Sunday, September 4, 2011

ये वो सुबह तो नहीं .......


मीडिया घराना समर्पित भाव से आंदोलन के साथ याराना निभा रहा है। आंदोलन को “क्रान्ति” के नाम से महिमामंडित भी किया जा रहा है। टी.वी. पर दिख रही भीड़ को देखकर ऐसा लगता है कि यह भीड़ किसी भी आंदोलन को क्रान्ति के चरण में पहुंचाने के लिए काफी है। जब क्रान्ति की बात होती है तो फ्रांस और रूस के अलावा तीसरा नाम जुबां पर आता ही नहीं। अच्छा है विश्व इतिहास के पन्नों में भारत का नाम भी क्रान्ति होने वाले देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा। लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम जो अब आंदोलन बन चुका है और जो मीडिया की नज़र में क्रान्ति की चैखट तक पहुंच चुका है पर संशय भी व्यक्त किया जाने लगा है। कोई इसे कारपोरेट घराने का प्रायोजित आंदोलन बता रहा है तो कोई इस आंदोलन के अगुवा को सवर्णवादी बता रहा है। मीडिया के अनुसार इस आंदोलन के समक्ष सरकार घुटने टेकती नजर आ रही है। विरोध और सपोर्ट के सुरों के बीच बात अन्ना और अनशन पर आकर रूक सी गयी है। अन्ना समर्थक “मैं अन्ना हूँ” के नारे लगा रहे हैं और जो नहीं लगा रहे हैं उनमें से कुछ लोकपाल को स्टैंडिंग कमेटी में ले जाने की बात कर रहे हैं। इधर अन्ना दल (सिविल सोसाइटी) अड़े हैं कि बिल पेश करने से कम पर वो अनशन नहीं तोड़ेंगे। इन्हीं बातों के साथ सड़को पर चलती-फिरती भीड़ और आन्दोलन बन चुके अन्ना पर बहस जारी है।
मीडिया में बार-बार दिखाई जा रही तस्वीरों को देखकर सहज ही यकीन होता है कि अन्ना वास्तव में अन्ना नहीं रहे, अब वो आंधी बन चुके हैं और क्रान्ति का दरवाजा खटखटाया जा रहे हैं। पिछले दिनों के उनके बयान से भी ऐसा प्रतीत होता है कि यह आंधी कहीं यूपीए गठबंधन को उखाड़ न फेंके। भीड़ की अपनी ताकत होती है। अगर भीड़ सत्ता प्रतिष्ठानों पर जन दबाव बनाने के लिए हो तो इसकी सार्थतकता निश्चित तौर पर साबित होती है। और अगर उन्मादी है तो इसकी निरर्थकता भी सामने आ जाती है। बात वैचारिक धरातल की है कि भीड़ जिस वैचारिक धरातल पर खड़ी है वह धरातल कितनी मज़बूत और टिकाउ है?
भ्रष्टाचार हमारे देश की गंभीर समस्या बन चुकी है। इससे मुक्ति का सपना देखना आज़ादी के सपने देखने से कम नहीं है। ऐसे में यदि अन्ना युवाओं के रोल माॅडल बन चुके हैं तो यह इस समय की बड़ी उपलब्धि कही जानी चाहिए। क्योंकि किसी काॅमन समस्या के लिए काॅमन प्लेटफार्म पर इकट्ठा होना आज के दौर में चमत्कारिक है। जून से लेकर इस अगस्त के आखिरी पखवारे तक अन्ना के समर्थकों की संख्या लगातार बढ़ी है। समर्थकों की बढ़ती संख्या को देखकर सहज उम्मीद भी बढ़ती है कि क्या हमारा देश क्रान्ति के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है? यदि ऐसा है तो यह शुभ संकेत है, सिंगुर और नन्दीग्राम से लेकर भट्टा पारसौल जैसे स्थानों पर बसने वाले लोगों के लिए जहां कारपोरेट वल्र्ड को पहले तो खुली लूट की छूट दी गयी और फिर आन्दोलनकारियों का दमन किया गया। अभी उड़ीसा में क्या हो रहा है। पास्को के साथ सरकार क्या गुल खिला रही है? क़ाबिले गौर है कि आर्थिक विकास के लिए सुधारों की बयार चलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने अपने पिछले कार्यकाल के समय स्वयं सुधारों को मानवीय रूख ;भ्नउंद ंिबमद्ध देने की बात कही थी। यानि 1991 में उन्होंने जिन सुधारों को हरी झण्डी दिखाई थी वो कभी मानवीय थे ही नहीं। इसके विरोध में भी 1990 के दशक से ही आन्दोलन चल रहे हैं इस