Monday, December 20, 2010

बाल विकास में माँ की भूमिका

" माँ बच्चे की सबसे अच्छी दोस्त होती है जो उसकी हर जरूरत को समझती है और उसे पूरा करने के लिए त्याग और समर्पण के लिए सदा तैयार रहती है। चाहे बच्चे की तोतली आवाज को समझकर उसे दूध पिलाने की बात हो या फिर उसे असमय सुसु कराने के लिए रात में जागने की बात हो या फिर उसे लोरी गाकर सुलाने की बात हो।..........."



माँ, मम, मदर और अम्मा वगैरह संबोधनों का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए किया जाता है जिसे पूरे संसार में जननी के रूप में जाना जाता है। जिसे ग्रंथों में बहुत सम्मान दिया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में यदि माँ के महत्व की बात करें तो माँ को बच्चे की पहली शिक्षिका कहा गया है, चाहे वह खुद औपचारिक रूप से शिक्षित हो या न हो। इस बात को समकालीन शिक्षाविदों ने भी स्वीकार किया है कि लड़की की शिक्षा लड़को के ही समान बल्कि इनसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक है। शिक्षा के व्यापक स्तर पर प्रसार के कारण ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और बौद्धिक जगत में महिलाओं की भूमिका सुनिश्चित हो सकी है। अब लड़कियों की भूमिका महज माँ, बहन और पत्नी तक सीमित नहीं रही है बल्कि अध्यापिका, समाज सेविका और वैज्ञानिक के रूप में भी उनकी पहचान बनी है। लेकिन यह भी सत्य है कि माँ, बहन और पत्नी के रूप में महिलाएं सदियों से उपेक्षा की शिकार रही है। उपेक्षा की मानसिकता के चलते ही जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में माँ के रूप में महिलाओं के योगदान को उचित समाजिक और आर्थिक सम्मान नहीं मिलता। बात करते हैं बाल विकास की जहाँ हर पग पर बच्चें को माँ की उंगलियों की ज़रूरत होती है।
जन्म के समय हर व्यक्ति अबोध बच्चा होता हैं। यूं कहें कि उनमें और जानवर में कोई फर्क नहीं होता है। इस अवस्था में यदि उन्हें जंगल में छोड़ दिया जाए तो उनका व्यवहार ठीक वैसा ही होगा जैसा कि किसी जानवर का होता है। चूंकि मानव समाज सृष्टि की सबसे उत्तम रचना है जिसे भाषा और लिपि का ज्ञान है और जिसके माध्यम से प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से वैचारिक आदान-प्रदान करता है।
किसी अबोध बच्चे को मानव समाज और उसकी विशेषताओं का ज्ञान सबसे पहले उसकी माँ से होता है। शैशवावस्था में बच्चा अपनी माँ से लिपटा रहता है। प्रथमतः वह माँ से ही हंसना, बैठना, खड़ा होना, चलना, बात करना और दूसरे मानवीय गुणों से परिचित होता है। सीखने की यह प्रक्रिया नितान्त अनौपचारिक होते हुए भी बच्चे के लिए पहली पाठशाला की तरह होती है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि बच्चा स्कूल जाने योग्य नहीं हो जाता है। बच्चा जब शैशावस्था से बाल्यावस्था में प्रवेश करता है तो उसे घर से बाहर की दुनिया दिखाई देती है। विशेषकर स्कूल जहां घर के बाद उसका अधिक समय व्यतीत होता है। स्कूल में बच्चे की औपचारिक शिक्षा होती है। किसी बच्चे के लिए स्कूल और वहां का वातावरण बिल्कुल नया होता है। स्कूल में बच्चा अध्यापकों-अध्यापिकाओं और अन्य बच्चों के सम्पर्क में आता/आती है। बच्चे को स्कूली परिवेश से जोड़ने में भाषा संवाद का महत्वपूर्ण माध्यम बनता है। संवाद तभी संभव होता है जब बच्चे में पहले से भाषा सम्बंधित न्यूनतम क्षमता विकसित हो चुकी हो। बच्चे के अंदर इस क्षमता का विकास उसके घर पर होती है। इसमें उसके घर के सभी सदस्यों विशेषकर उसकी माँ का अमूल्य योगदान होता है। यदि हम कल्पना करें कि किसी बच्चे को जन्म के कुछ समय बाद ही किसी बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा दिया जाय जहां उसके लालन-पालन से लेकर उसकी शिक्षा का उत्तम प्रबंध हो तो ऐसे में उस बच्चे के लिए सुख-सुविधा के तमाम साधन उपलब्ध होंगे। उसे भाषा, संवाद और संस्कार सिखाने के लिए पुरूष या स्त्री के रूप में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति अवश्य होगा जिसकी भूमिका माँ के समान ही होती है, लेकिन आर्थिक संबंधों में बंधे होने के कारण वह व्यक्ति माँ की भूमिका का निर्वहन व्यावसायिक रूप से करता/करती है। ऐसी परिस्थिति में बच्चों का लालन-पालन नितान्त औपचारिक और वाणिज्यिक होती है। ध्यान देने की बात है कि बोर्डिंग की फीस अदा करके हम अपने बच्चों को अपने समय की अच्छी सुविधाएं तो उपलब्ध करा सकते हैं लेकिन उन्हें माँ का प्यार और भावनात्मक लगाव नहीं दे सकते।
