Friday, August 17, 2012

मुस्लिम बच्चों की शिक्षा

मदरसों के भ्रम जाल में फंस कर मुस्लिम बच्चों की शैक्षिक वंचना से नज़र चुराना शिक्षा के क्षेत्र में अब तक प्राप्त उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाता है। ऐसा नहीं है कि मुसलमान अपने बच्चों को तालीम नहीं देना चाहते हैं।......
यदि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट की बात करें तो 7-16 आयु वर्ग में स्कूल जाने वाले कुल मुस्लिम बच्चों में महज 4 प्रतिशत बच्चे ही बुनियादी शिक्षा के लिए मदरसों पर निर्भर हैं। जबकि 30 प्रतिशत प्राइवेट स्कूलों तथा शेष 66 प्रतिशत सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं। दूसरी ओर स्कूल जाने वाले कुल मुस्लिम बच्चों में 25 प्रतिशत बच्चे या तो ड्राॅपआउट बच्चे हैं या फिर स्कूल जाने के किसी भी अवसर से वंचित हैं। 

बादी की दृष्टि से पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित मेरठ, मुजफ़्फ़रनगर और सहारनपुर आदि जिले देश के उन 50 जिलों में है जहां मुस्लिम आबादी का अनुपात 30 प्रतिशत या इससे अधिक है। इन शहरों में कई मुहल्ले तो ऐसे हैं जहां मुसलमानों का ही बाहुल्य है। बात करते हैं सहारनपुर की जो परंपरागत काष्ठ उद्योग के लिए जाना जाता है। पिछले कुछ सालों से यहां होजरी उद्योग भी काफी फल-फूल रहा है। इस जिला के शहरी क्षेत्र में रहने वाले मुसलमानों की आजीविका मुख्यतः इन्हीं दो उद्योगों पर ही निर्भर है। देश और दुनिया में अपनी कला का डंका बजाने वाले यहां के कलाकारों विशेषकर मुसलमानों में बेरोजगारी नज़र नहीं आती है। लेकिन सम्पन्न दिखाई देने वाले यहां के मुसलमानों के जीवन के कई ऐसे पहलू हैं जो हमें नयी तस्वीर दिखाते हैं।

दरअसल सहारनपुर के काष्ठ उद्योग में काम करने वालों की जमात में वो लोग भी शामिल हैं जो रिटायरमेन्ट की उम्र से काफी आगे निकल चुके हैं। वो मासूम बच्चे भी जो काम करने के लिए निम्नतम आयु की पात्रता नहीं रखने के बाद भी आजीविका की जिम्मेदारी उठाते है। और वो महिलाएं भी जो इन उद्योगों में फिनिशिंग वर्क के सहारे अपने घर-परिवार के लिए आजीविका जुटाती हैं। वर्क कल्चर तो यहां के हर गली-चैराहे पर दिखाई पड़ता है। लेकिन साक्षरता की बात आती है तो यहां मुस्लिम साक्षरता दर लुढ़की हुई नज़र आती है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार इस जिला में मुस्लिम साक्षरता दर 47.64 प्रतिशत है, जो जिला, राज्य और देश तीनों ही स्तर के औसत साक्षरता दर से काफी कम है। उसमें भी महिलाओं में साक्षरता दर का प्रतिशत 38.43 है जो 55.56 प्रतिशत मुस्लिम पुरूष साक्षरता दर से 17.13 अंक प्रतिशत कम है। एक तरफ जहां ग्रामीण क्षेत्रों में मुस्लिम साक्षरता दर 45.02 प्रतिशत के हताशाजनक स्थिति में है वहीं दूसरी तरफ शहरी क्षेत्रों में भी मुस्लिम साक्षरता दर की स्थिति अच्छी नहीं है। सहारनपुर के शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम साक्षरता दर 52.61 प्रतिशत है। मुस्लिम समाज में साक्षरता की दयनीय स्थिति को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि इस जिला में मुस्लिम आबादी का आधा हिस्सा निरक्षर और अशिक्षित है। सवाल यह है कि जो जिला उद्योग-धन्धे में देश ही नहीं विदेशों में भी जाना जाता है, उस जिला में मुसलमानों की ऐसी स्थिति क्यों है?

आम तौर पर जागरूकता और चेतना का अभाव निरक्षरता के लिए जिम्मेदार कारक माना जाता है। लेकिन पिछले कुछ बरसों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ़्फ़रनगर और मेरठ जैसे जिलों की यात्रा से मुस्लिम समाज के बारे में कुछ नए तथ्य और सत्य को समझने का अवसर मिला है। देश के मुसलमानों के बारे में कायम यह धारणा इस जिला के मुसलमानों पर भी लागू होता है जो मुसलमानों को संकीर्ण सोच वाला समुदाय मानता है। लेकिन ज़मीनी हक़ीकत इस इस बात को झुठलाते हैं कि स्कूलों में मुस्लिम बच्चों की कम होती संख्या समुदाय के संकीर्ण सोच के कारण है। जहां तक मदरसों का संबंध है तो निश्चित तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इनकी तादाद तुलनात्मक रूप से अधिक है और मुख्यतः ये दीनी यानि धार्मिक शिक्षा के केन्द्र हैं। लेकिन ऐसे मदरसों की संख्या भी कम नहीं है जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। यदि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट की बात करें तो 7-16 आयु वर्ग में स्कूल जाने वाले कुल मुस्लिम बच्चों में महज 4 प्रतिशत बच्चे ही बुनियादी शिक्षा के लिए मदरसों पर निर्भर हैं। जबकि 30 प्रतिशत प्राइवेट स्कूलों तथा शेष 66 प्रतिशत सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं। दूसरी ओर स्कूल जाने वाले कुल मुस्लिम बच्चों में 25 प्रतिशत बच्चे या तो ड्राॅपआउट बच्चे हैं या फिर स्कूल जाने के किसी भी अवसर से वंचित हैं।

