Sunday, September 4, 2011

ये वो सुबह तो नहीं .......


मीडिया घराना समर्पित भाव से आंदोलन के साथ याराना निभा रहा है। आंदोलन को “क्रान्ति” के नाम से महिमामंडित भी किया जा रहा है। टी.वी. पर दिख रही भीड़ को देखकर ऐसा लगता है कि यह भीड़ किसी भी आंदोलन को क्रान्ति के चरण में पहुंचाने के लिए काफी है। जब क्रान्ति की बात होती है तो फ्रांस और रूस के अलावा तीसरा नाम जुबां पर आता ही नहीं। अच्छा है विश्व इतिहास के पन्नों में भारत का नाम भी क्रान्ति होने वाले देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा। लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम जो अब आंदोलन बन चुका है और जो मीडिया की नज़र में क्रान्ति की चैखट तक पहुंच चुका है पर संशय भी व्यक्त किया जाने लगा है। कोई इसे कारपोरेट घराने का प्रायोजित आंदोलन बता रहा है तो कोई इस आंदोलन के अगुवा को सवर्णवादी बता रहा है। मीडिया के अनुसार इस आंदोलन के समक्ष सरकार घुटने टेकती नजर आ रही है। विरोध और सपोर्ट के सुरों के बीच बात अन्ना और अनशन पर आकर रूक सी गयी है। अन्ना समर्थक “मैं अन्ना हूँ” के नारे लगा रहे हैं और जो नहीं लगा रहे हैं उनमें से कुछ लोकपाल को स्टैंडिंग कमेटी में ले जाने की बात कर रहे हैं। इधर अन्ना दल (सिविल सोसाइटी) अड़े हैं कि बिल पेश करने से कम पर वो अनशन नहीं तोड़ेंगे। इन्हीं बातों के साथ सड़को पर चलती-फिरती भीड़ और आन्दोलन बन चुके अन्ना पर बहस जारी है।
मीडिया में बार-बार दिखाई जा रही तस्वीरों को देखकर सहज ही यकीन होता है कि अन्ना वास्तव में अन्ना नहीं रहे, अब वो आंधी बन चुके हैं और क्रान्ति का दरवाजा खटखटाया जा रहे हैं। पिछले दिनों के उनके बयान से भी ऐसा प्रतीत होता है कि यह आंधी कहीं यूपीए गठबंधन को उखाड़ न फेंके। भीड़ की अपनी ताकत होती है। अगर भीड़ सत्ता प्रतिष्ठानों पर जन दबाव बनाने के लिए हो तो इसकी सार्थतकता निश्चित तौर पर साबित होती है। और अगर उन्मादी है तो इसकी निरर्थकता भी सामने आ जाती है। बात वैचारिक धरातल की है कि भीड़ जिस वैचारिक धरातल पर खड़ी है वह धरातल कितनी मज़बूत और टिकाउ है?
भ्रष्टाचार हमारे देश की गंभीर समस्या बन चुकी है। इससे मुक्ति का सपना देखना आज़ादी के सपने देखने से कम नहीं है। ऐसे में यदि अन्ना युवाओं के रोल माॅडल बन चुके हैं तो यह इस समय की बड़ी उपलब्धि कही जानी चाहिए। क्योंकि किसी काॅमन समस्या के लिए काॅमन प्लेटफार्म पर इकट्ठा होना आज के दौर में चमत्कारिक है। जून से लेकर इस अगस्त के आखिरी पखवारे तक अन्ना के समर्थकों की संख्या लगातार बढ़ी है। समर्थकों की बढ़ती संख्या को देखकर सहज उम्मीद भी बढ़ती है कि क्या हमारा देश क्रान्ति के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है? यदि ऐसा है तो यह शुभ संकेत है, सिंगुर और नन्दीग्राम से लेकर भट्टा पारसौल जैसे स्थानों पर बसने वाले लोगों के लिए जहां कारपोरेट वल्र्ड को पहले तो खुली लूट की छूट दी गयी और फिर आन्दोलनकारियों का दमन किया गया। अभी उड़ीसा में क्या हो रहा है। पास्को के साथ सरकार क्या गुल खिला रही है? क़ाबिले गौर है कि आर्थिक विकास के लिए सुधारों की बयार चलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने अपने पिछले कार्यकाल के समय स्वयं सुधारों को मानवीय रूख ;भ्नउंद ंिबमद्ध देने की बात कही थी। यानि 1991 में उन्होंने जिन सुधारों को हरी झण्डी दिखाई थी वो कभी मानवीय थे ही नहीं। इसके विरोध में भी 1990 के दशक से ही आन्दोलन चल रहे हैं इस