Thursday, June 15, 2017

दोहरी शिक्षा व्यवस्था और आहत अभिभावक


निजी विद्यालयों द्वारा मनमाना फीस लेना अभिभावकों पर भारी पड़ रहा है। पिछले लगभग एक दशक में देश के विभिन्न क्षेत्रों विशेषकर यू.पी., बिहार और दिल्ली जैसे राज्यों में बढ़ती फीस के खिलाफ अभिभावकों में अच्छा-खासा रोष देखा गया है। खास बात यह है कि यह रोष किसी मौसमी बीमारी की तरह प्रवेश के समय ही देखा गया है। जिस तरह से गर्मी शुरू होते ही पारा चढ़ने लगता है, उसी तरह मार्च का महीना करीब आते ही फीस वृद्धि की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनने लगती हैं। फीस वृद्धि से संबन्धित खबरों में निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों की पीड़ा इस तरह से बयान होती है जैसे नयी बीमारी के बाद कोई व्यक्ति खून उगल रहा हो। कहना नहीं है कि निजी विद्यालयों में फीस के साथ-साथ किताबों और समय-समय पर भुगतान की जाने वाली अन्य शुल्क का बोझ भी अभिभावकों की जेब पर भारी पड़ रहा है। यही कारण है कि निजी विद्यालयों में अपने बच्चों का भविष्य संवारने का सपना सजोने वाले मां-बाप नयी व्यवस्था के चरित्र से कराह रहे हैं। गौर तलब है कि निजी स्कूलों में फीस वुद्धि के मुद्दे का समय-समय पर सरकारों ने भी संज्ञान लिया है और अपनी तरफ से उचित कदम उठाने का आश्वासन दिया है। निजी विद्यालयों में फीस की अधिक दर संज्ञान लिया जाना और तत्संबंधी उपचार पर विचार करना अच्छी पहल है। लेकिन कुछ सवाल हैं, जिन पर विचार ज़रूरी है। पहला यह कि जो लोग फीस वृद्धि से त्रस्त हैं वे समाज के किस वर्ग से संबंध रखते हैं? दूसरा यह कि क्या वास्तव में फीस वृद्धि स्कूल जाने वाले बच्चों की बहुसंख्यक आबादी और अभिभावकों का मुद्दा है? तीसरा यह कि यदि फीस वृद्धि बहुसंख्यक बाल आबादी और ऐसे बच्चों के माँ-बाप के लिए मुद्दा है तो ऐसे अभिभावक मनमानी फीस वसूलने वाले निजी स्कूलों का परित्याग कर अपने बच्चों को परिषदीय या निकाय द्वारा संचालित स्कूलों में दाखिला क्यों नहीं कराते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि फीस वृद्धि का मामला चन्द लोगों का मामला हो और इसे आम जनता की समस्या बनाकर पेश किया जा रहा हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह समस्या उस वर्ग विशेष का है, जो नौकरी पेशा है, या व्यापारी है, या शिक्षा के प्रति किसी हद तक जागरूक है। दो टूक शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यह समस्या उस वर्ग की है, जो उपभोक्तावाद को बढ़ाने में पूंजीपतियों के साथ खड़ा है लेकिन नागरिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर पूंजीवाद का वैचारिक और
सैद्धांतिक विरोध नहीं करता। बल्कि अपने हित को सबके हित से जोड़कर फीस वृद्धि जैसी समस्या को सामूहिक समस्या के रूप में व्याख्यायित करता है। जबकि स्कूल शिक्षा के बारे में कम से कम उत्तर प्रदेश के संदर्भ में
एन.सी.ई.आर.टी. के आठवें अखिल भारतीय शैक्षिक सर्वेक्षण के अनुसार सरकारी, निकाय द्वारा संचालित,
सहायता प्राप्त निजी और गैर सहायता प्राप्त निजी प्राथमि स्कूलों का अनुपात क्रमशः 76, 4, 2, 18 प्रतिशत है। अर्थात उत्तर प्रदेश में सरकारी प्राथमिक और निजी प्राथमिक स्कूलों का अनुपात 80 और 20 प्रतिशत है।

