Monday, March 30, 2020

डर का मनोविज्ञान और कोविड-19


अच्छा तो यह है कि हम डरे हुए लोग वर्तमान स्थिति के साथ बेहतर सामंजस्य बनाने की कोशिश करें। गीत, कविता, किस्से-कहांनियां सुनें और सुनाएं। हंसे और हंसाएं। जीवन अमूल्य है। घर से बाहर जाकर या घर में रहकर बीमार होना विकल्प नहीं है। अपनी ऊर्जा साकारात्मक सोच के साथ रचनात्मक कार्यों में लगाना ही उचित है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू हैं। मानव सभ्यता ने विकास का लम्बा सफर इसी धूप-छांव में तय किया है।



र, भय, ख़ौफ़ का भाव मानव ही नहीं अपितु जानवरों में भी होता है। मनुष्य के दो भाव जन्मना होते हैं। एक भाव सुखद होता है तो दूसरा दुःखद होता है। डर का भाव दुःखद होता है। जिसमें मनुष्य को किसी तरह की हानि पहुंचने की संभावना होती है। ऐसी संभावना निजी और सामजिक जीवन की परिस्थितियों में उतार-चढ़ाव से बनती है। कहा जा सकता है कि मानवीय भावना के विकास में मनुष्य का परिवेश और परिस्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मनुष्य अपने परिवेश और परिस्थिति में रहकर ही भावनात्मक परिपक्वता प्राप्त करता है। चूंकि विकास की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है। इसलिए समय और परिस्थितियां बदलती हैं तो मनुष्य की भावनाओं में भी बदलाव परिलक्षित होता है। उदाहरण के लिए कोई बच्चा कमरे में अकेले होता है तो उसे डर का अनुभव होता है। किसी बच्चे को अकेले घर से बाहर जाने डर लगता है। कोई बच्चा समूह में खेलने से डरता है। डर के बहुत से कारण गिनाए जा सकते हैं। लेकिन बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं में भावनात्क संतुलन और सामंजस्य के लिए माता-पिता, शिक्षक और एक समय के बाद बच्चा खुद भी प्रयास करते हैं। यही कारण है कि जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, उसके मन में डर का भाव कम होता जाता है। यदि बच्चे अपने घर और समाज के परिवेश से अलग रहते हैं, तो ऐसे बच्चों के भावनात्मक विकास में संतुलन का अभाव होता है। इसके कारण ऐसे बच्चे वयस्क होने के बाद भी डरते रहते हैं। लेकिन कुछ बच्चे परिस्थितियों के कारण बिल्कुल नहीं डरते हैं। बांसफोर समुदाय के बच्चों को चाकू और गंडासे से बांस काटने में डर नहीं लगता है। किसान के बच्चों को खेत में नंगे पांव जाने में डर नहीं लगता है। किसी महिला या हलवाई को चूल्हे पर रखे तेल के गरम कड़ाहे से जलने का डर नहीं होता है। ऐसा परिस्थितियों के कारण ही संभव हो पाता है।

स समय पूरी दुनिया के लोग डरे हुए हैं। कोविड-19 के संक्रमण के फैलाव के परिणामों की कल्पना ही डर का बड़ा कारण है। लोग घरों में रहने के लिए विवश हैं। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन पड़ी हैं कि जन सामान्य ‘घर में रहना, सोशल डिस्टैन्सिंग और हाथ धुलते रहना’ आदि उपायों से जीवन और मौत के बीच विभाजक रेखा खींच रहा है। लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो हेल्थ सर्विसेज, पुलिस प्रशासन और सामाजिक संस्थाओं से प्रतिबद्ध होकर न सिर्फ मरीजों बल्कि असामान्य परिस्थितियों में पलायन कर रहे मज़दूरों, गरीबों और भूखों की मदद कर रहे हैं। 

