Thursday, January 10, 2019

आरक्षण की मूल भावना को समझना होगा

......बुनियादी स्तर पर आरक्षण के मूल मंतव्य को समझना होगा। अधिक शिक्षित और सम्मानित लोगों की जिम्मेदारी भी अधिक होती है। एक बेहतर और प्रगतिशील समाज के निर्माण में ऐसे लोगों की भूमिका भी अधिक होती है। ऐसे लोगों को इस सच्चाई से रूबरू होना होगा कि देश से प्रतिभा पलायन का कारण आरक्षण नहीं है। बी.पी.ओ. के माध्यम से भारत की युवा प्रतिभाओं का खून चूसने का काम आरक्षण की व्यवस्था नहीं कर रही है और न ही युवा भारतीयों के सपनों को काल सेन्टरों के केबिनों तक सीमित करने का काम ही आरक्षण कर रहा है। वास्तविकता यह है कि ........
Published in Shilpkar Times, New Delhi, Issue: 16-31 July 2011


विविधता और विभिन्नता प्रधान हमारे देश में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना अभी भी व्यवस्थापिका और न्यायपालिका की प्रमुख चुनौतियों में से एक है। राजधानी के तीन प्रमुख विश्वविद्यालयों में इन दिनों सामाजिक न्याय की मुहिम चल रही है। जामिया में माइनारिटी स्टेटस और मुस्लिम रिजर्वेशन, डी॰यू॰ और जे॰एन॰यू॰ में प्रवेश और नियुक्ति में ओ॰बी॰सी॰ आरक्षण का ध्यान न रखा जाना बहस का मुद्दा बना हुआ है। जाहिर है बुनियादी सवाल संवैधानिक उपबंधों के उल्लंघन का है। लेकिन आरक्षण का जिक्र होते ही जाति आधारित भेदभाव और मेरिट-डिमेरिट जैसे मुद्दे बहस के केन्द्र में आ जाते हैं। आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में तर्कों के तीर चलने लगते हैं। बाजारपरस्त एज आफ ग्लोबल कम्पटीशन के हिमायती भी इस बहस में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। कहते नहीं थकते कि प्रतिस्पर्धा का आधार योग्यता, मेरिट और दक्षता है न कि जाति। लेकिन बुद्धिजीवियों का एक खेमा यह कहता है कि सवाल दक्षता, योग्यता और मेरिट का नहीं बल्कि अवसर का है। सन् 2005-06 में जब यूपीए सरकार ने निजी क्षेत्र में अनुसूचित जाति/जनजाति आरक्षण का शगूफा छोड़ा था तब भी और इससे पहले जब मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं थीं तब भी छात्रों का एक बड़ा हिस्सा विरोध में आंदोलित हो उठा था। जामिया का मामला माइनारिटी स्टेटस से जुड़ा है। इसलिए इस पर अलग से बात की जाएगी। फिलहाल बात करते हैं आरक्षण की नीति, आरक्षण की राजनीति और आरक्षण की मूल भावना की।
मामला पब्लिक सेक्टर का हो या प्राइवेट सेक्टर का पहले तो विरोधी के तेवर विरोध तक सीमित थे लेकिन जे॰एन॰यू॰ और डी॰यू॰ के मामलों में यह तेवर कानून की और संवैधानिक उपबंधों में निहित सामाजिक मर्यादा की भावना के उल्लंघन और मर्माहत करने का है। कम से कम प्रगतिशील विचारों के पोषक लोगों और संस्थाओं से तो यह अपेक्षा की ही जानी चाहिए कि अवसरों से वंचित लोगों को मुख्य धारा में शामिल करने के मुहिम का हिस्सा बनें न कि छद्म प्रगतिशील आदर्शों के व्याख्याता। बात उन लोगों की भी जो यह समझते हैं कि रिजर्वेशन के कारण उनका हक मारा जा रहा है। दरअसल रिजर्वेशन की मूल भावना सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन है। ये बात अलग है कि ‘द पाॅलिसी आॅफ रिजर्वेशन’ ‘द पाॅलिटिक्स आॅफ रिजर्वेशन’ में बदल गयी। जबकि शैक्षिक-सामाजिक पिछड़ेपन का सवाल पीछे छूटता गया। लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ है। इस होने में भी काफी वक्त लगा है। अच्छी बात यह है कि तमाम विकृतियों और दिशाहीनता के बाद भी सामाजिक न्याय के लिए लोग पहले से कहीं अधिक संख्या में आवाज उठा रहे हैं। भीड़तंत्र में ही सही लोकतंात्रिक आवाजें उठाई जा रही हैं। ये बात अलग है कि कारपोरेट मीडिया के लिए कौन से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विषय पाॅपुलर न्यूज स्टोरी हैं या नहीं। यही वजह है कि फारबिसगंज की हालया फायरिंग पर मीडिया कवरेज में देर हो जाती है।
