Monday, March 30, 2020

डर का मनोविज्ञान और कोविड-19


अच्छा तो यह है कि हम डरे हुए लोग वर्तमान स्थिति के साथ बेहतर सामंजस्य बनाने की कोशिश करें। गीत, कविता, किस्से-कहांनियां सुनें और सुनाएं। हंसे और हंसाएं। जीवन अमूल्य है। घर से बाहर जाकर या घर में रहकर बीमार होना विकल्प नहीं है। अपनी ऊर्जा साकारात्मक सोच के साथ रचनात्मक कार्यों में लगाना ही उचित है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू हैं। मानव सभ्यता ने विकास का लम्बा सफर इसी धूप-छांव में तय किया है।



र, भय, ख़ौफ़ का भाव मानव ही नहीं अपितु जानवरों में भी होता है। मनुष्य के दो भाव जन्मना होते हैं। एक भाव सुखद होता है तो दूसरा दुःखद होता है। डर का भाव दुःखद होता है। जिसमें मनुष्य को किसी तरह की हानि पहुंचने की संभावना होती है। ऐसी संभावना निजी और सामजिक जीवन की परिस्थितियों में उतार-चढ़ाव से बनती है। कहा जा सकता है कि मानवीय भावना के विकास में मनुष्य का परिवेश और परिस्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मनुष्य अपने परिवेश और परिस्थिति में रहकर ही भावनात्मक परिपक्वता प्राप्त करता है। चूंकि विकास की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है। इसलिए समय और परिस्थितियां बदलती हैं तो मनुष्य की भावनाओं में भी बदलाव परिलक्षित होता है। उदाहरण के लिए कोई बच्चा कमरे में अकेले होता है तो उसे डर का अनुभव होता है। किसी बच्चे को अकेले घर से बाहर जाने डर लगता है। कोई बच्चा समूह में खेलने से डरता है। डर के बहुत से कारण गिनाए जा सकते हैं। लेकिन बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं में भावनात्क संतुलन और सामंजस्य के लिए माता-पिता, शिक्षक और एक समय के बाद बच्चा खुद भी प्रयास करते हैं। यही कारण है कि जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, उसके मन में डर का भाव कम होता जाता है। यदि बच्चे अपने घर और समाज के परिवेश से अलग रहते हैं, तो ऐसे बच्चों के भावनात्मक विकास में संतुलन का अभाव होता है। इसके कारण ऐसे बच्चे वयस्क होने के बाद भी डरते रहते हैं। लेकिन कुछ बच्चे परिस्थितियों के कारण बिल्कुल नहीं डरते हैं। बांसफोर समुदाय के बच्चों को चाकू और गंडासे से बांस काटने में डर नहीं लगता है। किसान के बच्चों को खेत में नंगे पांव जाने में डर नहीं लगता है। किसी महिला या हलवाई को चूल्हे पर रखे तेल के गरम कड़ाहे से जलने का डर नहीं होता है। ऐसा परिस्थितियों के कारण ही संभव हो पाता है।

स समय पूरी दुनिया के लोग डरे हुए हैं। कोविड-19 के संक्रमण के फैलाव के परिणामों की कल्पना ही डर का बड़ा कारण है। लोग घरों में रहने के लिए विवश हैं। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन पड़ी हैं कि जन सामान्य ‘घर में रहना, सोशल डिस्टैन्सिंग और हाथ धुलते रहना’ आदि उपायों से जीवन और मौत के बीच विभाजक रेखा खींच रहा है। लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो हेल्थ सर्विसेज, पुलिस प्रशासन और सामाजिक संस्थाओं से प्रतिबद्ध होकर न सिर्फ मरीजों बल्कि असामान्य परिस्थितियों में पलायन कर रहे मज़दूरों, गरीबों और भूखों की मदद कर रहे हैं। 

लेक्ट्राॅनिक, प्रिन्ट और सोशल मीडिया में कोविड-19 से संक्रमण की ख़बरें किसी मैच के स्कोर बोर्ड की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। टीवी और मोबाइल तकिया-बिछौना का हिस्सा बन चुका है। मैसेज आते ही फारवर्ड का बटन दब जाना आम बात है। हर कोई दूर होकर भी अपने प्रिय जनों को अद्यतन सूचनाओं से अपडेट रखने के प्रयास में है। कहना होगा कि बच्चा, जवान और बूढ़े लगभग सभी कोविड-19 की चिन्ताओं के साथ सो और जाग रहे हैं। इनकी दिनचर्या में इस संक्रमण के भय ने मजबूत स्थान बना लिया है। दर असल देश और दुनिया की परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि हर किसी को डर के अनुभव से होकर गुज़रना पड़ रहा है। कोविड-19 का डर भयावह इसलिए भी है, क्योंकि इससे बचने के लिए अभी तक कोई वैक्सीन तैयार करने में सफलता नहीं प्राप्त हो सकी है।

