Sunday, September 4, 2011

मुर्तजा नाई


उत्तर प्रदेश में 20 मई तक स्कूलों में गर्मी की छुट्टी हो जाती है। कई बरसों बाद इस साल मैं भी छुट्टियां मनाने निकला। करीब 20 दिनों तक स्टेशन, रेलगाड़ी, होटल और पर्यटन स्थलों की सैर। इस सफर में दोस्तों और संबंधियों से भेंट-मुलाकात। नयी-पुरानी बातें। चलती रेलगाड़ी से खेतों, मैदानों, जंगलों और पहाड़ों को देखना। कैमरा और मोबाइल से तमाम मंजरों को कैद करना। कभी स्टेशनों पर चिपके इश्तेहारों की तस्वीर खींचना तो कभी दीवरों के कोनों में पान के थूके हुए पीकों की तस्वीरें उतारना। कम्यूटर और इन्टरनेट की सुविधा मिलते ही इन तस्वीरों को फेसबुक पर पब्लिश करना और ई मेल द्वारा मित्रों को प्रेषित करना। सचमुच इलेक्ट्रानिक यंत्रों ने हमारी यात्राओं में रोचकता का नया पुट भरा है। लेकिन नएपन के इस ताने-बाने में आंखों के कैमरे से खींचे गए कुछ चित्रों को शब्द दे रहा हूँ, जो अबतक मेरे लिए परेशानी का सबब बने हुए थे।
लगातार यात्रा की थकान और मुजफ्फरनगर में हफ्ते दिन विराम। विकास भवन के सामने स्थित रामपुरम और रामपुरम में गली नं॰ 3 के पास स्थित मुर्तजा नाई की दुकान। ज़ाहिर है बाल बनवाने के लिए पर्याप्त और उचित समय।
मुर्तजा नाई अपनी दुकान में ‘‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’’ पढ़ते हुए ग्राहकों का इंतेजार कर रहे हैं। उनकी दुकान में टी॰वी॰ नहीं है। आमदनी इतनी कि वो दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला और पंजाब केशरी आदि अखबारों में छपी ख़बरें नहीं पढ़ सकते। बहरहाल काफी दिनों बाद ऐसा हुआ था कि मुझे बिना लाइन लगाए ही बाल बनवाने का अवसर मिला था। मैं इस अवसर को खोना नहीं चाहता था। अगले ही क्षण मैं मुर्तजा नाई की दुकान में था। मुर्तजा नाई को बताने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि मुझे हेयर कट करवाना है या दाढ़ी शेव करवानी है। मेरे बाल जो इस कदर बड़े और बिखरे हुए थे। बंेच पर अखबार रखकर उन्होंने ड्रावर से अपनी कैंची और कंघी निकाली। मेरे बालों पर पानी छिड़का और हो गए शुरू अपनी धुन में। कभी-कभी मेरा ध्यान उनके चेहरे पर पड़ जाता। पुराने जमाने की ऐनक और ऐनक के पीछे एक जोड़ी आँखे इस तरह कैंची, कंघी के साथ मेंरे सर के बालों पर संक्रेंदित हैं मानो मुर्तजा नाई कोई बड़ा और गंभीर कार्य रहे हों।
छोटे समझे जाने वाले मुर्तजा नाई कद-काठी से काफी लम्बे हैं, लेकिन उनके चेहरे की झुर्रियां और दुबला-पतला शरीर उनके काम में काई बाधक नहीं है। कभी-कभी बचपन में सुनी और सुनाई गयी चुटकुलों की याद ताजी हो जाती कि नाई के सामने अच्छे-अच्छों को सर झुकाना पड़ता है। विचारों की श्रृंखला में यह विचार भी आता है कि छोटे समझे जाने वाले लोगों द्वारा किया जाने वाला काम क्या बड़ा नहीं होता? क्या ऐसे लोगों के कार्य में तत्परता, गंभीरता और समर्पण नहीं होती?