माँ का महत्व इस दृष्टि से भी है कि शैशवावस्था में बच्चे को सीखाने के लिए सिर्फ उसकी अच्छी बातें या संवाद पर्याप्त नहीं होती है बल्कि उसका ममत्व, वात्सल्य, त्याग और समर्पण की निःस्वार्थ भावना बच्चे को हर पल अपनी माँ से जोड़े रखता है। इस प्रक्रिया में बच्चे का मानसिक विकास स्वाभाविक रूप से हाता है। कई बार ऐसा होता है कि यदि कोई माँ किन्हीं कारणों से अपने बच्चे के साथ पर्याप्त समय व्यतीत नहीं करती या बात-बात पर उस पर गुस्सा करती है तो इससे उसके बच्चे के व्यक्तित्व विकास पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में बच्चे एकाकीपन का शिकार हो जाते है। ऐसे बच्चे सामाजीकरण की प्रक्रिया से अलग-थलग रह जाते हैं। शहरों में ऐसे एकल परिवार देखे जा सकते हैं जहाँ पिता के साथ-साथ माँ भी नौकरी पेशा होती हैं। ऐसी माताओं की भूमिका दायियां निभाती हैं लेकिन माँ की अनुपस्थिति और भावनात्मक लगाव की कमी बनी रहती है। एकाकीपन बच्चे को उन बच्चों के पास ले जाता है जिनके बारे में वह बिल्कुल ही अनभिज्ञ होता है कि फलां लड़का या लड़की की संगत उसके लिए अच्छी है या नहीं। इसका प्रभाव उसके शैक्षिक निष्पादन पर भी पड़ता है। जब परीक्षा में बच्चे का नंबर कम आता है या वह अनुत्तीर्ण हो जाता है तो माँ-बाप बच्चे पर ही सारा दोष आरोपित कर देते हैं लेकिन अपनी गलतियों पर कभी ध्यान नहीं देते।
जाहिर है बच्चों को शैशवावस्था और बाल्यकाल में कोई भी चीज सीखाने और उसके व्यक्तित्व को निखारने में माँ का प्यार और उसका भावनात्मक लगाव अत्यंत आवश्यक होता है। यह सिलसिला लगभग 8 से 10 वर्ष तक जारी रहता है। क्योंकि इस दौरान ही बच्चे में आगामी भविष्य के बीज पड़ते हैं जो बाद में उसकी सफलता के रूप में अंकुरित होते हैं। यदि बच्चा 3 या 4 की बजाय 6 या 8 वर्ष का हो तो भी उसे माँ के ममत्व की आवश्यकता होती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि माता-पिता अपने बच्चे को स्कूल में दाखिल कराकर स्वयं की जिम्मेदारी समाप्त हुआ मान लेते हैं। या यूं भी होता है कि पहला बच्चा यदि 1-2 साल का हुआ हो और इसी दौरान दूसरा बच्चा पैदा हो जाता है तो माता-पिता का ध्यान स्वाभाविक रूप से नवजात शिशु पर अधिक हो जाता है। इन दोनों ही परिस्थितियों में एक बात जो समान है वो यह कि बाल्यावस्था में माँ द्वारा बच्चे के साथ बिताए जाने वाले समय में कमी होती है। ऐसा निरन्तर जारी रहने पर बच्चे के मनोविज्ञान पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है। माँ के ममत्व में अभाव बच्चे के अंदर सीखने की अभिरूचि को कम करता है। ऐसी स्थिति में बच्चा उदास और गुम-सुम रहने लगता है। यहां तक कि खेल-कूद या किसी दूसरे सामूहिक कार्यक्रमों में भाग लेने की उसकी रूचि समाप्त हो जाती है। परिणाम स्वरूप उसका शारीरिक व मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है और भविष्य में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उसे अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है।
स्पष्ट है कि माँ की भूमिका बच्चे के लालन-पालन तक सीमित नहीं होती है। माँ बच्चे की सबसे अच्छी दोस्त होती है जो उसकी हर जरूरत को समझती है और उसे पूरा करने के लिए त्याग और समर्पण के लिए सदा तैयार रहती है। चाहे बच्चे की तोतली आवाज को समझकर उसे दूध पिलाने की बात हो या फिर उसे असमय सुसु कराने के लिए रात में जागने की बात हो या फिर उसे लोरी गाकर सुलाने की बात हो। माँ ही बच्चे के मनोविज्ञान को बेहतर ढ़ंग से समझ पाती है। यही वो कारण हैं जो माँ को बच्चे की पहली शिक्षिका का स्थान प्रदान करते हैं और जिसे विश्व के महान शिक्षाविदों ने भी स्वीकार किया है। इसी महत्व के चलते ही प्रारंभिक शिक्षा में अध्यापन के लिए महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती है।