ज मनुष्य घर में रहने वाली परिस्थितियों में फंसा हुआ है। डर का भाव कई बार मनुष्य के लिए लाभप्रद सिद्ध होता है। क्योंकि डर का भाव संयम और अनुशासन बनाने में सहायक होता है। जिसकी आवश्यकता इस कठिन परिस्थिति में सबसे अधिक है। फिर भी लोगों की भीड़ गैर-ज़रूरी तौर पर विभिन्न घरों के बाहर और मुहल्लों में बाल पंचायत, किशोर पंचायत और युवा पंचायत के रूप में देखी जा रही है। पुलिस प्रशासन शासनादेश के अन्तर्गत इन्हें माइक से बार-बार निदेश दे रही है, लेकिन इन पंचायतों में शामिल व्यक्तियों को डर का एहसास नहीं है। क्योंकि उनके व्यक्तित्व के भावनात्मक विकास में डर के भाव का संतुलित विकास नहीं हुआ है। वहीं बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं जो सिर्फ डरे हुए नहीं हैं बल्कि उनके अन्दर डर का एक मनोविज्ञान तैयार हो चुका है। ऐसे व्यक्ति घर के बाथरूम और छत पर जाने में भी डर रहे हैं। डर का यह मनोविज्ञान भी ठीक नहीं कहा जा सकता है। जिसके लिए टीवी के डरावने स्कोर बोर्ड वाले समाचार और सोशल मीडिया में शोधहीन और अप्रमाणित स्रोतों से भेजे जाने वाले मेसेज जिम्मेदार हैं।

क्त प्रसंग व्यक्ति, परिवार और समाज में व्याप्त भय के विभिन्न रूपों को प्रदर्शित करता है।  संकट की इस घड़ी में संयम और अनुशासन का व्यवहार ही उचित है। डर का भाव मनुष्य के व्यक्तित्व का स्थाई तत्व है। यह जीवन से मुत्यु तक बना रहता है। लेकिन विकास की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न परिस्थियों में मनुष्य के भाव नए अनुभवों से होकर गुज़रते हैं। निश्चित तौर पर आज देश और दुनिया के तमाम लोग डरे हुए हैं। लेकिन “भयभीत न होना और अत्यधिक भयभीत होना” दोनों ही भावों से हमें दूर रहने की आवश्यकता है। अति निडरता में सावधानी हटने पर संक्रमण का खतरा है, तो वहीं दूसरी तरफ अत्यधिक भयभीत होना व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होता है। अच्छा तो यह है कि हम डरे हुए लोग वर्तमान स्थिति के साथ बेहतर सामंजस्य बनाने की कोशिश करें। गीत, कविता, किस्से-कहांनियां सुनें और सुनाएं। हंसे और हंसाएं। जीवन अमूल्य है। घर से बाहर जाकर या घर में रहकर बीमार होना विकल्प नहीं है। अपनी ऊर्जा साकारात्मक सोच के साथ रचनात्मक कार्यों में लगाना ही उचित है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू हैं। मानव सभ्यता ने विकास का लम्बा सफर इसी धूप-छांव में तय किया है।
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Friday, March 27, 2020

परीक्षा की स्थापित परिपाटी और मूल्यांकन का महत्व

पूर्णांक-प्राप्तांक तो कभी ग्रेडिंग और कभी दोनों का समावेश मौजूदा दौर की मूल्यांकन प्रणाली का हिस्सा है। प्रचलित परिपाटी के अनुरूप ही एन्ड सेम एक्जाम या अर्ध-वार्षिक और वार्षिक परीक्षाओं के आयोजन के बाद बच्चों को अगली कक्षा में प्रवेश दिया जाता है। यदि औपचारिक शिक्षा की बात करें तो बच्चों को अगले कक्षा में प्रवेश से पहले परीक्षा का आयोजन अवश्य होना चाहिए। लेकिन आपदा और महामारी की आपात परिस्थितियों में वैकल्पिक मूल्यांकन का तरीका अपनाने से इंकार नहीं किया जा सकता है।


