Saturday, December 4, 2010

पुरूष सत्ता और पूंजी सत्ता के बीच जूझती ग्रामीण महिलाएं

महिला समाज को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां रही हैं। उन्हें शिक्षा और प्रत्यक्ष आर्थिक गतिविधियों से सीधे अलग रखा गया। सिर्फ इसलिए कि चुल्हा-चौका और झाड़ू-पोछा तथा पति और बच्चों की सेवा करना ही उनका परम धर्म और कर्तव्य समझा जाता रहा है। लेकिन अब स्थिति काफी बदल चुकी है। शिक्षा, समाज, अर्थ और राजनीति हर क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका पहले की अपेक्षा बढ़ी है। वे औद्योगिक प्रतिष्ठानों, दुकानों, बैंकिंग और रेलवे वगैरह सेवा क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दे रही हैं। आर्थिक क्षेत्र में उनकी बढ़ती भागीदारी हम सबके लिए गर्व की बात है। लेकिन इस सवाल पर हमारा ध्यान नहीं जाता है कि क्या महिलाओं का आर्थिक उत्पादन में भागीदारी सशक्तिकरण के दौर से पहले नहीं रही है ? दरअसल ये बातें सिर्फ शहरी महिला समाज की तस्वीर प्रस्तुत करती है। अगर महिलाओं का सामाजिक व आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी देखनी है, तो हमें गांवों का रूख करना होगा।
ग्रामीण समाज की महिलाएं खेतों में काम करती देखी जा सकती हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी महिलाओं के श्रम को उचित पारितोषिक और सम्मान नहीं मिलता। कुछ गांवों के नाम लेना जरूरी समझता हूँ। इन गांवों की महिलाओं के साहस और हौसले को सलाम करता हूँ। मुहम्मदाबाद ब्लाक के सुरहियां, अदिलाबाद, पड़ैनिया, बखारीपुर, चौबेपुर, हरिहरपुर, हरिबल्लमपुर, तिवारीपुर, बैजलपुर, अहिरौली, सुरतापुर, ईचौली, मालीचक, बेनसागर, डलसागर, जकरौली आदि ऐसे ही गांव हैं जहां की महिलाओं के एक बड़े हिस्से को कभी खेतों में फसल की रोपाई, सोहाई, कटाई और ओसाई करते हुए तो कभी अपने सरों पर कई मन बोझ खेतों से खलिहानों तक पहुंचाते हुए देखा जा सकता है। कहना नहीं है कि इन महिलाओं को कृषि कार्य में महती भूमिका के अलावा दैनिक घरेलू जिम्मेदारियां भी निभानी होती हैं। जैसे, परिवार के सदस्यों के लिए भोजन बनाना, परोसना, बच्चों का लालन-पालन तथा उन्हें समय से तैयार करके स्कूल भेजना और यदि घर में गाय-भैंस जैसे मवेशी है तो उन्हें चारा खिलाना आदि कार्यों को ग्रामीण महिलाएं बखूबी करती हैं। मैं गांव सुरहियां से प्रतिदिन होकर गुज़रता हूं। यहां खेतों में हर छः लोगों की टोली में कम से कम पांच महिलाओं को काम करते देखा है। लेकिन इनके लिए “महिला कृषक” जैसा शब्द प्रयोग में नहीं है। किसान का मतलब पुरूष किसान तक सीमित है। यह महिला समाज के साथ होने वाले लिंग आधारित भेद-भाव का ऐसा उदाहरण है, जो कमोबेश हर गांव में मौजूद है।
इतने योगदान के बाद भी जब मर्द घर में प्रवेश करते हैं तो उनके साथ कठोर व्यवहार करते हैं। जैसे, “क्या! अभी तक रोटी नहीं बनी!, सुबह से क्या कर रही थी ? या “कपड़े अभी तक नहीं धुले! अब मैं निमंत्रण में कैसे जाउंगा ? वगैरह सम्बोधनों से बात करते हैं। सवाल यह है कि सबकुछ देखते-सुनते हुए भी महिलाओं के प्रति ऐसा रवैया क्यों होता है ?