Monday, December 6, 2010

6 दिसम्बर: कहीं कुछ असहज सा है! - (भाग-2)

(भाग-2)

"हम तो वसीम और मंजूर थे, जो आज भी हैं। उस बस्ती और फिर स्टेशन की भीड़ में हम विनोद और मोहन कैसे बन गए? किसने बनाया हमें कुछ घण्टों के लिए वसीम से विनोद और मंजूर से मोहन? फिर मैं सोचता हूं कि गुरमित सिंह बग्गा ने क्यों अपने बाल क्यों कटवा लिए थे 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद......"

दिनांक 22 सितम्बर, 2010 दिन बुद्धवार, शाम लगभग 6 बजे यकायक सदर रोड पर पुलिसिया सायरन की तेज आवाज, हर कोई उत्सुकतापूर्वक सड़क को निहारता है। नीले रंग की जीप, सफेद रंग की कार, और इन दो तरह की गाड़ियों की पीछे ढे़र सारी गाड़ियों का काफिला। गाड़ियों के अन्दर बैठे अफसर, खाकी ड्रेस में पुलिस और सेना के जवान, कोइ बैठा हुआ, कोई खड़ा हुआ, कुछ नकाबपोश जवान जिनके हाथों में बन्दूकें हैं, माहौल को और गंभीर कर रहे थे। गाड़ियों के ऊपर जलती-बुझती बत्तियां और आवाज किसी भी कारवां की तरह आगे निकलती जा रही थीं, अपने पीछे एक पसरा हुआ सन्नाटा छोड़ते हुए। कौतुहल लोगों की नज़र काफिले पर और काफिले की नजर लोगों पर। लोगों के अन्दर इतना साहस भी नहीं कि वो अपनी चैखटों को पार करके सड़क पर आते। दोपहर से छाए सन्नाटे के बाद का पहला मंजर था यह, कि कुछ लोगों को छतों पर देखा गया। कफिला गुजरने के बाद सबकुछ एकबार फिर शान्त हो गया।
पुलिसिया सायरन की आवाज में सन्नाटे की ऐसी गूंज मैंने पहली बार इलाहाबाद में सुनी थी, 6 दिसम्बर 1992 को। समय शाम के लगभग 8 बज रहे होंगे। नार्थ मलाका के सिद्दीकी लाज में पहली बार एहसास हुआ कि सन्नाटा क्या होता है। पुलिस की सायरन लगातार बज रही थी और इस बीच लाज के एक कमरे में सभी किराएदार छात्र इकट्ठे रेडियो पर कान लगाए हुए थे। उन दिनों बीबीसी पर प्रसारित होने वाला 7.30 बजे की बुलेटिन का छात्रों में बहुत क्रेज हुआ करता था। एक तरफ सायरन और दूसरी तरफ बीबीसी न्यूज और बन्द कमरे में रेडियो के सामने बैठे हम छात्र। उस समय फोन और मोबाइल का बेलगाम प्रचलन नहीं था, जैसा कि आज है। रेडियो पर प्रसारित होने वाली खबरों में बार-बार बाबरी मस्जिद के विध्वंश की ख़बरें प्रसारित हो रही थीं। मस्जिद के को ध्वस्त करने वाले कार सेवकों, सियासी लीडरों के भड़काउ भाषणों और पत्रकारों के छत-विक्षत हुए कैमरों की बाबत खबरें भी आ रही होती हैं। रात को गुज़रना था, हर दिन की तरह। सुबह होने तक इलाहाबाद के सभी संवेदनशील इलाकों में कफ्र्यू लगाई चुकी थी। हम छात्रों के मन में अनजाना खौफ था और खौफ की इस घड़ी में सुरक्षित घर पहुंचने की फिक्र भी।
7 दिसम्बर, नहीं 8 दिसम्बर को सुबह मैं और मंजूर अली अंसारी रामबाग रेलवे स्टेशन गए, ट्रेन का पता करने के लिए। हमलोग स्टेशन के पिछले गेट से प्लेटफार्म पर पहुंचे। ट्रेन का पता करने के बाद मेन गेट से वापस आ रहे थे कि रामबाग चैराहे पर यकायक तीन-चार पुलिस वाले अपना डंडा लेकर हमारी तरफ दौड़े। मुझे कोई खास चोट नहीं लगी। लेकिन मंजूर भाई की कलाई पर पुलिस की पतली छड़ी पड़ी और कलाई सूज गयी। ड्यूटी पर तैनात पुलिस वालों ने कहा “जानते नहीं बे कि कफ्र्यू लगी है।” तब जाकर हमें पता चला कि रामबाग चैराहा से मुट्ठीगंज और साउथ मलाका को जाने वाली सड़कें कफ्र्यूग्रस्त हैं। हमने एक स्वर में कहा “ट्रेन का पता करने स्टेशन गए थे। हमें मालूम नहीं था कि कफ्र्यू लगी है।” वहां से जल्दी खिसक लेने में ही हमारी भलाई थी।
अब तक समाचारों में सुना था कफ्र्यू के बारे में। आज देख भी लिया। अब समस्या थी शाम को किस मार्ग से स्टेशन पहुंचा जाए। शाम को 7.00 बजे के आस-पास एक ट्रेन थी। डरे-सहमे से हम दोनों ने जौनपुर जाने वाले रेलवे ट्रैक को सुरक्षित मार्ग के रूप में चिन्हित किया। ट्रैक से नीचे उतरकर रामबाग झुग्गी होकर स्टेशन पहुंचना था। डर और खौफ के साए में हम दोनों आगे बढ़ रहे थे। जहां लोग दिखाई दे जाते वहां हम एक दूसरे को उन नामों से पुकारते हुए आगे बढ़ते जिससे हमारी मुस्लिम पहचान छुपी रहे और रामबाग की उस बस्ती के लोग हमें भी अपनी ही बिरादरी या मजहब का समझें।
आज मैं सोचता हूं कि नाम बदलने का बोध हमारे अन्दर कैसे विकसित हुआ। हम तो वसीम और मंजूर थे, जो आज भी हैं। उस बस्ती और फिर स्टेशन की भीड़ में हम विनोद और मोहन कैसे बन गए? किसने बनाया हमें कुछ घण्टों के लिए वसीम से विनोद और मंजूर से मोहन? फिर मैं सोचता हूं कि गुरमित सिंह बग्गा ने क्यों अपने बाल क्यों कटवा लिए थे 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद। ऐसे ही बहुत सारे सवाल हिन्दुस्तान के लाखों-करोणों जनता के मन में आते होंगे। क्यों बाबरी ध्वस्त हुआ? क्यों मुंबई, भोपाल, मेरठ, मलियाना दंगों की चपेट में आए और क्यों गोधरा-गुजरात हुआ? आखिर क्यों? पिछले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश में होने वाले सांप्रदायिक तनाव और दंगे सोचने पर विवश करते हैं कि कहीं कुछ असहज सा है!


समाप्त

Sunday, December 5, 2010

6 दिसम्बर: कहीं कुछ असहज सा है! - (भाग - 1)

6 दिसम्बर :कहीं कुछ असहज सा है!
भाग - 1

दिसम्बर का पहला सप्ताह समाप्त हो रहा है। जिंदगी और जिंदगानी की तमाम दैनिक कामों को निपटाने के बाद अपने घोसले में वापस आ चूका हूँ हस्ब-ए-मामूल थकान जिस्म से बाहर झाक रही है। नज़र आज के एक अंग्रेजी दैनिक के फ्रंट पेज पर छपी जे. वेंकटेश की रिपोर्ट पर पड़ती है। इस रिपोर्ट "CBI casual about demolition case, says Supreme court" का पहला पैराग्राफ कुछ इस तरह है "On the 20th anniversary of the pulling down of the Babri Masjid at Ayodhya, the Supreme Court directed the Rae Bareli court to expedite the trial against BJP leader L.K. Advani and others in the demolition case. रिपोर्ट पढते-पढते दो साल पहले 5 दिसम्बर को लिखे हुए उस संस्मरण की याद ताज़ा हो उठी है जिसे मैंने दो हिस्सों में लिखा था। थोड़ी एडिटिंग के बाद संस्मरण का पहला हिस्सा पेश है।