देश में। लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं है। निवेश और विदेशी निवेश आए दिन बढ़ता ही जा रहा है। पंूजीपती खेल रहे हैं और बाकी जनता मूक दर्शक। क्योंकि खेलने का अधिकार तो आर्थिक गुलामी की जंजीरों में कैद होता गया है एक के बाद एक। जिसके पास पूंजी बल्कि बड़ी पूंजी होगी वही खेलेगा। खेलने वाला हमारे स्टेट में कहीं रियल स्टेट खेल रहा है और कहीं माॅल-माल (शापिंग) खेल रहा है। इस खेल में मंहगाई कब दो अंकों में पहुंच गयी पता ही नहीं चला। बहरहाल, 90 के दशक में साम्प्रदायिकता ने नए सिरे से सर उठाया। 2002 में राज्य प्रायोजित दंगे कराए गए। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक संघियों के खिलाफ आंदोलन का इतिहास अभी जारी है। 1990 के दशक की तीसरी महत्वपूर्ण घटना मण्डल कमीशन की अनुशंसाओं का लागू किया जाना था। सामाजिक न्याय का सवाल एक बार फिर बहस का मुद्दा बना। यह सवाल अभी भी समाज को उद्वेलित कर रहा है और सामाजिक न्याय का आन्दोलन अपने प्रकार और विस्तार में जारी है। आए दिन हत्या, लूट और बलात्कार की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। इसके खिलाफ भी लोग लड़ रहे हैं। उत्तर-पूर्व हो या कश्मीर या फिर गुजरात हर जगह मानवाधिकारों का हनन हुआ है। इसके खिलाफ भी आंदोलन जारी हैं इस देश में। इरोम शर्मीला का अनशन और कुछ वर्ष पूर्व उत्तर-पूर्व में महिलाओं का नग्न विरोध-प्रदर्शन बहुत पुराना नहीं हुआ है।
जाहिर है पिछले दो दशकों का इतिहास आंदोलनों से भरा पड़ा है। कुछ तो कमी रही होगी जो ये आंदोलन अन्ना के आंदोलन का रूप नहीं ले सके। कमी अगुवा की तो होती ही है। कई बार साथ चलने वालों की भी कमी होती है। बहस यह नहीं है कि अन्ना का आंदोलन जिस जमीन पर खड़ा है वह जमीन उर्वर है कि बंजर। सवाल यह है कि अन्ना के आन्दोलन को क्यों न देश भर में चल रहे अन्य आन्दोलनों से जोड़ जाए। अभी जो मोमेन्टम बना हुआ है और जिस तरह से सड़कों पर (कम से कम नगरों में) जनता का हुजूम देखा जा रहा है ऐसी स्थिति में यदि सिविल सोसाइटी देश के उन आन्दोलनों से भी जुड़ जाए जिसे मीडिया ने अक्सर नज़र अंदाज़ किया है, तो सोने पे सुहागा हो जाए।
भ्रष्टाचार अभी की सबसे बड़ी समस्या है। इसके अलावा और भी समस्याएं हैं जो अपने आप में गंभीर हैं। सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अनुपालन न होना। किन्हीं अर्थों में यही भ्रष्टाचार है। पिछले दिनों एक अखबार (अमर उजाला, फिरोजाबाद, 22 अगस्त, 2011) में खबर छपी थी। जिसमें टोपी विक्रेता मयंक जैन कहते हैं कि “वैसे तो यह टोपी पांच रूपए में मिल जाती है, लेकिन आंदोलन के कारण डिमांड अधिक है इसलिए दस रूपया की मिल रही है।” खबर में लिखा था कि 60 रूपए का तिरंगा झण्डा 120 रूपए तक में बेचा गया। आश्चर्य की बात है कि खरीदार वही थे जिन्हें अन्ना समर्थन में जाकर नारे लगाने थे और कैन्डिल जलाने थे। एक्सप्रेस बज पर लूना देवन की रिपोर्ट भी काबिले गौर है। इस रिपोर्ट के अनुसार बंगलोर शहर के एक सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि “उन्होंने 2000 झण्डों का आर्डर दिया था और उन्हें सामान्य लागत मूल्य से भुगतान करना पड़ा।” (लिंक देखें http://expressbuzz.com/cities/bangalore/anna-movement-triggers-flags-sale/305965.html ”Gearing up for supporting the cause we had ordered for about 2,000 cotton flags and we had to pay double than the normal price” a city based social activist said.”)
