Monday, May 28, 2012

आर्थिक सुधारों की विवशता है मूल्य वृद्धि

पेट्रोल की कीमतों में की जाने वाली वृद्धि को पेट्रोलियम मंत्री ने अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक हित के लिए उचित फैसला बताया तो वहीं दूसरी तरफ बढ़ी कीमतों का ठीकरा राज्य सरकारों के सर फोड़ते हुए यही भी कहा गया कि यदि राज्य सरकारें करों में कमी करें तो पेट्रोल सस्ता हो सकता है। तीसरी ओर छुटपुट विरोध-प्रदर्शनों को छोड़ दें तो  मूल्य वृद्धि की खबरें प्रसारित होते ही बाइक और कार सवार उपभोक्ताओं को पेट्रोल पम्पों की ओर कूच करते देखा गया ताकि वो अधिक से अधिक ईंधन संरक्षित कर सकें। यह पहली बार नहीं है कि ईंधन में वृद्धि की गयी है। बल्कि पिछले कुछ बरसों में कभी वैश्विक बाजार में प्रति बैरल पेट्रोलियम ईंधन की कीमतों में वृद्धि तो कभी वैश्विक मंदी को संदर्भित करके ईंधन में वृद्धि की जाती रही है। पेट्रोल कीमतों में हालिया वृद्धि के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए वृद्धि जरूरी थी।

जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था की बात है तो 1991 में इसे राजकोषीय घाटा और मुद्रा स्फीति के संकट से बचाना सबसे बड़ी चुनौती थी। इस निमित्त भूमण्डलीकरण को सबसे अच्छा विकल्प मानकर आर्थिक सुधारों की नीति अपनायी गयी। आर्थिक सुधारों की राह पर पग रखते हुए यह कहा गया था कि इस नीति के बदौलत आने वाले समय में अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। लेकिन पिछले दो दशकों के अनुभव बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में कमोबेश उतार-चढ़ाव को छोड़ दिया जाए तो इसके नाकारात्मक परिणाम ही अधिक रहे हैं। यह बात अलग है कि संवृद्धि को ही सम्पूर्ण विकास मानने वाले अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों की नज़र में देश पहले से खुशहाल और समृद्ध हुआ है। लेकिन सामाजिक संदर्भों में देखा जाए तो अमीरी और गरीबी की खाई पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। दूसरी तरफ मंहगाई कब एक से दो अंकों में पहुंच जाती है इसका पता आम जनता को नहीं होता। जाहिर है पेट्रोल कीमतों में लगातार वृद्धि को सही ठहराने के लिए एक बार फिर 1991 जैसे ही तर्कों का सहारा लिया जा रहा है कि आने वाले समय में देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। एक आम नागरिक की हैसियत से इस सवाल को आपके बीच रखना चाहता हूं कि वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से अर्थव्यवस्था को यदि वास्तव में मजबूती मिलती है और समाज के हर तबके तक विकास की धारा पहुंचती है तो कहना नहीं होगा कि पिछले दो दशक में तमाम वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। लेकिन दुःखद है कि मंहगाई ही अर्थव्यवस्था की मजबूती की शर्त है तो आसमान छूती मंहगाई के इस दौर में भी देश की अर्थव्यवस्था आखिर क्यों संकटों से घिरी हुई है?

गौर तलब है कि राज्य सरकारों को करों में कमी करके मूल्य वृद्धि से राहत दिलाने का तर्क देकर न सिर्फ वृद्धि से ध्यान हटाने की कोशिश हो रही है बल्कि मूल्य वृद्धि के फैसले को वापस लेने के सरोकार की संभावनाओं को भी सिरे से नकारा जा रहा है। पूरी बहस इस बिन्दु पर केन्द्रित है कि यदि राज्य सरकारें चाहें तो पेट्रोलियम ईंधन पर करों में कमी करके पेट्रोल कीमतों को कम कर सकते हैं। ध्यान देना होगा कि एक तरफ केन्द्र सरकार मुक्त बाजार के सिंद्धांतों या यूं कहें कि आर्थिक सुधारों की विवशता के कारण तेल कम्पनियों पर नियंत्रण समाप्त करने की दिशा में अग्रसर है वहीं दूसरी तरफ वृद्धि के फैसले खुद करके राज्य सरकारों को अपने करों में कमी करने का सुझाव भी दे रही है। निश्चित तौर पर पेट्रोलियम उत्पादों पर राज्य द्वारा वैट की दर कम किए जाने की भी जरूरत है। लेकिन यह भी तय होना चाहिए कि इस कमी के बाद पेट्रोल जैसे ईंधन उचित मूल्य पर उपलब्ध होने लगेंगे?

पेट्रोलियम कंपनियों का हाल यह है कि ये नियंत्रणहीनता और मुनाफा चाहती हैं। अर्थशास्त्रीय शब्दावली में कहा जाए तो हानि की स्थिति में कोई भी व्यापारिक प्रतिष्ठान अधिक दिनों तक सेवा नहीं दे सकता है। लेकिन मुक्त बाजार के सिद्धांतों के अनुरूप लिया जाने वाला हर फैसला मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति को न सिर्फ बढ़ावा दे रहा है बल्कि आम जनता तक संसाधनों की पहुंच में रूकावट पैदा कर रहा है। इस बात को इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जब-जब पेट्रोल या डीजल जैसे ईंधनों में वृद्धि होती है इसका प्रभाव यातायात किराया पर भी पड़ता है। विशेषकर गांव से कस्बों और कस्बों को शहरों से जोड़ने वाले यातायात पर। अनुमानतः 20 किमी की यात्रा के लिए एक आम व्यक्ति को कम से कम 20 रूपए का भुगतान करना पड़ता है। वो भी वैसे स्थानों पर जहां नियमित रूप से यातायात संसाधन उपलब्ध हैं।

कुछ बातें मीडिया की भी हो जाए। मीडिया को पेट्रोल पम्पों पर कार सवारों और बाइक सवारों की भीड़ आसानी से नजर आ जाती है। लेकिन बसों और रेलगाडि़यों की भीड़ जो हर दिन हर बस और रेलगाड़ी में जानवरों की मानिन्द सफर करती है, उस भीड़ की ओर कैमरा घुमाना और प्रसारण दिक्कत तलब काम होता है। कहना नहीं है कि ईंधन की कीमतों में वृद्धि यातायात संसाधनों की सिमित सुलभता जैसी स्थिति में यातायात संकट को अधिक गहराने वाला फैसला है। ऐसे में यदि कोई गरीब यदि समय रहते इलाज के लिए अस्पताल न पहुंच पाने के कारण दम तोड़ दे तो हैरानी की बात नहीं। कोई आम व्यक्ति अपने किसी प्रिय संबंधी या शुभचिंतक का कुशलक्षेम पूछने दस-बीस किमी की यात्रा न कर पाए तो भी हैरान होने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए इनकी भावनाओं की अवहेलना और त्याग आवश्यक है। पेट्रोल पम्पों पर भीड़ लगाकर टंकी फुल करवाने वालों का क्या! वो तो क्षणिक राहत प्राप्त करने के अभ्यस्त हो चुके हैं। विरोध-प्रदर्शन तो बस राजनीतिक क्षमता प्रदर्शन तक सिमित होकर रह गया है। वरना संसद में बैठ प्रतिनिधियों से आंख चुराकर किसी भी सरकार के लिए जनविरोधी फैसले लेना आसान काम नहीं है।

कैनविज टाइम्स, 29 मई, 2012

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