Wednesday, April 20, 2011

राजनीति में युवा भागीदारी

उदारीकरण ने भी युवा चेतना को नींद की गोली ही दी है। निवेश और ग्रोथ के मकड़जाल में युवाओं को ऐसा उलझाया जा रहा है कि आज का युवा सुख-समृद्धि की प्राप्ति में सामाजिक और राजनीतिक जिम्मेदारियों से विमुख होता जा रहा है। बैंक बैलेंस, चमचमाती गाड़ी और किसी बहुमंजिली इमारत में दो कमरे का घर खरीदना ही आज के युवाओं का सपना रह गया है। गांधी और पायलट परिवार के युवा एक दिन किसी दलित-पिछड़े के घर सो गए तो मीडिया में कई-कई दिनों तक चर्चा और परिचर्चा होती है। बात करते हैं उन युवाओं को जो प्रतिदिन ठण्ठ, गरमी और बारिश के झंझावत खेतों और खलिहानों में झेलते हैं, वो बड़ी मुश्किल से मीडिया की पसंद बनते हैं।

पिछले बीस वर्षों में भारतीय समाज और राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। एक तरफ जहाँ दलित-पिछड़े, मजदूर और महिला आंदोलन तेज हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ स्फूर्त प्रभाव रखने वाले आर्थिक परिवर्तनों ने युवा पीढ़ी को नयी चुनौतियों से रूबरू भी किया है। भारत में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव के संदर्भ में १९८० के दशक को एक विभाजक रेखा के रूप में देखा जा सकता है। क्योंकि इसी दशक में भारत में क्षेत्रीय राजनीति और पिछड़ी जातियों में पहली बार बड़े पैमाने पर उभार परिलक्षित हुआ। आर्थिक सुधारों और मण्डल-कमण्डल ने भारतीय राजनीति को नयी पहचान दी। लेकिन राजनीति के इस नए रंग-ढ़ंग ने युवाओं के सपनों को धूल-धूसरित ही किया। धन-बल और छल के स्वयं प्रभुओं के बढ़ते प्रभाव ने क्षेत्रीय ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में बेहतर विकल्प के रास्ते में बाधा उत्पन्न किया। बड़े पैमाने पर अपराधीकरण और अवसरवाद ने स्वच्छ छवि के व्यक्तियों का मनोबल तोड़ा है। शायद यह महत्वपूर्ण कारण है कि इस दौर में शिक्षित और जागरूक युवाओं में देश और समाज के लिए कुछ साकारात्मक कर गुजरने का हौसला टूटता जा रहा है।
याद रहे कि यदि बच्चे देश के भविष्य होते हैं तो युवा उस भविष्य को स्थायित्व प्रदान करने वाले ऊर्जावान स्रोत होते हैं। परतंत्र भारत की बात करें तो भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजद, राजगुरू और सुखदेव जैसों ने देश को आज़ाद कराने के लिए न सिर्फ त्याग और बलिदान का प्रतीमान स्थापित किया बल्कि लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए एक वैचारिक विकल्प भी दिया। १९२० के जमाने में भगत सिंह ने “नौजवान सभा” की स्थापना की। इसी दौर में चन्द्रशेखर आज़ाद आर०एस०ए० से जुड़े। इस दौर में भी राजनीतिक विरोध थे, जो स्वस्थ्य लोकतंत्र का संकेतक है। कार्य पद्धति में भी अन्तर था लेकिन यह भी सत्य है कि जब लाजपत जैसों के सर पर लाठी पड़ती थी तो इसकी आवाज भगत जैसों को सुनाई देती थी। शायद राजनीति का यह साकारात्मक रूझान ही था कि गांधी और भगत में वैचारिक मतभेद के बाद भी भगत युवा राजनीति के प्रेरणा स्रोत बन गए। इस संदर्भ में १९३६ का प्रगतिशील आंदोलन और सज्जाद ज़हीर से लेकर प्रेमचन्द्र की बातें युवाओं को आज भी प्रेरित करती हैं कि “हमें हुस्न का मेयार बदलना होगा।” लेकिन दुर्भाग्य है इस देश का कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में युवाओं की भागीदारी बढ़ने के बाद भी राजनीति में इनकी भागीदारी दिनों-दिन कम होती जा रही है। सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों आज के युवा राजनीति की तरफ एक नजर देखना नहीं चाहते? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हें इस बात के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करने की कोशिश की जा रही है कि देश और राज-काज चलाने में उनकी कोई भूमिका नहीं है! यदि ऐसा है तो आने वाले समय में विकास की दशा और दिशा क्या होगी?
