Sunday, December 5, 2010

6 दिसम्बर: कहीं कुछ असहज सा है! - (भाग - 1)

6 दिसम्बर :कहीं कुछ असहज सा है!
भाग - 1

दिसम्बर का पहला सप्ताह समाप्त हो रहा है। जिंदगी और जिंदगानी की तमाम दैनिक कामों को निपटाने के बाद अपने घोसले में वापस आ चूका हूँ हस्ब-ए-मामूल थकान जिस्म से बाहर झाक रही है। नज़र आज के एक अंग्रेजी दैनिक के फ्रंट पेज पर छपी जे. वेंकटेश की रिपोर्ट पर पड़ती है। इस रिपोर्ट "CBI casual about demolition case, says Supreme court" का पहला पैराग्राफ कुछ इस तरह है "On the 20th anniversary of the pulling down of the Babri Masjid at Ayodhya, the Supreme Court directed the Rae Bareli court to expedite the trial against BJP leader L.K. Advani and others in the demolition case. रिपोर्ट पढते-पढते दो साल पहले 5 दिसम्बर को लिखे हुए उस संस्मरण की याद ताज़ा हो उठी है जिसे मैंने दो हिस्सों में लिखा था। थोड़ी एडिटिंग के बाद संस्मरण का पहला हिस्सा पेश है।