चिन्तनीय है कि जो व्यक्ति भ्रष्टाचार का विरोध करने की तैयारी कर रहा है वही व्यक्ति एक व्यक्ति के नाम पर (जो युवाओं का आदर्श बन गया बताया जा रहा है) लागत से अधिक पैसे देता है। मुमकिन है कि जिस तिरंगा को 60 के बदले 120 में खरीदा गया उसकी भावनात्मक आवश्यकता उससे कहीं अधिक किसी आम आदमी को रही हो और वह उस तिरंगा को प्राप्त नहीं कर सका हो क्योंकि उसके पास दोगूनी कीमत अदा करने के लिए पैसे नहीं रहे हों। इसीलिए कहना पड़ रहा है कि ऊपर से चलकर नीचे आने वाले भ्रष्टाचार की अपनी सीमा है और नीचे से चलकर ऊपर जाने वाले भ्रष्टाचार की अपनी सीमा और अपना रूप है। ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित भ्रष्टाचार पर मैंने अपने आलेख “भ्रष्टाचार से निर्णायक लड़ाई”( देखें 16-30 जून का शिल्पकार टाइम्स, नई दिल्ली ) में विस्तार से चर्चा की है। बात करते हैं नीचे से ऊपर को जाने वाले भ्रष्टाचार की। याद रहे कि यह भ्रष्टाचार हमारे रगों में दौड़ रहा है। बी.पी.एल. बनवाना हो तो संभ्रान्तों की कतार आगे रहती है, वंचित छूट जाता है। राष्ट्र ध्वज तिरंगा खरीदना हो तो 60 के बदले 120 रूपए अदा करने वाला बढ़के लपक लेता है, कमजोर और दबा-कुचला अपनी भावनाओं को अपने सीने में दफन करके रह जाता है। सबसे भ्रष्ट कचहरी और इसमें कार्य करने वाला हर छोटा-बड़ा पदाधिकारी है। हर काम में जनता बीस से पचास रूपए जो न्यूनतम है देने को तैयार है। क्यूं भई? इसलिए कि हमें जल्दी रहती है। हम अपना काम समय से पहले और अपनी बारी का इंतजार कर रहे बाकी लोगों से पहले चाहते हैं। यह भी चाहते हैं कि औपचारिकता न निभानी पड़े।
मौजूदा हालात में पहले मुर्गी या अण्डा वाले सवाल में न उलझते हुए इस बिन्दु पर विचार-मन्थन और व्यावहारिक प्रयास शुरू किए जाने की ज़रूरत है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में जो छोटे-छोटे आंदोलन हैं वो भी भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन से जुड़ जाए। तभी इस आंदोलन में प्रत्येक नागरिक की भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। फिर दोहरा रहा हूँ कि यह समय निर्णायक हो सकता है, कैन्डिल लाइट प्रोसेसन क्रान्ति के मशालों से प्रज्जवलित हो सकती यदि यह आंदोलन अपने प्रसार सीमा में हर क्षेत्र, हर समुदाय और हर वर्ग की समस्याओं को समाहित कर ले। वरना फैज की नज़्म “ये वो सुबह तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर/चले थे यार की मिल जाएगी कहीं न कहीं” एक बार फिर प्रासंगिक हो उठेगा।

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_1-15_SEPTEMBER_2011

मुर्तजा नाई


उत्तर प्रदेश में 20 मई तक स्कूलों में गर्मी की छुट्टी हो जाती है। कई बरसों बाद इस साल मैं भी छुट्टियां मनाने निकला। करीब 20 दिनों तक स्टेशन, रेलगाड़ी, होटल और पर्यटन स्थलों की सैर। इस सफर में दोस्तों और संबंधियों से भेंट-मुलाकात। नयी-पुरानी बातें। चलती रेलगाड़ी से खेतों, मैदानों, जंगलों और पहाड़ों को देखना। कैमरा और मोबाइल से तमाम मंजरों को कैद करना। कभी स्टेशनों पर चिपके इश्तेहारों की तस्वीर खींचना तो कभी दीवरों के कोनों में पान के थूके हुए पीकों की तस्वीरें उतारना। कम्यूटर और इन्टरनेट की सुविधा मिलते ही इन तस्वीरों को फेसबुक पर पब्लिश करना और ई मेल द्वारा मित्रों को प्रेषित करना। सचमुच इलेक्ट्रानिक यंत्रों ने हमारी यात्राओं में रोचकता का नया पुट भरा है। लेकिन नएपन के इस ताने-बाने में आंखों के कैमरे से खींचे गए कुछ चित्रों को शब्द दे रहा हूँ, जो अबतक मेरे लिए परेशानी का सबब बने हुए थे।
