Monday, May 28, 2012

आर्थिक सुधारों की विवशता है मूल्य वृद्धि

पेट्रोल की कीमतों में की जाने वाली वृद्धि को पेट्रोलियम मंत्री ने अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक हित के लिए उचित फैसला बताया तो वहीं दूसरी तरफ बढ़ी कीमतों का ठीकरा राज्य सरकारों के सर फोड़ते हुए यही भी कहा गया कि यदि राज्य सरकारें करों में कमी करें तो पेट्रोल सस्ता हो सकता है। तीसरी ओर छुटपुट विरोध-प्रदर्शनों को छोड़ दें तो  मूल्य वृद्धि की खबरें प्रसारित होते ही बाइक और कार सवार उपभोक्ताओं को पेट्रोल पम्पों की ओर कूच करते देखा गया ताकि वो अधिक से अधिक ईंधन संरक्षित कर सकें। यह पहली बार नहीं है कि ईंधन में वृद्धि की गयी है। बल्कि पिछले कुछ बरसों में कभी वैश्विक बाजार में प्रति बैरल पेट्रोलियम ईंधन की कीमतों में वृद्धि तो कभी वैश्विक मंदी को संदर्भित करके ईंधन में वृद्धि की जाती रही है। पेट्रोल कीमतों में हालिया वृद्धि के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए वृद्धि जरूरी थी।

जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था की बात है तो 1991 में इसे राजकोषीय घाटा और मुद्रा स्फीति के संकट से बचाना सबसे बड़ी चुनौती थी। इस निमित्त भूमण्डलीकरण को सबसे अच्छा विकल्प मानकर आर्थिक सुधारों की नीति अपनायी गयी। आर्थिक सुधारों की राह पर पग रखते हुए यह कहा गया था कि इस नीति के बदौलत आने वाले समय में अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। लेकिन पिछले दो दशकों के अनुभव बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में कमोबेश उतार-चढ़ाव को छोड़ दिया जाए तो इसके नाकारात्मक परिणाम ही अधिक रहे हैं। यह बात अलग है कि संवृद्धि को ही सम्पूर्ण विकास मानने वाले अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों की नज़र में देश पहले से खुशहाल और समृद्ध हुआ है। लेकिन सामाजिक संदर्भों में देखा जाए तो अमीरी और गरीबी की खाई पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। दूसरी तरफ मंहगाई कब एक से दो अंकों में पहुंच जाती है इसका पता आम जनता को नहीं होता। जाहिर है पेट्रोल कीमतों में लगातार वृद्धि को सही ठहराने के लिए एक बार फिर 1991 जैसे ही तर्कों का सहारा लिया जा रहा है कि आने वाले समय में देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। एक आम नागरिक की हैसियत से इस सवाल को आपके बीच रखना चाहता हूं कि वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से अर्थव्यवस्था को यदि वास्तव में मजबूती मिलती है और समाज के हर तबके तक विकास की धारा पहुंचती है तो कहना नहीं होगा कि पिछले दो दशक में तमाम वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। लेकिन दुःखद है कि मंहगाई ही अर्थव्यवस्था की मजबूती की शर्त है तो आसमान छूती मंहगाई के इस दौर में भी देश की अर्थव्यवस्था आखिर क्यों संकटों से घिरी हुई है?

गौर तलब है कि राज्य सरकारों को करों में कमी करके मूल्य वृद्धि से राहत दिलाने का तर्क देकर न सिर्फ वृद्धि से ध्यान हटाने की कोशिश हो रही है बल्कि मूल्य वृद्धि के फैसले को वापस लेने के सरोकार की संभावनाओं को भी सिरे से नकारा जा रहा है। पूरी बहस इस बिन्दु पर केन्द्रित है कि यदि राज्य सरकारें चाहें तो पेट्रोलियम ईंधन पर करों में कमी करके पेट्रोल कीमतों को कम कर सकते हैं। ध्यान देना होगा कि एक तरफ केन्द्र सरकार मुक्त बाजार के सिंद्धांतों या यूं कहें कि आर्थिक सुधारों की विवशता के कारण तेल कम्पनियों पर नियंत्रण समाप्त करने की दिशा में अग्रसर है वहीं दूसरी तरफ वृद्धि के फैसले खुद करके राज्य सरकारों को अपने करों में कमी करने का सुझाव भी दे रही है। निश्चित तौर पर पेट्रोलियम उत्पादों पर राज्य द्वारा वैट की दर कम किए जाने की भी जरूरत है। लेकिन यह भी तय होना चाहिए कि इस कमी के बाद पेट्रोल जैसे ईंधन उचित मूल्य पर उपलब्ध होने लगेंगे?