ज़ाहिर है महिलाओं के श्रम से ही पुरूष अपनी सामाजिक पूंजी खड़ा करता है। लेकिन वह स्त्री विरोधी मूल्यों, परंपराओं और संस्थाओं का विरोध नहीं करता। अपने सामाजिक जीवन में महिला समानता और हितों की बात करने वाले गांव-मुहल्लों से लेकर अखबार और टेलीविज़न हर जगह मिल जाएंगें। लेकिन जब पारिवारिक जीवन में उसी समानता को व्यवहार में अपनाने की बात होती है तो कुछ गिने चुने लोग ही महिला अधिकारों के पक्ष में खड़े होने का साहस कर पाते हैं। हममें-आपमें बहुत से ऐसे हैं जो वैचारिक रूप से प्रगतिशील होते हुए भी सामाजिक मान-मर्यादा और पद-प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हैं कि अमुक कदम उठाने पर समाज उन्हें किस निगाह से देखेगा। ऐसे अनेक कारण हैं जो महिलाओं के अधिकारों की बहाली में बाधक बने हुए हैं। हम कभी यह नहीं सोचते कि “समाज क्या कहेगा या समाज किस निगाह से देखेगा” जैसे कारणों के चलते क्या महिलाओं के साथ होने वाले भेद-भाव को अनवरत जारी रहने दिया जाना चाहिए ? किसी भी प्रगतिशील समाज में इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। महिला समानता और सम्मान को सिर्फ शहरी और महानगरीय संदर्भों में नहीं देखा जाना चाहिए। भारतीय आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा छोटे-छोटे गांवों और कस्बों में रहता है और ग्रामीण महिलाएं ग्रामीण भारत ही नहीं बल्कि शहरी भारत की भी रीढ़ की हड्डी हैं। यदि ग्रामीण महिलाएं काम से मुंह मोड़ लें तो संभव है कि अच्छे मानसून में भी हमारे खेतों में फसल न उगे। संभव है कि जिस बल पर हम कृषि में आत्मनिर्भरता का दम भरते हैं वो कड़ी ही टूट जाए। यदि ऐसा हुआ तो उद्योग-धंधों और सेवा क्षेत्र पर पड़ने वाले इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों को क्या रोका जा सकेगा ? ऐसी स्थिति में जीडीपी और मुद्रा स्फिति का क्या हाल होगा ? मंहगाई एक अंकों में रहेगी या दो अंकों की मौजूदा भयावह स्थिति से भी आगे पहुंच जाएगी। किसी अर्थशास्त्री के लिए ऐसी स्थिति और इसके सिक्वेंसेज को समझना आसान हो सकता है लेकिन आम जनता शायद फिर भी इस समझ से दूर ही रहेगी कि महिलाओं का परिवार से लेकर देश की अर्थव्यवस्था में क्या योगदान है ?
आज का भारत चमकता भारत है आज का भारत दमकता भारत है। कहीं कैटरीना-करीना की अदाएं हैं तो कहीं सानिया-साइना के खेल की तारीफ है। हर जगह शिल्पा, ऐश्वर्या और दीपिका पादुकोण की चर्चा है। मदर इंडिया की नरगिस और कर्मा की नूतन अब पुरानी हो चुकी हैं। वैजयंती और रेखा का अभिनय भी फीका पड़ चुका है। अब हमारा देश महिला सशक्तिकरण के दौर में हैं। इस दौर की कहानी गार्नियर और लक्स बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ही लिखना है। क्योंकि इनके पास आर्थिक सुधारों के पिटारे से निकला सौन्दर्य प्रसाधनों को पापुलर करने का विशेषाधिकार है। क्योंकि इन्हें भारतीय महिला जीवन के सौन्दर्य की गाथा उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से लिखना है। क्योंकि इन्हे विभिन्न ब्राण्डों में ही प्राकृतिक सौन्दर्य दिखाई देता है। तभी तो “ये एहसास का मामला है” या “सिर्फ महसूस करें” या “ये अन्दर की बात है” जैसे कैप्शन के साथ उत्पादों का प्रचार जारी है। इनसे कौन बताए कि आज़ादी का अर्थ यह नहीं है कि संचार माध्यमों का उपयोग क्वालिटी प्रोडक्ट के नाम पर “महसूस करें” जैसी उत्तेजना पैदा करने के लिए किया जाय। ज़रा महिला समाज को मेन स्ट्रीम में आने तो दीजिए, फिर देखिए कि उनके एहसासात क्या करवट लेते हैं और क्या नहीं। ज़रा शिक्षित और जागरूक तो होने दीजिए उन्हें फिर वो बताएंगी कि बालों की मजबूती और गोरे रंग का राज़ क्या है ? तब हमें यह भी पता चलेगा कि कई-कई मन बोझ को अपने सरों पर ढ़ोना, तड़के खेतों में पहुंचकर सूर्यास्त होने तक अथक परिश्रम करना, खाना बनाना, कपड़े धुलना, बच्चों की देखभाल करना वगैरह कार्यों को महिलाएं किस तरह करती हैं ?