मौजूदा दौर में मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया पापूलर मीडिया की भूमिका में है। संचार के इस माध्यम से बार-बार बताया जा रहा है कि देश के युवा आइकान कौन हैं? देश के युवाओं की आशा कौन है? और यह भी कि इस देश में ५५ से ६५ वर्ष वाले राजनेता महत्वहीन होते जा रहे हैं। कुछ बातें इस दृष्टि से तर्कसंगत प्रतीत होती हैं कि कुछ राजनेताओं द्वारा सुशासन के नाम पर कुशासन, भ्रष्टाचार और अपराधिक गतिविधियों में संलिप्तता के कारण राजनीति के क्षेत्र में वैचारिक शून्य पैदा हुआ है। जिसको भरने के लिए युवा पीढ़ी से उम्मीद करना सुखद अनुभव की बात है। लेकिन टी॰वी॰ सेट और अखबारों में छपने वाले कुछ चेहरों के भरोसे इस देश के नागरिकों को सुपूर्द कर देना क्या समझदारी होगी?
उदारीकरण ने भी युवा चेतना को नींद की गोली ही दी है। निवेश और ग्रोथ के मकड़जाल में युवाओं को ऐसा उलझाया जा रहा है कि आज का युवा सुख-समृद्धि की प्राप्ति में सामाजिक और राजनीतिक जिम्मेदारियों से विमुख होता जा रहा है। बैंक बैलेंस, चमचमाती गाड़ी और किसी बहुमंजिली इमारत में दो कमरे का घर खरीदना ही आज के युवाओं का सपना रह गया है। गांधी और पायलट परिवार के युवा एक दिन किसी दलित-पिछड़े के घर सो गए तो मीडिया में कई-कई दिनों तक चर्चा और परिचर्चा होती है। बात करते हैं उन युवाओं को जो प्रतिदिन ठण्ठ, गरमी और बारिश के झंझावत खेतों और खलिहानों में झेलते हैं, वो बड़ी मुश्किल से मीडिया की पसंद बनते हैं।
जो युवा समाज के पिछड़े वर्गों से हैं उनके समक्ष शिक्षा और रोजगार की समस्या है। राजनीति से मुंह मोड़ चुके बुनकर परिवार से संबंध रखने वाले मेराज अंसारी कहते हैं कि “सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में बहुत नुकसान उठाना पड़ा है, यदि आय का कोई स्थायी जरिया होता तो इस कार्य के लिए समय निकाला जा सकता है। अभी बच्चों को तालीम दिलाने में ही परेशान हूं, राजनीति का भार हमसे सहा नहीं जा रहा है।” जाहिर है पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक कारणों से राजनीति से कोसों दूर है। उन्हें तो दो वक्त की रोटी के लिए खून-पसीना एक करना पड़ता है। फिर किस दम पर वो राजनीति में अपनी भूमिका सुनिश्चित करें ताकि उनके अधिकारों की लड़ाई को मजबूत आधार मिल सके।
दरअसल राजनीति में युवा भागीदारी का रास्ता छात्र आंदोलनों के रास्ते होकर पहुंचता है। पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में छात्र संगठनों के चुनाव पर रोक है। जाहिर है एक तो वैस ही समकालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण युवा राजनीति से दूर हो रहे हैं। उस पर से तुर्रा यह कि कालेज-विश्वविद्यालय जहां प्रबल संभावना होती है, वहां भी राजनीतिक गतिविधियों पर रोक है। सतही स्तर पर रोक के लिए कालेजों और विश्वविद्यालयों में अपराधिक और छेड़छाड़ की घटनाएं बतायीं जाती हैं। लेकिन ऐसी घटनाओं से निपटने का हल पूरी गतिविधि पर ही विराम लगा देना उचित नहीं। संभव है अनुभव और राजनीतिक परिपक्वता के मामले में वरिष्ठ राजनेता युवाओं से आगे हों लेकिन हमें याद रखना होगा कि भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, अशफाक और चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे युवा भी इसी देश में पैदा हुए जो आज भी लाखों युवाओं के आदर्श हैं। फिर सरकार को डर किस बात का है जो छात्र राजनीति के पर कुतरने की कवायद कर रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि नयी पीढ़ी के युवाओं को आर्थिक नीतियों के दुष्चक्र से विमुख करना असल मकसद है। ऐसा इसलिए भी संभव है क्योंकि राजनीतिक चेतना का प्रसार किसी भी व्यक्ति को देश और दुनिया के संसाधनों तथा नागरिक अधिकारों से अवगत कराता है। लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को गति मिलती है। यदि ऐसा होता है तो लूट-खसोट और भ्रष्टाचार के खिलाफ तुफान उठेगा और बोफोर्स, तेलगी और 2जी जैसे घोटालों पर परदा डालना मुश्किल हो जाएगा। देश में विकास के नाम पर चन्द पूंजीपति घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाभ के कवायद बन्द करने पड़ेंगे। एफ॰डी॰आई॰, निजीकरण और कारपोरेट मैनुफैक्चरिंग के बल पर विकास का दम भरने वाली सरकारों को शिक्षा पर बजट बढ़ाना होगा। बेरोजगारों के लिए रोजगार सृजित करने होंगे। और यह भी तय होगा कि युवा भारत की सामाजिक-आर्थिक जरूरतें क्या हैं और उनका राजनीतिक विकल्प क्या है?

दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक शिल्पकार टाइम्स के १६-३० अप्रैल, २०११ के अंक में प्रकाशित.