Wednesday, August 1, 2012

निवेश आधारित मीडिया की दशा और दिशा


पिछले कुछ वर्षों में खासकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में ऐसी प्रस्तुतियों को प्रधानता प्राप्त हुई है जो निवेश और मुनाफा के सिद्धांतों पर आधारित हैं। चूंकि मीडिया भी एक तरह का साहित्य है और साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है। लेहाजा यह मानना होगा कि मीडिया में भी जो कुछ दिखाया जा रहा है वह हमारे समाज का सच है। लेकिन मीडिया की प्रस्तुतियों को सिर्फ साहित्य के दायरे तक सिमित करके नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि मीडिया मनोरंजन के साथ-साथ संवाद का असरदार माध्यम भी है और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के रूप में इसकी अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी होती हैं। मौजूदा दौर में तो इलेक्ट्राॅनिक मीडिया समय की तंगी का सस्ता और आसान विकल्प भी है। देखा जाए तो पिछले बीस बरसों में मीडिया बदलाव के बड़े दौर से गुज़रा है। बदलाव के इन दो दशकों में मीडिया विशेषकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की जो नयी पहचान बनी है, उसे निवेश, टी.आर.पी. और मुनाफा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है।
निवेश आमंत्रित करना अर्थव्यवस्था के प्राथमिक उद्देश्यों में है। क्योंकि इसका संबंध आर्थिक विकास की दर से बताया जाता है। इस दृष्टि से मीडिया निवेश आमंत्रित करने और निवेशकों दोनों के लिए एक ऐसा क्षेत्र है जहां कम समय में अधिक मुनाफा का संयोग प्रबल है। सरकार उच्च विकास दर हासिल करने के लिए अधिक से अधिक निवेश चाहती है तो वहीं दूसरी तरफ देसी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक निवेश की करने को लालायित हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि बाजारवादी व्यवस्था में “अधिक निवेश और अधिक मुनाफा” के फार्मुला पर काम करता है। 1991 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा में जो बदलाव सामने आए हैं, उससे सरकार और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही बदल गयी है। जिसके चलते मनोरंजन चैनलों की प्रस्तुतियों में समाज के गंभीर मुद्दों को उपभोग करने वाली ऐसी वस्तु के रूप में परोसा जाना संभव हुआ है जिसे देखने वालों की संख्या निरन्तर बढ़ी है। ऐसे मनोरंजक प्रस्तुतियों को देखने वाले दर्शकों की संख्या में वृद्धि का सीधा संबध टी.आर.पी. से है। टी.आर.पी. में वृद्धि का मतलब है अधिक विज्ञापन और अधिक मुनाफा। ज़ाहिर है, निवेश, टी.आर.पी. और मुनाफा रंजित मनोरंजक सीरियलों में किसी गंभीर सामाजिक समस्या की प्रस्तुति और समस्या के समाधान की संभावनाएं निरन्तर कम होती गयी हैं। पिछले दिनों देश में गिरते शिशु लिंगानुपात, दहेज और बच्चों के साथ यौनाचार जैसे मुद्दों पर एक चैनल ने “सत्यमेव जयते” शुरू किया जिसके एंकर आमिर खान को प्रस्तुति के एवज में करोणों-करोण का भुगतान किया जा रहा है। “सत्यमेव जयते” या ऐसे अन्य सीरियलों/रियालिटी शो की प्रस्तुति के मुद्दों से कोई विरोध नहीं है। लेकिन देखना होगा कि क्या समाज के गंभीर मुद्दों को मीडिया के केन्द्र में लाने और समाज को जागरूक करने के लिए सेलेब्रिटि का होना अनिवार्य और अपरिहार्य हैं? क्या ऐसे मुद्दों पर समाज को चेतित करने में ज़मीनी सतह पर काम करने वाले लोगों की कोई भूमिका नहीं रही है? दरअसल सेलेब्रिटी द्वारा प्रस्तुति का संबंध भी मीडिया के निवेशवादी माॅडल से है। यह संबंध निवेश, टी.