Sunday, September 4, 2011

लक्षित अर्थव्यवस्था में समाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य


सरकार का मंतव्य समझ से परे है कि वह बी.पी.एल सर्वे के माध्यम से गरीबों को सही मायने में चिन्हित करना चाहती है या फिर गरीबों की जो सूची है उसमें इनकी संख्या घटाकर (एक तरह का एडजस्टमेन्ट) देश और दुनिया के सामने अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करना चाहती है। यदि ऐसा है तो सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य क्या है?


योजना आयोग ने भारत में सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण (बी.पी.एल. सर्वेक्षण) के लिए 13 बिन्दु का मानक बनाया है। प्रत्येक सवाल पर 0 से 4 अंक निर्धारित किए गए हैं। जिस परिवार को 54 अंकों में से यदि 15 या इससे कम अंक मिलेगा तो उस परिवार को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों में शामिल किया जाएगा अन्यथा नहीं। आयोग द्वारा तय किए गए मानकों को समकालीन सामाजिक और आर्थिक बदलावों के साथ देखा जाय तो इसमें कई विषंगतियां हैं। विशेषकर उन प्रभावों और कारकों को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता जिनके परिणाम स्वरूप मानव जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव परिलक्षित हुए हैं। यदि राजधानी की बात करें तो किसी भी मलिन बस्ती में टी.वी. की उपलब्धता नव-उदारवादी सुधार का स्वाभाविक परिणाम है। कोई दो राय नहीं है कि उपभोक्तावाद ने संभ्रान्तों और मध्य वर्ग तक नित नयी सुविधाएं पहुंचायी है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आम लोग जिनके समक्ष आजीविका की कठिन चुनौतियां हैं, उन लोगों को भी टी.वी., फ्रीज और मोबाइल का उपभोक्ता बनने के लिए विवश किया है। इस सवाल पर अलग से विचार किया जाएगा कि कोई कारपोरेट घराना किसी व्यक्ति को किन माध्यमों और किन अदाओं से प्रभावित या विवश करता है। फिलहाल बात करते हैं उपभोक्तावादी संस्कृति और सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण के बीच तादाम्य की।
उपभोक्तावाद के प्रसार में टी.वी. ने बड़ी भूमिका निभाई है। पिछले दो दशकों में एक तरफ जहां समाचारों की तेजी में इजाफा हुआ है वहीं दूसरी तरफ मनोरंजन का भाव तेजी से गिरा है। इतना गिर चुका है कि हर घर-दरवाजे से लेकर हर गिरे-पड़े व्यक्ति तक इसने पैंठ बनाई है। पहले ना से हाँ हुआ, फिर हाँ से ब्लैक एण्ड व्हाइट और फिर कलर हुआ। कलर भी इतना हुआ (बल्कि किया गया) कि अमीरी-गरीबी के फर्क के बगैर ही इसने पूरे देश को एक सूत्र में बांध दिया। राष्ट्र की इससे बेहतर कल्पना और कहां देखी जा सकती है जहां पर लाख-करोण कमाने वालों के घर में भी टी.वी. की वही फ्रीक्वेन्सी पहुंच रही है और वहां जहां छप्पर के सुराख से पानी टप-टप गिरता हो वहां भी वही फ्रिक्वेन्सी पहुँच रही है। मोबाइल का मामला भी कुछ ऐसा ही है। अमीर हो या गरीब दोनों के लिए काॅल की दरें एक समान है। फिर मोबाइल के स्वामित्व के आधार पर किसी को गरीबी रेखा से नीचे और किसी को ऊपर कैसे माना जा सकता है? यदि फोन या मोबाइल ही गरीब-अमीर का प्रतीक है तो फिर सर्वे करने की जरूरत ही नहीं है, राजा भी कह चुके हैं कि ‘‘मैं गली के हर व्यक्ति के लिए वहन करने योग्य बनाना चाहता था।’’ (his effort was to make cellular phone services affordable to the man on the street.; The Economic Times, July 25, 2011.) मतलब हर हाथ में मोबाइल पहुंचाना चाहते थे ये जनाब। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि पहले तो सरकार दाम गिराकर गरीबों तक मोबाइल, टी.वी. और फ्रीज जैसे उपकरण पहुंचा रही है और फिर उन्हें गरीबी रेखा से नीचे होने के अधिकार से वंचित कर रही है। ताकि ये लोग ‘‘भोजन का अधिकार’’, ‘‘शिक्षा का अधिकार’’, और ‘‘आजीविका का अधिकार’’ से खुद ब खुद बेदखल हो जाएं। ऐसे में सरकारी खजाने पर भार भी कम पड़ेगा। कौन समझाए कि बाजारपरस्ती से कल्याणकारी कार्य संभव नहीं है। जब एन.एस.एस.ओ. जैसी संस्थाएं मान रही हैं कि आर्थिक सुधारों के बाद अब तक गरीब और अमीर के बीच का फासला बढ़ा है तो फिर समाजिक-आर्थिक सर्वे के मानकों में सावधानी क्यों नहीं बरती गयी। कैबिनेट मंत्री जयराम रमेश मानकों में विषंगतियों के बाबत बयान देते हैं कि ’’प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, बी.पी.एल. की सूची में शामिल करने और इस सूची से बाहर करने संबंधी मानक को मंत्रीमण्डल द्वारा अनुमोदित किया जा चुका है, अब इसमें कुछ नहीं हो सकता।’’