आज से 20 साल पहले आधुनिक भारतीय इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना घटी थी। दिन था 6 दिसम्बर 1992 का। इस तिथि को अयोध्या की बाबरी मस्जिद को कारसेवकों ने ध्वस्त कर दिया था। फिर एक के बाद एक देश भर के कई शहर सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गए। जो खुद को हिंदू समझते थे उन्होंने मुसलमानों को और जो खुद को मुस्लिम समझते थे उन्होंने हिन्दुओं को भरसक नुकसान पहुंचाने की कोशिश की। लेकिन यह भी सच है कि आबादी का एक बड़ हिस्सा जिसमें हिन्दू भी शामिल थे और मुसलमान भी, दंगा-फसाद से अलग था। सांप्रदायिकता और आतंकवाद को लेकर एक मत यह है कि दंगाइयों और आतंकवादियों का कोई मज़हब नहीं होता है। इस मत की मजबूती का एहसास मुझे तब हुआ जब मैं स्टूडेंट लाइफ के दौरान सांप्रदायिकता पर लिखी इकबाल मजीद की एक कहानी पढ़ी। उस कहानी का सार यह था कि दंगाई एक प्रेस रिपोर्टर को पकड़ लेते हैं। दंगाइयों द्वारा उस रिपोर्टर का धर्म पूछा जाता है। लेकिन प्रेस रिपोर्टर द्वारा अपना मज़हब इंसानीयत बताना दंगाइयों के लिए निराशा का सबब बनता है। दंगाई इस जवाब से धर्म संकट में पड़ जाते हैं कि प्रेस रिपोर्ट के धर्म और समुदाय का पता कैसे लगाया जाय? यह पता करने के लिए वो बलपूर्वक प्रेस रिपोर्टर के कपड़े उतारते हैं। जब दंगाई प्रेस रिपोर्टर को बिल्कुल नंगा कर देते हैं तब उन्हें पता चलता है कि वह मीडिया परसन लड़का नहीं एक लड़की है। कहानी का यह सिक्वेंस वास्तव में किसी को भी धर्म संकट में डाल सकता है। अपना मज़हब इंसानीयत बताने वाले रिपोर्टर का मज़हब बता पाना दंगाइयों के लिए असंभव हो जाता है। लेकिन दंगाई निराश नहीं होते। वो बगै़र धार्मिक भेद-भाव के उस मीडिया परसन के साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं और इंसानीयत को खुद का मजहब बताते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि खुद का मजहब इंसानीयत बताने वाली महिला प्रेस रिपोर्ट उनके मज़हब की भी तो हो सकती है।
बहरहाल, कहीनी के उक्त प्रसंग का जिक्र इसलिए किया कि अमूमन दंगे के हालात समाज को दो धड़ों में बांट देते हैं। लेकिन सच्चाई यह होती है कि मंदिर और मस्जिद के नाम पर जान देने और जान लेने वाले लोग सिर्फ उन्मादी और आतताई होते हैं। जैसा कि कहानी के दंगाई हैं। अक्सर दंगों में महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं होती हैं। दंगाइयों को मजहब से सरोकार कम और अपनी हवस को शान्त करने की फिक्र अधिक होती है। कहना नहीं होगा कि 2002 के गुजरात दंगों में भी बड़े पैमाने पर बलात्कार की घटनाएं हुईं।
दंगों के समाजशास्त्र का दूसरा सच यह है कि दंगों में बेरोजगारों के दो-दो हाथ जब हजारों की संख्या में उठते हैं तो वो किसी मंदिर की घण्टी को बजाने के लिए नहीं उठते और न ही किसी मस्जिद में अज़ान देने के लिए उठते हैं बल्कि लूट-पाट, आगजनी और हत्या के लिए उठते हैं। काश ये हाथ रोजगार के लिए, महंगाई रोकने के लिए तथा अन्य सभी तरह की शासन-प्रशासन की विषंगतियों को दूर करने के लिए और इन सबसे अधिक शान्ति और सौहार्द्रय के लिए उठाए जाते। सांप्रदायिक दंगों में खून चाहे जिसका भी हो, जख़्म मानवता के माथे पर ही लगता है।
सितम्बर २०१० में बाबारी मस्जिद-राम जन्म भूमि विवादित स्थल से संबंधित इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने फैसला सुनाया। इस फैसले के आने से पहले देश व्यापी स्तर पर दंगा विरोधी तैयारियां की गयीं। महानगरों से लेकर शहरों तक, शहरों से लेकर कस्बों तक और कस्बों से लेकर गांवों तक हर जगह पुलिसिया कदमताल और सायरन की गूंजती आवाजों ने जनता को सकते में डाल दिया था। समाचारों में बताया जा रहा था, कि शरारती तत्वों को बख्शा नहीं जाएगा। यह भी बताया जा रहा था कि स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है। लेकिन सड़कों पर पसरा सन्नाटा विचार के अवसर भी प्रदान कर रहा था कि रूके हुए फैसले के सुनाए जाने की पृष्ठभूमि में क्या डर, खौफ और आतंक के अवयव होने जरूरी थे?
फैसले का अंतिम दिन 30 सितम्बर 2010  जैसे किस्से-कहानियों में होता है। कुत्ता-बिल्ली भी देखा जा सकना मुश्किल था। पुलिस बल की गाड़ियां और चीर-परिचित सायरन की आवाज़। इस दिन पावर सप्लाई की अबाध आपूर्ति भी चैंकाने वाला नहीं था। हर कोई आसानी से समझ सकता था कि बिजली की अबाध पूर्ति का उद्देश्य लोगों को अधिक-से अधिक समय तक घर के अंदर टी॰ वी॰ के सामने बैठाना था। चूंकि इलेक्ट्रानिक मीडिया मौजूदा दौर में मनोरंजन का पापूलर साधन है। इसलिए इस माध्यम का उपयोग भी भय और खौफ के माहौल को बनाने में सहायक के रूप में किया गया।
कहने को ये तैयारियां शान्ति की अपील का हिस्सा थीं। फैसला सुनाए जा चुकने के बाद मीडिया में इस बात पर जमकर चर्चा-परिचर्चा हुआ कि 1992 के बाद की जो पीढ़ी जवान हो चुकी है उसमें सांप्रदायिक हिंसा और वैमनस्व की भावना नहीं है। यह पीढ़ी अधिक परिवक्व और समझदार है। सवाल यह है कि यदि  बात थी तो फिर शान्ति की अपील के लिए डर और खौफ का माहौल क्यों बनाया गया? क्या 2002 के गुजरात जीनोसाइड इस परिकल्पना के पोल नहीं खोलते। तो फिर सुरक्षा और शान्ति के नाम पर इतना बवाल क्यों खड़ा किया गया कि अबोध बच्चों के चेहरे की रेखाएं भी इस बात की गवाही दे रही थीं कि कहीं कुछ न कुछ असहज सा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये असहजता सांप्रदायिकता की गंभीर होती चुनौतियों का संकेतक हैं?