सीखना ऐसी क्रिया है जो जीवन पर्यन्त चलती है। जन्म से ही बच्चा हर पल कुछ न कुछ सीखता रहता है। व्यक्ति, परिवार, समाज, स्कूल, स्थान और वस्तु आदि किसी बच्चे के जीवन में एक नए अध्याय की तरह होते हैं। बच्चे के परिवेश में मौजूद हर छोटी बड़ी चीज और घटनाएं उसके अनुभव संसार को समृद्ध बनाती हैं। बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं में मूल्यांकन एक महत्वपूर्ण सोपान होता है। मूल्यांकन से हमें किसी व्यक्ति की विभिन्न क्षमता विकास का पता चलता है। मूल्यांकन कार्य को सफलता पूर्वक संपन्न करने के लिए परीक्षा का आयोजन किया जाता है। मूल्यांकन से किसी व्यक्ति, समाज, संस्था अथवा वस्तु आदि की उपयोगिता और महत्व का अंदाज़ा होता है।  मूल्यांकन की कई विधियां प्रचलन में हैं। मूल्यांकन करते समय कई बातें ध्यान रखनी होती हैं। जैसे, मूल्यांकन किसका होना है? व्यक्ति का, समाज का, संस्था का या किसी वस्तु का। यदि किसी बच्चे का मूल्यांकन होना है तो यह जानना आवश्यक होता है कि बच्चे की आयु कितनी है? बच्चा किस कक्षा का विद्यार्थी है? यह भी ध्यान रखना होता है कि बच्चे का शैक्षिक मूल्यांकन करना है या उसकी शिक्षा में सहायक पक्षों का मूल्यांकन करना है या फिर इन दोनों का। मूल्यांकन में शिक्षा शास्त्र की स्थापित परिपाटी के अन्तर्गत मानकों की अनदेखी होने पर परिणाम संतोषजनक नहीं आते हैं। इस आलेख के माध्यम से मूल्यांकन के उन अनछुए पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे है, जो हमारे आस-पास के वातावरण में मौजूद होते हैं, लेकिन उन पर आम तौर पर हमारा ध्यान नहीं जाता है। इसे औपचारिक और अनौपचारिक दो भागों में वर्गीकृत करके समझा जा सकता है।
 
पचारिक और अनौपचारिक का भेद स्कूल और घर के संदर्भ में समझा जा सकता है। स्कूल का परिवेश नितान्त औपचारिक होता है। स्कूल में हर काम के लिए समय निश्चित और निर्धारित होता है। दूसरी तरफ बच्चे के घर का परिवेश होता है, जो अनौपचारिक होता है और जिसमें उसके माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य शामिल होते हैं। घर पर जागने-सोने, ब्रश करने, नहाने, बे्रक फाॅस्ट, लन्च और डिनर आदि कार्यों का समय लगभग निश्चित होता है। अलग-अलग परिवारों में बच्चों के स्व-अध्ययन का समय भी निश्चित हो सकता है। लेकिन सीखने-सिखाने की स्कूल जैसी प्रक्रिया के लिए घर पर समय निश्चित और निर्धारित नहीं होता है। बच्चे को यह नहीं पता होता है कि उसे कब किसी व्यक्ति को नमस्ते-सलाम का संस्कार सीखना है और न ही यह पता होता है कि उसे कब उठना-बैठना, भोजन करना और पानी पीना आदि संस्कार सीखना है। घर पर सीखने की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है। लगभग हर घर में बड़ें सदस्य बच्चों पर अपनी दृष्टि लगातार बनाए रखते हैं। जिसे हम ध्यान रखना कहते हैं। घर के बड़े सदस्य बच्चों को बार-बार छोटी-छोटी सीख देते रहते हैं। बच्चे अपने घर के बड़े सदस्यों को जिन कार्यों को, जिस तरह से करते हुए देखते हैं, उनका अनुसरण करने की कोशिश करते हैं। इस तरह से घर पर सीखने की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। इसका स्वरूप अनौपचारिक होता है। घर और समाज में किसी बच्चे का मूल्यांकन भी नितान्त अनौपचारिक होता है। घर पर सीखना और क्षमता विकास का अवसर स्कूल की अपेक्षा अधिक होता है। क्योंकि बच्चा अधिक समय घर और समाज में व्यतीत करता है।

ज़ाहिर है सीखने-सिखाने की गतिविधियां अपने औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही रूपों में अनवरत जारी रहती हैं। जिसका सतत मूल्यांकन भी होता रहता है। मूल्यांकन इसलिए कि रूचि, तत्परता, और क्षमता विकास का आंकलन किया जा सके। यह आंकलन ही हमें रास्ता दिखाता है कि किसी बच्चे की कौन सी क्षमता संतोष जनक ढंग से विकसित हुई है और किस पक्ष के क्षमता विकास हेतु कार्य करना है। स्कूल में इसके लिए टेस्ट और परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है। जबकि घर पर कोई औपचारिक टेस्ट या परीक्षा का आयोजन नहीं होता है। घर पर बच्चे को दी जाने वाली सीख प्रायोगिक यानि प्रैक्टिकल होती है। इसमें कुछ परिणाम तुरंत आते हैं तो कुछ दीर्घकाल में प्रकट होते हैं। परिणाम में सुधार के लिए माता-पिता अपने बच्चे को एक ही कार्य को अच्छी तरह करने की सीख बार-बार देते हैं। लेकिन कभी टेस्ट और परीक्षा नहीं लेते हैं। बिना टेस्ट और परीक्षा के ही अपने बच्चों की क्षमताओं का आंकलन कर लेते हैं।