(that was not possible anymore as the census exercise was already under way and as both the exclusion and inclusion criteria were approved by the Cabinet; The Hindu, August 9, 2011.)  यदि जय राम रमेश की बातों पर यकीन किया जाय तो मानना होगा कि कोई भी प्रस्ताव या विधि-विधान सही हो या गलत, नागरिक हित में या नहीं यदि मंत्रीमण्डल द्वारा पारित कर दिया जाता है तो इसे सही करार दिया जा सकता है। यदि अब भी समझने में किसी किस्म की दिक्कत आ रही है तो ‘‘2जी स्पेक्ट्रम’’ की ऐनक लगाएं। सुनने में ‘‘2जी स्पेक्ट्रम’’ घोटाला नहीं, कोई अन्तर्राष्ट्रीय ब्राण्ड प्रतीत होता है। वैसे भी यह दौर ब्राण्डों का दौर है। ब्राण्ड बेचो, ब्राण्ड कमाओ, बा्रण्ड खरीदो, ब्राण्ड खाओ और ब्राण्ड ही पचाओ। बाकी औपचारिकताओं के लिए ए राजा, ओ राजा तो हैं ही। याद आया, यदि रामलखन का फिल्मी संगीत (ए जी, ओ जी...) के बजने का आभास हो तो समझिए कि सबकुछ ठीक नहीं (जी) चल रहा है।
उक्त संदर्भ में टी.वी., फोन, मोबाइल और दो पहिया वाहन आदि की उपलब्धता को बी.पी.एल. सर्वे से जोड़कर देखा जाए तो चैंकना तय है। योजना आयोग के अनुसार शहरी क्षेत्र में यदि किसी व्यक्ति के घर में टी.वी. है या ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति के पास जुगाड़ के तौर पर दो पहिया वाहन है तो वह गरीब नहीं समझा जाएगा। फिर तो सैंकड़ों चैनलों की मायाजाल में गिरफ्तार शहरी झुग्गी-झोपडियों और शहरी कल्चर (शायद उपभोक्तावादी कल्चर) से आच्छादित दूर-दराज के गांवों और कस्बों के लोगों के लिए सावधानी बरतने का समय आ चुका है। तुमने अपने भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च होने वाला जो पैसा बचाकर मनोरंजन का सस्ता साधन खरीदा था उसे कहीं गुप्त स्थान पर छिपा दो यानि सही सूचना न दो। वरना तुम रिक्शा चलाने वाले, ठेला खींचने वाले, दुकानों पर रात दस बजे तक ड्यूटी बजाने वाले, मल्टी स्टोरी को अपना पसीना बहा-बहाकर चमकाने वाले लोगों, तुम गरीबों में नहीं गिने जाओगे। फिर तो झूठ बोलने के लिए प्रेरणा भी मिल ही रही है।
ऐसा इसलिए भी है कि नई आर्थिक सुधारों ने लक्षित अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है। इसमें लक्ष्य भेदने के लिए जरूरी है कि तयशुदा समयावधि से पहले ही लक्ष्य हासिल कर लिया जाए। पंचवर्षीय योजनाओं का मतलब और महत्व समझ में आता है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम गोल (सहस्राब्दि लक्ष्य में भारत में 2015 तक गरीबी रेखा के 22 प्रतिशत तक पहुंचने का आंकलन प्रस्तुत किया गया है।) को प्राप्त करने की अभिलाषा ने शायद हमारे नीति निर्धारकों को अंधा बना दिया है। लक्ष्य निर्धारित करना और प्राप्त करना अच्छी परंपरा है। लेकिन यह भी देखना होता है कि परिस्थितियां अनुकूल हैं या प्रतिकूल। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की तयशुदा संख्या प्रतिशत में प्राप्त करना ही प्रमुख लक्ष्य बन चुका है। यदि ऐसा है तो फिर इस देश की आधी आबादी के लिए इस वर्ष का बी.पी.एल. सर्वे निराश करने वाला कदम है। हांलाकि एन.एस.एस.ओ. (National Sample Survey Organization) की 2004-05 के 61वें राउण्ड की गणना के अनुसार भारत की 27.5 (28) प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। जबकि एन. सी. सक्सेना समिति की हालया रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल आबादी का लगभग 50 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की सूची में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन चण्डीगढ़ से शुरू हो चुका 2011 का सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण शायद ही रूके। ऐसे में बढ़ती मुद्रा स्फीति और मंहगाई को सर्वे से संबद्ध करके न देखना इस बात का सूचक है कि बी.पी.एल. सर्वे के माध्यम से गरीबों की पहचान करना प्राथमिकता नहीं बल्कि सरकारी काम-काज और शासन-प्रशासन की औपचारिकताओं को अंजाम तक पहुंचाना ही सर्व प्रमुख लक्ष्य है। सरकार का मंतव्य समझ से परे है कि वह बी.पी.एल सर्वे के माध्यम से गरीबों को सही मायने में चिन्हित करना चाहती है या फिर गरीबों की जो सूची है उसमें इनकी संख्या घटाकर (एक तरह का एडजस्टमेन्ट) देश और दुनिया के सामने अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करना चाहती है। यदि ऐसा है तो सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण का औचित्य क्या है?

PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_AUGUST_2011

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