Saturday, December 4, 2010

पुरूष सत्ता और पूंजी सत्ता के बीच जूझती ग्रामीण महिलाएं

महिला समाज को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां रही हैं। उन्हें शिक्षा और प्रत्यक्ष आर्थिक गतिविधियों से सीधे अलग रखा गया। सिर्फ इसलिए कि चुल्हा-चौका और झाड़ू-पोछा तथा पति और बच्चों की सेवा करना ही उनका परम धर्म और कर्तव्य समझा जाता रहा है। लेकिन अब स्थिति काफी बदल चुकी है। शिक्षा, समाज, अर्थ और राजनीति हर क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका पहले की अपेक्षा बढ़ी है। वे औद्योगिक प्रतिष्ठानों, दुकानों, बैंकिंग और रेलवे वगैरह सेवा क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दे रही हैं। आर्थिक क्षेत्र में उनकी बढ़ती भागीदारी हम सबके लिए गर्व की बात है। लेकिन इस सवाल पर हमारा ध्यान नहीं जाता है कि क्या महिलाओं का आर्थिक उत्पादन में भागीदारी सशक्तिकरण के दौर से पहले नहीं रही है ? दरअसल ये बातें सिर्फ शहरी महिला समाज की तस्वीर प्रस्तुत करती है। अगर महिलाओं का सामाजिक व आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी देखनी है, तो हमें गांवों का रूख करना होगा।
ग्रामीण समाज की महिलाएं खेतों में काम करती देखी जा सकती हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी महिलाओं के श्रम को उचित पारितोषिक और सम्मान नहीं मिलता। कुछ गांवों के नाम लेना जरूरी समझता हूँ। इन गांवों की महिलाओं के साहस और हौसले को सलाम करता हूँ। मुहम्मदाबाद ब्लाक के सुरहियां, अदिलाबाद, पड़ैनिया, बखारीपुर, चौबेपुर, हरिहरपुर, हरिबल्लमपुर, तिवारीपुर, बैजलपुर, अहिरौली, सुरतापुर, ईचौली, मालीचक, बेनसागर, डलसागर, जकरौली आदि ऐसे ही गांव हैं जहां की महिलाओं के एक बड़े हिस्से को कभी खेतों में फसल की रोपाई, सोहाई, कटाई और ओसाई करते हुए तो कभी अपने सरों पर कई मन बोझ खेतों से खलिहानों तक पहुंचाते हुए देखा जा सकता है। कहना नहीं है कि इन महिलाओं को कृषि कार्य में महती भूमिका के अलावा दैनिक घरेलू जिम्मेदारियां भी निभानी होती हैं। जैसे, परिवार के सदस्यों के लिए भोजन बनाना, परोसना, बच्चों का लालन-पालन तथा उन्हें समय से तैयार करके स्कूल भेजना और यदि घर में गाय-भैंस जैसे मवेशी है तो उन्हें चारा खिलाना आदि कार्यों को ग्रामीण महिलाएं बखूबी करती हैं। मैं गांव सुरहियां से प्रतिदिन होकर गुज़रता हूं। यहां खेतों में हर छः लोगों की टोली में कम से कम पांच महिलाओं को काम करते देखा है। लेकिन इनके लिए “महिला कृषक” जैसा शब्द प्रयोग में नहीं है। किसान का मतलब पुरूष किसान तक सीमित है। यह महिला समाज के साथ होने वाले लिंग आधारित भेद-भाव का ऐसा उदाहरण है, जो कमोबेश हर गांव में मौजूद है।
इतने योगदान के बाद भी जब मर्द घर में प्रवेश करते हैं तो उनके साथ कठोर व्यवहार करते हैं। जैसे, “क्या! अभी तक रोटी नहीं बनी!, सुबह से क्या कर रही थी ? या “कपड़े अभी तक नहीं धुले! अब मैं निमंत्रण में कैसे जाउंगा ? वगैरह सम्बोधनों से बात करते हैं। सवाल यह है कि सबकुछ देखते-सुनते हुए भी महिलाओं के प्रति ऐसा रवैया क्यों होता है ?
ज़ाहिर है महिलाओं के श्रम से ही पुरूष अपनी सामाजिक पूंजी खड़ा करता है। लेकिन वह स्त्री विरोधी मूल्यों, परंपराओं और संस्थाओं का विरोध नहीं करता। अपने सामाजिक जीवन में महिला समानता और हितों की बात करने वाले गांव-मुहल्लों से लेकर अखबार और टेलीविज़न हर जगह मिल जाएंगें। लेकिन जब पारिवारिक जीवन में उसी समानता को व्यवहार में अपनाने की बात होती है तो कुछ गिने चुने लोग ही महिला अधिकारों के पक्ष में खड़े होने का साहस कर पाते हैं। हममें-आपमें बहुत से ऐसे हैं जो वैचारिक रूप से प्रगतिशील होते हुए भी सामाजिक मान-मर्यादा और पद-प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हैं कि अमुक कदम उठाने पर समाज उन्हें किस निगाह से देखेगा। ऐसे अनेक कारण हैं जो महिलाओं के अधिकारों की बहाली में बाधक बने हुए हैं। हम कभी यह नहीं सोचते कि “समाज क्या कहेगा या समाज किस निगाह से देखेगा” जैसे कारणों के चलते क्या महिलाओं के साथ होने वाले भेद-भाव को अनवरत जारी रहने दिया जाना चाहिए ? किसी भी प्रगतिशील समाज में इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। महिला समानता और सम्मान को सिर्फ शहरी और महानगरीय संदर्भों में नहीं देखा जाना चाहिए। भारतीय आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा छोटे-छोटे गांवों और कस्बों में रहता है और ग्रामीण महिलाएं ग्रामीण भारत ही नहीं बल्कि शहरी भारत की भी रीढ़ की हड्डी हैं। यदि ग्रामीण महिलाएं काम से मुंह मोड़ लें तो संभव है कि अच्छे मानसून में भी हमारे खेतों में फसल न उगे। संभव है कि जिस बल पर हम कृषि में आत्मनिर्भरता का दम भरते हैं वो कड़ी ही टूट जाए। यदि ऐसा हुआ तो उद्योग-धंधों और सेवा क्षेत्र पर पड़ने वाले इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों को क्या रोका जा सकेगा ? ऐसी स्थिति में जीडीपी और मुद्रा स्फिति का क्या हाल होगा ? मंहगाई एक अंकों में रहेगी या दो अंकों की मौजूदा भयावह स्थिति से भी आगे पहुंच जाएगी। किसी अर्थशास्त्री के लिए ऐसी स्थिति और इसके सिक्वेंसेज को समझना आसान हो सकता है लेकिन आम जनता शायद फिर भी इस समझ से दूर ही रहेगी कि महिलाओं का परिवार से लेकर देश की अर्थव्यवस्था में क्या योगदान है ?