आर.पी. प्रस्तुति, प्रसारण और दर्शक हर स्तर पर है। ऐसे कार्यक्रमों के स्क्रिप्ट राइटर, एडिटर, प्रस्तुतकर्ता और इन्हें देखने वाले तथा टिप्पणी करने वाले सभी उसी क्लास से आते हैं जो मुनाफा आधारित सुविधाभोगी जीवन में विश्वास करते हैं। यही वजह है कि जमीनी कार्यकर्ताओं को उनके तमाम संघर्षों के बाद भी न तो उन्हें उचित मानदेय/पारिश्रमिक मिल पाता है और न ही ख्याति। मीडिया का यही रूप नागवार है।
आज की मीडिया निवेश के दम पर मुख्य धारा की मीडिया को परिभाषित कर रही है। प्रस्तुति के विषय, तौर तरीके और दर्शक की संख्या तय कर रही है। कुछ कहिए तो एक मिथक जनता पर थोप कर खुद को आर्थिक दोहन के इल्जाम से बरी भी कर लेती है। सवाल लाज़मी है कि आर्थिक दोहन के पूरे प्रकरण में मीडिया का एकतरफा प्रभाव कैसे संभव हो पाता है। दरअसल सैटेलाइट चैनलों के माध्यम से एक ही समय में लाखों-करोड़ों परिवारों और व्यक्तियों तक पहुंचना तो मुमकिन है। लेकिन लाखों-करोणों व्यक्तियों के लिए एक क्लिक में अपनी शिकायतों को सही जगह पहुंचाना संभव नहीं है। बहरहाल, सैटेलाइट चैनलों पर शिकायत करने के लिए http://www.nbanewdelhi.com/ फ्लैश किया जा रहा है। ताकि किसी कार्यक्रम में किसी भी तरह की आपत्ति हो तो दर्शक इस वेव साइट पर आॅन लाइन शिकायत कर सकें। लेकिन इस साइट पर जो आॅब्जेक्टिव दिए गए हैं उनमें निवेशवादी मीडिया इंडस्ट्री के हित रक्षण का ध्येय अधिक प्रभावी जान पड़ता है। दूसरी तरफ कानूनी कार्यवाही के लिए न जो जनता के पास पैसे हैं और न ही इतना समय कि वो मनोरंजन के आर्थिक दोहन की गतिविधियों के विरोध में व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर कोई कानूनी हस्तक्षेप करे। खासकर ऐसे में जबकि कमरतोड़ महंगाई और आजीविका के लिए अधिक से अधिक संसाधन जुटाने का वैश्विक संकट दिनों-दिन गहराता जा रहा हो। “सोने की जेब और लोहे के पैर” वाली कहावत प्रासंगिक जान पड़ता, है जो पूंजीपरस्त मीडिया घरानों के पास ही है। लोकतंत्र में सभी को आज़ादी का समान हक है। शायद यही वजह है कि यदि चैनलों को प्रस्तुति के तौर-तरीकों की आज़ादी है तो वहीं दूसरी तरफ दर्शकों को चैनलों पर दिखाए गए किसी कार्यक्रम के खिलाफ शिकायत की आज़ादी भी है। लेकिन कहना होगा कि लोकतांत्रिक आज़ादी की सीमा तय करने में आर्थिक सुधारों पर आधारित निवेश की भूमिका लगातार बढ़ी है। जिसकी वजह से बड़ी और मज़बूत आज़ादी के सामने छोटी और कमज़ोर आज़ादी को दम तोड़ना पड़ रहा है।
जाहिर है मीडिया के नए ताने-बाने और तौर-तरीकों को स्वाभाविक स्वीकृति आर्थिक सुधारों के मीडिया पर पड़ने वाले प्रभावों में सबसे अहम है। ऐसे में तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया की भूमिका निवेश के अनुरूप तय होना भी स्वाभाविक है। समाज के किसी ज्वलंत मुद्दे का अर्थपूर्ण होना या महत्वहीन होने में इस स्वाभाविकता की बड़ी भूमिका है। इस स्वाभाविकता के चलते ही न तो ज़मीनी समस्याओं को प्रमुखता मिल पाती है और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाली हाशिए की आवाज़ों को यथा सम्मान मिल पाता है।


कैनविज टाइम्स, 27 जून 2012

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