ब सवाल यह है कि जब घर और स्कूल, दोनों ही स्थानों पर बच्चे की रूचि, तत्परता और क्षमता विकास के बारे माता-पिता और शिक्षक भली-भांति परिचित होते हैं तो फिर उन्हें शैक्षिक मूल्यांकन की आवश्यकता क्यों पड़ती है? कोई ऐसी परिपाटी क्यों नहीं है, जिसमें बिना मूल्यांकन बिना लिखित टेस्ट और परीक्षा के हो।

मूल्यांकन को लेकर जो बातें आम हैं वो पास-फेल तक सीमित हैं। जबकि सच यह है कि मूल्यांकन एक निरंतर चलते वाली प्रक्रिया है। जिसे हम शिक्षण व्यवस्था के अंतर्गत जारी अंक पत्र या रिपोर्ट कार्ड की सीमा तक समझते हैं। जब हम अपने आस-पास मौजूद बहुत से व्यक्तियों और संस्थाओं के बारे में गंभीरता से विचार करते हैं, तो हमें अंदाज़ा होता है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने किसी कार्य विशेष में कभी स्कूल की पढ़ाई नहीं की लेकिन वो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने कौशल और निपुणता का परिचय दे रहे हैं। मुरादाबाद के पीतल उद्योग या बनारस के लूम उद्योग में काम करने वाले व्यक्तियों का उदारण देखा जा सकता है। इन उद्योगों में बड़े पैमाने पर बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। इससे भी महत्वपूर्ण उदाहरण किसानों का है, जो जिनके पास एग्रीकल्चर साइंस में कोई औपचारिक डिग्री या डिप्लोमा नहीं होती है। लेकिन खेती के देशज और परंपरागत तौर-तरीकों से अन्न उपजाकर देश और दुनिया की खाद्यान्न आपूर्ति में बड़ा योगदान करते हैं। यदि वो काम बन्द कर दें तो पीतल के बरतनों और बनारसी साड़ियों की चमक फीकी पड़ जाए और मनुष्य के सामने पेट भरने का संकट उत्पन्न हो जाए।

क्त के संदर्भ में ही मूल्यांकन की औपचारिकता को जानने और समझने की ज़रूरत है। यह समझ किसी परिस्थिति विशेष जैसे बाढ़, सूखा, भूकम्प, आंधी-तूफान, ठण्ड और महामारी आदि असाधारण परिस्थितियों में औपचारिक मूल्यांकन की समस्या का समाधान निकाल सकती है। हम जानते हैं कि हमारे यहां मूल्यांकन की कई परिपाटी प्रचलन में हैं। समय-समय पर इनमें बदलाव भी होता है। पूर्णांक-प्राप्तांक तो कभी ग्रेडिंग और कभी दोनों का समावेश मौजूदा दौर की मूल्यांकन प्रणाली का हिस्सा है। प्रचलित परिपाटी के अनुरूप ही एन्ड सेम एक्जाम या अर्ध-वार्षिक और वार्षिक परीक्षाओं के आयोजन के बाद बच्चों को अगली कक्षा में प्रवेश दिया जाता है। यदि औपचारिक शिक्षा की बात करें तो बच्चों को अगले कक्षा में प्रवेश से पहले परीक्षा का आयोजन अवश्य होना चाहिए। लेकिन आपदा और महामारी की आपात परिस्थितियों में वैकल्पिक मूल्यांकन का तरीका अपनाने से इंकार नहीं किया जा सकता है। 