आज का भारत चमकता भारत है आज का भारत दमकता भारत है। कहीं कैटरीना-करीना की अदाएं हैं तो कहीं सानिया-साइना के खेल की तारीफ है। हर जगह शिल्पा, ऐश्वर्या और दीपिका पादुकोण की चर्चा है। मदर इंडिया की नरगिस और कर्मा की नूतन अब पुरानी हो चुकी हैं। वैजयंती और रेखा का अभिनय भी फीका पड़ चुका है। अब हमारा देश महिला सशक्तिकरण के दौर में हैं। इस दौर की कहानी गार्नियर और लक्स बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ही लिखना है। क्योंकि इनके पास आर्थिक सुधारों के पिटारे से निकला सौन्दर्य प्रसाधनों को पापुलर करने का विशेषाधिकार है। क्योंकि इन्हें भारतीय महिला जीवन के सौन्दर्य की गाथा उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से लिखना है। क्योंकि इन्हे विभिन्न ब्राण्डों में ही प्राकृतिक सौन्दर्य दिखाई देता है। तभी तो “ये एहसास का मामला है” या “सिर्फ महसूस करें” या “ये अन्दर की बात है” जैसे कैप्शन के साथ उत्पादों का प्रचार जारी है। इनसे कौन बताए कि आज़ादी का अर्थ यह नहीं है कि संचार माध्यमों का उपयोग क्वालिटी प्रोडक्ट के नाम पर “महसूस करें” जैसी उत्तेजना पैदा करने के लिए किया जाय। ज़रा महिला समाज को मेन स्ट्रीम में आने तो दीजिए, फिर देखिए कि उनके एहसासात क्या करवट लेते हैं और क्या नहीं। ज़रा शिक्षित और जागरूक तो होने दीजिए उन्हें फिर वो बताएंगी कि बालों की मजबूती और गोरे रंग का राज़ क्या है ? तब हमें यह भी पता चलेगा कि कई-कई मन बोझ को अपने सरों पर ढ़ोना, तड़के खेतों में पहुंचकर सूर्यास्त होने तक अथक परिश्रम करना, खाना बनाना, कपड़े धुलना, बच्चों की देखभाल करना वगैरह कार्यों को महिलाएं किस तरह करती हैं ?
कहा जाता है कि महिलाएं त्याग और समर्पण की मूरत होती हैं। तो क्या पुरूषों द्वारा इस स्त्री भावना का दोहन ओर शोषण जारी रहना चाहिए ? मनुष्य और मनुष्य के बीच जानबूझकर भेद-भाव नहीं किया जा सकता है। लेकिन भारतीय समाज में महिलाएं शुरू से ही लिंग, जाति और धर्म तीनों ही आधारों पर उपेक्षित रही हैं। यहां बात ग्रामीण महिला समाज की हो रही है तो उक्त तीन आधारों में एक और कारण जोड़ना चाहूंगा। वो यह कि महिलाएं क्षेत्र के आधार पर भी उपेक्षा की शिकार हैं। इस कारण को शहरी बनाम ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं तक मूलभूत संसाधनों की उपलब्धता के रूप में देखा जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो हमारी ग्रामीण महिलाओं को शौच के लिए इस दौर में भी घर से बाहर खेतों और सड़कों का रास्ता नहीं देखना पड़ता।
अब देखिए विकास का पैमाना कहां-कहां और किस तरह छलक रहा है। बात करते हैं ग्रामीण सड़क योजना की। मौजूदा दौर में अधिकतर गांवों तक सम्पर्क मार्ग बन चुका है। लेकिन इसका फायदा महिलाओं को कितना और किस रूप में मिल रहा है, यह विचारणीय प्रश्न है। ऐसे गांवों की कमी नहीं जहां शैक्षिक संस्थान से पहले सौन्दर्य प्रसाधनों के ब्राण्ड पहुंच गए हैं। इन सड़कों का उपयोग हमारी महिलाओं को नगरीय जीवन से जोड़ने में कम बल्कि कॉरपोरेट कल्चर के प्रसार में अधिक हो रहा है। यह कल्चर टी॰वी॰ के माध्यम से पहले ही महिला मानसिकता को अपना गुलाम बना रहा है और फिर अपने संबंधित उत्पादों की पूर्ति कर रहा है। यह कल्चर गांव से अपने सरों पर सब्जियां लेकर नगरों-कस्बों की पदयात्रा करने वाली महिलाओं को नहीं देखता कि उन्हें किसी नाज़ या अयूर के कॉस्मेटिक्स की ज़रूरत है या एक सम्मान परक जीवन की।
तो कहना चाहता हूं कि हमारा समाज तो पहले से ही महिला समाज को बंधनों में रखने और उनके मानसिक तथा दैहिक शोषण के जड़ सिद्धांतों पर खड़ा है। नवउदारवादी सुधारों ने महिला जीवन में कुछ नए रंग भरे जरूर हैं लेकिन उससे कहीं अधिक उन्हें कॉरपोरेट दासता का पाठ पढ़ाया है। उनके जख्मों पर मरहम लगाने के बजाए उसपर नमक ही छिड़का है। सामाजिक ग़ुलामी तो पहले से चली आ रही है, कॉरपोरेट गु़लामी भी उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बनता जा रहा है। कहा जाता है कि जब किसी चुनौती का सामना करने के हालत न हों तो ऐसे में बचाव का रास्ता ही बेहतर होता है। लेकिन रणक्षेत्र में होने वाला यह कोई युद्ध नहीं है और पुरातन मान्यताओं तथा नवउदारवादी चुनौतियों का सामना करना किसी युद्ध से कम भी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में हमारी, आपकी, हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि महिला समाज के मर्म और संवेदना को सही अर्थों में समझें। महज देवियों की अराधना करने से स्त्री सम्मान नहीं बढ़ने वाला। हमें एक साकारात्मक पहल करनी होगी। ऐसे मुहिम का हिस्सा बनना होगा जो मुख्य धारा की मुहिम हो, जो महिला मुक्ति और महिला सम्मान की धारा हो।

