Saturday, March 19, 2011

“आधा गांव” में ‘राही’ की पहचान और ‘बुनकरों’ का संकट



पिछले 13 मार्च को राही के गांव जाने का संयोग हुआ। ‘‘आधा गांव’’ वाले राही मासूम रज़ा का गांव। ज़िला ग़ाज़ीपुर में स्थित गंगौली गांव जिससे पूरा तो नहीं लेकिन ‘‘आधा गांव’’ की हद तक राही की साहित्य जगत में एक अलग पहचान अवश्य है। ग़ाज़ीपुर के मुहम्मदाबाद और मऊ मार्ग पर स्थित इस गांव के भ्रमण की अभिलाषा बरसों से थी, जो अब जाकर पूरी हुई। राही ने अपने फिक्शन में गांव के मुहल्लों-गलियों और इन गलियों में मुहर्रम के अवसर पर निकलने वाले ताजियों का वर्णन विस्तार पूर्वक किया है। वो हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता और भारत-पाक विभाजन जैसी भौगोलिक तथा सांस्कृतिक त्रासदी के ज़ख़्मों को भी छूते हैं। ओस की बूंद, नीम का पेड़, कटरा बी आरज़ू और दिल एक सादा काग़ज़ उनकी रचनाधर्मिता के श्रेष्ठ परिचायक हैं। हम और आप अच्छी तरह से जानते हैं कि राही को अपनी माटी, अपनी भाषा और संस्कृति से जितना लगाव था उतना ही उन्हे अपने लोगों से प्यार था। आज राही के गांव जाने का आनंद वैसा ही है मुझे, जैसा ताज महल और फतेहपुर सिकरी या लोटस टेम्पुल, इण्डिया गेट या गेटवे आफ इण्डिया जाने पर होता है।
बहरहाल मैं गंगौली गांव के मुख्य द्वार पर था। गांव की पगडण्डी पर गांव से बाहर आता हुआ एक व्यक्ति मिला। कंधे पर एक लाठी और उस लाठी में लटकी हुई एक पोटली। पेशे से किसान, खेत को जा रहा था। मेरे आग्रह पर वह रूका और मुझे गांव का रास्ता बताया। इस क्रम में मैंने अपनी जिज्ञासा भी शान्त करनी चाही। मैंने पूछा राही मासूम रज़ा को जानते हैं! अंतू नाम के उस व्यक्ति ने बताया कि हाँ, जानता हूँ। मेरा अगला प्रश्न कि वो कौन थे! का जवाब मिला कि ‘‘राही मिल्की थे।’’ अंतू ने बताया कि यहाँ बुनकरी होती है लेकिन वो एक किसान है और अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट है। मैंने इस संतुष्टि के बाबत रोटी, कपड़ा और मकान की बात जानना चाही। उसका कहना था कि मनरेगा में 10 दिन का काम मिला था। रूपए 120 की दर से मेहनताना भी मिला। लेकिन रहने के लिए घर नहीं है। टूटी-फूटी झोपड़ी में किसी तरह गुजारा हो जाता है।’’
गौर तलब है कि ईंट और कंकरीट से निर्मित भवनों से देश और समाज के विकास यात्रा का अंदाजा होता है। लेकिन हमारे आस-पास अंतू जैसे लोग भी रहते हैं जो 10 दिनों की मजदूरी में ही अपनी झोंपड़ियों में चैन की सांस लेते हैं। अंतू जैसों को तो ये भी पता नहीं है कि उनका जन प्रतिनिधि कौन है। जन प्रतिनिधि के बारे अंतू बताते हैं कि ‘‘मुझे कुछ मालूम नहीं है, जो भी पूछना है पंडित जी से पूछ लें, वही बताएंगे।’’
तो देखा आपने जिस राही ने गंगौली को अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय पहचान दिलाई आज उसी गंगौली गांव में उनकी अपनी पहचान एक मिल्की की रह गयी है। याद आती हैं वो पंक्तियां जिन्हें राही ने ‘‘आधा गांव’’ की भूमिका में लिखा है- ‘‘समय के घड़े में एक पतला सा छेद है, जिससे समय पल-पल छनता रहता है। ग़ाज़ीपुर ज़िन्दगी के क़ाफिलों के रास्ते में नहीं है। जब कोई क़ाफिला इधर से होकर गुज़रता है तो यहाँ के लोग उस क़ाफिले की धूल को इत्र समझकर अपने बदन और कपड़े पर छिड़क लेते हैं और खुश हो लेते हैं।’’
उक्त पंक्तियां राही जैसा व्यक्ति ही लिख सकता था। जिस गांव की गोद में बचपन गुजरा और जिस गांव को उन्होंने अपनी यादों और रचनाओं से कभी जुदा नहीं होने दिया आज उसी गांव में राही के पहचान का संकट है। यह संकट कोई मामूली संकट नहीं है। बल्कि देश के तमाम गांवों और ग्रामीणों के पिछड़ेपन का संकेतक भी है। और यह भी पता चलता है कि व्यक्ति चाहे जितना पढ़-लिख ले, जितना धन कमा ले और ऊँचे मकान बना ले, जाति उसका पीछा नहीं छोड़ती। तभी तो आर्थिक संकटों की दलदल से निकले राही जैसे साहित्यकार और लेखक की पहचान उसके अपने गांव में मिल्की नाम की जातिसूचक सीमा में सिमट कर रह जाती है।
 गांव में जीवन और वो भी राही के गांव में जीवन की धारा पहले हथकरघों पर थिरकती उंगलियों में देखी जाती थी। 90 के दशक में बड़े पैमाने पर हथकरघों की जगह पावर लूम का प्रचलन हुआ। बिजली चालित करघों के प्रसार से विकास के नए मानक स्थापित हुए। पहले जो बुनकर खपरैल के टूटे-फूटे घरों की अंधेरी कोठरियों में घण्टों ताना-बाना बुना करते थे, पावर लूम के आने से उनके दिलों में नई उम्मीद जगी। उन्हें लगा कि अब उन्हें अंधेरे में अपनी आंख फोड़ने की ज़रूरत नहीं रह जाएगी, घर के बाकी सदस्य किसी और उत्पादक कार्य को कर सकेंगे। और उनके बेजान जिस्मों की ऊर्जा उनके लिए नवजीवन का काम करेगी। लेकिन पहले तो गांव का इलेक्ट्रीफिकेशन का मसला और फिर जब बिजली के तार गांवों की गलियों में दौड़ा दिए गए तो कनेक्शन की समस्या। यही नहीं कनेक्शन के बाद पावर सप्लाई की अनिश्चितता ने उत्पादन को ठप करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। बुनकरों को कब सोना है और कब जागना है, इसका समय निश्चित नहीं होता। इस गाने की तर्ज तो सुना ही होगा आपने ‘‘जब सारी दुनिया सोती है/हम तारे गिनते रहते हैं’’। बात गंगौली की हो रही है लेकिन मजदूर की हैसियत रखने वाले पूरब के तमाम बुनकरों की ज़िन्दगी इस गाने की तर्ज में फिट जान पड़ता है। तर्ज देखें- जब सारी दुनिया सोती है/हम कपड़े बुनते रहते हैं’’।