मूल्यांकन का मौजूदा संदर्भः

म इस बात से मुंह नहीं मोड़ सकते कि इस समय देश और दुनिया एक ऐसी स्थिति में फंसे हुए हैं जहां किसी भी व्यक्ति को औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ऐतबार से किसी भी सार्वजनिक स्थान पर इकट्ठा नहीं होने दिया जा सकता है। संक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए जब सोशल डिस्टैन्सिंग, समय-समय पर हाथ धुलना, मास्क का इस्तेमाल करना आदि सावधानियां ही कारगर उपाय हों, तब तो और भी सचेत रहने की जरूरत होती है। ऐसी स्थिति में बच्चा पूरी तरह घर और समाज के अनौपचारिक परिवेश में होता है। उनका औपचारिक तौर पर लिखित परीक्षा लेकर शैक्षिक मूल्यांकन वास्तव में अव्यावहारिक होगा। क्योंकि बच्चों की स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करना परीक्षा और मूल्यांकन से अधिक आवश्यक है। यदि स्वास्थ्य और जीवन सुरक्षित रहेगा तो पढ़ने-पढ़ाने, लिखित टेस्ट और परीक्षा आधारित मूल्यांकन के अनेकों अवसर आएंगें। उत्तर प्रदेश सरकार के कक्षा एक से आठ तक के बच्चों को बिना मूल्यांकन अगली कक्षा में प्रोन्नति के आदेश को इसी पृष्ठभूमि में देखने की ज़रूरत है। जनता कफ्र्यू और लाॅकडाउन का निर्णय भी स्वास्थ्य सुरक्षा की इसी गंभीरता को उजागर करते हैं।

मेडिकल साइन्स में अब तक के रिसर्च से पता चलता है कि कोविड-19 एक ऐसी बीमारी है, जिसके इलाज की दवा अभी तक नहीं बनी है। चीन, इटली और फ्रांस आदि देशों में हुई जन-धन की क्षति को देखते हुए भारत जैसे देश में इस बीमारी के फैलने की कल्पना भयावह और विचलित कर देने वाली है। यद्यपि इस बीमारी के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए भारत सरकार ने समय रहते पहल किया है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन किया कि सभी लोग अपने-अपने घरों में रहे। फिर भी बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं, जो संकट की इस घड़ी में अनुशासनहीनता का प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसे लोगों को समझना होगा कि किसी एक कड़ी के टूटने से मोतियों का पूरा माला बिखर जाता है। बेहतर है कि हम स्वास्थ्य को अपने दैनिक और सामाजिक जीवन में उच्च प्राथमिकता दें। फिलहाल मेडिकल साइन्सेज के विशेषज्ञों द्वारा बताई गयी सावधानियों का पालन करके ही सुरक्षित रहा जा सकता है। इस आलेख के माध्यम से मैं भी आप सभी से विनम्र निवेदन करता हूं कि अपने परिवेश में झांकते रहिए। यदि कोई बाहर है, तो उसे घर के अंदर रहने का संदेश प्रेषित करें। यदि कोई दूसरे प्रदेश या उन स्थानों से घर लौटा है तो उन्हें आवश्यक तौर पर घर के अंदर रहने के लिए कहिए। कहीं ऐसा न हो की एक की लापरवाही का परिणाम हज़ारों मासूम लोगों को भुगतना पड़े। हमें याद रखना चाहिए कि हमें मनुष्य निर्मित व्यवस्था में प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना है। प्रकृति मनुष्यों की तरह निष्ठुर नहीं है। सूर्य, वायु, प्रकाश और जल देने में प्रकृति किसी मनुष्य के साथ भेदभाव नहीं करती है। लाॅकडाउन की परिस्थितियों को इसी व्यापक अर्थों में समझने और “हेल्प अस टू हेल्प यू“ की भावना के तहत घर के अंदर रहने के अनुशासन का पालन करना है। यदि जीवन सुरक्षित रहेगा तो प्रकृति की धूप-छांव में मनुष्य निर्मित सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में हर बात के लिए अनेकों अवसर मिलेंगे। बच्चों के मूल्यांकन के ही नहीं बल्कि जीवन में नाना प्रकार के उत्सव और विनोद के क्षणों को साझा करने के अवसरों की संभावना बनी रहेगी।
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आपात परिस्थितियों में कैसे करें मूल्यांकन?

शिक्षक को यह बात हमेशा याद रखना चाहिए कि उन्हें न तो बच्चों के ज्ञान की परीक्षा लेनी होती है और न ही अपनी योग्यता का प्रमाण देना होता है। सीखना-सिखाना दो ध्रुवीय प्रक्रिया है जिसके केन्द्र में बच्चा होता है। हमें उस बच्चे के लिए निरन्तर अवसर सृजित करने की ओर अग्रसर रहना होता है न कि पास-फेल की प्रक्रियों को सम्पन्न कराने तक सीमित रहना होता है।


जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमें प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और परीक्षा जैसे शब्दों से दो-चार होना पड़ता है। ये शब्द हमें पास-फेल के रूप रूप में बहुत कुछ दे जाते हैं। किसी का जीवन पटरी पर सरपट दौड़ने लगता है तो किसी की ज़िन्दगी पटरी से उतर जाती है। फिर भी मनुष्य निर्मित व्यवस्था में हर व्यक्ति के जीवन में प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और परीक्षा की घड़ियां आती हैं। इस समय पूरी दुनिया में कोविड-19 नामक संक्रामक बीमारी ने आपात परिस्थितियां पैदा कर दी है। चीन, इटली और फ्रांस में संक्रमण की अनिंत्रित मामलों का संज्ञान लेते हुए भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों को आपात कदम उठाने पड़े। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां सरकार ने 13 मार्च को ही इसे महामारी घोषित करते हुए 14 मार्च से 22 मार्च तक कक्षा 1 से 8 तक के स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी किया था। संक्रमण की भयावहता और स्वास्थ्य सुरक्षा को दृष्टिगत हुए यह समय 2 अप्रैल तक बढ़ाया दिया गया। इस बीच कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों को बिना परीक्षा ही अगली कक्षा में प्रोन्नति प्रदान करने का भी आदेश जारी किया। इसके पीछे कोविड-19 के संक्रमण से बच्चों को बचाना ही प्रमुख उद्देश्य रहा है।

क्त परिस्थिति में दो बाते चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। पहली यह कि वित्तीय वर्ष की ही तरह शैक्षिक सत्र का समय भी 1 मार्च से 31 मार्च तक होता है। लिहाजा 31 मार्च तक स्कूलों को परीक्षाएं आयोजित कर मूल्यांकन कार्य करके बच्चों को प्रगति पत्र वितरित करना होता है। इसके बाद ही कोई बच्चा अगली कक्षा में प्रान्नति के लिए अर्ह् होता है। लेकिन महामारी की आपात परिस्थितियों में छुट्टियां लगातार बढ़ानी पड़ीं हैं। पहले से चल रही परीक्षाओं को रोकना पड़ा। जिन स्कूलों में परीक्षाएं शुरू नहीं हुई थीं, उन्हें पहले टाला गया और अन्ततः निरस्त कर दिया गया। इस क्रम में 22 मार्च को जनता कफ्र्यू भी लगाना पड़ा। माननीय प्रधानमंत्री को देशवासियों से घरों में सुरक्षित बने रहने की अपील करनी पड़ी। यहां तक कि 25 अप्रैल से पूरे देश को लाॅकडाउन कर दिया। अपील किया गया कि सिर्फ आपात आवश्यकता के लिए ही बाहर निकलें। घर के अंदर बने रहने का हर संभव प्रयास करें। फिर भी बहुत से लोग घर के बाहर मुक्त रूप से निरूद्देश्य घूमने से परहेज नहीं कर रहे हैं। जिसकी चिन्ता माननीय प्रधानमंत्री जी ने ट्वीटर और 24 अप्रैल को शाम 8 बजे के अपने संबोधन में व्यक्त की। उन्होंने हाथ जोड़कर विनती की कि यदि अगले 21 दिनों तक हम अपने-अपने घरों में रह लें, तो कोविड-21 के भयावह दुष्परिणामों से लोगों को बचाया जा सकता है। इस लेख के माध्यम से मैं भी अपील करता हूं कि हममें से हर व्यक्ति नैतिक रूप से कोविड-19 के संक्रमण को फैलने से रोकने संबंधी सुझावों का अक्षरशः पालन सुनिश्चित करे। इस अपील के साथ मैं उन लोगों की समस्या पर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं, जो माता-पिता और शिक्षक के तौर पर अपने बच्चों की परीक्षा और मूल्यांकन को लेकर चिन्तित हैं। यह चिन्ता स्वाभाविक भी है कि क्या बिना परीक्षा किसी बच्चे को अगली कक्षा में प्रोन्नत करना उचित है? ऐसे माता-पिता और शिक्षकों की चिन्ता अपनी जगह उचित है लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि महामारी  की परिस्थितियां असाधारण होती है। खासकर तब जब कोविड-19 जैसी संक्रामक महामारी को डाॅक्टरों, दवाइयों और उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं के दम पर टाला नहीं जा सकता है। कोविड-19 ऐसी ही बीमारी है, जो महामारी का रूप धारण कर चुकी है। ऐसे में परीक्षा और मूल्यांकन से अधिक आवश्यक यह हो जाता है कि जिसके लिए परीक्षा का आयोजन किया जाता है और जिसका मूल्यांकन करना होता है, उसके स्वास्थ्य सुरक्षा के उपाय सोचे जाएं और समय रहते उचित कदम उठाएं जाएं। स्कूलों और अन्य सार्वजनिक महत्व के स्थानों पर बच्चों को जाने से रोकना ऐसा ही कदम है। इस पर सवाल उठाना बेमानी है।