Thursday, November 25, 2010

उप-राष्ट्रपति महामहिम हामिद अंसारी के उद्बोधन के निहितार्थ


इण्टर कालेज, मुहम्मदाबाद, ग़ाज़ीपुर

यह आलेख पिछले वर्ष 18 मार्च को महामहिम उप-राष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी के अपने गृह नगर युसूफपुर-मुहम्मदाबाद आगमन के दिन का है, जो इण्टर कालेज, मुहम्मदाबाद की वार्षिक पत्रिका “सोमरस“ में प्रकाशित हो रहा है। इस आलेख में महामहिम के उद्बोधन का सार-संक्षेप है जो उन्होंने इण्टर कालेज, मुहम्मदाबाद में दिया था। यह कालेज किसी समय में स्कूल हुआ करता था और महामहिम उपराष्ट्रपति ने प्राथमिक शिक्षा इसी स्कूल से प्राप्त की थी। लोगों को अपने क्षेत्र के हर ऐसे व्यक्ति से कुछ खास अपेक्षाएं होती हैं। सो यहां के लोग भी महामहिम से कुछ अपेक्षाएं रखते हैं। लेकिन उनके आगमन के डेढ़ बरस गुजर जाने के बाद भी यहां के लोगों को कभी यह नहीं लगा कि वे किसी महामहिम के गृह नगर के वासी हैं। राही मासूम रज़ा ने “आधा गांव” की भूमिका में लिखा है- “ग़ाज़ीपुर ज़िन्दगी के काफिलों के रास्तों पर नहीं है। जब कोई काफिला यहां से होकर गुजरता है तो यहां के लोग उस काफिले की धूल को इत्र समझकर अपने बदन और कपड़े पर छिड़क लेते हैं और खुश हो लेते हैं।” कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछले बरस 18 मार्च को महामहिम का नगर आगमन ऐसे ही किसी काफिला का हिस्सा रहा है।
पिछले 18 नवम्बर, 2010 को उप-राष्ट्रपति महामहिम हामिद अंसारी की माँ श्रीमती आशिया बेगम का स्वर्गवास हो गया। उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए इस आलेख को आप सभी तक पहुंचा रहा हूँ।