ज़ाहिर है मदरसों के भ्रम जाल में फंस कर मुस्लिम बच्चों की शैक्षिक वंचना से नज़र चुराना शिक्षा के क्षेत्र में अब तक प्राप्त उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाता है। ऐसा नहीं है कि मुसलमान अपने बच्चों को तालीम नहीं देना चाहते हैं। पिछले दिनों सहारनपुर के मुस्लिम बाहुल्य बस्तियों पक्का बाग, खाता खेड़ी और नूर बस्ती के लोगों विशेषकर महिलाओं से सीधी बातचीत के दौरान बच्चों की शिक्षा के प्रति उनकी ललक महसूस किया। लेकिन मीडिया वालों के लिए इमराना और गुडि़या जैसी खबरें इकट्ठी करने की रेलमपेल में शिक्षा जैसी बुनियादी मुद्दा पीछे छूट जाता है। बहरहाल सहारनपुर की शहरी बस्तियों में कई जगह तो सरकारी स्कूल ही नहीं हैं। नूर बस्ती ऐसे ही मुहल्लों में एक है। जहां है वहां स्कूल के भवन और अध्यापकों से लेकर शैक्षिक वातावरण आदि की स्थिति संतोषजनक नहीं है। ऐसे में मुस्लिम बच्चों की स्कूल से दूरी कोई अचरज की बात नहीं है।

बहरहाल, ऐसे स्कूल भी हैं जहां अध्यापकों के व्यवहार से मुस्लिम बच्चों का मनोबल टूटता है और स्कूल से उनका मोह भंग हो जाता है। उदाहरण के तौर पर सहारनपुर के ही सुढ़ौली कदीम ब्लाॅक के उन बच्चों को देखें जिन्हें बाल्यावस्था में भेदभाव के कारण स्कूल जाने के अवसर से वंचित होना पड़ता है। इस ब्लाॅक में मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता नाज़मा बताती हैं कि “नए शैक्षिक सत्र में जब वो कुछ मुस्लिम बच्चों के दाखिले के लिए स्कूल गयीं तो स्कूल प्रबन्धन की तरफ से उन बच्चों के दाखिला संबंधी औपचारिकता पूरा करने के बजाय खु़द उनकी सामाजिक भूमिका पर सवाल उठाते हुए यह कहा गया कि वो सिर्फ मुस्लिम बच्चों का ही दाखिला क्यों करा रही हैं। उन्होंने अपने समाजिक कार्यों और टार्गेट ग्रुप के बारे बताया कि जब प्रधानमंत्री द्वारा गठित उच्चस्तरीय सच्चर समिति ने इस बात को माना है कि स्कूल जाने वाले 25 प्रतिशत बच्चे स्कूलों से बाहर हैं, तो इस दिशा में काम करने में ग़लत क्या है।”

नाज़मा का यह अनुभव इस सच्चाई से परदा उठाता है कि स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के साथ भेदभाव होता है। जिसके चलते वो सरकारी स्कूल नहीं जाना चाहते हैं। बादशाही बाग की समाज सेविका रानी मिर्जा की बातों पर यकीन करें तो “भेदभाव का आलम यह है कि मुस्लिम बच्चों को चिन्हित करके उनसे स्कूल परिसर में झाड़ू लगवाया जाता है। यही नहीं उनसे मध्यान्ह्य भोजन की व्यवस्था में भी काम लिया जाता है।” नाज़मा और रानी जैसी समाज सेविकाओं का यह अनुभव आए दिन अखबारों में छपने वाली उन खबरों और तस्वीरों से साम्य रखता है जिसमें बच्चों द्वारा विशेषकर दलित समुदाय के बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है। लेकिन मानव विकास के शैक्षिक सूचकांक पर मुस्लिम समाज की बदहाली का यह चित्र शायद ही किसी अखबार और रिपोर्टर के लिए कोई महत्व रखता है। समझा जा सकता है कि मौजूदा दौर में मानव विकास के सूचकांक पर मुसलमान किस पायदान पर हैं। इन परिस्थितियों के कारण ही एक तरफ जहां मुस्लिम बच्चों का मनोबल टूटता है, वहीं दूसरी तरफ उनकी शिक्षा या तो मदरसा तक सिमित रह जाती है या फिर वे शिक्षा के किसी भी अवसर से वंचित रह जाते हैं। यही बच्चे खेतों-खलिहानों से लेकर ढ़ाबा और काष्ठ व होजरी उद्योग में नज़र आते हैं।

अचरज की बात तो यह है कि बाल अधिकारिता से संबंधित तमाम सरकारी विभागों को सर्व शिक्षा अभियान के दौरान मुस्लिम समाज का यह चित्र दिखाई नहीं देता है। कहना पड़ रहा है कि ऐसे परिवेश में यदि प्रधानमंत्री का पन्द्रह की जगह तीस सूत्री कार्यक्रम भी होता तो उसके परिणाम भी इसी तरह निराशाजनक होते जैसा कि पन्द्रह सूत्री कार्यक्रम के हैं। ज़रूरी हो जाता है कि योजनाओं को बनाने और क्रियान्वयन से पहले समुदाय स्तर की रूकावटों को दूर करने की इमानदार कोशिश की जाए।

कैनविज टाइम्स, 17 अगस्त 2012

1 comment:

  1. Very true statement,,that muslims are disriminated at large scale..its only hypothetical that we are getting equal respect in society i do not accept it.

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