ये आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में अभी भी बाल आबादी का बड़ा हिस्सा प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों पर निर्भर है। पिछले दो दशकों में ये भी हुआ है कि मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के साथ-साथ गरीब और अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करने वाले लोगों का एक बड़ा हिस्सा सरकारी स्कूलों से विमुख हुआ है। फिर भी सरकारी स्कूलों का आस्तित्व गरीब, पिछड़े, दलित, महिला और पसमांदा समाज के लोगों के लिए डूबते को तिनके का सहारा से कम नहीं। बावजूद इसके इस आलेख के माध्यम से सरकारी स्कूलों से विमुखता की वास्तविकता को जानने की कोशिश की जा रही है। क्योंकि सरकारी स्कूलों से मोह भंग होने के पक्ष में जो सबसे बड़ी दलील दी जाती है वो ‘गुणवत्ता’ है। ज़रूरी है कि गुणवत्ता को भी समझा जाए। क्योंकि “गुणवत्ता“ का संबंध फीस वृद्धि से है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि “गुणवत्ता“ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पिटारे से निकला ऐसा जिन्न है, जो जीवन के हर क्षेत्र में हमारा पीछा कर रहा है। देश की अर्थ व्यवस्था में ढ़ांचागत बदलाव को परिलक्षित करने वाले इस जिन्न से बुनियादी शिक्षा का ढ़ांचा भी अछूता नहीं रहा है। इसे अंग्रेजी में “क्वालिटी“ कहते हैं। इसके साथ “सर्विस“ का होना भी लाजमी है। आर्थिक सुधारों से अनुप्राणीत हर काम में इन दो तत्वों का होना अपरिहार्य है। लिहाजा शिक्षा के क्षेत्र में भी इन दो तत्वों की तलाश शुरू हुई। आर्थिक सुधारों को प्रचारित और प्रसारित करने में तीसरा तत्व “प्रतिस्पर्धा“ का रहा है। शायद बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र में इन तीन मिथकों को स्थापित करना जरूरी था और इसीलिए क्वालिटी, सर्विस और कम्पटीटीवनेस को बढ़ावा देने वाले स्कूलों की नई प्रथा शुरू हुई। इन्हें पब्लिक और काॅनवेन्ट स्कूलों की परिपाटी के रूप में भी देखा जा सकता है। जब ये स्कूल अपने शुरूआती दौर में थे उस समय अखबारों की सुर्खियों में “गली-गली कुकुरमुत्ता की तरह ..... पब्लिक स्कूल” खबर प्रकाशित होती थी। दो-ढ़ाई दशक गुजरने के बाद अब अखबारों की सुर्खियों में “निजी स्कूलों की मनमानी से ........ अभिभावक परेशान“ या “अभिभावकों ने किया प्रदर्शन....“ आदि खबरें प्रकाशित होती हैं। इसे एक शिफ्ट के रूप में देखे जाने की जरूरत है। पिछले लगभग पच्चीस वर्षाें में समाचार की सुर्खियों में इस तरह के बदलाव से अंदाजा होता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था एक बड़े बदलाव से गुजर चुकी है। बदलाव की हज़ारों अनकही कहानियां हैं। कुछ एक का संदर्भ लेने पर चित्र और स्पष्ट हो जाता है कि जो सरकारी स्कूल बुनियादी शिक्षा की रीढ़ की हड्डी हुआ करते थे, आज वही स्कूल खिचड़ी, वजीफा और किताबों, शिक्षा मित्रों की बहाली, शिक्षकों का स्थानान्तरण, छुट्टियां वगैरह से पहचाने जा रहे हैं।
