Monday, December 20, 2010

बाल विकास में माँ की भूमिका

" माँ बच्चे की सबसे अच्छी दोस्त होती है जो उसकी हर जरूरत को समझती है और उसे पूरा करने के लिए त्याग और समर्पण के लिए सदा तैयार रहती है। चाहे बच्चे की तोतली आवाज को समझकर उसे दूध पिलाने की बात हो या फिर उसे असमय सुसु कराने के लिए रात में जागने की बात हो या फिर उसे लोरी गाकर सुलाने की बात हो।..........."



माँ, मम, मदर और अम्मा वगैरह संबोधनों का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए किया जाता है जिसे पूरे संसार में जननी के रूप में जाना जाता है। जिसे ग्रंथों में बहुत सम्मान दिया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में यदि माँ के महत्व की बात करें तो माँ को बच्चे की पहली शिक्षिका कहा गया है, चाहे वह खुद औपचारिक रूप से शिक्षित हो या न हो। इस बात को समकालीन शिक्षाविदों ने भी स्वीकार किया है कि लड़की की शिक्षा लड़को के ही समान बल्कि इनसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक है। शिक्षा के व्यापक स्तर पर प्रसार के कारण ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और बौद्धिक जगत में महिलाओं की भूमिका सुनिश्चित हो सकी है। अब लड़कियों की भूमिका महज माँ, बहन और पत्नी तक सीमित नहीं रही है बल्कि अध्यापिका, समाज सेविका और वैज्ञानिक के रूप में भी उनकी पहचान बनी है। लेकिन यह भी सत्य है कि माँ, बहन और पत्नी के रूप में महिलाएं सदियों से उपेक्षा की शिकार रही है। उपेक्षा की मानसिकता के चलते ही जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में माँ के रूप में महिलाओं के योगदान को उचित समाजिक और आर्थिक सम्मान नहीं मिलता। बात करते हैं बाल विकास की जहाँ हर पग पर बच्चें को माँ की उंगलियों की ज़रूरत होती है।
जन्म के समय हर व्यक्ति अबोध बच्चा होता हैं। यूं कहें कि उनमें और जानवर में कोई फर्क नहीं होता है। इस अवस्था में यदि उन्हें जंगल में छोड़ दिया जाए तो उनका व्यवहार ठीक वैसा ही होगा जैसा कि किसी जानवर का होता है। चूंकि मानव समाज सृष्टि की सबसे उत्तम रचना है जिसे भाषा और लिपि का ज्ञान है और जिसके माध्यम से प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से वैचारिक आदान-प्रदान करता है।
किसी अबोध बच्चे को मानव समाज और उसकी विशेषताओं का ज्ञान सबसे पहले उसकी माँ से होता है। शैशवावस्था में बच्चा अपनी माँ से लिपटा रहता है। प्रथमतः वह माँ से ही हंसना, बैठना, खड़ा होना, चलना, बात करना और दूसरे मानवीय गुणों से परिचित होता है। सीखने की यह प्रक्रिया नितान्त अनौपचारिक होते हुए भी बच्चे के लिए पहली पाठशाला की तरह होती है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि बच्चा स्कूल जाने योग्य नहीं हो जाता है। बच्चा जब शैशावस्था से बाल्यावस्था में प्रवेश करता है तो उसे घर से बाहर की दुनिया दिखाई देती है। विशेषकर स्कूल जहां घर के बाद उसका अधिक समय व्यतीत होता है। स्कूल में बच्चे की औपचारिक शिक्षा होती है। किसी बच्चे के लिए स्कूल और वहां का वातावरण बिल्कुल नया होता है। स्कूल में बच्चा अध्यापकों-अध्यापिकाओं और अन्य बच्चों के सम्पर्क में आता/आती है। बच्चे को स्कूली परिवेश से जोड़ने में भाषा संवाद का महत्वपूर्ण माध्यम बनता है। संवाद तभी संभव होता है जब बच्चे में पहले से भाषा सम्बंधित न्यूनतम क्षमता विकसित हो चुकी हो। बच्चे के अंदर इस क्षमता का विकास उसके घर पर होती है। इसमें उसके घर के सभी सदस्यों विशेषकर उसकी माँ का अमूल्य योगदान होता है। यदि हम कल्पना करें कि किसी बच्चे को जन्म के कुछ समय बाद ही किसी बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा दिया जाय जहां उसके लालन-पालन से लेकर उसकी शिक्षा का उत्तम प्रबंध हो तो ऐसे में उस बच्चे के लिए सुख-सुविधा के तमाम साधन उपलब्ध होंगे। उसे भाषा, संवाद और संस्कार सिखाने के लिए पुरूष या स्त्री के रूप में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति अवश्य होगा जिसकी भूमिका माँ के समान ही होती है, लेकिन आर्थिक संबंधों में बंधे होने के कारण वह व्यक्ति माँ की भूमिका का निर्वहन व्यावसायिक रूप से करता/करती है। ऐसी परिस्थिति में बच्चों का लालन-पालन नितान्त औपचारिक और वाणिज्यिक होती है। ध्यान देने की बात है कि बोर्डिंग की फीस अदा करके हम अपने बच्चों को अपने समय की अच्छी सुविधाएं तो उपलब्ध करा सकते हैं लेकिन उन्हें माँ का प्यार और भावनात्मक लगाव नहीं दे सकते।