लगातार यात्रा की थकान और मुजफ्फरनगर में हफ्ते दिन विराम। विकास भवन के सामने स्थित रामपुरम और रामपुरम में गली नं॰ 3 के पास स्थित मुर्तजा नाई की दुकान। ज़ाहिर है बाल बनवाने के लिए पर्याप्त और उचित समय।
मुर्तजा नाई अपनी दुकान में ‘‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’’ पढ़ते हुए ग्राहकों का इंतेजार कर रहे हैं। उनकी दुकान में टी॰वी॰ नहीं है। आमदनी इतनी कि वो दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला और पंजाब केशरी आदि अखबारों में छपी ख़बरें नहीं पढ़ सकते। बहरहाल काफी दिनों बाद ऐसा हुआ था कि मुझे बिना लाइन लगाए ही बाल बनवाने का अवसर मिला था। मैं इस अवसर को खोना नहीं चाहता था। अगले ही क्षण मैं मुर्तजा नाई की दुकान में था। मुर्तजा नाई को बताने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि मुझे हेयर कट करवाना है या दाढ़ी शेव करवानी है। मेरे बाल जो इस कदर बड़े और बिखरे हुए थे। बंेच पर अखबार रखकर उन्होंने ड्रावर से अपनी कैंची और कंघी निकाली। मेरे बालों पर पानी छिड़का और हो गए शुरू अपनी धुन में। कभी-कभी मेरा ध्यान उनके चेहरे पर पड़ जाता। पुराने जमाने की ऐनक और ऐनक के पीछे एक जोड़ी आँखे इस तरह कैंची, कंघी के साथ मेंरे सर के बालों पर संक्रेंदित हैं मानो मुर्तजा नाई कोई बड़ा और गंभीर कार्य रहे हों।
छोटे समझे जाने वाले मुर्तजा नाई कद-काठी से काफी लम्बे हैं, लेकिन उनके चेहरे की झुर्रियां और दुबला-पतला शरीर उनके काम में काई बाधक नहीं है। कभी-कभी बचपन में सुनी और सुनाई गयी चुटकुलों की याद ताजी हो जाती कि नाई के सामने अच्छे-अच्छों को सर झुकाना पड़ता है। विचारों की श्रृंखला में यह विचार भी आता है कि छोटे समझे जाने वाले लोगों द्वारा किया जाने वाला काम क्या बड़ा नहीं होता? क्या ऐसे लोगों के कार्य में तत्परता, गंभीरता और समर्पण नहीं होती?
आँखों की पुतलियों को ऊपर उठाकर कर आइने में देखने की कोशिश। मुर्तजा नाई का चेहरा उनके हाथ और अपने सर पर तेजी से फिरती कंघी-कैंची को देख पा रहा हूँ मैं। जब आँखें बन्द करता तो आँखों के सामने बुनकरों, लोहारों, कुम्हारों, बढ़इयों, धोबियों, बांसफोरों, मोचियों की दस्तकारी-शिल्पकारी और मनोरंजन करके दूसरों को खुश करके अपनी आजीविका चलाने वाले वाले नटों की कलाकारी, काम के प्रति उनका समर्पण के चित्र चलचित्र की भाँति घूम जाते। नए सिरे से मैंने महसूस किया कि छोटे और तुच्छ समझे जाने वाले लोगों के काम में गजब की गंभीरता और समर्पण होती है। लेकिन उनकी दक्षता का उचित सम्मान नहीं किया जाता। अनगिनत बालों को काटकर एक निश्चित आकार प्रदान करना, शेव करते वक्त रेजर को चेहरे पर इस तरह चलाना कि स्कीन कहीं कटने न पाए जैसे काम नाइयों की कलात्मक दक्षता का प्रमाण है। इसी तरह दूसरे उद्यमों में भी निम्न वर्ग के लोंगों की मेहनत और दक्षता देखी जा सकती है।
मुर्तजा नाई से मेरा कोई परिचय नहीं है। फिर भी मैं उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि को जानने और समझने की जिज्ञासा को रोक नहीं पाता। जबतक वो बाल बनाते रहे, तबतक मरे प्रश्नों के उत्तर भी देते रहे।