 संदर्भ के तौर पर बाबूजी के बारे लिखना ज़रूरी हो जाता है। “हमारे पड़ोस के विजय बाबूजी अपने ज़माने के ग्रेजुएट की योग्यता रखते हुए ही भारतीय रेल को न भूलने वाली सेवाएं दीं। बाबूजी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन रिटायरमेन्ट के बाद उन्होंने जिन बच्चों को अपने बरामदे में बैठाकर अंग्रजी पढ़ाई वो बच्चे उन्हें आज भी याद करते हैं। बाबूजी से अंग्रेजी पढ़ने वाले बच्चों को तो मालूम भी नहीं है कि बाबूजी की शैक्षिक योग्यता क्या थी? या बाबूजी किस सर्विस में थे? या तमाम उम्र रेलगाड़ी में हिचकोले खाने वाले बाबूजी को अंग्रेजी ग्रामर से कब दिलचस्पी हुई, उन्होंने कैसे पढ़ाई की वगैरह-वगैरह...। ऐसे ही व्यक्तित्व के मालिक थे स्व॰ श्री जगदीश चन्द्र श्रीवास्तव। जिन्होंने नायब तहसीलदार पद से रिटायर होने के बाद मेरे जैसे बहुतों को उर्दू और फारसी की सीख दी। कहते थे कि अपने जीवन में 40000 बच्चों को पढ़ाया है। गौर करने का मोकाम है कि सर्विस पीरियड में पहले के लोग चाहे किसी भी विभाग में हों, सीखने-सिखाने के संदर्भ में पढ़ाई के लिए तत्पर रहते थे। दादा जी, जिनका असल नाम हमीद खाँ था। सदर रोड स्थित डाॅ॰ फतह मुहम्मद के क्लिनिक में हर सुबह-व-शाम बैठकी करने वालों में एक नाम तौकीर अहमद खाँ वकील का है, जिनकी उम्र 84 वर्ष हो चुकी है। तौकीर अहमद खाँ दादा जी को अपना बहनोई समझते हैं। उन्होंने बताया कि दादा जी का परिवार तातारी पठानों से ताल्लुक रखता है। दादा जी के बारे कहा जाता है कि वो अंग्रेज़ों के ज़माने के दारोगा थे। उन्होंने जितने दिन नौकरी की, उससे कहीं अधिक दिनों तक पेन्शन उठाई। गुलाम हिन्दुस्तान में दारोगा रहे दादा जी की क्वालीफिकेशन तौकीर अहमद खाँ वकील के मुताबिक 10वीं पास की थी, लेकिन उर्दू शेर की उनकी समझ और परख ने उन्हें गे्रजुएशन के छात्र/छात्राओं का उस्ताद ज़रूर बना दिया। उस पर तुर्रा ये कि वो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे। उनके मुंह से अंग्रेजी सुनकर ऐसा मालूम होता था कि हमारे बीच कोई अंग्रेज आ बैठा है।“ तौकीर अहमद खाँ वकील की बातों पर यकीन करें तो अंग्रेजी की ही बदौलत दादा जी को पहली बार हवलदार की नौकरी मिली थी। लेकिन अब जबकि हम आधुनिकता की बिसात पर कई कदम आगे निकल आए हैं तो “क्वालिटी, सर्विस और प्रतिस्पर्धा“ की चुनौतियों से प्रतिदिन जूझना पड़ रहा है। बाबूजी और दादाजी के जमाने की शिक्षण पद्धति अब बीते दिनों की बातें मालूम होती हैं। बुनियादी शिक्षा का परिदृश्य कुछ ऐसा है कि कदम-कदम पर पैसे की मांग बढ़ी है। बात फीस की ही नहीं है। काॅपी-किताब और डेªस से लेकर आए दिन विभिन्न प्रकार के प्रोजेक्ट और अन्य गतिविधियों के नाम पर खर्च होने वाले पैसे की भी है। पहले एक किताब से एक के बाद एक कई बच्चे पढ़ाई कर लिया करते थे। लेकिन अब प्रतिवर्ष किताबों का बदल जाना अभिभावकों की जेब पर भारी पड़ रहा है। डेªस का भी मामला कुछ ऐसा ही है। लेकिन यह खर्च 20 प्रतिशत स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों के लिए ही समस्या है। बाकी बच्चे तो आज भी परिषदीय या नगर निकाय द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालयों पर निर्भर हैं। ज़ाहिर है बुनियादी शिक्षा में सरकार की भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। यदि सरकार चाहे तो सरकारी स्कूलों का कवरेज बढ़ाने के लिए उपाय कर सकती है। जैसे प्राथमिक स्तर पर किताबों की कोई एक नीति बनाना। सभी विद्यालयों को इस बात के लिए प्रोत्सहित करना की सरकारी किताबें ही पढ़ाएं। कहीं भी गैर सरकारी किताबें पढ़ाए जाने पर उचित अनुशासनात्मक कार्यवाही करना आदि। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि किताबों की प्रिन्टिंग की जिम्मेदारी सरकार खुद ले और समय पर किताबों की छपाई और स्कूलों तक किताबों को पहुंचाना सुनिश्चित करे। चूंकि हम लोकतंत्र में रह सकते हैं और शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका को सुनिश्चित करना किसी भी कल्याणकारी राज्य में सरकार का दायित्व समझा जाता है। लेहाज सरकार से किताबों की अपेक्षा रखने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। जिन लोगों को सरकारी किताबों के पृष्ठ गन्दे, पुराने और घटिया किस्म के लगते हैं, वो लोग निश्चित तौर पर संभ्रान्त कहे जाने चाहिए। ये वही लोग हैं जो अपने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए निजी की व्यवस्था चाहते हैं। जिसके लिए कोई भी मूल्य जैसे डोनेशन और फीस की अधिक रकम आदि अदा करने के लिए तैयार रहते हैं। लेकिन फीस वृद्धि की समस्या का समाधान सरकार से चाहते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को बेशक क्वालिटी, सर्विस और प्रतिस्पर्धा के नाम पर निजी स्कूलों में पढाते हैं। ये लोग अपने बच्चों को बी.एड., इंजीनियरिंग, मेडिकल और किसी अन्य डिसिप्लीन/विषय में स्नातक व परास्नातक स्तर की पढ़ाई के लिए सरकारी काॅलेजों/संस्थानों को प्राथमिकता सूची में ऊपर रखते हैं लेकिन सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नहीं पढ़ाने चाहते हैं? सवाल लाज़मी है कि ऐसा क्यों है? यदि अपवाद स्वरूप निम्न मध्यम वर्ग, एवं मजदूर, किसान, गरीब दलित, पिछड़ और पसमांदा परिवारों के चन्द बच्चों को छोड़ दिया जाए तो फीस की बड़ी रकम या फीस वृद्धि वाकई संभ्रान्त वर्ग की समस्या है, जिसे बार-बार सामूहिक समस्या के तौर पर पेश किया जाता है।
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि सरकारी स्कूलों में अपने मूल मंतव्य से हट गए हैं। कम से कम मेरे लिए यह सवाल परेशानी का सबब ज़रूर है कि जिन परिषदीय और निकाय द्वारा संचालित स्कूलों को खिचड़ी और घटिया डेªस के लिए बदनामी का दंश सहना पड़ता है, वहां शत-प्रतिशत शिक्षित और प्रशिक्षित अध्यापक/अध्यापिका हैं। बावजूद इसके व्यवस्थागत दोष के चलते सरकारी विद्यालय योजनाओं के क्रियान्वयन का प्रयोगशाला बने हुए हैं। ऐसे में निजी विद्यालय गुणवत्तापरक शिक्षण व्यवस्था के चैम्पियन बने हुए हैं। मौजूदा हालात ऐसे हैं कि निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना जुनून बनता जा रहा है। यह भी देखा जा रहा है कि क्वालिटी और सर्विस के नाम पर मध्यम वर्ग के साथ-साथ शिक्षा के प्रति नवजागरूक निम्न मध्यम एवं निम्न वर्ग का भी एक बड़ा हिस्सा अपना सबकुछ लुटाने को आतुर है। चूंकि हम लोकतांत्रिक गणराज्य के नागरिक हैं और हम लोग नागरिकता के अधिकार के साथ-साथ अपने कर्तव्य से बंधे हैं। इस आलोक में किसी निजी स्कूल या उसके कामकाज के तौर-तरीकों का विरोध यहां मकसद नहीं है। लोकतंत्र इस बात की आज़ादी देता है कि लोग अपने पसंद के शिक्षण संस्था चला सकते हैं, अपने बच्चों का अपने पसंद की शिक्षा दे सकते हैं। लेकिन लोकतंत्र में पूंजी नियोजित निजी स्कूलों की श्रृंखला को मजबूत करना सर्वथा अनुचित है। क्योंकि शिक्षा का निजिकरण और बाजारीकरण समाज के अभिवंचित तबकों के लिए वंचना की