देश में। लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं है। निवेश और विदेशी निवेश आए दिन बढ़ता ही जा रहा है। पंूजीपती खेल रहे हैं और बाकी जनता मूक दर्शक। क्योंकि खेलने का अधिकार तो आर्थिक गुलामी की जंजीरों में कैद होता गया है एक के बाद एक। जिसके पास पूंजी बल्कि बड़ी पूंजी होगी वही खेलेगा। खेलने वाला हमारे स्टेट में कहीं रियल स्टेट खेल रहा है और कहीं माॅल-माल (शापिंग) खेल रहा है। इस खेल में मंहगाई कब दो अंकों में पहुंच गयी पता ही नहीं चला। बहरहाल, 90 के दशक में साम्प्रदायिकता ने नए सिरे से सर उठाया। 2002 में राज्य प्रायोजित दंगे कराए गए। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक संघियों के खिलाफ आंदोलन का इतिहास अभी जारी है। 1990 के दशक की तीसरी महत्वपूर्ण घटना मण्डल कमीशन की अनुशंसाओं का लागू किया जाना था। सामाजिक न्याय का सवाल एक बार फिर बहस का मुद्दा बना। यह सवाल अभी भी समाज को उद्वेलित कर रहा है और सामाजिक न्याय का आन्दोलन अपने प्रकार और विस्तार में जारी है। आए दिन हत्या, लूट और बलात्कार की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। इसके खिलाफ भी लोग लड़ रहे हैं। उत्तर-पूर्व हो या कश्मीर या फिर गुजरात हर जगह मानवाधिकारों का हनन हुआ है। इसके खिलाफ भी आंदोलन जारी हैं इस देश में। इरोम शर्मीला का अनशन और कुछ वर्ष पूर्व उत्तर-पूर्व में महिलाओं का नग्न विरोध-प्रदर्शन बहुत पुराना नहीं हुआ है।
जाहिर है पिछले दो दशकों का इतिहास आंदोलनों से भरा पड़ा है। कुछ तो कमी रही होगी जो ये आंदोलन अन्ना के आंदोलन का रूप नहीं ले सके। कमी अगुवा की तो होती ही है। कई बार साथ चलने वालों की भी कमी होती है। बहस यह नहीं है कि अन्ना का आंदोलन जिस जमीन पर खड़ा है वह जमीन उर्वर है कि बंजर। सवाल यह है कि अन्ना के आन्दोलन को क्यों न देश भर में चल रहे अन्य आन्दोलनों से जोड़ जाए। अभी जो मोमेन्टम बना हुआ है और जिस तरह से सड़कों पर (कम से कम नगरों में) जनता का हुजूम देखा जा रहा है ऐसी स्थिति में यदि सिविल सोसाइटी देश के उन आन्दोलनों से भी जुड़ जाए जिसे मीडिया ने अक्सर नज़र अंदाज़ किया है, तो सोने पे सुहागा हो जाए।
भ्रष्टाचार अभी की सबसे बड़ी समस्या है। इसके अलावा और भी समस्याएं हैं जो अपने आप में गंभीर हैं। सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अनुपालन न होना। किन्हीं अर्थों में यही भ्रष्टाचार है। पिछले दिनों एक अखबार (अमर उजाला, फिरोजाबाद, 22 अगस्त, 2011) में खबर छपी थी। जिसमें टोपी विक्रेता मयंक जैन कहते हैं कि “वैसे तो यह टोपी पांच रूपए में मिल जाती है, लेकिन आंदोलन के कारण डिमांड अधिक है इसलिए दस रूपया की मिल रही है।” खबर में लिखा था कि 60 रूपए का तिरंगा झण्डा 120 रूपए तक में बेचा गया। आश्चर्य की बात है कि खरीदार वही थे जिन्हें अन्ना समर्थन में जाकर नारे लगाने थे और कैन्डिल जलाने थे। एक्सप्रेस बज पर लूना देवन की रिपोर्ट भी काबिले गौर है। इस रिपोर्ट के अनुसार बंगलोर शहर के एक सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि “उन्होंने 2000 झण्डों का आर्डर दिया था और उन्हें सामान्य लागत मूल्य से भुगतान करना पड़ा।” (लिंक देखें http://expressbuzz.com/cities/bangalore/anna-movement-triggers-flags-sale/305965.html ”Gearing up for supporting the cause we had ordered for about 2,000 cotton flags and we had to pay double than the normal price” a city based social activist said.”)