लेक्ट्राॅनिक, प्रिन्ट और सोशल मीडिया में कोविड-19 से संक्रमण की ख़बरें किसी मैच के स्कोर बोर्ड की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। टीवी और मोबाइल तकिया-बिछौना का हिस्सा बन चुका है। मैसेज आते ही फारवर्ड का बटन दब जाना आम बात है। हर कोई दूर होकर भी अपने प्रिय जनों को अद्यतन सूचनाओं से अपडेट रखने के प्रयास में है। कहना होगा कि बच्चा, जवान और बूढ़े लगभग सभी कोविड-19 की चिन्ताओं के साथ सो और जाग रहे हैं। इनकी दिनचर्या में इस संक्रमण के भय ने मजबूत स्थान बना लिया है। दर असल देश और दुनिया की परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि हर किसी को डर के अनुभव से होकर गुज़रना पड़ रहा है। कोविड-19 का डर भयावह इसलिए भी है, क्योंकि इससे बचने के लिए अभी तक कोई वैक्सीन तैयार करने में सफलता नहीं प्राप्त हो सकी है।

ज मनुष्य घर में रहने वाली परिस्थितियों में फंसा हुआ है। डर का भाव कई बार मनुष्य के लिए लाभप्रद सिद्ध होता है। क्योंकि डर का भाव संयम और अनुशासन बनाने में सहायक होता है। जिसकी आवश्यकता इस कठिन परिस्थिति में सबसे अधिक है। फिर भी लोगों की भीड़ गैर-ज़रूरी तौर पर विभिन्न घरों के बाहर और मुहल्लों में बाल पंचायत, किशोर पंचायत और युवा पंचायत के रूप में देखी जा रही है। पुलिस प्रशासन शासनादेश के अन्तर्गत इन्हें माइक से बार-बार निदेश दे रही है, लेकिन इन पंचायतों में शामिल व्यक्तियों को डर का एहसास नहीं है। क्योंकि उनके व्यक्तित्व के भावनात्मक विकास में डर के भाव का संतुलित विकास नहीं हुआ है। वहीं बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं जो सिर्फ डरे हुए नहीं हैं बल्कि उनके अन्दर डर का एक मनोविज्ञान तैयार हो चुका है। ऐसे व्यक्ति घर के बाथरूम और छत पर जाने में भी डर रहे हैं। डर का यह मनोविज्ञान भी ठीक नहीं कहा जा सकता है। जिसके लिए टीवी के डरावने स्कोर बोर्ड वाले समाचार और सोशल मीडिया में शोधहीन और अप्रमाणित स्रोतों से भेजे जाने वाले मेसेज जिम्मेदार हैं।

क्त प्रसंग व्यक्ति, परिवार और समाज में व्याप्त भय के विभिन्न रूपों को प्रदर्शित करता है।  संकट की इस घड़ी में संयम और अनुशासन का व्यवहार ही उचित है। डर का भाव मनुष्य के व्यक्तित्व का स्थाई तत्व है। यह जीवन से मुत्यु तक बना रहता है। लेकिन विकास की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न परिस्थियों में मनुष्य के भाव नए अनुभवों से होकर गुज़रते हैं। निश्चित तौर पर आज देश और दुनिया के तमाम लोग डरे हुए हैं। लेकिन “भयभीत न होना और अत्यधिक भयभीत होना” दोनों ही भावों से हमें दूर रहने की आवश्यकता है। अति निडरता में सावधानी हटने पर संक्रमण का खतरा है, तो वहीं दूसरी तरफ अत्यधिक भयभीत होना व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होता है। अच्छा तो यह है कि हम डरे हुए लोग वर्तमान स्थिति के साथ बेहतर सामंजस्य बनाने की कोशिश करें। गीत, कविता, किस्से-कहांनियां सुनें और सुनाएं। हंसे और हंसाएं। जीवन अमूल्य है। घर से बाहर जाकर या घर में रहकर बीमार होना विकल्प नहीं है। अपनी ऊर्जा साकारात्मक सोच के साथ रचनात्मक कार्यों में लगाना ही उचित है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू हैं। मानव सभ्यता ने विकास का लम्बा सफर इसी धूप-छांव में तय किया है।
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