निश्चित तौर पर उन लोगों के सामने अपने बच्चों के मूल्यांकन और परीक्षा परिणामों की समस्या होगी, जो बच्चों के लिए औपचारिक परिवेश निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। महामारी की परिस्थिति में सरकार द्वारा बिना परीक्षा बच्चों को उत्तीर्ण करने के निर्णय ने शिक्षकों के समक्ष यह चुनौती पैदा कर दी है कि वो अमूक छात्र/छात्रा को उत्तीर्ण करने की कवायद के हिस्से में क्या-क्या करें। कहना होगा कि इसका समाधान सतत मूल्यांकन प्रणाली में छुपा है। सतत मूल्यांकन क्या है, इसे कैसे समझा जा सकता है और इसे एक अंक पत्र पर कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है आदि के प्रशिक्षण से शायद की कोई शिक्षक वंचित होंगे। क्योंकि किसी भी शिक्षक को प्रशिक्षण के दौरान मूल्यांकन के विभिन्न पक्षों के बारे में भली-भांति सीखने का अवसर मिलता है। इसलिए परेशान होने या किसी आदेश का इंतेजार करने से बेहतर है कि शिक्षण कार्य में शामिल शिक्षक अपने विद्यार्थियों को सिखाई हुई बातों यानि विषयवार विभिन्न बिन्दुओं का मनन करें कि कब कौन सा टाॅपिक बच्चों को पढ़ाया था? किन बच्चों ने टाॅपिक के बारे में अवधाराणरात्मक समझ विकसित करने में कितनी गंभीरता का परिचय दिया था? शिक्षक स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय के क्षणों को याद करें। बच्चों के चेहरे उनकी आंखों के सामने आएंगे। बच्चों का व्यवहार, आचरण और शिष्टाचार स्पष्ट याद आने लगेगा। विषय विशेष में अलग-अलग बच्चों का लिखित और मौखिक प्रदर्शन भी याद आएगा। बच्चों के नाम क्रम से लिखकर प्रत्येक नाम पर विचार करें। निश्चित तौर पर एक पूरे शैक्षिक सत्र ही नहीं बल्कि पिछले कई वर्षों से बच्चों के साथ सीखने-सिखाने के ढ़ेर सारे क्षणों की याद ताज़ा हो उठेगी। फिर यह भी याद आएगा कि अमूक छात्र/छात्रा का विषय विशेष में क्या स्थिति रही है। इस तरह से मूल्यांकन का कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।

ज देश और दुनिया के समक्ष जीवन बचाने का जो संकट पैदा हुआ है, उसमें सतत मूल्यांकन की प्रणाली को व्यावहारिक तौर पर अपना कर मूल्यांकन की समस्या का समाधान किया जा सकता है। यदि इसके विस्तार में जाएं तो यह मानना होगा कि अर्द्ध-वार्षिक और वार्षिक लिखित परीक्षा की स्थापित परिपाटी के प्रतिकूल मूल्यांकन की इस प्रणाली को व्यापक स्तर पर कम से कम कक्षा 8 तक के शिक्षण कार्य में अपनाना जा सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जब हर शिक्षक पक्षपात, भेदभाव, वैयक्ति द्वेष और घृणा आदि भावों से स्वयं को दूर रखने के लिए स्वयं से ही वचनवद्ध हो।

हुत सारे शिक्षकों के लिए सतत मूल्यांकन का कार्य बोझिल हो सकता है। यह तभी होता है जब हम किन्हीं अपरिहार्य कारणों से अपने विषय और बिंदु पर केन्द्रित नहीं होते। यह समझना ज़रूरी है कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में विषय बिन्दु पर केन्द्रित होने और केन्द्रित न होने के क्या मायने हैं। सीखने-सिखाने की गतिविधियां दो ध्रुवों के बीच बच्चों को केन्द्र में रखकर किया जाता है। बच्चा जिस केन्द्र में होता है उसके एक ध्रुव पर माता-पिता और अभिभावक होते हैं। वहीं दूसरे ध्रुव पर स्कूल और वहां शिक्षण कार्य में शामिल अध्यापक/अध्यापिका होते हैं। दोनों के काम बंटे हुए होने के बाद भी दोनों को केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए अपनी दिनचर्या तय करनी होती है और समर्पित भाव से प्रयास करना पड़ता है। क्योंकि केन्द्र में स्थित बच्चा ठीक अवस्था में होगा तो घर-परिवार, देश और समाज को स्थायित्व मिलेगा। 