आँखों की पुतलियों को ऊपर उठाकर कर आइने में देखने की कोशिश। मुर्तजा नाई का चेहरा उनके हाथ और अपने सर पर तेजी से फिरती कंघी-कैंची को देख पा रहा हूँ मैं। जब आँखें बन्द करता तो आँखों के सामने बुनकरों, लोहारों, कुम्हारों, बढ़इयों, धोबियों, बांसफोरों, मोचियों की दस्तकारी-शिल्पकारी और मनोरंजन करके दूसरों को खुश करके अपनी आजीविका चलाने वाले वाले नटों की कलाकारी, काम के प्रति उनका समर्पण के चित्र चलचित्र की भाँति घूम जाते। नए सिरे से मैंने महसूस किया कि छोटे और तुच्छ समझे जाने वाले लोगों के काम में गजब की गंभीरता और समर्पण होती है। लेकिन उनकी दक्षता का उचित सम्मान नहीं किया जाता। अनगिनत बालों को काटकर एक निश्चित आकार प्रदान करना, शेव करते वक्त रेजर को चेहरे पर इस तरह चलाना कि स्कीन कहीं कटने न पाए जैसे काम नाइयों की कलात्मक दक्षता का प्रमाण है। इसी तरह दूसरे उद्यमों में भी निम्न वर्ग के लोंगों की मेहनत और दक्षता देखी जा सकती है।
मुर्तजा नाई से मेरा कोई परिचय नहीं है। फिर भी मैं उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि को जानने और समझने की जिज्ञासा को रोक नहीं पाता। जबतक वो बाल बनाते रहे, तबतक मरे प्रश्नों के उत्तर भी देते रहे।
मुर्तजा नाई अपने पेशे के विस्तार की कहानी सुनाते हुए बताते हैं कि इनका कुल-खानदान किसी ईरानी-तूरानी या अफगानी नस्ल का नहीं है लेकिन इन्हें अपने हुनर, पेशा और सामाजिक स्थिति से काफी सन्तुिष्ट हैं। कहते हैं ‘‘अब तो हर कोई नाई का काम कर रहा है। मुजफ्फरनगर में खानदानी नाई लगभग 200 ही हैं लेकिन जब नाई यूनियन की मीटिंग होती है तो इनकी संख्या कोई 1000 से अधिक होती है।’’ अच्छा है जब देश में ट्रेड यूनियनों का एक-एक करके अवसान हो रहा है तो कम से कम नाई यूनियन मीटिंग तो कर रहा है।
यह बात हम-आप, सभी जानते हैं कि जजमानी व्यवस्था में नाइयों की सामाजिक स्थिति क्या रही है। शादी-ब्याह और अन्य अवसरों पर कैंची-स्तूरा के माहिरों की उपस्थिति आवश्यक हुआ करती है। सामंतवाद टूटा तो जजमानी भी कमजोर हुई। बीसवीं सदी के आखरी दशक में नई अर्थव्यवस्था ने जजमानी व्यवस्था पर इतना कड़ा प्रहार किया कि अब न तो जजमान को नाइयों का इंतेजार रहता है और न ही नाइयों के पास समय है कि वो अपनी दुकान छोड़कर दरवाजे-दरवाजे भटका करें। हालांकि प्रतिस्पर्धा के नए दौर में खानदानी नाइयों में पुश्तैनी काम को छोड़कर दूसरा कार्य करने का रूझान बढ़ा है लेकिन जो इस पेशे से अभी भी जुड़े हुए हैं उनके समक्ष नए जमाने के ब्यूटी पार्लरों ने नई चुनौती खड़ी की है। मुर्तजा जैसे नाइयों का सुखद अनुभव यह है कि नीच या छोटा समझा जाने वाला यह पेशा अब हर कोई अपना रहा है। यानि जात-पात का बंधन कमजोर हो रहा है। मुर्तजा का सोचना बिल्कुल ठीक है कि बड़ी पूंजी ने बड़ी भूमिका निभाई है। ब्यूटी पार्लरों ने जात-पात से कहीं अधिक लिंग अधारित भेदभाव को कम किया है। रोजगार की दृष्टि से लेडिज ब्यूटी पार्लरों के चलन से महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। सदर रोड, मुहम्मदाबाद के तनु और कृष्णा ब्यूटी पार्लरों में कार्यरत महिलाओं को ही देखिए शादी ब्याह के मौकों पर घण्टा-दो घण्टा में एक दुल्हन सजाकर 1500 से 3000 रूपए की आमदनी कर लेती हैं।
अन्यों की तरह मुर्तजा नाई भी इस प्रगति से खुश हैं। कहते हैं ‘‘हमारा काम अब हर कोई कर रहा है।’’ होते-होते हमारी बातें शादी-ब्याह तक पहुंचती हैं। इस सवाल पर मुर्तजा नाई का चेहरा उतर सा जाता है। मिनटों पहले जो मुर्तजा नाई अन्तर्जातीय कार्य के लिए प्रसन्नता व्यक्त कर रहा था वही मुर्तजा नाई पलभर में यू टर्न ले चुका होता है। ‘‘क्यों भई जब अलग-अलग जातियों के लोग एक दूसरे के पेशे को अपनाकर अपनी आजीविका चला सकते हैं तो फिर एक दूसरे के बच्चों के साथ शादी-ब्याह क्यों नहीं कर सकते? मैंने पूछा।