मुर्तजा नाई अपने पेशे के विस्तार की कहानी सुनाते हुए बताते हैं कि इनका कुल-खानदान किसी ईरानी-तूरानी या अफगानी नस्ल का नहीं है लेकिन इन्हें अपने हुनर, पेशा और सामाजिक स्थिति से काफी सन्तुिष्ट हैं। कहते हैं ‘‘अब तो हर कोई नाई का काम कर रहा है। मुजफ्फरनगर में खानदानी नाई लगभग 200 ही हैं लेकिन जब नाई यूनियन की मीटिंग होती है तो इनकी संख्या कोई 1000 से अधिक होती है।’’ अच्छा है जब देश में ट्रेड यूनियनों का एक-एक करके अवसान हो रहा है तो कम से कम नाई यूनियन मीटिंग तो कर रहा है।
यह बात हम-आप, सभी जानते हैं कि जजमानी व्यवस्था में नाइयों की सामाजिक स्थिति क्या रही है। शादी-ब्याह और अन्य अवसरों पर कैंची-स्तूरा के माहिरों की उपस्थिति आवश्यक हुआ करती है। सामंतवाद टूटा तो जजमानी भी कमजोर हुई। बीसवीं सदी के आखरी दशक में नई अर्थव्यवस्था ने जजमानी व्यवस्था पर इतना कड़ा प्रहार किया कि अब न तो जजमान को नाइयों का इंतेजार रहता है और न ही नाइयों के पास समय है कि वो अपनी दुकान छोड़कर दरवाजे-दरवाजे भटका करें। हालांकि प्रतिस्पर्धा के नए दौर में खानदानी नाइयों में पुश्तैनी काम को छोड़कर दूसरा कार्य करने का रूझान बढ़ा है लेकिन जो इस पेशे से अभी भी जुड़े हुए हैं उनके समक्ष नए जमाने के ब्यूटी पार्लरों ने नई चुनौती खड़ी की है। मुर्तजा जैसे नाइयों का सुखद अनुभव यह है कि नीच या छोटा समझा जाने वाला यह पेशा अब हर कोई अपना रहा है। यानि जात-पात का बंधन कमजोर हो रहा है। मुर्तजा का सोचना बिल्कुल ठीक है कि बड़ी पूंजी ने बड़ी भूमिका निभाई है। ब्यूटी पार्लरों ने जात-पात से कहीं अधिक लिंग अधारित भेदभाव को कम किया है। रोजगार की दृष्टि से लेडिज ब्यूटी पार्लरों के चलन से महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। सदर रोड, मुहम्मदाबाद के तनु और कृष्णा ब्यूटी पार्लरों में कार्यरत महिलाओं को ही देखिए शादी ब्याह के मौकों पर घण्टा-दो घण्टा में एक दुल्हन सजाकर 1500 से 3000 रूपए की आमदनी कर लेती हैं।
अन्यों की तरह मुर्तजा नाई भी इस प्रगति से खुश हैं। कहते हैं ‘‘हमारा काम अब हर कोई कर रहा है।’’ होते-होते हमारी बातें शादी-ब्याह तक पहुंचती हैं। इस सवाल पर मुर्तजा नाई का चेहरा उतर सा जाता है। मिनटों पहले जो मुर्तजा नाई अन्तर्जातीय कार्य के लिए प्रसन्नता व्यक्त कर रहा था वही मुर्तजा नाई पलभर में यू टर्न ले चुका होता है। ‘‘क्यों भई जब अलग-अलग जातियों के लोग एक दूसरे के पेशे को अपनाकर अपनी आजीविका चला सकते हैं तो फिर एक दूसरे के बच्चों के साथ शादी-ब्याह क्यों नहीं कर सकते? मैंने पूछा।
मुर्तजा नाई अन्तर्जातीय विवाह को गलत मानते हैं। कहते हैं ‘‘ऐसी शादियों से गांव-मुहल्ले का माहौल गन्दा होता है। ऐसे युवकों और युवतियों को तड़ीपार कर दिया जाता है।’’
मुर्तजा नाई अपने उस्तरे से मेरी कलम में कांट-छांट करते हैं। उनकी दुकान में एक दूसरा ग्राहक प्रवेश करता है। शायद मुर्तजा नाई के परिचित हैं। जमाने के बारखिलाफ वो भी हमारी बातों में शामिल हो जाता है। बरखिलाफ इसलिए कि कोई किसी सामाजिक विषय पर होने वाली गुफ्तगू में यूंही शामिल नहीं होना चाहता। तो इसका मतलब यह समझा जाय कि संवाद के स्तर पर सामाजिकता टूट रही है। बिल्कुल नहीं, जबतक मुर्तजा नाई जैसे लोग हैं संवाद और सामाजिकता की डोर कमजोर हो ही नहीं सकती।
