Friday, April 13, 2012

समाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण और गरीबी के सुलगते सवाल


पिछले कुछ महीनों से गरीबी रेखा के निर्धारण के मानकों को लेकर मीडिया, राजनीति और अर्थ जगत में काफी चर्चा हो रही है। कोई गरीबी को प्रति व्यक्ति प्रतिदिन कैलोरी ऊर्जा की प्राप्ति तो कोेई प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय और कोई उपभोग के नए आंकणों के मद्दे नज़र मानक निर्धारित किए जाने का पक्षधर है। गौर तलब है कि योजना आयोग ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए गरीबी निर्धारण के जिन मानकों को हरी झण्डी दी है उनमें बदलाव की कोई गुंजाइश पिछले वर्ष अगस्त में ही समाप्त हो चुकी थी। इस बाबत अगस्त 2011 में ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि “प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, बी.पी.एल. की सूची में शामिल करने और इस सूची से बाहर करने संबंधी मानक को मंत्रीमण्डल द्वारा अनुमोदित किया जा चुका है, अब इसमें कुछ नहीं हो सकता।” मानकों में बदलाव की उम्मीद इसलिए भी नहीं है क्योंकि देश के 31 राज्यों में सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का कार्य पहले से ही प्रगति में है। फिर भी गरीबी निर्धारण के मानकों को लेकर बहस जारी है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार अगामी कुछ दिनों में सर्वेक्षण का कार्य सफलता पूर्वक संपन्न कर लेगी। लेकिन इस बात का भरोसा कैसे हो कि राज्य और देश के अभाव ग्रस्त सभी लोग सर्वेक्षण के बाद तैयार होने वाली गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की सूची में शामिल हो सकेंगे। अभी तक जो मानक तय किए गए हैं उसमें स्वतः समावेश और बहिष्करण के सिद्धांत को अपनाया गया है। जैसे भूमि, भूमि का माप, किसान क्रेडिट कार्ड, ऋण की राशि, फ्रीज, लैण्ड लाइन फोन और बाइक आदि वस्तुओं की उपलब्धता को जिस तरह आधार बनाया गया है उससे अधिकतर ज़रूरतमंदों और निर्धनों के स्वतः ही गरीबी रेखा के नीचे की सूची से बाहर होने की संभावना प्रबल है। इसके अलावा मानकों में वंचित होने के सात संकेत भी रेखांकित किए गए हैं। जैसे मकान, मकान का स्वरूप (कच्चा/पक्का), परिवार में 16 से 59 वर्ष की आयु के किसी सदस्य का न होना तथा ऐसे परिवार जिनमें 25 वर्ष से अधिक आयु का कोई साक्षर व्यक्ति न हो आदि। इन संकेतकों से आभाष होता है कि 16 से 59 वर्ष आयु के लोग गरीब नहीं हो सकते। इसी तरह 25 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति वंचित नहीं हो सकते। यदि मौजूदा सार्वजनिक प्रणाली के काम-काज तथा शिक्षा और रोजगार की स्थिति पर नज़र डालें तो वास्तविकता छुपाए नहीं छुपती कि ऐसे परिवारों की कमी नहीं है जिनमें 16 से 59 वर्ष आयु के सदस्य मौजूद हैं। ऐसे परिवार की संख्या भी काफी है जिनमें 25 वर्ष से अधिक आयु के लोग साक्षर हैं। लेकिन ऐसे परिवारों के साथ गरीबी का संबध भी पुराना है। यदि साक्षरता की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता की दर 74.01 प्रतिशत है जो 2001 में 64.83 प्रतिशत दर्ज की गयी थी। तो क्या मान लिया जाए कि देश की 74 प्रतिशत लोग गरीब नहीं हैं! ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार योजनाबद्ध तरीके से गरीबों की एक ऐसी सूची तैयार करने की इच्छुक है जिसमें पात्र परिवारों की संख्या पहले से ही निश्चित हो। शायद यही वजह है कि एन.सी. सक्सेना समिति ने अपनी रिपोर्ट में अपनी राय देते हुए लिखा है कि “बी.पी.एल. सूची में लक्ष्य निर्धारण जैसी किसी युक्ति को अपनाने से बेहतर है कि संधाधनों के सार्वभौमिक वितरण की बात सुनिश्चित की जाए।”

ज़ाहिर है एक तरफ सरकार के समक्ष कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की चुनौती है तो वहीं दूसरी तरफ गरीबी को एक निश्चित अवधि सीमा में एक निश्चित स्तर तक कम करके आंकने का लक्ष्य है। कहना पड़ रहा है कि चुनौतियों का सामना करने के बजाय गरीबी के मानक लक्ष्य प्राप्ति से अधिक प्रेरित हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो विभिन्न प्रदेशों के लिए बी.पी.एल. कार्ड धारकों की संख्या पूर्व निर्धारित नहीं होती। यदि खुद के निजी अनुभव की बात करूं तो उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो वास्तव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज और तेल जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। लेकिन जब भी ऐसे लोग स्थानीय स्तर पर ग्राम सभाओं, ब्लाक अथवा तहसील में संबधित ओहदेदारों से बी.पी.एल. कार्ड बनवाने के लिए अर्जी देने के बाबत जानकारी चाहते हंै, तो उन्हें निराश होना पड़ता है। सरकारी कार्यालयों में पहले तो उन्हें फरवरी माह के बाद आने को कहा गया और फिर चुनाव के बाद की तिथि बतायी गयी। लेकिन मार्च महीना गुजर जाने के बाद भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है। अनुमान लगाया जा सकता है कि जब तक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण नहीं हो जाता तब तक न तो गरीबों की नयी सूची तैयार हो पाएगी और न ही नए कार्ड बनाए जा सकेंगे।

निश्चित तौर पर अगामी कुछ-एक महीनों में सर्वे का कार्य पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन यह सवाल फिर भी अनुत्तरित रहेगा कि इस सर्वे के आधार पर तैयार होने वाली बी.पी.एल. सूची में ग़रीब और वंचित किस हद तक शामिल हो सकेंगे? क्योंकि सामाजिक-आर्थिक सर्वे उन्हीं मानकों के अनुरूप किया जा रहा है जिनपर काफी सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसे में गरीबों की सूची तो तैयार कर ली जाएगी लेकिन लक्षित सूची में शामिल न हो पाने वाले गरीबों को राहत नहीं पहुंचेगा। यह बात समझ से परे है कि इतने बड़े देश में गरीबी निर्धारण के व्यावहारिक और सर्वमान्य मानक क्यों नहीं अपनाए गए? सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के बाद भी गरीबी के सुलगते सवालों के जवाब की दरकार बनी रहेगी। विशेषकर एक ऐसे देश में जहां के प्रधानमंत्री खुद अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री हैं और जिस देश के एक होनहार को अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।