पेट्रोलियम कंपनियों का हाल यह है कि ये नियंत्रणहीनता और मुनाफा चाहती हैं। अर्थशास्त्रीय शब्दावली में कहा जाए तो हानि की स्थिति में कोई भी व्यापारिक प्रतिष्ठान अधिक दिनों तक सेवा नहीं दे सकता है। लेकिन मुक्त बाजार के सिद्धांतों के अनुरूप लिया जाने वाला हर फैसला मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति को न सिर्फ बढ़ावा दे रहा है बल्कि आम जनता तक संसाधनों की पहुंच में रूकावट पैदा कर रहा है। इस बात को इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जब-जब पेट्रोल या डीजल जैसे ईंधनों में वृद्धि होती है इसका प्रभाव यातायात किराया पर भी पड़ता है। विशेषकर गांव से कस्बों और कस्बों को शहरों से जोड़ने वाले यातायात पर। अनुमानतः 20 किमी की यात्रा के लिए एक आम व्यक्ति को कम से कम 20 रूपए का भुगतान करना पड़ता है। वो भी वैसे स्थानों पर जहां नियमित रूप से यातायात संसाधन उपलब्ध हैं।

कुछ बातें मीडिया की भी हो जाए। मीडिया को पेट्रोल पम्पों पर कार सवारों और बाइक सवारों की भीड़ आसानी से नजर आ जाती है। लेकिन बसों और रेलगाडि़यों की भीड़ जो हर दिन हर बस और रेलगाड़ी में जानवरों की मानिन्द सफर करती है, उस भीड़ की ओर कैमरा घुमाना और प्रसारण दिक्कत तलब काम होता है। कहना नहीं है कि ईंधन की कीमतों में वृद्धि यातायात संसाधनों की सिमित सुलभता जैसी स्थिति में यातायात संकट को अधिक गहराने वाला फैसला है। ऐसे में यदि कोई गरीब यदि समय रहते इलाज के लिए अस्पताल न पहुंच पाने के कारण दम तोड़ दे तो हैरानी की बात नहीं। कोई आम व्यक्ति अपने किसी प्रिय संबंधी या शुभचिंतक का कुशलक्षेम पूछने दस-बीस किमी की यात्रा न कर पाए तो भी हैरान होने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए इनकी भावनाओं की अवहेलना और त्याग आवश्यक है। पेट्रोल पम्पों पर भीड़ लगाकर टंकी फुल करवाने वालों का क्या! वो तो क्षणिक राहत प्राप्त करने के अभ्यस्त हो चुके हैं। विरोध-प्रदर्शन तो बस राजनीतिक क्षमता प्रदर्शन तक सिमित होकर रह गया है। वरना संसद में बैठ प्रतिनिधियों से आंख चुराकर किसी भी सरकार के लिए जनविरोधी फैसले लेना आसान काम नहीं है।