चिन्तनीय है कि जो व्यक्ति भ्रष्टाचार का विरोध करने की तैयारी कर रहा है वही व्यक्ति एक व्यक्ति के नाम पर (जो युवाओं का आदर्श बन गया बताया जा रहा है) लागत से अधिक पैसे देता है। मुमकिन है कि जिस तिरंगा को 60 के बदले 120 में खरीदा गया उसकी भावनात्मक आवश्यकता उससे कहीं अधिक किसी आम आदमी को रही हो और वह उस तिरंगा को प्राप्त नहीं कर सका हो क्योंकि उसके पास दोगूनी कीमत अदा करने के लिए पैसे नहीं रहे हों। इसीलिए कहना पड़ रहा है कि ऊपर से चलकर नीचे आने वाले भ्रष्टाचार की अपनी सीमा है और नीचे से चलकर ऊपर जाने वाले भ्रष्टाचार की अपनी सीमा और अपना रूप है। ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित भ्रष्टाचार पर मैंने अपने आलेख “भ्रष्टाचार से निर्णायक लड़ाई”( देखें 16-30 जून का शिल्पकार टाइम्स, नई दिल्ली ) में विस्तार से चर्चा की है। बात करते हैं नीचे से ऊपर को जाने वाले भ्रष्टाचार की। याद रहे कि यह भ्रष्टाचार हमारे रगों में दौड़ रहा है। बी.पी.एल. बनवाना हो तो संभ्रान्तों की कतार आगे रहती है, वंचित छूट जाता है। राष्ट्र ध्वज तिरंगा खरीदना हो तो 60 के बदले 120 रूपए अदा करने वाला बढ़के लपक लेता है, कमजोर और दबा-कुचला अपनी भावनाओं को अपने सीने में दफन करके रह जाता है। सबसे भ्रष्ट कचहरी और इसमें कार्य करने वाला हर छोटा-बड़ा पदाधिकारी है। हर काम में जनता बीस से पचास रूपए जो न्यूनतम है देने को तैयार है। क्यूं भई? इसलिए कि हमें जल्दी रहती है। हम अपना काम समय से पहले और अपनी बारी का इंतजार कर रहे बाकी लोगों से पहले चाहते हैं। यह भी चाहते हैं कि औपचारिकता न निभानी पड़े।
मौजूदा हालात में पहले मुर्गी या अण्डा वाले सवाल में न उलझते हुए इस बिन्दु पर विचार-मन्थन और व्यावहारिक प्रयास शुरू किए जाने की ज़रूरत है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में जो छोटे-छोटे आंदोलन हैं वो भी भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन से जुड़ जाए। तभी इस आंदोलन में प्रत्येक नागरिक की भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। फिर दोहरा रहा हूँ कि यह समय निर्णायक हो सकता है, कैन्डिल लाइट प्रोसेसन क्रान्ति के मशालों से प्रज्जवलित हो सकती यदि यह आंदोलन अपने प्रसार सीमा में हर क्षेत्र, हर समुदाय और हर वर्ग की समस्याओं को समाहित कर ले। वरना फैज की नज़्म “ये वो सुबह तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर/चले थे यार की मिल जाएगी कहीं न कहीं” एक बार फिर प्रासंगिक हो उठेगा।

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_1-15_SEPTEMBER_2011

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