कहा जाता है कि महिलाएं त्याग और समर्पण की मूरत होती हैं। तो क्या पुरूषों द्वारा इस स्त्री भावना का दोहन ओर शोषण जारी रहना चाहिए ? मनुष्य और मनुष्य के बीच जानबूझकर भेद-भाव नहीं किया जा सकता है। लेकिन भारतीय समाज में महिलाएं शुरू से ही लिंग, जाति और धर्म तीनों ही आधारों पर उपेक्षित रही हैं। यहां बात ग्रामीण महिला समाज की हो रही है तो उक्त तीन आधारों में एक और कारण जोड़ना चाहूंगा। वो यह कि महिलाएं क्षेत्र के आधार पर भी उपेक्षा की शिकार हैं। इस कारण को शहरी बनाम ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं तक मूलभूत संसाधनों की उपलब्धता के रूप में देखा जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो हमारी ग्रामीण महिलाओं को शौच के लिए इस दौर में भी घर से बाहर खेतों और सड़कों का रास्ता नहीं देखना पड़ता।
अब देखिए विकास का पैमाना कहां-कहां और किस तरह छलक रहा है। बात करते हैं ग्रामीण सड़क योजना की। मौजूदा दौर में अधिकतर गांवों तक सम्पर्क मार्ग बन चुका है। लेकिन इसका फायदा महिलाओं को कितना और किस रूप में मिल रहा है, यह विचारणीय प्रश्न है। ऐसे गांवों की कमी नहीं जहां शैक्षिक संस्थान से पहले सौन्दर्य प्रसाधनों के ब्राण्ड पहुंच गए हैं। इन सड़कों का उपयोग हमारी महिलाओं को नगरीय जीवन से जोड़ने में कम बल्कि कॉरपोरेट कल्चर के प्रसार में अधिक हो रहा है। यह कल्चर टी॰वी॰ के माध्यम से पहले ही महिला मानसिकता को अपना गुलाम बना रहा है और फिर अपने संबंधित उत्पादों की पूर्ति कर रहा है। यह कल्चर गांव से अपने सरों पर सब्जियां लेकर नगरों-कस्बों की पदयात्रा करने वाली महिलाओं को नहीं देखता कि उन्हें किसी नाज़ या अयूर के कॉस्मेटिक्स की ज़रूरत है या एक सम्मान परक जीवन की।
तो कहना चाहता हूं कि हमारा समाज तो पहले से ही महिला समाज को बंधनों में रखने और उनके मानसिक तथा दैहिक शोषण के जड़ सिद्धांतों पर खड़ा है। नवउदारवादी सुधारों ने महिला जीवन में कुछ नए रंग भरे जरूर हैं लेकिन उससे कहीं अधिक उन्हें कॉरपोरेट दासता का पाठ पढ़ाया है। उनके जख्मों पर मरहम लगाने के बजाए उसपर नमक ही छिड़का है। सामाजिक ग़ुलामी तो पहले से चली आ रही है, कॉरपोरेट गु़लामी भी उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बनता जा रहा है। कहा जाता है कि जब किसी चुनौती का सामना करने के हालत न हों तो ऐसे में बचाव का रास्ता ही बेहतर होता है। लेकिन रणक्षेत्र में होने वाला यह कोई युद्ध नहीं है और पुरातन मान्यताओं तथा नवउदारवादी चुनौतियों का सामना करना किसी युद्ध से कम भी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में हमारी, आपकी, हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि महिला समाज के मर्म और संवेदना को सही अर्थों में समझें। महज देवियों की अराधना करने से स्त्री सम्मान नहीं बढ़ने वाला। हमें एक साकारात्मक पहल करनी होगी। ऐसे मुहिम का हिस्सा बनना होगा जो मुख्य धारा की मुहिम हो, जो महिला मुक्ति और महिला सम्मान की धारा हो।

3 comments:

  1. Bravo!You have presented very delicate and heart touching aspect of our crude society. Allah Kare Zor-e-Qalam aur bhi zeyada.

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  2. हमारे यहाँ पुरुष सत्ता का जो खेल सम्पत्ति के लिए खेला जाता है, यहाँ सम्पत्ति के लिए महिलाऔं को डायन बना दिया जाता है?

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