नया ग्राहक यानि शर्मा जी जल्दी में है, लेकिन मुर्तजा नाई की दुकान में होने वाली बातें उनको इतनी रोचक लगती हैं कि उनकी जल्दबाजी इत्मीनानी में बदल जाती है। शायद हमारी बातें शर्मा जी के लिए अपने काम से अधिक महत्वपूर्ण हैं। बीच में ही बोल पड़ते हैं ‘‘अन्तर्जातीय विवाह सर्वथा उचित है। ऐसी शादियों का विरोध केवल नीची जाति वालों के यहां है। बड़े लोगों को देखिए, जवान बच्चे आपस में प्रेम करते हैं, कोर्ट मैरेज करते हैं तो न माँ-बाप को और न ही गांव-मुहल्ले वालों को कोई आपत्ति होती है। कुछ मामले तो जाति से ऊपर उठकर अन्तर्धामिक विवाहों के भी हैं।
मुर्तजा नाई मेरी कलम ठीक कर चुके हैं। अब वो बारीकबीनी से में सर के कटे बालों की नोंक-पलक सुधारते हुए कलम तथा चेहरे का जायजा ले रहे हैं। कहीं बाल छूट तो नहीं गया, कलम बराबर तो है। साथ ही उनका ध्यान शर्मा जी की बातों पर भी होता है। इसबार मुर्तजा नाई की प्रतिक्रिया साकारात्मक होती है। शर्मा जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहते हैं ‘‘अन्तर्जातीय विवाह में अभी समय लगेगा। ठीक ही रहेगा। इन दिनों लड़का ढ़ूंढ़ना बहुत मुश्किल हो गया है।’’ आइना में मेरे सर के पीछे आइना दिखाते हैं। ‘‘ठीक बना है सर!’’ ‘‘आपने जो बना दिया सब ठीक! लेकिन लड़की ढ़ूंढ़ना भी अब उतना ही मुश्किल हो चुका है मुर्तजा साहब जितना कि लड़का। अच्छा है पे्रम विवाह की परम्परा आगे बढ़े।’’ मैंने कहा।
मुर्तजा नाई के हाथों में पाउडर का डिब्बा इस बात का संकेतक कि मेरा बाल बन चुका है। दुकान में एक और व्यक्ति दाखिल होता है। उम्र कोई 65 बरस। उन्हें भी जल्दी है लेकिन उनके आग्रह को मुर्तजा नाई स्वीकारते या ठुकराते शर्मा जी अपनी बारी से उन्हें सूचित करते हैं। शर्मा जी ने बेंच पर रखे ‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’ उनके हाथों में देते हुए कहा ‘‘दस मिनट बैठ जाएं चचा, मुझे जल्दी है।’’ वो बुजुर्ग व्यक्ति पास रखी कुर्सी पर बैठ जाता है। मुर्तजा नाई कटे हुए बालों को साफ कर रहे हैं। शर्मा जी की जल्दबाजी बढ़ रही है। शायद मेरे जाने का वक्त हो चुका है। शर्मा जी मेरी जगह कुर्सी पर बैठते हैं। चलते-चलते मैंने उनका नाम पूछा। वो अपना नाम महेन्द्र शर्मा बताते हैं। इससे पहले कि मैं दुकान से बाहर निकलता शर्मा जी ने जोर देकर कहा। ‘‘हम ब्राम्हणों में सबसे ऊँचे हैसियत वाले पंडित हैं।’’ अपने पिताजी के मित्र शिव शर्मा की याद बरबस ही चली आयी। जिनका इसी साल देहान्त हो गया। हाथों में बंसुली लिए आधी पालथी मारी उनकी तस्वीर आँखों के सामने घूम गयी। मेरी बहन की शादी में उन्होंने जो डबल बेड बनाया था वो मेरे कस्बे का पहला डबल बेड था।
संभव है महेन्द्र जी ब्राम्हणों वाले ही शर्मा हों। उच्च कुल वाले शर्मा हों। चेहरे और बात-चीत से तो ऐसा नहीं लगा। मैंने मुर्तजा नाई को पैसे दिए। अपनी बारी के इंतेजार में ‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’ के पन्ने पलट रहा बुजुर्ग व्यक्ति कुर्सी से उठा और दुकान से बाहर निकल गया .......................।

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_AUGUST_2011

लक्षित अर्थव्यवस्था में समाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य


सरकार का मंतव्य समझ से परे है कि वह बी.पी.एल सर्वे के माध्यम से गरीबों को सही मायने में चिन्हित करना चाहती है या फिर गरीबों की जो सूची है उसमें इनकी संख्या घटाकर (एक तरह का एडजस्टमेन्ट) देश और दुनिया के सामने अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करना चाहती है। यदि ऐसा है तो सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य क्या है?


