Monday, May 7, 2012

निजी विद्यालयों में सीट आरक्षण के मायने

उच्चतम न्यायालय ने एक फैसले मेें निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 को सही ठहराते हुए सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के साथ-साथ सहायता प्राप्त अल्पसंखयक विद्यालयों में भी दाखिले में समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करने संबंधी प्रावधान को उचित बताया है। ज्ञात हो कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के कुछ प्रावधानों पर बहस होती रही है। इनमें अल्पसंख्यक विद्यालयों को इस कानून के दायरे में लाना और निजी विद्यालयों में अधिनियम को प्रभावी ढ़ंग से लागू कराना आदि प्रमुख मुद्दे रहे हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट के हालया फैसले के आलोक में यह देखना होगा कि निजी विद्यालयों में सीट आरक्षण के जरिए समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों का किस प्रकार और किस हद तक भला हो पाता है?
सीट आरक्षण के प्रावधान को यदि राष्ट्रीय संदर्भ देखा जाए तो सातवें अखिल भारतीय शिक्षा सर्वेक्षण के अनुसार प्राथमिक स्तर पर देश के महज 11.24 प्रतिशत निजी विद्यालय ही इस दायरे में आते है। जिनमें 3.62 प्रतिशत सहायता प्राप्त एवं 7.62 प्रतिशत गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालय हैं। जबकि 88.73 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय सरकार या स्थानीय निकायों द्वारा संचालित किए जाते हैं। ऐसे में सीट आरक्षण के मामले पर संदेह लाज़मी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस बहाने निजी विद्यालयों की साख को मजबूत करने की कोशिश की जा रही है, ताकि मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं की पूर्ति हो सके। यानि एक पन दो काज। 88.73 प्रतिशत विद्यालयों में शिक्षा के संसाधनों को बेहतर बनाने और उनके सुचारू संचालन के बजाए 11.24 प्रतिशत निजी विद्यालयों पर ध्यान केन्द्रित करना कहीं न कहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की जिम्मेदारियों से सरकार के विमुख होने का संकेतक है।
बहरहाल निजी स्कूलों के आस्तित्व और मौजूदा दौर की शिक्षण व्यवस्था में उनकी भूमिका को नकारा भी नहीं जा सकता है। खासकर केरल जैसे राज्यों में जहां 58.50 प्रतिशत सहायता प्राप्त तथा 2.07 गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालय हैं। इस राज्य में सरकारी और स्थानीय निकायों द्वारा संचालित विद्यालय क्रमशः 38.04 और 1.37 प्रतिशत है। केरल दक्षिण भारतीय राज्य है और वहां साक्षरता की दर भी सर्वाधिक है। वहां के संदर्भों के साथ इस विषय पर अलग से बात की जा सकती है। फिलहाल बात करते हैं उत्तर प्रदेश की, जहां सहायता प्राप्त निजी विद्यालयों की संख्या 2.33 प्रतिशत और गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालयों की संख्या 20.62 प्रतिशत है। ज़ाहिर है देश के सबसे बड़े राज्य में प्राथमिक शिक्षा में निजी विद्यालयों की संख्या और भूमिका दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। शायद यही वजह है राज्य के निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीट आरक्षण का मामला महत्वपूर्ण है।
जब संख्या और भूमिका महत्वपूर्ण है तो फिर यह भी समझने की जरूरत है कि निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षित सीटों पर प्रवेश पाने वाले बच्चों की कमजोरी और वंचना को परिभाषित कैसे किया जाएगा। यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि निजी स्कूलों की फीस में काफी विविधता है। प्रदेश में पचास रूपए से लेकर ढ़ाई तीन हजार प्रति माह वाले स्कूल आस्तित्व में हैं। तय करना होगा कि 50 रूपए फीस का भुगतान करने वाले परिवारों के लिए सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर एवं वंचित होने के क्या मायने हैं और पचास-सौ से लेकर ढ़ाई-तीन हजार रूपए भुगतान करने वाले परिवारों के लिए सामाजिक वंचना क्या होती है? यदि सैनिकों के बच्चों की शिक्षा पर केन्द्र सरकार द्वारा की जाने वाली मासिक राशि के भुगतान की बात करें तो यह राशि प्रति बच्चा लगभग 1000 रूपए है। यदि इसे माॅडल बनाया जाए तो फिर इसमें संशय नहीं कि 1000 से अधिक राशि के फीस वाले निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत कमजोर और वंचित परिवारों के बच्चों का स्वतः बहिष्करण कोई नहीं रोक सकता। शिक्षा का अधिकार कानून में उल्लेख है कि सरकार द्वारा निर्धारित राशि अथवा स्कूल की फीस जो भी कम हो उतनी राशि वापस की जाएगी। इस युक्ति को बी.पी.एल. से जोड़ कर भी देखा जा सकता है। क्योंकि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों को चिन्हित करने के लिए संभावित मानक के तौर पर या तो बी.पी.एल. परिवारों को पात्रता दी जाय या पात्रता के लिए आय की सीमा निर्धारित की जाए। चूंकि बी.पी.एल. कार्ड को लेकर पहले ही धोखाधड़ी की ढ़ेरों प्रकरण प्रकाश में आ चुके हैं। कई मामले तो ऐसे भी हैं जिनमें अपात्र परिवारों को बी.पी.एल. कार्ड जारी किए गए हैं। अनाज, तेल और 30000 हजार रूपए के मुफ्त इलाज के लिए जो लोग निर्धनों और वंचितों का हक मारने से जरा भी नहीं हिचकते, संभव है ऐसे लोग नामी विद्यालयों में कमजोर और वंचित का रूप धारण कर अपने अपने बच्चों का दाखिला कराने की हिमाक़त करें। याद रहे कि जब नब्बे के दशक में मंडल के तहत ओ.बी.सी. आरक्षण लागू हुआ था तो हमारे जागरूक होते समाज में ऐसे प्रकरण सामने आए थे, जहां देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में फर्जी प्रमाण पत्र के माध्यम से बहुतेरे लोगों ने आरक्षण का लाभ प्राप्त किया था।
शिक्षा विकास की कुंजी है। मौजूदा प्रतिस्पर्धी माहौल में गुणवत्तापरक शिक्षा दिलाना हर माता-पिता का सपना है। होना भी चाहिए। लेकिन जिस तेजी से शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ है, उससे जागरूक-चेतित लोगों की निर्भरता निजी विद्यालयों पर बढ़ी है। दुःख की बात है कि जागरूक और चेतित लोगों में कम ही ऐसे हैं जिनकी मानसिकता में परिमाणात्मक बदलाव आया है। यहां तो सारा खेल नम्बर वन का बना दिया गया है। शिक्षा में सीखो-सीखो के बजाय मुनाफा-मुनाफा का खेल खेला जा रहा है। मुनाफा के खेल ने शिक्षण व्यवस्था में वर्गीय चरित्र को ही विकसित किया है। इसी वजह से इस बात को बल मिलता है कि कोई निजी विद्यालय जो वर्गीय चरित्र के सिद्धांतों पर स्थापित और विकसित हुआ है, वो आसानी से समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों को व्यवहार रूप में अपनाना नहीं चाहेगा। मौजूदा हालात को देखते हुए जरूरी है कि निजी विद्यालय प्रबंधन की संवेदना को जगाया जाए। तभी शिक्षा का अधिकार कानून का प्रभावी क्रियान्वयन संभव हो सकेगा और 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करने संबंधी प्रावधान के साकारात्मक परिणाम भी आ सकेंगे।
22 अप्रैल 2012, कैनविज टाइम्स लखनऊ

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