आज से 20 साल पहले आधुनिक भारतीय इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना घटी थी। दिन था 6 दिसम्बर 1992 का। इस तिथि को अयोध्या की बाबरी मस्जिद को कारसेवकों ने ध्वस्त कर दिया था। फिर एक के बाद एक देश भर के कई शहर सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गए। जो खुद को हिंदू समझते थे उन्होंने मुसलमानों को और जो खुद को मुस्लिम समझते थे उन्होंने हिन्दुओं को भरसक नुकसान पहुंचाने की कोशिश की। लेकिन यह भी सच है कि आबादी का एक बड़ हिस्सा जिसमें हिन्दू भी शामिल थे और मुसलमान भी, दंगा-फसाद से अलग था। सांप्रदायिकता और आतंकवाद को लेकर एक मत यह है कि दंगाइयों और आतंकवादियों का कोई मज़हब नहीं होता है। इस मत की मजबूती का एहसास मुझे तब हुआ जब मैं स्टूडेंट लाइफ के दौरान सांप्रदायिकता पर लिखी इकबाल मजीद की एक कहानी पढ़ी। उस कहानी का सार यह था कि दंगाई एक प्रेस रिपोर्टर को पकड़ लेते हैं। दंगाइयों द्वारा उस रिपोर्टर का धर्म पूछा जाता है। लेकिन प्रेस रिपोर्टर द्वारा अपना मज़हब इंसानीयत बताना दंगाइयों के लिए निराशा का सबब बनता है। दंगाई इस जवाब से धर्म संकट में पड़ जाते हैं कि प्रेस रिपोर्ट के धर्म और समुदाय का पता कैसे लगाया जाय? यह पता करने के लिए वो बलपूर्वक प्रेस रिपोर्टर के कपड़े उतारते हैं। जब दंगाई प्रेस रिपोर्टर को बिल्कुल नंगा कर देते हैं तब उन्हें पता चलता है कि वह मीडिया परसन लड़का नहीं एक लड़की है। कहानी का यह सिक्वेंस वास्तव में किसी को भी धर्म संकट में डाल सकता है। अपना मज़हब इंसानीयत बताने वाले रिपोर्टर का मज़हब बता पाना दंगाइयों के लिए असंभव हो जाता है। लेकिन दंगाई निराश नहीं होते। वो बगै़र धार्मिक भेद-भाव के उस मीडिया परसन के साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं और इंसानीयत को खुद का मजहब बताते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि खुद का मजहब इंसानीयत बताने वाली महिला प्रेस रिपोर्ट उनके मज़हब की भी तो हो सकती है।
बहरहाल, कहीनी के उक्त प्रसंग का जिक्र इसलिए किया कि अमूमन दंगे के हालात समाज को दो धड़ों में बांट देते हैं। लेकिन सच्चाई यह होती है कि मंदिर और मस्जिद के नाम पर जान देने और जान लेने वाले लोग सिर्फ उन्मादी और आतताई होते हैं। जैसा कि कहानी के दंगाई हैं। अक्सर दंगों में महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं होती हैं। दंगाइयों को मजहब से सरोकार कम और अपनी हवस को शान्त करने की फिक्र अधिक होती है। कहना नहीं होगा कि 2002 के गुजरात दंगों में भी बड़े पैमाने पर बलात्कार की घटनाएं हुईं।
दंगों के समाजशास्त्र का दूसरा सच यह है कि दंगों में बेरोजगारों के दो-दो हाथ जब हजारों की संख्या में उठते हैं तो वो किसी मंदिर की घण्टी को बजाने के लिए नहीं उठते और न ही किसी मस्जिद में अज़ान देने के लिए उठते हैं बल्कि लूट-पाट, आगजनी और हत्या के लिए उठते हैं। काश ये हाथ रोजगार के लिए, महंगाई रोकने के लिए तथा अन्य सभी तरह की शासन-प्रशासन की विषंगतियों को दूर करने के लिए और इन सबसे अधिक शान्ति और सौहार्द्रय के लिए उठाए जाते। सांप्रदायिक दंगों में खून चाहे जिसका भी हो, जख़्म मानवता के माथे पर ही लगता है।
सितम्बर २०१० में बाबारी मस्जिद-राम जन्म भूमि विवादित स्थल से संबंधित इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने फैसला सुनाया। इस फैसले के आने से पहले देश व्यापी स्तर पर दंगा विरोधी तैयारियां की गयीं। महानगरों से लेकर शहरों तक, शहरों से लेकर कस्बों तक और कस्बों से लेकर गांवों तक हर जगह पुलिसिया कदमताल और सायरन की गूंजती आवाजों ने जनता को सकते में डाल दिया था। समाचारों में बताया जा रहा था, कि शरारती तत्वों को बख्शा नहीं जाएगा। यह भी बताया जा रहा था कि स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है। लेकिन सड़कों पर पसरा सन्नाटा विचार के अवसर भी प्रदान कर रहा था कि रूके हुए फैसले के सुनाए जाने की पृष्ठभूमि में क्या डर, खौफ और आतंक के अवयव होने जरूरी थे?
फैसले का अंतिम दिन 30 सितम्बर 2010  जैसे किस्से-कहानियों में होता है। कुत्ता-बिल्ली भी देखा जा सकना मुश्किल था। पुलिस बल की गाड़ियां और चीर-परिचित सायरन की आवाज़। इस दिन पावर सप्लाई की अबाध आपूर्ति भी चैंकाने वाला नहीं था। हर कोई आसानी से समझ सकता था कि बिजली की अबाध पूर्ति का उद्देश्य लोगों को अधिक-से अधिक समय तक घर के अंदर टी॰ वी॰ के सामने बैठाना था। चूंकि इलेक्ट्रानिक मीडिया मौजूदा दौर में मनोरंजन का पापूलर साधन है। इसलिए इस माध्यम का उपयोग भी भय और खौफ के माहौल को बनाने में सहायक के रूप में किया गया।
कहने को ये तैयारियां शान्ति की अपील का हिस्सा थीं। फैसला सुनाए जा चुकने के बाद मीडिया में इस बात पर जमकर चर्चा-परिचर्चा हुआ कि 1992 के बाद की जो पीढ़ी जवान हो चुकी है उसमें सांप्रदायिक हिंसा और वैमनस्व की भावना नहीं है। यह पीढ़ी अधिक परिवक्व और समझदार है। सवाल यह है कि यदि  बात थी तो फिर शान्ति की अपील के लिए डर और खौफ का माहौल क्यों बनाया गया? क्या 2002 के गुजरात जीनोसाइड इस परिकल्पना के पोल नहीं खोलते। तो फिर सुरक्षा और शान्ति के नाम पर इतना बवाल क्यों खड़ा किया गया कि अबोध बच्चों के चेहरे की रेखाएं भी इस बात की गवाही दे रही थीं कि कहीं कुछ न कुछ असहज सा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये असहजता सांप्रदायिकता की गंभीर होती चुनौतियों का संकेतक हैं?

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