Wednesday, September 12, 2012

भत्ता तोड़ देगा युवाओं का मनोबल

"   बेरोजगारी भत्ता सुनने में जितना अच्छा और आकर्षक लग रहा है, उतना ही खतरनाक है। इसलिए नहीं कि आर्थिक सहायता में कोई बुराई है। बल्कि इसलिए कि 1000 रूपए की राहत कहीं आने वाले समय में युवाओं ही नहीं बल्कि समाज के हर निम्न मध्यम वर्गीय और वंचित तबके के परिवारों के लिए गले की फांस न बन जाए। गंभीरता से गौर किया जाए तो यह योजना समाज को इसी दिशा में ले जाने वाली है....".

9 सितम्बर को प्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों बेरोजगारी भत्ता का चेक प्राप्त करते हुए अर्ह् बेरोजगार खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। दूसरी तरफ कई सारे विश्लेषकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को प्रदेश सरकार की इस योजना को मूर्त रूप देने पर दुःखी होते देखा गया। देखना होगा कि 1000 रूपए के भत्ते का प्रदेश और प्रदेश के युवाओं के लिए क्या मायने हैं। गौर तलब है कि पिछली बार जब युवा मुख्यमंत्री के पिता जी सत्ता की बागडोर संभाल रहे थे तो उस समय पहली बार यह प्रयोग किया गया था। तब भत्ता की राशि 500 रूपए थी। उस समय भी रोजगार दफ़्तरों से लेकर बैंकों में युवा छात्र-छात्राओं की लम्बी-लम्बी कतारें देखी गयी थीं। फोटो स्टेट की दुकानों पर बेकारों को जोश व खरोश से आवश्यक दस्तावेजों की फोटो काॅपी कराते देखा गया था। रोज़गार दफ़्तरों पर लगने वाली भीड़ और अब चेक प्राप्त करते हुए उनकी खुशी को देखकर बेकारी की परिथितियों का सहज अंदाजा होता है। लेकिन चेक प्राप्त करने वाले बेरोजगारों की इस भीड़ की भी अपनी प्राथमिकता है। जो महज 500 से 1000 रूपए तक सिमित है। सियासी पार्टियों और हमारे नेताओं में तो इतनी इच्छा शक्ति नहीं है कि वो रोजगार और बेरोजगार भत्ता में अन्तर बताएं। यदि अन्तर बताएंगे तो नौजवानों के मन में नौकरी की चाह पैदा होगी। राजव्यवस्था और सत्ता की दशा और दिशा पर सवाल पैदा होंगे। जो धरना-प्रदर्शन का रूप भी ले सकते हैं। अच्छा है इन्हें 1000 में उलझाए रखा जाए। भरी जवानी में उलझे हुओं को उलझाना ही तो शासक वर्ग की उलझनों का सुलझना बन चुका है।

कहना पड़ रहा है कि बेरोजगारी भत्ता सुनने में जितना अच्छा और आकर्षक लग रहा है, उतना ही खतरनाक है। इसलिए नहीं कि आर्थिक सहायता में कोई बुराई है। बल्कि इसलिए कि 1000 रूपए की राहत कहीं आने वाले समय में युवाओं ही नहीं बल्कि समाज के हर निम्न मध्यम वर्गीय और वंचित तबके के परिवारों के लिए गले की फांस न बन जाए। गंभीरता से गौर किया जाए तो यह योजना समाज को इसी दिशा में ले जाने वाली है। वो ऐसे कि 35 वर्ष की आयु काम-काज की आयु होती है। इस आयु वर्ग के नौजवानों में नई ऊर्जा, नई उमंग और नया उत्साह होता है। जब जवानी के इस उम्र में किसी को बैठे-बिठाए बेरोजगारी भत्ता मिलने लगेगा तो इससे उस व्यक्ति का सीखा हुआ स्किल (हुनर/क्षमता) स्थिर हो जाएगी। यानि जो युवा कम्प्युटर आॅपरेट करने में प्रवीण है, उसे सही समय पर इस क्षेत्र में अवसर नहीं मिलने या बेरोजगरी भत्ता का सहारा मिलने से वो भत्ता प्राप्त होने की अवधि तक सीखे हुए हुनर को व्यवहार में करने और इसमें परिवर्धन करने से वंचित रह जाएगा। ऐसे में यदि किसी कारणवश भत्ता बंद होता है, तो वह क्षमता विहीन युवा रह जाएगा। जिसे आज के प्रतिस्पर्धी दौर में कोई भी सरकारी या गैर-सरकारी अमला अपनी प्राथमिकता में रखना नहीं चाहेगा। अच्छा होता कि प्रदेश के युवाओं के लिए 1000 रूपए के बेरोजगारी भत्ता के बजाए कम से कम 999 रूपए के रोजगार की व्यवस्था की जाती।