शिक्षा हेतु बुनियादी सुविधाओं को हर व्यक्ति तक पहुंचाया जाना चाहिए। सर्व शिक्षा अभियान के तहत वजीफा, ड्रेस, किताबें और मध्यान्ह भोजन को इस तरह की सुविधा में शामिल किया जा सकता है। लेकिन उस सामाजिक बुराई को कैसे समाप्त किया जाए जिसके कारण मिड डे मिल बनाने वाली दलित और पिछड़ी जाति की महिलाओं द्वारा बनाए गए खाना को अबोध बालकों ने खाने से इंकार कर दिया हो। क्या यह इनक्रेडिबल इंडिया के लिए मुंह चिढ़ाने जैसी घटना नहीं है।
मुद्दा सामाजिक सम्मान का है। जो लोग बार-बार प्रतिभा की दुहाई देकर आरक्षण का विरोध करते हैं, जिनमें खुद पिछड़ों की भी अच्छी-खासी तादाद है, को जानकारी होनी चाहिए कि 90 के दशक में जब ओ॰बी॰सी॰ आरक्षण लागू हुआ था, उस समय विरोध करने वालों में एक समूह ऐसा भी था जिसने विरोध भी किया और फर्जी प्रमाण पत्र बनवाकर कहीं एडमिशन में लाभ उठाया तो कहीं नौकरियों में। ये बात अलग है कि सबूत नहीं है और न ही स्ट्रींग आपरेशन की कोई फुटेज। आम धारणा है कि हर व्यक्ति में प्रतिभा एक समान नहीं होती है। यह ईश्वर प्रदत्त गुण है जो कुछ विशेष लोगों में होता है और इसीलिए आरक्षण या किसी भी पाॅजीटिव डिस्क्रिमीनेशन जैसे उपाय से प्रतिभा का अनादर या इसे हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। यह एक स्थापित तर्क है जिससे किसी भी व्यक्ति की सहमति स्वाभाविक है। लेकिन साइंस और टेक्नोलाजी के मौजूदा दौर में जब व्यक्ति हर चीज की परत दर परत जांच-पड़ताल करने के बाद किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंच रहा है, तो लेहाजा प्रतिभा से संबंधित संस्थागत धारणा की पड़ताल भी होनी चाहिए। इस क्रम में जब हम इतिहास का अवलोकन करते हैं तो यही पाते हैं कि समाजिक स्तरीकरण के लिहाज से भारत में जो विषंगतियां व्याप्त हैं वो ईश्वर प्रदत्त नहीं बल्कि सामजिक विकास के क्रम में एक ऐतिहासिक घटना से अनुप्राणित हैं। जब प्राचीन काल में लोहे के प्रयोग से समाज के एक तबके का वर्चस्व अन्य तबकों पर स्थापित हो गया तब इस तबके के लोग हर उस काम काम को अंजाम देने लगे जिससे सामाजिक असमानता की खाई बढ़ती गयी। इस तबके को समय-समय पर पुरोहित वर्ग वैधता का प्रमाण पत्र देकर सदा ही इनके और अपने हितों का पोषण करता रहा। इस तरह इन दोनों वर्गों की मिली भगत ने वर्ण व्यवस्था को जन-जन के मन में, व्यवहार में, संस्कार में, यहां तक कि उनकी आत्मा में कुछ इस तरह स्थापित किया कि दलित-पिछड़ा तबका सामाजिक रूप से भद्र जनों की सेवा को ईश्वरीय आज्ञा और अपना धर्म समझता रहा। इन सच्चाइयों को अगर और करीब से महसूस करना है तो वैदिक और गुप्त कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों को पढ़ना होगा। कालीदास के एक ग्रंथ में तो भाषा के अनुसार सामाजिक स्तरीकरण का उल्लेख हुआ है। जहां संभ्रांत लोग संस्कृत और नीचे के लोग अपभ्रंश बोलते हैं।
हरहाल तुर्कों और मुगलों के शासन काल में भारत में इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए नई संभावनाएं बनीं। इस्लाम ने यहां भी अपने मूल तत्व ‘‘एकता ओर समानता’’ का बिगुल फूंका। प्रभाव स्वरूप बड़े पैमाने पर दबे कुचले और पिछड़े लोगों ने भेदभावमूलक ब्राम्हणवादी व्यवस्था को त्यागकर इस्लाम स्वीकार कर लिया। ज्ञात हो कि छठीं शताब्दी ई॰पू॰ महात्मा बुद्ध और महावीर जैन ने भी समतामूलक समाज के निर्माण और विकास के लिए अथक प्रयास किए थे। बहरहाल, तुर्कों और मुगलों के दौर में सामाजिक सम्मान की आस में जिन पिछड़ों ने धर्म परिवर्तन किया उन्हें धार्मिक समानता तो मिली, लेकिन इतिहास और वर्तमान दोनों ही गवाह हैं कि वो लोग आज भी सामाजिक समानता और सम्मान से कोसों दूर हैं।