माँ का महत्व इस दृष्टि से भी है कि शैशवावस्था में बच्चे को सीखाने के लिए सिर्फ उसकी अच्छी बातें या संवाद पर्याप्त नहीं होती है बल्कि उसका ममत्व, वात्सल्य, त्याग और समर्पण की निःस्वार्थ भावना बच्चे को हर पल अपनी माँ से जोड़े रखता है। इस प्रक्रिया में बच्चे का मानसिक विकास स्वाभाविक रूप से हाता है। कई बार ऐसा होता है कि यदि कोई माँ किन्हीं कारणों से अपने बच्चे के साथ पर्याप्त समय व्यतीत नहीं करती या बात-बात पर उस पर गुस्सा करती है तो इससे उसके बच्चे के व्यक्तित्व विकास पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में बच्चे एकाकीपन का शिकार हो जाते है। ऐसे बच्चे सामाजीकरण की प्रक्रिया से अलग-थलग रह जाते हैं। शहरों में ऐसे एकल परिवार देखे जा सकते हैं जहाँ पिता के साथ-साथ माँ भी नौकरी पेशा होती हैं। ऐसी माताओं की भूमिका दायियां निभाती हैं लेकिन माँ की अनुपस्थिति और भावनात्मक लगाव की कमी बनी रहती है। एकाकीपन बच्चे को उन बच्चों के पास ले जाता है जिनके बारे में वह बिल्कुल ही अनभिज्ञ होता है कि फलां लड़का या लड़की की संगत उसके लिए अच्छी है या नहीं। इसका प्रभाव उसके शैक्षिक निष्पादन पर भी पड़ता है। जब परीक्षा में बच्चे का नंबर कम आता है या वह अनुत्तीर्ण हो जाता है तो माँ-बाप बच्चे पर ही सारा दोष आरोपित कर देते हैं लेकिन अपनी गलतियों पर कभी ध्यान नहीं देते।
जाहिर है बच्चों को शैशवावस्था और बाल्यकाल में कोई भी चीज सीखाने और उसके व्यक्तित्व को निखारने में माँ का प्यार और उसका भावनात्मक लगाव अत्यंत आवश्यक होता है। यह सिलसिला लगभग 8 से 10 वर्ष तक जारी रहता है। क्योंकि इस दौरान ही बच्चे में आगामी भविष्य के बीज पड़ते हैं जो बाद में उसकी सफलता के रूप में अंकुरित होते हैं। यदि बच्चा 3 या 4 की बजाय 6 या 8 वर्ष का हो तो भी उसे माँ के ममत्व की आवश्यकता होती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि माता-पिता अपने बच्चे को स्कूल में दाखिल कराकर स्वयं की जिम्मेदारी समाप्त हुआ मान लेते हैं। या यूं भी होता है कि पहला बच्चा यदि 1-2 साल का हुआ हो और इसी दौरान दूसरा बच्चा पैदा हो जाता है तो माता-पिता का ध्यान स्वाभाविक रूप से नवजात शिशु पर अधिक हो जाता है। इन दोनों ही परिस्थितियों में एक बात जो समान है वो यह कि बाल्यावस्था में माँ द्वारा बच्चे के साथ बिताए जाने वाले समय में कमी होती है। ऐसा निरन्तर जारी रहने पर बच्चे के मनोविज्ञान पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है। माँ के ममत्व में अभाव बच्चे के अंदर सीखने की अभिरूचि को कम करता है। ऐसी स्थिति में बच्चा उदास और गुम-सुम रहने लगता है। यहां तक कि खेल-कूद या किसी दूसरे सामूहिक कार्यक्रमों में भाग लेने की उसकी रूचि समाप्त हो जाती है। परिणाम स्वरूप उसका शारीरिक व मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है और भविष्य में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उसे अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है।
स्पष्ट है कि माँ की भूमिका बच्चे के लालन-पालन तक सीमित नहीं होती है। माँ बच्चे की सबसे अच्छी दोस्त होती है जो उसकी हर जरूरत को समझती है और उसे पूरा करने के लिए त्याग और समर्पण के लिए सदा तैयार रहती है। चाहे बच्चे की तोतली आवाज को समझकर उसे दूध पिलाने की बात हो या फिर उसे असमय सुसु कराने के लिए रात में जागने की बात हो या फिर उसे लोरी गाकर सुलाने की बात हो। माँ ही बच्चे के मनोविज्ञान को बेहतर ढ़ंग से समझ पाती है। यही वो कारण हैं जो माँ को बच्चे की पहली शिक्षिका का स्थान प्रदान करते हैं और जिसे विश्व के महान शिक्षाविदों ने भी स्वीकार किया है। इसी महत्व के चलते ही प्रारंभिक शिक्षा में अध्यापन के लिए महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती है।

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