कैनविज टाइम्स, 29 मई, 2012

Monday, May 7, 2012

निजी विद्यालयों में सीट आरक्षण के मायने

उच्चतम न्यायालय ने एक फैसले मेें निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 को सही ठहराते हुए सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के साथ-साथ सहायता प्राप्त अल्पसंखयक विद्यालयों में भी दाखिले में समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करने संबंधी प्रावधान को उचित बताया है। ज्ञात हो कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के कुछ प्रावधानों पर बहस होती रही है। इनमें अल्पसंख्यक विद्यालयों को इस कानून के दायरे में लाना और निजी विद्यालयों में अधिनियम को प्रभावी ढ़ंग से लागू कराना आदि प्रमुख मुद्दे रहे हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट के हालया फैसले के आलोक में यह देखना होगा कि निजी विद्यालयों में सीट आरक्षण के जरिए समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों का किस प्रकार और किस हद तक भला हो पाता है?
सीट आरक्षण के प्रावधान को यदि राष्ट्रीय संदर्भ देखा जाए तो सातवें अखिल भारतीय शिक्षा सर्वेक्षण के अनुसार प्राथमिक स्तर पर देश के महज 11.24 प्रतिशत निजी विद्यालय ही इस दायरे में आते है। जिनमें 3.62 प्रतिशत सहायता प्राप्त एवं 7.62 प्रतिशत गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालय हैं। जबकि 88.73 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय सरकार या स्थानीय निकायों द्वारा संचालित किए जाते हैं। ऐसे में सीट आरक्षण के मामले पर संदेह लाज़मी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस बहाने निजी विद्यालयों की साख को मजबूत करने की कोशिश की जा रही है, ताकि मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं की पूर्ति हो सके। यानि एक पन दो काज। 88.73 प्रतिशत विद्यालयों में शिक्षा के संसाधनों को बेहतर बनाने और उनके सुचारू संचालन के बजाए 11.24 प्रतिशत निजी विद्यालयों पर ध्यान केन्द्रित करना कहीं न कहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की जिम्मेदारियों से सरकार के विमुख होने का संकेतक है।
बहरहाल निजी स्कूलों के आस्तित्व और मौजूदा दौर की शिक्षण व्यवस्था में उनकी भूमिका को नकारा भी नहीं जा सकता है। खासकर केरल जैसे राज्यों में जहां 58.50 प्रतिशत सहायता प्राप्त तथा 2.07 गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालय हैं। इस राज्य में सरकारी और स्थानीय निकायों द्वारा संचालित विद्यालय क्रमशः 38.04 और 1.37 प्रतिशत है। केरल दक्षिण भारतीय राज्य है और वहां साक्षरता की दर भी सर्वाधिक है। वहां के संदर्भों के साथ इस विषय पर अलग से बात की जा सकती है। फिलहाल बात करते हैं उत्तर प्रदेश की, जहां सहायता प्राप्त निजी विद्यालयों की संख्या 2.33 प्रतिशत और गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालयों की संख्या 20.62 प्रतिशत है। ज़ाहिर है देश के सबसे बड़े राज्य में प्राथमिक शिक्षा में निजी विद्यालयों की संख्या और भूमिका दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। शायद यही वजह है राज्य के निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीट आरक्षण का मामला महत्वपूर्ण है।
जब संख्या और भूमिका महत्वपूर्ण है तो फिर यह भी समझने की जरूरत है कि निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षित सीटों पर प्रवेश पाने वाले बच्चों की कमजोरी और वंचना को परिभाषित कैसे किया जाएगा। यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि निजी स्कूलों की फीस में काफी विविधता है। प्रदेश में पचास रूपए से लेकर ढ़ाई तीन हजार प्रति माह वाले स्कूल आस्तित्व में हैं। तय करना होगा कि 50 रूपए फीस का भुगतान करने वाले परिवारों के लिए सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर एवं वंचित होने के क्या मायने हैं और पचास-सौ से लेकर ढ़ाई-तीन हजार रूपए भुगतान करने वाले परिवारों के लिए सामाजिक वंचना क्या होती है? यदि सैनिकों के बच्चों की शिक्षा पर केन्द्र सरकार द्वारा की जाने वाली मासिक राशि के भुगतान की बात करें तो यह राशि प्रति बच्चा लगभग 1000 रूपए है। यदि इसे माॅडल बनाया जाए तो फिर इसमें संशय नहीं कि 1000 से अधिक राशि के फीस वाले निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत कमजोर और वंचित परिवारों के बच्चों का स्वतः बहिष्करण कोई नहीं रोक सकता। शिक्षा का अधिकार कानून में उल्लेख है कि सरकार द्वारा निर्धारित राशि अथवा स्कूल की फीस जो भी कम हो उतनी राशि वापस की जाएगी। इस युक्ति को बी.पी.एल. से जोड़ कर भी देखा जा सकता है। क्योंकि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों को चिन्हित करने के लिए संभावित मानक के तौर पर या तो बी.पी.एल. परिवारों को पात्रता दी जाय या पात्रता के लिए आय की सीमा निर्धारित की जाए। चूंकि बी.पी.एल. कार्ड को लेकर पहले ही धोखाधड़ी की ढ़ेरों प्रकरण प्रकाश में आ चुके हैं। कई मामले तो ऐसे भी हैं जिनमें अपात्र परिवारों को बी.पी.एल. कार्ड जारी किए गए हैं। अनाज, तेल और 30000 हजार रूपए के मुफ्त इलाज के लिए जो लोग निर्धनों और वंचितों का हक मारने से जरा भी नहीं हिचकते, संभव है ऐसे लोग नामी विद्यालयों में कमजोर और वंचित का रूप धारण कर अपने अपने बच्चों का दाखिला कराने की हिमाक़त करें। याद रहे कि जब नब्बे के दशक में मंडल के तहत ओ.बी.सी. आरक्षण लागू हुआ था तो हमारे जागरूक होते समाज में ऐसे प्रकरण सामने आए थे, जहां देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में फर्जी प्रमाण पत्र के माध्यम से बहुतेरे लोगों ने आरक्षण का लाभ प्राप्त किया था।
शिक्षा विकास की कुंजी है। मौजूदा प्रतिस्पर्धी माहौल में गुणवत्तापरक शिक्षा दिलाना हर माता-पिता का सपना है। होना भी चाहिए। लेकिन जिस तेजी से शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ है, उससे जागरूक-चेतित लोगों की निर्भरता निजी विद्यालयों पर बढ़ी है। दुःख की बात है कि जागरूक और चेतित लोगों में कम ही ऐसे हैं जिनकी मानसिकता में परिमाणात्मक बदलाव आया है। यहां तो सारा खेल नम्बर वन का बना दिया गया है। शिक्षा में सीखो-सीखो के बजाय मुनाफा-मुनाफा का खेल खेला जा रहा है। मुनाफा के खेल ने शिक्षण व्यवस्था में वर्गीय चरित्र को ही विकसित किया है। इसी वजह से इस बात को बल मिलता है कि कोई निजी विद्यालय जो वर्गीय चरित्र के सिद्धांतों पर स्थापित और विकसित हुआ है, वो आसानी से समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों को व्यवहार रूप में अपनाना नहीं चाहेगा। मौजूदा हालात को देखते हुए जरूरी है कि निजी विद्यालय प्रबंधन की संवेदना को जगाया जाए। तभी शिक्षा का अधिकार कानून का प्रभावी क्रियान्वयन संभव हो सकेगा और 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करने संबंधी प्रावधान के साकारात्मक परिणाम भी आ सकेंगे।
22 अप्रैल 2012, कैनविज टाइम्स लखनऊ