गौरतलब है कि आजादी के बाद राष्ट्रपति के अध्यादेश द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण का संवैधानिक उपबंध किया गया। लेकिन संविधान का अनुच्छेद 341 में संशोधन न होना धर्म आधारित भेदभाव को मूक सहमति देने जैसा है। अनुच्छेद 341 के अनुसार कोई भी दलित वर्ग का व्यक्ति यदि धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम या ईसाई बन जाता है तो वह आरक्षण का लाभ नहीं प्राप्त कर सकता। मुमकिन है संविधान निर्माताओं ने इस्लाम के ‘‘समानता और एकता’’ की मूल भावना को मद्देनजर रखते हुए अनुच्छेद 341 के उपबंध को स्वीकृती दी हो। लेकिन आजादी के 63 साल बाद भी यह नहीं माना जा सकता कि जिन लोगों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध या जैन धर्म अपना लिया हो उनकी सामाजिक सिथति या उनके प्रति उच्च जातियों के लोगों का सामाजिक व्यवहार जैसे का तैसा है। जिसके आधार पर ये लोग आज भी आरक्षण के अधिकारी हैं। दूसरी तरफ यह भी विश्वास से परे है कि जो लोग इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लिए हों उन्हें अचानक ही सामाजिक समानता का दर्जा मिल गया हो और उन्हें आरक्षण के योग्य नहीं समझा जाए।
जाहिर है प्रतिभा एक तरह का मैन मेड स्थापित संस्थागत धारणा है। कोई भी प्रगतिशील समाज मानव निर्मित सामाजिक भेदभाव पर आधारित परंपरा, सिद्धांत, व्यवहार और मूल्य को अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकता है। जहां तक प्रतिभा की दुहाई देने वालों की बात है तो उनको बुनियादी स्तर पर आरक्षण के मूल मंतव्य को समझना होगा। अधिक शिक्षित और सम्मानित लोगों की जिम्मेदारी भी अधिक होती है। एक बेहतर और प्रगतिशील समाज के निर्माण में ऐसे लोगों की भूमिका भी अधिक होती है। ऐसे लोगों को इस सच्चाई से रूबरू होना होगा कि देश से प्रतिभा पलायन का कारण आरक्षण नहीं है। बी.पी.ओ. के माध्यम से भारत की युवा प्रतिभाओं का खून चूसने का काम आरक्षण की व्यवस्था नहीं कर रही है और न ही युवा भारतीयों के सपनों को काल सेन्टरों के केबिनों तक सीमित करने का काम ही आरक्षण कर रहा है। वास्तविकता यह है कि नई आर्थिक व्यवस्था ने पिछले लगभग बीस बरसों में हमारे देश में विकास के पहिए को उस दिशा में घुमा दिया है जहां जीवन का अर्थ बनावटीपन के सिवा कुछ नहीं। नई आर्थिक नीति ने हमारे रगों में उपभोक्तावादी चरित्र और सुविधाभोगी मानसिकता का संचार किया है।
ज हममें से हर कोई नई माॅडल की गाड़ी, फ्रीज, मोबाइल और बर्गर, पिज्जा व कोला का भोग करना चाहता है। हम अपनी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं को अपनी क्षमता के अनुरूप तय नहीं कर रहे हैं बल्कि मल्टीनेशनल्स तय कर रही हैं। ऐसे में पूंजी आधारित सामाजिक असमानता का ग्राफ दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। फलस्वरूप एक तरफ प्रतिभा पलायन और उनके शोषण की प्रवृत्ति नित नए तेवरों में बढ़ रही है तो दूसरी तरफ निजीकरण की बयार से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बचा खुचा अवसर भी समाप्त होता जा रहा है। यही वजह है कि 2005-06 में आरक्षण की सियासत करने वालों ने निजी क्षेत्र की नौकरियों और उच्च शिक्षा में आरक्षण का शगूफा छोड़ा था। सवाल यह है कि पहले से उपलब्ध आरक्षण की व्यवस्था को हम सही रूप में लागू नहीं करा पा रहे हैं तो इस क्षेत्र में नई व्यवस्था को कहां तक लागू किया जा सकेगा।