योजना आयोग ने भारत में सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण (बी.पी.एल. सर्वेक्षण) के लिए 13 बिन्दु का मानक बनाया है। प्रत्येक सवाल पर 0 से 4 अंक निर्धारित किए गए हैं। जिस परिवार को 54 अंकों में से यदि 15 या इससे कम अंक मिलेगा तो उस परिवार को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों में शामिल किया जाएगा अन्यथा नहीं। आयोग द्वारा तय किए गए मानकों को समकालीन सामाजिक और आर्थिक बदलावों के साथ देखा जाय तो इसमें कई विषंगतियां हैं। विशेषकर उन प्रभावों और कारकों को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता जिनके परिणाम स्वरूप मानव जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव परिलक्षित हुए हैं। यदि राजधानी की बात करें तो किसी भी मलिन बस्ती में टी.वी. की उपलब्धता नव-उदारवादी सुधार का स्वाभाविक परिणाम है। कोई दो राय नहीं है कि उपभोक्तावाद ने संभ्रान्तों और मध्य वर्ग तक नित नयी सुविधाएं पहुंचायी है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आम लोग जिनके समक्ष आजीविका की कठिन चुनौतियां हैं, उन लोगों को भी टी.वी., फ्रीज और मोबाइल का उपभोक्ता बनने के लिए विवश किया है। इस सवाल पर अलग से विचार किया जाएगा कि कोई कारपोरेट घराना किसी व्यक्ति को किन माध्यमों और किन अदाओं से प्रभावित या विवश करता है। फिलहाल बात करते हैं उपभोक्तावादी संस्कृति और सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण के बीच तादाम्य की।
उपभोक्तावाद के प्रसार में टी.वी. ने बड़ी भूमिका निभाई है। पिछले दो दशकों में एक तरफ जहां समाचारों की तेजी में इजाफा हुआ है वहीं दूसरी तरफ मनोरंजन का भाव तेजी से गिरा है। इतना गिर चुका है कि हर घर-दरवाजे से लेकर हर गिरे-पड़े व्यक्ति तक इसने पैंठ बनाई है। पहले ना से हाँ हुआ, फिर हाँ से ब्लैक एण्ड व्हाइट और फिर कलर हुआ। कलर भी इतना हुआ (बल्कि किया गया) कि अमीरी-गरीबी के फर्क के बगैर ही इसने पूरे देश को एक सूत्र में बांध दिया। राष्ट्र की इससे बेहतर कल्पना और कहां देखी जा सकती है जहां पर लाख-करोण कमाने वालों के घर में भी टी.वी. की वही फ्रीक्वेन्सी पहुंच रही है और वहां जहां छप्पर के सुराख से पानी टप-टप गिरता हो वहां भी वही फ्रिक्वेन्सी पहुँच रही है। मोबाइल का मामला भी कुछ ऐसा ही है। अमीर हो या गरीब दोनों के लिए काॅल की दरें एक समान है। फिर मोबाइल के स्वामित्व के आधार पर किसी को गरीबी रेखा से नीचे और किसी को ऊपर कैसे माना जा सकता है? यदि फोन या मोबाइल ही गरीब-अमीर का प्रतीक है तो फिर सर्वे करने की जरूरत ही नहीं है, राजा भी कह चुके हैं कि ‘‘मैं गली के हर व्यक्ति के लिए वहन करने योग्य बनाना चाहता था।’’ (his effort was to make cellular phone services affordable to the man on the street.; The Economic Times, July 25, 2011.) मतलब हर हाथ में मोबाइल पहुंचाना चाहते थे ये जनाब। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि पहले तो सरकार दाम गिराकर गरीबों तक मोबाइल, टी.वी. और फ्रीज जैसे उपकरण पहुंचा रही है और फिर उन्हें गरीबी रेखा से नीचे होने के अधिकार से वंचित कर रही है। ताकि ये लोग ‘‘भोजन का अधिकार’’, ‘‘शिक्षा का अधिकार’’, और ‘‘आजीविका का अधिकार’’ से खुद ब खुद बेदखल हो जाएं। ऐसे में सरकारी खजाने पर भार भी कम पड़ेगा। कौन समझाए कि बाजारपरस्ती से कल्याणकारी कार्य संभव नहीं है। जब एन.एस.एस.ओ. जैसी संस्थाएं मान रही हैं कि आर्थिक सुधारों के बाद अब तक गरीब और अमीर के बीच का फासला बढ़ा है तो फिर समाजिक-आर्थिक सर्वे के मानकों में सावधानी क्यों नहीं बरती गयी। कैबिनेट मंत्री जयराम रमेश मानकों में विषंगतियों के बाबत बयान देते हैं कि ’’प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, बी.पी.एल. की सूची में शामिल करने और इस सूची से बाहर करने संबंधी मानक को मंत्रीमण्डल द्वारा अनुमोदित किया जा चुका है, अब इसमें कुछ नहीं हो सकता।’’(that was not possible anymore as the census exercise was already under way and as both the exclusion and inclusion criteria were approved by the Cabinet; The Hindu, August 9, 2011.)  