नयी शुरूआत कर सकती है। दिलचस्प है कि गरीबों को प्राथमिक शिक्षा की वंचना से बचाने के लिए 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अन्तर्गत निजी स्कूल में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों का दाखिला सुनिश्चित करने का उपबंध किया गया है। ऐसा सुनने में आया है कि कई निजी स्कूल अपने यहां दाखिला देने में आनाकानी कर रहे हैं। बहरहाल, अगर बड़े स्कूलों में दाखिला मिल भी जाए तो इन 25 प्रतिशत गरीब बच्चों के लिए संभ्रांत संस्कृति को वहन करने का खर्च उठा पाना मुश्किल होगा। ऐसे में गरीब बच्चों का मनोबल टूटेगा और उनकी स्थिति न इधर की न उधर की रहेगी। क्यों न संभ्रांतों के लिए ही सरकारी प्राथमिक स्कूलों में सीट सुरक्षित कर दिया जाए। एक बार कोर्ट ने ऐसा निदेश दिया भी था कि सरकारी अधिकारी अपने बच्चों का सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं। लेकिन लोकतंत्र पसंद और नापसंद करने की आज़ादी देता है। लिहाजा इस आइडिया को छोड़कर ही बात की जानी उचित है। पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पड़ोस में शिक्षा प्राप्त करने की अवधारणा को लागू करने संबंधी एक शासनादेश जारी किया गया। जिसके अनुसार यदि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में किसी कक्षा में 30 बच्चों की संख्या पूरी हो जाती है तो इसके बाद के बच्चों का दाखिला नजदीक स्थित निजी स्कूल में कराया जाए। इस तरह के उपाय करके सरकारें अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हुआ मान लेती हैं। ऐसे कानूनी प्रावधान और शासन के आदेश से ज़ाहिर है कि सरकारें शिक्षा के निजीकरण, व्यावसायीकरण और बाजारीकरण के सवाल पर खामोश हैं? सरकार की खामोशी बताती है कि शिक्षा उनके एजेण्डे में प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे है। शायद यही वजह है कि सरकारें फीस वृद्धि पर बयान जारी करके वाह-वाही तो बटोरती हंै, लेकिन फीस को नियंत्रित करने या शिक्षा पर बजट बढ़ाने का निर्णय नहीं करती हैं।
कहना पड़ रहा है कि सरकारी और निजी स्कूल प्रबंधन की बहस में प्राथमिक शिक्षण व्यवस्था दुर्दशा का शिकार हुआ है। क्योंकि सरकारी विद्यालयों से पढ़े पिछली पीढ़ी के व्यक्ति ही आज की तारीख में देश के उच्च पदों पर आसीन हैं। ऐसे अधिकारी और राजनेताओं की संख्या कम नहीं है जिन्होंने प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूलों में प्राप्त किया है। फिर अचानक से सरकारी स्कूल स्तरहीन कैसे हो गए? दर असल यह सब अचानक नहीं हुआ। इसके पीछे दो दशक का समय लगा है। वो समय जिसका एक-एक लम्हा अधिशेष मुनाफा, शार्टकट और उपभोक्तावादी सोच को आगे बढ़ाने में खर्च किया जाता रहा है। इस सोच को पोषण देने और पल्लवित करने में खुद सरकार का योगदान भी रहा है। सर्व शिक्षा अभियान का दम भरने वाली सरकार के पास उपलब्धि के नाम पर नामांकन और नए विद्यालयों की संख्या में वृद्धि के अलावा कुछ और नहीं है। सरकारी स्कूलों से विमुख होते लोगों के कदम को रोकने के उपाय नहीं हैं। हो भी कैसे, सरकार की अपनी जिम्मेदारियों में शिक्षण संस्थाएं महज कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन का प्रयोगशाला बनकर रह गए हैं। गुणवत्ता की बात होती है, तो माॅडल स्कूलों और सीबीएसई बोर्ड