मुर्तजा नाई अन्तर्जातीय विवाह को गलत मानते हैं। कहते हैं ‘‘ऐसी शादियों से गांव-मुहल्ले का माहौल गन्दा होता है। ऐसे युवकों और युवतियों को तड़ीपार कर दिया जाता है।’’
मुर्तजा नाई अपने उस्तरे से मेरी कलम में कांट-छांट करते हैं। उनकी दुकान में एक दूसरा ग्राहक प्रवेश करता है। शायद मुर्तजा नाई के परिचित हैं। जमाने के बारखिलाफ वो भी हमारी बातों में शामिल हो जाता है। बरखिलाफ इसलिए कि कोई किसी सामाजिक विषय पर होने वाली गुफ्तगू में यूंही शामिल नहीं होना चाहता। तो इसका मतलब यह समझा जाय कि संवाद के स्तर पर सामाजिकता टूट रही है। बिल्कुल नहीं, जबतक मुर्तजा नाई जैसे लोग हैं संवाद और सामाजिकता की डोर कमजोर हो ही नहीं सकती।
नया ग्राहक यानि शर्मा जी जल्दी में है, लेकिन मुर्तजा नाई की दुकान में होने वाली बातें उनको इतनी रोचक लगती हैं कि उनकी जल्दबाजी इत्मीनानी में बदल जाती है। शायद हमारी बातें शर्मा जी के लिए अपने काम से अधिक महत्वपूर्ण हैं। बीच में ही बोल पड़ते हैं ‘‘अन्तर्जातीय विवाह सर्वथा उचित है। ऐसी शादियों का विरोध केवल नीची जाति वालों के यहां है। बड़े लोगों को देखिए, जवान बच्चे आपस में प्रेम करते हैं, कोर्ट मैरेज करते हैं तो न माँ-बाप को और न ही गांव-मुहल्ले वालों को कोई आपत्ति होती है। कुछ मामले तो जाति से ऊपर उठकर अन्तर्धामिक विवाहों के भी हैं।
मुर्तजा नाई मेरी कलम ठीक कर चुके हैं। अब वो बारीकबीनी से में सर के कटे बालों की नोंक-पलक सुधारते हुए कलम तथा चेहरे का जायजा ले रहे हैं। कहीं बाल छूट तो नहीं गया, कलम बराबर तो है। साथ ही उनका ध्यान शर्मा जी की बातों पर भी होता है। इसबार मुर्तजा नाई की प्रतिक्रिया साकारात्मक होती है। शर्मा जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहते हैं ‘‘अन्तर्जातीय विवाह में अभी समय लगेगा। ठीक ही रहेगा। इन दिनों लड़का ढ़ूंढ़ना बहुत मुश्किल हो गया है।’’ आइना में मेरे सर के पीछे आइना दिखाते हैं। ‘‘ठीक बना है सर!’’ ‘‘आपने जो बना दिया सब ठीक! लेकिन लड़की ढ़ूंढ़ना भी अब उतना ही मुश्किल हो चुका है मुर्तजा साहब जितना कि लड़का। अच्छा है पे्रम विवाह की परम्परा आगे बढ़े।’’ मैंने कहा।
मुर्तजा नाई के हाथों में पाउडर का डिब्बा इस बात का संकेतक कि मेरा बाल बन चुका है। दुकान में एक और व्यक्ति दाखिल होता है। उम्र कोई 65 बरस। उन्हें भी जल्दी है लेकिन उनके आग्रह को मुर्तजा नाई स्वीकारते या ठुकराते शर्मा जी अपनी बारी से उन्हें सूचित करते हैं। शर्मा जी ने बेंच पर रखे ‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’ उनके हाथों में देते हुए कहा ‘‘दस मिनट बैठ जाएं चचा, मुझे जल्दी है।’’ वो बुजुर्ग व्यक्ति पास रखी कुर्सी पर बैठ जाता है। मुर्तजा नाई कटे हुए बालों को साफ कर रहे हैं। शर्मा जी की जल्दबाजी बढ़ रही है। शायद मेरे जाने का वक्त हो चुका है। शर्मा जी मेरी जगह कुर्सी पर बैठते हैं। चलते-चलते मैंने उनका नाम पूछा। वो अपना नाम महेन्द्र शर्मा बताते हैं। इससे पहले कि मैं दुकान से बाहर निकलता शर्मा जी ने जोर देकर कहा। ‘‘हम ब्राम्हणों में सबसे ऊँचे हैसियत वाले पंडित हैं।’’ अपने पिताजी के मित्र शिव शर्मा की याद बरबस ही चली आयी। जिनका इसी साल देहान्त हो गया। हाथों में बंसुली लिए आधी पालथी मारी उनकी तस्वीर आँखों के सामने घूम गयी। मेरी बहन की शादी में उन्होंने जो डबल बेड बनाया था वो मेरे कस्बे का पहला डबल बेड था।
संभव है महेन्द्र जी ब्राम्हणों वाले ही शर्मा हों। उच्च कुल वाले शर्मा हों। चेहरे और बात-चीत से तो ऐसा नहीं लगा। मैंने मुर्तजा नाई को पैसे दिए। अपनी बारी के इंतेजार में ‘मुजफ्फरनगर बुलेटिन’ के पन्ने पलट रहा बुजुर्ग व्यक्ति कुर्सी से उठा और दुकान से बाहर निकल गया .......................।

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_AUGUST_2011

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