यदि जय राम रमेश की बातों पर यकीन किया जाय तो मानना होगा कि कोई भी प्रस्ताव या विधि-विधान सही हो या गलत, नागरिक हित में या नहीं यदि मंत्रीमण्डल द्वारा पारित कर दिया जाता है तो इसे सही करार दिया जा सकता है। यदि अब भी समझने में किसी किस्म की दिक्कत आ रही है तो ‘‘2जी स्पेक्ट्रम’’ की ऐनक लगाएं। सुनने में ‘‘2जी स्पेक्ट्रम’’ घोटाला नहीं, कोई अन्तर्राष्ट्रीय ब्राण्ड प्रतीत होता है। वैसे भी यह दौर ब्राण्डों का दौर है। ब्राण्ड बेचो, ब्राण्ड कमाओ, बा्रण्ड खरीदो, ब्राण्ड खाओ और ब्राण्ड ही पचाओ। बाकी औपचारिकताओं के लिए ए राजा, ओ राजा तो हैं ही। याद आया, यदि रामलखन का फिल्मी संगीत (ए जी, ओ जी...) के बजने का आभास हो तो समझिए कि सबकुछ ठीक नहीं (जी) चल रहा है।
उक्त संदर्भ में टी.वी., फोन, मोबाइल और दो पहिया वाहन आदि की उपलब्धता को बी.पी.एल. सर्वे से जोड़कर देखा जाए तो चैंकना तय है। योजना आयोग के अनुसार शहरी क्षेत्र में यदि किसी व्यक्ति के घर में टी.वी. है या ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति के पास जुगाड़ के तौर पर दो पहिया वाहन है तो वह गरीब नहीं समझा जाएगा। फिर तो सैंकड़ों चैनलों की मायाजाल में गिरफ्तार शहरी झुग्गी-झोपडियों और शहरी कल्चर (शायद उपभोक्तावादी कल्चर) से आच्छादित दूर-दराज के गांवों और कस्बों के लोगों के लिए सावधानी बरतने का समय आ चुका है। तुमने अपने भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च होने वाला जो पैसा बचाकर मनोरंजन का सस्ता साधन खरीदा था उसे कहीं गुप्त स्थान पर छिपा दो यानि सही सूचना न दो। वरना तुम रिक्शा चलाने वाले, ठेला खींचने वाले, दुकानों पर रात दस बजे तक ड्यूटी बजाने वाले, मल्टी स्टोरी को अपना पसीना बहा-बहाकर चमकाने वाले लोगों, तुम गरीबों में नहीं गिने जाओगे। फिर तो झूठ बोलने के लिए प्रेरणा भी मिल ही रही है।
ऐसा इसलिए भी है कि नई आर्थिक सुधारों ने लक्षित अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है। इसमें लक्ष्य भेदने के लिए जरूरी है कि तयशुदा समयावधि से पहले ही लक्ष्य हासिल कर लिया जाए। पंचवर्षीय योजनाओं का मतलब और महत्व समझ में आता है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम गोल (सहस्राब्दि लक्ष्य में भारत में 2015 तक गरीबी रेखा के 22 प्रतिशत तक पहुंचने का आंकलन प्रस्तुत किया गया है।) को प्राप्त करने की अभिलाषा ने शायद हमारे नीति निर्धारकों को अंधा बना दिया है। लक्ष्य निर्धारित करना और प्राप्त करना अच्छी परंपरा है। लेकिन यह भी देखना होता है कि परिस्थितियां अनुकूल हैं या प्रतिकूल। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की तयशुदा संख्या प्रतिशत में प्राप्त करना ही प्रमुख लक्ष्य बन चुका है। यदि ऐसा है तो फिर इस देश की आधी आबादी के लिए इस वर्ष का बी.पी.एल. सर्वे निराश करने वाला कदम है। हांलाकि एन.एस.एस.ओ. (National Sample Survey Organization) की 2004-05 के 61वें राउण्ड की गणना के अनुसार भारत की 27.5 (28) प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। जबकि एन. सी. सक्सेना समिति की हालया रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल आबादी का लगभग 50 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की सूची में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन चण्डीगढ़ से शुरू हो चुका 2011 का सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण शायद ही रूके। ऐसे में बढ़ती मुद्रा स्फीति और मंहगाई को सर्वे से संबद्ध करके न देखना इस बात का सूचक है कि बी.पी.एल. सर्वे के माध्यम से गरीबों की पहचान करना प्राथमिकता नहीं बल्कि सरकारी काम-काज और शासन-प्रशासन की औपचारिकताओं को अंजाम तक पहुंचाना ही सर्व प्रमुख लक्ष्य है। सरकार का मंतव्य समझ से परे है कि वह बी.पी.एल सर्वे के माध्यम से गरीबों को सही मायने में चिन्हित करना चाहती है या फिर गरीबों की जो सूची है उसमें इनकी संख्या घटाकर (एक तरह का एडजस्टमेन्ट) देश और दुनिया के सामने अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करना चाहती है। यदि ऐसा है तो सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य क्या है?

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_AUGUST_2011