की तर्ज पर पढ़ाई की बातें अखबारों की सुर्खियां अवश्य बनती हैं। लेकिन शिक्षकों की कमी पर ध्यान नहीं जाता है। तदर्थ शिक्षकों को स्थायी करना और नयी नियुक्तियां भी समानान्तर जारी रहती हैं, लेकिन विद्यालयों की आवश्यकताओं का सही आंकलन या तो किया नहीं जाता है, या फिर किया भी जाता है, तो समय रहते विद्यालयों की ज़रूरतों को पूरा करना शिक्षा महकमे के कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए टेढ़ी खीर होती है। 
फीस वृद्धि पर बहस जारी है। लेकिन सरकार के कंधे पर प्राथमिक शिक्षा खुद बड़ी बोझ बन गयी है। कहना पड़ रहा है कि सरकार ने बुनियादी शिक्षा को कानूनन मौलिक अधिकार बना तो दिया लेकिन शिक्षा पर खर्च होने वाले बजट के सवाल पर सरकार का मौन प्राथमिक शिक्षा के निजीकरण को बढ़ाने वाला है। एक वजह यह भी है कि इन दिनों गांव-कस्बे के लोग मतवाले की तरह प्राइवेट स्कूलों की ओर भाग रहे हैं। बल्कि भगाए जा रहे हैं। सरकार द्वारा अपना गुडविल न बनाकर निजी स्कूलों के कामकाज के तरीकों को अपनाना सरकारी स्कूलों को किसी हद तक खिचड़ी वाले स्कूलों की छवि से बचा तो सकते हैं। लेकिन शिक्षा के निजीकरण के सवाल पर सरकार की चुप्पी निजी स्कूलों में आम लोगों का भरोसा बढ़ाने वाली है। इनमें बड़ी संख्या में वो लोग भी हैं, जो पेशे से मज़दूर है, किसान हैं और मामूली दुकानों के मालिक हैं, जिनकी आजीविका किसी प्रकार चल जाती है। ये वो लोग हैं, जिनके घर का छप्पर हर बारिश में रिसने लगता है।
बहरहाल, इस स्थिति से उबरना भी ज़रूरी है। इसके लिए कई स्तरों पर कोशिश की जाने की ज़रूरत है। पहला यह कि सरकार को शिक्षा पर बजट बढ़ाना होगा। बजट बढ़ने का सीधा अर्थ है कि शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक होगा और विद्यालयों का आन्तरिक वातावरण सुधरेगा। बात भवन की हो, पुस्तकों की हो, शिक्षा का स्तर एक बार फिर से सुधर सकता है। और जिन निजी विद्यालयों से प्रतिस्पर्धा करना है उन विद्यालयों की शिक्षण स्तर को बनाए रखा जा सकेगा। आखिर केन्द्रीय विद्यालय, सैनिक विद्यालय, नवोदय विद्यालयों की श्रृंखला सरकार ही तो संचालित करती है। फिर सरकारी स्कूल क्यों नहीं?
इस कार्य में जो बड़ी बाधा है वो है जनमानस का। जो जनमानस निजी विद्यालयों की फीस की बड़ी रकम में कुछ रियायत पर मान जाता है उसको अपना नजरिया बदलना होगा। वो चाहे तो सरकारी विद्यालयों में गठित होने वाले विद्यालय प्रबंधन समिति का हिस्सा बनकर शिक्षण के स्तर में सुधार की संभावनाएं बना सकता है। शार्ट कट और महंगे स्कूलों के रथ पर सवार होकर लक्ष्य तक पहुंचने का सपना छोड़ना होगा। क्योंकि बच्चों को बुनियादी शिक्षा चाहिए, न कि बाज़ार की उपभोक्तावादी संस्कृति। बच्चों को नम्बर एक पे देखने की हसरत त्यागनी होगी। सबसे महंगे स्कूल में पढ़ाने की ख्वाहिश भी छोड़नी होगी। यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही शोषक चरित्र वाले निजी विद्यालयों से निजात मिलेगी। और निःशुल्क बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा मिल सकेगी। बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़े या निजी स्कूल में समाज में स्टेटस मेन्टेन करना अभिभावक के लिए कोई चुनौती नहीं होगी।
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