मन के विज्ञान से हताहत होती बेटियां


पिछले माह बंगलोर की आफरीन के साथ जो कुछ हुआ उससे एक बार फिर साफ हो गया है कि अग्नि 5 तक का सफर तय कर चुका हमारा देश सामाजिक जीवन में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में अभी बहुत पीछे है। कहने को शिक्षा और साक्षरता निरन्तर बढ़ रही है। फिर भी बच्चियों, बेटियों और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। तीन माह की आफरीन की मृत्यु ऐसी ही भेदभाव जनित घटनाओं की एक कड़ी है। ऐसी घटनाओं का विरोध, निन्दा और लिंगभेद से जुड़े कारकों पर विद्वता पूर्वक बहस भी होती है। लेकिन सबकुछ के बाद आए दिन होने वाली घटनाएं कहीं न कहीं सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में लिंगभेद के खिलाफ होने वाली कोशिशों की नाकामी की ओर इशारा करते हैं। यही वजह है कि लिंगभेद को जन्म देने वाले कारकों पर बार-बार ध्यान जाता है। बेटियों के प्रति मौजूदा दौर में बढ़ती हिंसात्मक घटनाओं के मद्दे नज़र ज़रूरी हो जाता है कि लिंगभेद के कारणों पर नए सिरे से गौर किया जाए, कि आखिर किन परिस्थितियों में मानव मन में लिंगभेद की इच्छाएं आकार लेती हैं और देखते-देखते किसी आफरीन या फलक को मौत के दहाने पर पहुंचा देती हैं।