ये बुनकर वही कपड़े बुनते हैं जिसे देश की जनता पहनती है और विदेशों में भी जिसकी ख्याति है। लेकिन हैण्डलूम हाउस की सीढ़ियां चढ़ने वालों और मुक्त बाज़ार व्यवस्था के पैरोकारों को बुनकरों और इस उद्योग की मूलभूत समस्याओं की फिक्र कम ही है। हथकरघा प्रदर्शनियों और स्पेशल इकाॅनामिक जोन के माध्यम से राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक पहचान को बचाने की चिंताएं जग जाहिर हैं। लेकिन इस पहचान को बनाने वाले असल करीगरों की कोई पहचान नहीं है। 13 मार्च, 2011 को तमाम अख़्बारों में यह ख़बर प्रमुखता से छपी थी कि प्रदेश के हथकरघा बुनकरों के ब्याज माफ किए जाएंगे। ये बयान पी॰डब्लू॰डी॰ मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी का है। माननीय मंत्री जी की घोषणा तो हर अखबार पाठक ने पढ़ी होगी, लेकिन जिनके बारे में लखनऊ से लेकर नई दिल्ली तक बयानों और नीतियों का दौर-दौरा होता है उनकी बातें कहीं लोकतंत्र की भीड़ में खोकर रह जाती हैं। बात करते हैं गंगौली के बुनकर 52 वर्षीय मु॰ मक़सूद की, जो पचास हजार का कर्ज़दार है। मकसूद साहब देखने में 62 वर्ष के लगते हैं। कहते हैं कि ‘‘पहले हथकरघा पर काम करते थे। प्रतिस्पर्धा बढ़ी तो एक पावरलूम लगाने के लिए सरकार 50000 रूपए से कर्ज लिया था, जिस पर 7500 रूपए की छूट मिली थी। लेकिन एक वर्ष बाद ही बीमार होने के कारण गति पकड़ने से पहले ही काम बंद हो गया। इलाज के लिए गांव देहात से लेकर शहरों की खाक छानता फिर रहा हूँ। ऐसे में किसी तरह मैं अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहा हूँ। कर्ज अदायगी की चिंता दिन-रात सताती रहती है। आए दिन बैंक के अमीन जेल भेजने का डर दिखाते हैं। जो बन पड़ता है अमीन को दे देता हूँ लेकिन वो अपने आने-जाने का खर्च भी मांगते हैं।’’
नसीमुद्दीन साहब का बयान ऐसे बुनकरों को ढ़ाढ़स देने के लिए काफी है। ध्यान देने की बात है कि मंत्री साहब ने सिर्फ ब्याज अदायगी को माफ करने की बात कही है। अगर मु॰ मकसूद जैसे बुनकरों के ब्याज माफ भी कर दिए जाते हैं तो झोंपड़ों में रहने वाले ऐसे बुनकरों को राहत नहीं मिलने वाली। क्योंकि बुनकरों को मूलधन की अदायगी हर हाल में करनी ही होगी। यदि हमारे जन प्रतिनिधियों को बुनकरों के कल्याण की इतनी ही फिक्र है तो उन्हें बुनकरों के जमीनी मसायल पर ध्यान देना होगा। किसी समाज के चन्द तरक्की कर चुके लोगों को पुरस्कृत और सम्मानित करके आम बुनकरों के दुःख-दर्द को ठीक नहीं किया जा सकता।