18 मार्च, 2009 को इण्टर कालेज, मुहम्मदाबाद में आयोजित अभिनन्दन समारोह में भारत के उपराष्ट्रपति, महामहिम श्री हामिद अंसारी के उद्बोधन से तीन बातें स्पष्ट होती हैं, जो हमें चिंतन का अवसर प्रदान करती हैं। उनके उद्बोधन का पहला महत्वपूर्ण बिंदु था “शिक्षा”। दूसरा औद्योगिक विकास और तीसरा “वर्क कल्चर” का प्रसार। संभव है अभिनंदन समारोह की व्यस्तता और अपने गाँव-मुहल्ले से निकले इस सपूत की एक झलक पाने की लालसा में महामहिम की बातें समारोह हिस्से तक सीमित हो कर रह गयीं हों। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए उनके उद्बोधन में छुपे भाव को समझने का प्रयास करना स्वाभाविक है। यदि मीडिया की बात करें तो अखबारों में महामहिम के हेलिकाप्टर और सड़कों की सफाई के अलावा कुछ अधिक पढ़ने को नहीं मिला और न ही यह लिखा गया कि इण्टर कालेज के इस पूर्व छात्र और युसूफपुर-मुहम्मदाबाद के मूल निवासी हामिद अंसारी का उपराष्ट्रपति होना इस कस्बे और जिले के लिए क्या मायने रखता है।
उनके नगर आगमन से पूर्व ही चर्चाओं का बाजार गरम था कि उनका आगमन मुहम्मदाबाद में किसी विश्वविद्यालय, मेडिकल कालेज या इंजीनीयरिंग कालेज की सौग़ात ले आएगा। इस तरह की चर्चाएं स्वाभाविक हैं और इससे क्षेत्र की जनता की आशाओं और अपेक्षाओं का अंदाजा होता है। साथ ही उनकी सोच का भी पता चलता है कि उनकी मूलभूत आवश्यकताएं क्या हैं। इण्टर कालेज में प्रधानाचार्य ने अभिनंदन पत्र में इस तरह के शिक्षण संस्थानों के अभाव का जिक्र करते हुए एक विश्वविद्यालय की स्थापना की इच्छा जाहिर की। ये अलग बात है कि एक उपराष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में कौन से विषय हैं और कौन से नहीं। वैसे भी यह पद संवैधानिक पद है। इसलिए उनसे किसी योजना या स्कीम की घोषणा की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। लेकिन इस पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को नजर अंदाज़ भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि यह पद देश का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान का पद है, जिसपर हामिद अंसारी 12वें उपराष्ट्रपति के रूप में आसीन हैं। उनकी इच्छाओं में उनके गृह नगर ही नहीं बल्कि देश के हर नागरिक की इच्छा स्वतः शामिल है। इसलिए क्षेत्र वासियों की उनसे अपेक्षा को गलत भी नहीं कहा जा सकता है।
महामहिम ने अपने उद्बोधन में सर्व प्रथम अपने विद्यालयी दिनों को याद करते हुए कहा कि “यादें तो याद करने के लिए होती हैं।” महामहिम ने अपनी मातृभूमि को याद करते हुए कहा कि “इंसान दुनिया के किसी कोने में चला जाय लेकिन अपना घर, अपने लोग और अपनी मिट्टी से लगाव बना रहता है।” महामहिम के इन शब्दों को महज औपचारिक नहीं समझा जा सकता है। इनमें ऐसे व्यक्तियों के विकास की कहानी छुपी है जो देश के उच्च पदों पर आसीन तो हैं लेकिन उन्हें अपने घर और अपने लोगों से दूर रहने की व्यथा भी झेलनी पड़ती है। शायद अपने घर से संवेदनात्मक लगाव की भावना ही है कि महामहिम मुहम्मदाबाद आए और अपने गृह जनपद गाजीपुर को विकास के मुख्य धारा में शामिल करने इच्छा जाहिर की।
महामहिम ने अपने उद्बोधन में शिक्षा पर विशेष बल दिया। उन्होंने शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि शिक्षा हर व्यक्ति के लिए जरूरी है। उन्होंने उच्च शिक्षा से अधिक स्कूली शिक्षा को महत्वपूर्ण बताया। उन्हीं के शब्दों में कि “देश की आबादी को देखते हुए एक नहीं बल्कि दस-बारह विश्वविद्यालयों की आवश्यकता है लेकिन उससे भी अधिक आवश्यक स्कूल हैं। क्योंकि उच्च शिक्षण संस्थानों में टीचर्स और प्रोफेसरों की उपस्थिति में बच्चे अपनी पढ़ाई आप करते हैं जबकि स्कूल वह स्थान होते हैं जहाँ व्यक्ति सीखता है।” यदि व्यापक संदर्भों में देखा जाए तो देश भर में चल रहे सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मिल योजना, निःशुल्क ड्रेस वितरण और छात्रवृत्ति की व्यवस्था वगैरह में महामहिम की स्कूल शिक्षा से संबंधित बातों का सार निहित है।
शिक्षा एक व्यापक विषय है। इसमें साहित्य और समाज से लेकर विज्ञान और तकनीक की शिक्षा शामिल है। हम जानते हैं कि 1986 की नई शिक्षा नीति में व्यसायपरक शिक्षा के महत्व को प्रमुखता से स्वीकार किया गया है। देश भर में तकनीकी शिक्षण की व्यस्था के लिए पालिटेक्निक और इंजीनियरिंग कालेज की स्थापना भी की गयी है। लेकिन दुर्भाग्यवश गाजीपुर शिक्षा के इस क्षेत्र में पहले की तरह आज भी पिछड़ा हुआ है। इस सच्चाई से महामहिम भी भली भाँति अवगत हैं। शायद यही वजह है कि उन्होंने कहा कि “आज के दौर में हमारे बच्चों का टेक्निकल होना जरूरी है। उन्होंने अमेरिका का उदाहरण देते हुए टेक्निकल एजूकेशन के महत्व पर प्रकाश डाला कि “यदि अमेरिका में किसी डाक्टर की फीस 250 डालर है तो किसी बढ़ई की फीस भी डाक्टर से कम नहीं है।” महामहिम ने टेक्निकल एजूकेशन को व्यापक सामाजिक संदर्भों से जोड़ते हुए कहा कि समाज का हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है और कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता।
जाहिर है महामहिम काम के आधार पर विद्यमान सामाजिक भेद-भाव को गलत मानते हैं। उनके अनुसार वर्क कल्चर ही किसी समाज या देश को विकास के रास्ते पर आगे ले जा सकता है। इसी मंशा से मुहम्मदाबाद (गाजीपुर) के विशेष आलोक में उन्होंने उद्योग-धन्धों की आवश्यकता और स्थापना की बात कही। उम्मीद की जानी चाहिए की महामहिम की इच्छाएं आने वाले दिनों में फलीभूत होंगी और गाजीपुर में भी उद्योग-धन्धों का विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। ताकि यहाँ के नौजवानों को काम के लिए इधर-उधर भटकना न पड़े। जब औद्योगिक विकास होगा तो वर्क कल्चर स्वतः ही विकसित होगी। साथ ही जिले की आर्थिक स्थिति बेहतर होगी और तभी समृद्धि तथा चहुमुखी विकास भी संभव हो सकेगा।
कहा जा सकता है कि महामहिम के उद्बोधन में एक तरफ जहाँ गाजीपुर जैसे पिछड़े क्षेत्र के विशेष आलोक में शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक विकास का दर्शन निहित है वहीं दूसरी तरफ इस क्षे़त्र की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की चिंताएं भी है। वरना महामहिम को कहना नहीं पड़ता कि देश भर में चल रहे विकास कार्यों में मुहम्मदाबाद-युसूफपुर का हिस्सा जरूर मिलेगा। आशा की जानी चाहिए कि अगली बार जब भी महामहिम गृह जनपद ग़ाज़ीपुर पधारेंगे तो जनपद वासियों के पास शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का रोना नहीं रहेगा।