केन्द्र में स्थित बच्चे की कल्पना में भविष्य के एक सभ्य नागरिक, समाज सेवी, राजनीति कर्मी, डाॅक्टर, इंजीनीयर, वकील, प्रोफेशनल, किसान और मज़दूर आदि सभी शामिल होते हैं। ये सारे पहचान एक दूसरे के पूरक होते हैं। इनमें परस्पर सहजीविता की कल्पना निहीत होती है। यदि ऐसा नहीं होता तो केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए माता-पिता और शिक्षकों को प्रयास ही नहीं करना पड़ता। बच्चे को न तो स्कूल के औपचारिक परिवेश में अच्छे मूल्यों और गुणात्मक सीख की आवश्यकता होती और न ही घर और समाज के अनौपचारिक परिवेश में माता-पिता को अपने बच्चों को परंपरा और संस्कार सिखाने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती। मानव जीवन के इस सच को परीक्षा और मूल्यांकन की स्थापित प्रणाली से जोड़कर देखें तो अंदाज़ा होता है कि माता-पिता व्यक्तिगत और अनौपचारिक तौर पर अपने बच्चों का सतत मूल्यांकन करते रहते हैं। यही वजह है कि वो हर दिन, हर क्षण अपने बच्चों के समक्ष जीवन के उत्तम आचार, विचार और व्यवहार के साथ-साथ श्रेष्ठ अनुशासन, आचरण और शिष्टाचार आदि के आदर्श प्रस्तुत करते रहते हैं। ताकि बच्चे के व्यक्तित्व में ये बातें मूल्य के रूप में स्थापित और विकसित हो सकें।

ब बात करते हैं दूसरे ध्रुव की जहां शिक्षक होते हैं। शिक्षक केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए औपचारिक प्रयास करते हैं। स्कूल के औपचारिक परिवेश में बच्चे को अनुशासन और शिष्टाचार के साथ-साथ निर्धारित पाठ्यक्रम को समयबद्ध तरीके से पढ़ाना-सिखाना शिक्षक का दायित्व होता है। शिक्षक के ऊपर यह जिम्मेदारी होती है कि वो बच्चों में विभिन्न विषयों से संबंधित विभिन्न बिन्दुओं की समझ बनाने में उसी समर्पण भाव का परिचय दे जैसा कि घर के अनौपचारिक परिवेश में माता-पिता और अभिभावक संस्कार की सीख देते समय दिखाते हैं। स्कूली शिक्षा में ऐसा करना ही शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सुखद समझा जाता है। यदि मौजूदा दौर में स्कूली शिक्षा की बात करें तो लगभग सभी स्कूल और शिक्षक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए समर्पित नज़र आते हैं। मूल्यांकन की सतत प्रक्रिया को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। उक्त बातों का ध्यान करके कोई भी शिक्षक अपने विद्यार्थियों की प्रगति रिपोर्ट तैयार कर सकता है।

दि किसी शिक्षक के समक्ष फिर भी संशय की स्थिति हो कि ऐसी स्थिति में क्या करें जब उन्हें दो-तीन घण्टे की परीक्षा की प्रचलित परिपाटी के बिना ही बच्चों को पास करना है, तो उसे यह समझ लेना चाहिए कि अब तक वो जिन बच्चों का मूल्यांकन परीक्षा की स्थापित परिपाटी से करते रहे हैं, अब उन्हीं बच्चों के सामने अपना मूल्यांकन प्रस्तुत करना है। जो शिक्षक पूरे शैक्षिक सत्र भर केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए समर्पित भाव से प्रयास करते हैं, उनके लिए किसी बच्चे का मूल्यांकन कोई बड़ी बात नहीं होती। यह भी सत्य है कि जब कोई शिक्षक विद्यार्थियों का मूल्यांकन करता है, तो इस प्रक्रिया में उस शिक्षक का खु़द का मूल्यांकन भी स्वतः होता रहता है। इसलिए ज़रूरी है कि चैतन्य होकर शिक्षा शास्त्र के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षक बिना औपचारिक परीक्षा के विद्यार्थियों का शैक्षिक मूल्यांकन कर प्रगति पत्र तैयार करें। इस काम को बिना किसी असहजता से किया जा सकता है। क्योंकि शिक्षक को अपने विद्यार्थियों के साथ स्कूल के औपचारिक परिवेश में एक या एक से अधिक शैक्षिक सत्र व्यतीत करने का अवसर मिलता है। शिक्षक को यह बात हमेशा याद रखना चाहिए कि उन्हें न तो बच्चों के ज्ञान की परीक्षा लेनी होती है और न ही अपनी योग्यता का प्रमाण देना होता है। सीखना-सिखाना दो धु्रवीय प्रक्रिया है जिसके केन्द्र में बच्चा होता है। हमें उस बच्चे के लिए निरन्तर अवसर सृजित करने की ओर अग्रसर रहना होता है न कि पास-फेल की प्रक्रियों को सम्पन्न कराने तक सीमित रहना होता है।

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