बेरोजगारी भत्ता से भी अच्छा और आकर्षक टैबलेट और लैपटाप की योजना है। शिक्षा और साक्षरता में विकास की कई सीढि़यां चढ़ने के बाद भी गांव-कस्बे के लोग अभी तक टैबलेट को दवा ही समझ पा रहे थे। भला हो सूचना क्रान्ति का जिसके चलते गंवई जीवन जीने वाले लोग न सिर्फ टैबलेट नामक इलेक्ट्राॅनिक यंत्र के बारे में जागरूक हो रहे हैं बल्कि यह यंत्र उनके सपनों में आकार लेने लगा है। सपनों का होना अच्छी बात है। पाश ने भी कहा था “सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना...”। लेकिन उन सपनों का क्या जो आर्थिक क्रिया-कलापों (सीधा कहें तो बाजारवाद) को बढ़ाने के नाम पर थोपा जा रहा हो। आज के फेसबुकिया दौर में प्रदेश के बच्चों को टैबलेट और लैपटाप देने की योजना ऐसे सपनों को पैदा व जवान करने की योजना है।

कौन नहीं जानता कि प्रदेश के हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट कालेजों में ऐसे अध्यापकों की कमी है जो हमारे बच्चों को कोचिंग के शोषक व्यवस्था से मुक्त करा सकें। सवाल यह भी है कि असमान प्रतिस्पर्धा के चलते जिन बच्चों का मनोबल टूट जाता है और प्रतिवर्ष जो बच्चे आत्महत्या करते हैं, वैसे बच्चों को टैबलेट और लैपटाप किस तरह राहत पहंुचाएगा। यदि टैबलेट और लैपटाप की उपयोगिता को स्वीकार कर भी लिया जाए तो इन यंत्रों के मेन्टीनेन्स (रख-रखाव) और बिजली की सप्लाई आदि ज़रूरतों को पूरा करने की गारण्टी कौन लेगा। क्या हम दावे के साथ कह सकने की स्थिति में हैं कि हमारे प्रदेश के गरीब बच्चों के घरों तक बिजली पहुंच पाती है या उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि वो लैपटाप या टैबलेट से संबंधित अन्य ज़रूरतों को पूरा कर पाने में सक्षम हैं? शायद नहीं! फिर ऐसे में प्रदेश के बच्चों को प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा व्यवस्था का ऐसा ढ़ांचा चाहिए जिसमें न तो कोचिंग की ज़रूरत हो और न ही मुफ़्त टैबलेट या लैपटाप की। कहना नहीं है कि प्रदेश की नयी पीढ़ी के छात्र-छात्राओं की आवश्यकताओं की प्राथमिकता सूची तैयार करके उनकी शिक्षा और रोजगार के अवसर सृजित करना बेरोजगारी भत्ता, टैबलेट और लैपटाप के निःशुल्क वितरण से बेहतर होता।

कैनविज़  टाइम्स, १२ सितम्बर २०१२

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