Monday, December 6, 2010

6 दिसम्बर: कहीं कुछ असहज सा है! - (भाग-2)

(भाग-2)

"हम तो वसीम और मंजूर थे, जो आज भी हैं। उस बस्ती और फिर स्टेशन की भीड़ में हम विनोद और मोहन कैसे बन गए? किसने बनाया हमें कुछ घण्टों के लिए वसीम से विनोद और मंजूर से मोहन? फिर मैं सोचता हूं कि गुरमित सिंह बग्गा ने क्यों अपने बाल क्यों कटवा लिए थे 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद......"

दिनांक 22 सितम्बर, 2010 दिन बुद्धवार, शाम लगभग 6 बजे यकायक सदर रोड पर पुलिसिया सायरन की तेज आवाज, हर कोई उत्सुकतापूर्वक सड़क को निहारता है। नीले रंग की जीप, सफेद रंग की कार, और इन दो तरह की गाड़ियों की पीछे ढे़र सारी गाड़ियों का काफिला। गाड़ियों के अन्दर बैठे अफसर, खाकी ड्रेस में पुलिस और सेना के जवान, कोइ बैठा हुआ, कोई खड़ा हुआ, कुछ नकाबपोश जवान जिनके हाथों में बन्दूकें हैं, माहौल को और गंभीर कर रहे थे। गाड़ियों के ऊपर जलती-बुझती बत्तियां और आवाज किसी भी कारवां की तरह आगे निकलती जा रही थीं, अपने पीछे एक पसरा हुआ सन्नाटा छोड़ते हुए। कौतुहल लोगों की नज़र काफिले पर और काफिले की नजर लोगों पर। लोगों के अन्दर इतना साहस भी नहीं कि वो अपनी चैखटों को पार करके सड़क पर आते। दोपहर से छाए सन्नाटे के बाद का पहला मंजर था यह, कि कुछ लोगों को छतों पर देखा गया। कफिला गुजरने के बाद सबकुछ एकबार फिर शान्त हो गया।
पुलिसिया सायरन की आवाज में सन्नाटे की ऐसी गूंज मैंने पहली बार इलाहाबाद में सुनी थी, 6 दिसम्बर 1992 को। समय शाम के लगभग 8 बज रहे होंगे। नार्थ मलाका के सिद्दीकी लाज में पहली बार एहसास हुआ कि सन्नाटा क्या होता है। पुलिस की सायरन लगातार बज रही थी और इस बीच लाज के एक कमरे में सभी किराएदार छात्र इकट्ठे रेडियो पर कान लगाए हुए थे। उन दिनों बीबीसी पर प्रसारित होने वाला 7.30 बजे की बुलेटिन का छात्रों में बहुत क्रेज हुआ करता था। एक तरफ सायरन और दूसरी तरफ बीबीसी न्यूज और बन्द कमरे में रेडियो के सामने बैठे हम छात्र। उस समय फोन और मोबाइल का बेलगाम प्रचलन नहीं था, जैसा कि आज है। रेडियो पर प्रसारित होने वाली खबरों में बार-बार बाबरी मस्जिद के विध्वंश की ख़बरें प्रसारित हो रही थीं। मस्जिद के को ध्वस्त करने वाले कार सेवकों, सियासी लीडरों के भड़काउ भाषणों और पत्रकारों के छत-विक्षत हुए कैमरों की बाबत खबरें भी आ रही होती हैं। रात को गुज़रना था, हर दिन की तरह। सुबह होने तक इलाहाबाद के सभी संवेदनशील इलाकों में कफ्र्यू लगाई चुकी थी। हम छात्रों के मन में अनजाना खौफ था और खौफ की इस घड़ी में सुरक्षित घर पहुंचने की फिक्र भी।
7 दिसम्बर, नहीं 8 दिसम्बर को सुबह मैं और मंजूर अली अंसारी रामबाग रेलवे स्टेशन गए, ट्रेन का पता करने के लिए। हमलोग स्टेशन के पिछले गेट से प्लेटफार्म पर पहुंचे। ट्रेन का पता करने के बाद मेन गेट से वापस आ रहे थे कि रामबाग चैराहे पर यकायक तीन-चार पुलिस वाले अपना डंडा लेकर हमारी तरफ दौड़े। मुझे कोई खास चोट नहीं लगी। लेकिन मंजूर भाई की कलाई पर पुलिस की पतली छड़ी पड़ी और कलाई सूज गयी। ड्यूटी पर तैनात पुलिस वालों ने कहा “जानते नहीं बे कि कफ्र्यू लगी है।” तब जाकर हमें पता चला कि रामबाग चैराहा से मुट्ठीगंज और साउथ मलाका को जाने वाली सड़कें कफ्र्यूग्रस्त हैं। हमने एक स्वर में कहा “ट्रेन का पता करने स्टेशन गए थे। हमें मालूम नहीं था कि कफ्र्यू लगी है।” वहां से जल्दी खिसक लेने में ही हमारी भलाई थी।
अब तक समाचारों में सुना था कफ्र्यू के बारे में। आज देख भी लिया। अब समस्या थी शाम को किस मार्ग से स्टेशन पहुंचा जाए। शाम को 7.00 बजे के आस-पास एक ट्रेन थी। डरे-सहमे से हम दोनों ने जौनपुर जाने वाले रेलवे ट्रैक को सुरक्षित मार्ग के रूप में चिन्हित किया। ट्रैक से नीचे उतरकर रामबाग झुग्गी होकर स्टेशन पहुंचना था। डर और खौफ के साए में हम दोनों आगे बढ़ रहे थे। जहां लोग दिखाई दे जाते वहां हम एक दूसरे को उन नामों से पुकारते हुए आगे बढ़ते जिससे हमारी मुस्लिम पहचान छुपी रहे और रामबाग की उस बस्ती के लोग हमें भी अपनी ही बिरादरी या मजहब का समझें।
आज मैं सोचता हूं कि नाम बदलने का बोध हमारे अन्दर कैसे विकसित हुआ। हम तो वसीम और मंजूर थे, जो आज भी हैं। उस बस्ती और फिर स्टेशन की भीड़ में हम विनोद और मोहन कैसे बन गए? किसने बनाया हमें कुछ घण्टों के लिए वसीम से विनोद और मंजूर से मोहन? फिर मैं सोचता हूं कि गुरमित सिंह बग्गा ने क्यों अपने बाल क्यों कटवा लिए थे 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद। ऐसे ही बहुत सारे सवाल हिन्दुस्तान के लाखों-करोणों जनता के मन में आते होंगे। क्यों बाबरी ध्वस्त हुआ? क्यों मुंबई, भोपाल, मेरठ, मलियाना दंगों की चपेट में आए और क्यों गोधरा-गुजरात हुआ? आखिर क्यों? पिछले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश में होने वाले सांप्रदायिक तनाव और दंगे सोचने पर विवश करते हैं कि कहीं कुछ असहज सा है!


समाप्त

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