इतिहास का अवलोकन किया जाए तो प्राचीन काल में अपाला, घोषा और लोपा जैसी विदुषी महिलाओं का उल्लेख आता है। सल्तनत काल में रजिया सुल्ताना और फिर मुगल काल में नूरजहां, अरजुमंद बानो बेगम जैसी महिलाओं ने राजनीति और साहित्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति आंदोलन के दौरान साध्वी महिलाएं भी हुयीं। 19वीं-20वीं सदी से होते हुए अब 21वीं सदी में सामाजिक जीवन में महिलाओं की भूमिका में एक बार फिर बदलाव देखा जा सकता है। यह सिलसिला महिला सशक्तिकरण से भी जुड़ता है। लेकिन फलक और आफरीन के केस से स्पष्ट है कि बेटियों के खिलाफ समाज का रवैय्या अभी भी सख्त है। बदलाव सिर्फ स्वरूप में हुआ है। पुराने ज़माने में बच्चियों को जिंदा दफनाने के उदाहरण मिलते हैं तो मौजूदा वैज्ञानिक दौर में वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग कर बच्चियों को गर्भ में मारने की घटनाएं हो रही हैं। कहना नहीं है कि जहां गुरबत का साया होता है वहां बच्चियों को लावारिश छोड़ने या फिर क्रूरता पूर्वक पिटाई या अन्य तरह की पाबन्दियां सामान्य बातें होती हैं। फलक और आफरीन दर असल समाज के उन परिवारों से थीं जो धार्मिक और आर्थिक रूप से भ्रूण परिक्षण नहीं करवा सकते थे। यह बात परिकल्पनात्मक ज़रूर है लेकिन सत्य से दूर नहीं है। यदि ये बच्चियां किसी रईस परिवार की किसी महिला की कोख में रही होतीं या उमर फारूक खुद कोई रईस होता तो शायद उसकी पुत्र प्राप्ति की इच्छा के चलते आफरीन जैसी बच्ची की भ्रूण में ही हत्या की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जैसा कि अन्य बहुत से मामलों में हो रहा है।

बहरहाल बात करते हैं उन कारणों की जिनके चलते बेटियों का जीवन असुरक्षित है। कुछ लोग अल्ट्रासाउण्ड सोनाग्राफी मशीनों को तो कुछ लोग व्यक्ति विशेष को जिम्मेदार मानते हैं। यदि आफरीन के केस की बात करें तो उसकी मौत की असल वजह उसके पिता उमर फाररूक की पुत्र प्राप्ति की चाह थी। पहली नज़र में उसके पिता उमर फारूक को गुनहगार माना जाना अपनी जगह सर्वथा उचित है। उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही और सजा भी उचित है।ऐसी सजा, जो समाज के शेष लोगों के लिए न भूलने वाली नज़ीर बन जाए। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती क्योंकि यह मामला लिंगभेद का भी है और सिर्फ एक उमर फारूक को जेल भेजने भर से लिंगभेद की समस्या का स्थाई समाधान नहीं होने वाला। क्योंकि उमर फारूक जैसे व्यक्तियों को गुनहगार बनाने वाले कारक कहीं न कहीं किसी स्रोत से पैदा होते हैं और समय-समय पर उमर फारूक जैसे व्यक्तियों के मन का विज्ञान बनाते हैं। इसलिए इस पक्ष पर ध्यान दिए बगैर ऐसे मामलों में किसी अन्तिम निष्कर्ष पर पहुंचना तार्किक नहीं है। विशेषकर ऐसे में जब पुत्र प्राप्ति के लिए प्रेरित करने वाले कारक अदृश्य और अप्रत्यक्ष हों और जिन्हें कानूनन सबूत के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता हो। दरअसल उमर फारूक जैसे व्यक्ति भी तो इसी समाज के पैदावार हैं। स्त्रीवादी व्याख्या के अनुसार पुरूष सत्ता के केन्द्र से ही लिंगभेद का प्रत्यक्ष और परोक्ष संचालन होता है। फिर भी हमें देखना होगा कि इस सत्ता के केन्द्र को पोषण कहां से प्राप्त होता है? इसलिए कानूनी कार्यवाही के साथ-साथ सामाजिक कार्यवाही भी ज़रूरी हो जाता है। मेरा मतलब समाजिक कार्यवाही के नाम पर खाप पंचायत जैसी किसी संस्था या संगठन से नहीं है। बल्कि व्यापक सामाजिक संदर्भों में उन परिस्थितियों के गहन अध्ययन से है जिनके चलते कभी गर्भ में ही बच्चियों का गला घोंट दिया जाता है तो कभी तीन माह की बच्चियों की हत्या होती है या फिर तीन साल की बच्चियों का बलात्कार और फिर हत्या होती है।

