Saturday, September 22, 2012

खुदरा बाज़ार में एफडीआई: कठिन सुधारों की कठिन मार

"खुदरा बाजार में एफडीआई महज सरकार की असफलता को नहीं दर्शाता है बल्कि विपक्ष में बैठे उन तमाम दलों की सियासी समझदारी पर भी सवालिया निशान है जो इस देश के गरीब, नौजवान, किसान, मज़दूर, दलित, पिछड़े और पसमांदा अवाम के हक की बात करते हैं। कहना होगा कि यह असफलता उन कारोबारियों की भी है जिन्होंने बतौर मतदाता अपने लोकतांत्रिक दायित्वों के निर्वहन में बार-बार कोताही की है।"

खुदरा बाज़ार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को मंजूरी के फैसले को मुद्रा स्फीति में सुधार, रोजगार के नए अवसरों का सृजन और देश में विदेशी मुद्रा के प्रवाह में वृद्धि आदि कारणों से उचित बताया जा रहा है। दूसरी तरफ विरोधी खेमा इस फैसले को खुदरा बाजार पर विदेशी प्रभुत्व के बढ़ते प्रभाव के रूप में देख रहे हैं। ये बात और है कि विभिन्न दल क्षेत्रीय राजनीतिक ज़रूरतों के मद्दे नज़र इस फैसले का समर्थन और विरोध कर रहे हैं। खुदरा व्यापार में एफडीआई से असहमति की अभिव्यक्ति से कुछ बातें स्पष्ट हैं। जैसे, खुदरा कारोबारियों का आस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। ठीक वैसे ही जैसे कि मुक्त बाजार नीति के चलते छोटे-छोटे घरेलू उद्योगों का हाल हुआ है। इसमें बनारसी साड़ी से लेकर अलीगढ़ के ताला उद्योग सभी शामिल हैं। तथ्य यह है कि अगर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के दूरगामी परिणामों को समझने में 20 वर्षों से अधिक समय लगा तो क्या यह समझा जाए कि खुदरा बाजर में एफडीआई के परिणामों को समझने में भी लगभग इतना ही समय लगेगा। यदि ऐसा होता है तो आने वाले दो दशकों में खुदरा कारोबार में एफडीआई के कूप्रभावों को झेलने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इन प्रभावों में एक यह होगा कि खुदरा बाज़ार के कारोबारियों की वैयक्तिक व्यावसायिक पहचान और आस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इस वास्तविकता को दोबारा साबित करने की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि पिछले कुछ एक दशकों में शापिंग  माल कल्चर के अंधाधुंध प्रसार ने पहले ही व्यावसायिक आज़ादी को शापिंग माल कल्चर के रास्ते बाज़ारपरस्त पूंजीपतियों के यहां गिरवी हो चुकी है। अब बारी छोटे शहरों-कस्बों और गांव-देहातों की है। देखने और सुनने में शापिंग माॅल का कल्चर बेहद अच्छा और सुखद लगता है। लेकिन पांच की तरबूज तीस में बिकने के बाद भी जब तरबूज पैदा करने वाले किसानों की जेब में उचित पैसा नहीं पहुँचता तो सवाल लाज़मी तौर पर उठता है कि एफडीआई के रास्ते कितने किसानों और कितने दुकानदारों का भला होगा?
रही बात नौकरियों के अवसर सृजन का तो इस संभावना से इंकार मुश्किल है कि जो कारोबारी छोटी पूंजी से कारोबार कर रहे हैं क्या वो आने वाले समय में एफडीआई के बड़ी पूंजी के चंगुल में नहीं फंसेगे। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है वाला मुहावरा सटिक बैठता है। इस संभावना से इसलिए भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है क्योंकि आर्थिक सुधारों की एक बुनियादी शर्त प्रतिस्पर्धा को बढ़ाना और बढ़े हुए प्रतिस्पर्धी माहौल में गुणवत्ता को बनाए रखना है। प्रतिस्पर्धा अच्छी बात है लेकिन बड़ी मछली और छोटी मछली के बीच प्रतिस्पर्धा क्या समतामूलक सिद्धांतों की अनदेखी नहीं है?
ज़ाहिर है जब प्रतिस्पर्धा समानता के मूलभूत सिद्धांतों को धता-बता कर होगी तो बड़ी मछली छोटी-छोटी मछलियों को एक-एक करके निगलती जाएगी। बताना नहीं है कि खुदरा कारोबारियों की स्थिति छोटी-छोटी मछलियों की सी है। जब बड़ी पूंजी का दखल उनके कारोबार की चौखट पर दस्तक देगा तो किसी तरह अपनी दुकान और घर-परिवार चलाने वाले छोटे कारोबारियों की लाइफ लाइन ही छिन जाएगी। चमक-दमक वाली गुणवत्ता की प्रतिस्पर्धा में बने रहने का दबाव ऐसे दुकानदारों पर पहाड़ बन कर टूट पड़ेगा। छोटी पूंजी की स्थिति छोटी मछली की होती है। इसलिए ऐसे कारोबारी मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाएंगे। अर्थात नौकरियां निश्चित रूप से बढ़ेंगी। लेकिन यह सब व्यावसायिक स्वंतंत्रता को गिरवी रखवाने के बाद होगा।
समकालीन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि सरकार अपने फैसले पर पुनर्विचार करने जा रही है। जो क्षेत्रीय पार्टियां विरोध का स्वर बुलन्द कर रही हैं उनके पास एफडीआई के विरोध का तात्कालिक तर्क तो है लेकिन एफडीआई जैसे तमाम फैसलों की तह तक जाने का साहस नहीं है। शायद इन्हें भी पता है कि ऐसे जनविरोधी फैसलों के तार आर्थिक सुधारों से जुड़े हैं। यह बात किसी से छुपी नहीं रह गयी है कि सुधारों के मोर्चे पर सूबाई सियासत की धार पर केन्द्र में मज़बूत स्थिति रखने वाली पार्टियां अपने ही घर में किस तरह नाकाम हुई हैं।
कहना पड़ रहा है कि खुदरा बाजार में एफडीआई महज सरकार की असफलता को नहीं दर्शाता है बल्कि विपक्ष में बैठे उन तमाम दलों की सियासी समझदारी पर भी सवालिया निशान है जो इस देश के गरीब, नौजवान, किसान, मज़दूर, दलित, पिछड़े और पसमांदा अवाम के हक की बात करते हैं। कहना होगा कि यह असफलता उन कारोबारियों की भी है जिन्होंने बतौर मतदाता अपने लोकतांत्रिक दायित्वों के निर्वहन में बार-बार कोताही की है। चूंकि सभी दल अभी से 2014 के चुनावी दंगल में उतरने की तैयारी में हैं तो जनता को भी इस दंगल में दो-दो हाथ करने के लिए कमर कस लेना चाहिए। यह समय देश की राजनीति और अर्थव्यव्यस्था के लिए संकट का समय है। इसका समाधान तभी निकलेगा जब उबी हुई और उकताई हुई जनता अपना विकल्प खुद सामने लाएगी। वरना आर्थिक संवृद्धि के नाम पर प्रधानमंत्री के कठिन सुधारों की कठिन मार झेलने के लिए तैयार रहना होगा।

कैनविज टाइम्स, 22 सितम्बर 2012

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