों के सामने आते ही 2001 के आंकड़े में होने वाले बदलाव भी सामने आ जाएंगे।
रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त के अनुसार जाति जनगणना में केवल चार कटेगरी होंगे, पहला “अनुसूचित जाति”, दूसरा “अनुसूचित जनजाति”, तीसरा “अन्य” और चैथा “कोई जाति नहीं”। भारत सरकार की वेवसाइट http://rural.nic.in पर यह भी लिखा है कि अनुसूचित जाति सिर्फ हिन्दू, सिक्ख और बौद्ध धर्म के अनुयायियों में होंगे। बिल्कुल ठीक लिखा है। सबकुछ संविधान के दायरे में लिखा गया है। लेकिन यह बात समझ से परे है कि इस जाति जनगणना का लाभ क्या है, जिसमें सिर्फ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को ही गिनना प्रमुख ध्येय है। जनगणना 2011 से यदि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी घटा दिया जाय तो अन्य जातियों और बिना जाति के लोगों की संख्या ऐसे ही सामने आ जाएगी। फिर अलग से 2000 करोण रूपए खर्च करने की जरूरत क्या है? बी.पी.एल. के साथ हो रहे इस सर्वे को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग, सामान्य वर्ग और मुस्लिम व इसाई दलितों का अलग जातिगत आंकड़ा प्राप्त किया जा सकेगा। और उन्हीं आंकड़ों के अनुसार मानव संसाधनों को नियोजित किया जा सकेगा।
लेकिन यह जनगणना तो छलावा प्रतीत होता है। क्योंकि इस जनगणना से पिछड़ी और सामन्य जातियों के लोगों के बीच विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। जिस तरह से “अनुसूचित जाति”, “जनजाति”, “अन्य” और “बिना जाति” के लोगों के बीच खींचने की कोशिश जा रही है। यह तो यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) की परीक्षा में दिए जाने वाले विकल्पों के समान है, कि उत्तर इन्हीं चार में से कोई एक चुनना है। या फिर आजकल टी.आर.पी. मीडिया द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों की तरह हैं जिनमें पहले से तय तीन-चार प्रश्नों के अलावा पांचवा या छठा का कोई विकल्प नहीं होता। किसी मायने में यह लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भी है कि उत्तरदाता के समक्ष अपनी समस्या और समस्या के परिमाण को व्यक्त करने का कोई विकल्प ही नहीं दिया जाता है। ऐसे में उन जातियों का क्या होगा जिनका संबंध न तो सामान्य वर्ग से है और न ही अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से। मण्डल कमीशन के अनुसार इनकी आबादी 54 प्रतिशत है। आबादी का यह हिस्सा भी सामाजिक न्याय के संघर्ष में शामिल रहा है। फिर इनकी गिनती “अन्य” विकल्प के अन्तर्गत क्यों किया जा रहा है? क्या ये जातियां कर्म और जातिगत भेदभावों के कारण सामाजिक वंचनाओं का शिकार नहीं रही हैं या नहीं हैं।
चिन्ता की बात यह भी है कि मुस्लिम और ईसाई भी इस देश के नागरिक हैं। भारतीय समाज की कल्पना इन दो को छोड़कर कैसे की जा सकती है। मुस्लिम और ईसाई आबादी का एक खास हिस्सा ऐतिहासिक रूप से दलित रहा है। लेकिन यह तबका धर्म परिवर्तन के कारण अनुसूचित जाति होने के लाभ से वंचित है। जबकि धर्म परिवर्तन करके बुद्ध या सिक्ख हो जाने पर यह पाबन्दी नहीं है। सच्चर कमेटी ने भी इस बात को माना है कि 1950 के राष्ट्रपति के अध्यायदेश द्वारा अनुसूचित जाति की सीमा तय करते समय कर्म के आधार पर अछूत समझे जाने वाले सिर्फ हिन्दुओं को ही शामिल किया गया। जबकि गै़र हिन्दुओं को, जो मुस्लिम या ईसाई थे और जिनकी सामाजिक स्थिति भी हिन्दु दलित के समान थी, को छोड़ दिया गया, जो ओ.बी.सी. के अन्तर्गत अधिसूचित हैं। यदि मुस्लिम समाज की बात करें तो कम से कम हलालखोर जैसी जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा संविधान संशोधन के बगैर संभव नहीं है। फिर सच्चर और रंगनाथ जैसी कमेटी और आयोग की अनुशंशाओं का क्या औचित्य है? 
सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से खाद्य सुरक्षा का सही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर एक-एक करके अन्य नीतियों के क्रियान्वयन में भी इस जनगणना की मदद ली जा सकेगी। ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति और परिवार तक पहुंच सके। यदि इस बात पर यकीन करें तो मानना होगा कि हमारे समाज में जात-पात की समस्या समाप्त हो चुकी है। सर्व शिक्षा अभियान, मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सम्पूर्ण सफाई अभियान जैसी योजनाओं की रेलमपेल में सम्मान का सवाल बहुत पीछे रह गया है। जिस सम्मान को प्राप्त करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था को लागू किया गया था, सम्मान की वह भावना विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं की भेंट चढ़ने वाली है। आरक्षण के समर्थकों सुनों ध्यान से तुम्हारी गिनती ओबीसी में नहीं होने वाली। तुम बहुत सशक्त हो चुके हो। अब तुम्हें अपनी जाति के सामने दिए बाॅक्स में कोड संख्या 3 भरना है। यही कोड सामान्य जाति के लोग भी भरेंगे। इस कोड का मतलब यह है कि आपकी गिनती अन्य पिछड़ों में नहीं बल्कि सामान्यों के साथ होगी। शायद सरकार इस मत से सहमत हो चुकी है कि आरक्षण का लाभ पिछड़ों को जितना मिलना था मिल चुका। लेकिन सरकार यह भूल रही है कि आरक्षण का लाभ पिछड़ों की कुछ जाति विशेष को ही मिल पाया है।
सवाल घूम फिरकर वहीं आ पहुंचता है। आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक सम्मान की भावना से जुड़ी है। सम्मान का संबंध संसाधनों की समान रूप से उपलब्धता, पहुंच और अवसरों में समानता से है। यदि मौजूदा प्रणाली के तहत हो रही जाति जनगणना से दलितों-पिछड़ों की सामाजिक स्थिति में साकारात्मक बदलाव आने की संभावना है तब तो ऐसी जनगणना का स्वागतम् है। अन्यथा भावनाओं और योजनाओं में गड्मड् करके खिचड़ी पकाने से भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।