असुरक्षा और खौफ हमारे सामाजिक संरचना के खास तत्व हैं। बेटियों को शुरू से ही सार्वजनिक स्थलों और क्रियाकलापों से अलग रखने के पीछे सबसे बड़ा कारण असुरक्षा और खौफ का वातावरण ही है। यह कारण पारिवारिक से अधिक सामाजिक इसलिए है क्योंकि जो लड़की परिवार में एक ही छत के नीचेे सुरक्षित रहती है, घर से बाहर निकलते ही पग-पग पर उसे असुरक्षा का सामना करना पड़ता है। इसी तरह परिवार में जिन लड़कों का घर की महिलाओं के प्रति व्यवहार अच्छा होता है, वो घर से बाहर निकलते ही अपने सामाजिक दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह है समाज का व्यक्ति केन्द्रीत सोच है। मौजूदा दौर में विकास के जो माॅडल स्थापित हुए हैं उसमें व्यक्ति, परिवार और समाज की कल्पना “मैं” तक सिमट कर रह गयी है। ऐसे में सामाजिक स्तर पर संवेदनाओं का टूटना-बिखरना स्वाभाविक है। ऐसे में कोई भी गंभीर घटना सिर्फ भुक्तभोगी परिवार के लिए ही दुःख का कारण बनता है। शेष सामाजिक प्राणियों को न तो कोई हमदर्दी होती है और न ही कोई संवेदना। गौरतलब है कि व्यक्तिवादी सोच को बढ़ाने में नई आर्थिक सुधार और इससे जनित उपभोक्तावादी संस्कृति की अहम भूमिका रही है।

ज़ाहिर है संवेदनाएं टूट रही हैं, असुरक्षा बढ़ रही है। शायद इसकी वजह भी पुरूष सत्ता के केन्द्र में ही है। वरना कैसे संभव है कि जो व्यक्ति अपने घर में उचित व्यवहार करता है, वही व्यक्ति घर से बाहर निकलते ही बेलगाम कैसे हो जाता है? व्यक्ति का सामाजिक ताने-बाने में बेलगााम होना ही पुरूष सत्ता को मजबूत करता है। जहां से अन्य व्यक्ति भय और भविष्य की असुरक्षा प्राप्त करते हैं। असुरक्षा की बलवती होने वाली यह भावना ही पुत्र प्राप्ति की चाह को बढ़ाता है। ऐसी स्थिति में खानदान का चिराग, बुढ़ापे का सहारा, परिवार का रक्षक आदि पुरातन मान्यताएं और मजबूत होती हैं। फिर कोई अनपढ़-गंवार हो या पढ़ा-लिखा संभ्रांत दोनों ही बेटियों को दोयम दर्जे की सन्तान मानने की गलती करते हैं। यह मानना ही माता-पिता के मन में बेटियों के प्रति दोहरे व्यवहार का मनोविज्ञान तैयार करता है। जिसके परिणाम भू्रण हत्या से लेकर बलात्कार जैसी घटनाओं के रूप में सामने आता है।

उक्त संदर्भ में उचित यही है कि असुरक्षा को कम करने के लिए सुरक्षा के उपबंध करने के बजाए असुरक्षा को जन्म देने वाले सामाजिक कारकों पर चोट किया जाए। यह किसी एक का दायित्व नहीं है। इस कार्य को करने में व्यक्ति-व्यक्ति की अपनी भूमिका है। सुविधाभोग के नाम पर यदि व्यक्ति इस भूमिका से और अधिक विमुख होगा तो इसका खमियाजा भी उसे भुगतना होगा। खासकर ऐसे समय में जबकि उत्तर प्रदेश सहित देश के अन्य कई राज्यों में बाल लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गयी हो और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून अपने भारत दौरे के अवसर पर मुम्बई में बाल लिंगानुपात और शिशु मृत्युदर पर चिंता व्यक्त कर रहे हों, तो ज़रूरी हो जाता है कि मौजूदा दौर की सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक परिस्थितियों में लिंगभेद को समाप्त करने के लिए जनमानस की संवेदनाओं को जगाया जाए। वरना उपभोक्तावाद की राह पर तीव्र गति से आगे बढ़ते समाज के पास पछताने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा।

७ मई २०१२, कैनविज़ टाईम्स, लखनऊ