Monday, February 20, 2017

गुडिया ले लो... गुडिया की आवाज़ लगाती आशिया उर्फ आशा



"यही है हमारी जिन्दगी..... 
कमाओ-खाओ... बस...!"

"पढ़े-लिखे होते तो अइसे डण्डा ले के गली-गली घूमितें...!"


- आशिया उर्फ आशा



सदर रोड पर डाॅक्टर साहब के दरवाजे पर हर रोज की तरह आज भी माॅर्निंग वाॅक के बाद की टाॅक यानि सुबह की बहस चल रही होती है। सुबह सवेरे होने वाली रोज की तकझक को कुछ लोग टाइम पास भी कहते हैं और कुछ लोग इसे मिनी असेम्बली की उपमा देते हैं। रोज की बहस में शिरकत करने वाले व्यक्ति हाथों में अखबार लिए अखिलेश, मुलायम, शिवपाल, सपा और कौएद के आपसी संबंध, देश और प्रदेश विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में भविष्य की राजनीति वगैरह मुद्दों को एक दूसरे से समझने और एक दूसरे को समझाने के लिए अपनी-अपनी बातें तार्किक ढ़ंग से रख रहे होते हैं। इतने में “गुड़िया ले लो, गुड़िया ले लो.......” की आवाज़। बहस कर रहे लोग उस ओर देखते हैं। एक लड़की, उम्र कोई 23-24 बरस, गुलाबी रंग के सलवार-समीज में अपने कंधे पर सात-आठ फीट लम्बा एक डण्डा, जिसके दोनों तरफ आखि़री छोर पर लाल, पीले, हरे, नीले वगैरह रंगों के खिलौने टंगे होते हैं, सदर रोड पर तहसील की ओर से आ रही होती है। उसकी आवाज़ में एक उम्मीद का एहसास कि आस-पास के लोग उसे रूकने को कहें और वो उन्हें गुड़िया बेच सके। बावजूद इसके कि मुहल्ले वालों के लिए वो लड़की और उस लड़की के लिए मुहल्ले वाले अजनबी होते हैं। लेकिन यहां तो देश और प्रदेश के राजनीतिक भविष्य पर चर्चाओं का माहौल है। चर्चा कर रहे मुहल्ले वालों को इतनी सुध कहां कि वो सुबह-सुबह अपने लाडलों और लाडलियों के लिए खिलौने के बारे में सोचें। खिलौना बेचने वाली लड़की एक बार फिर “गुड़िया ले लो, गुड़िया ले लो.......” की आवाज़ लगाती है। मैं उस लड़की को अपनी तरफ आने का इशारा करता हूं। गुड़िया बेच लेने की उम्मीद उस लड़की को मेरे पीछे गली में अशरफ भाई के घर तक ले आती है। 
मेरी आवाज़ सुनकर अशरफ भाई की दोनों बेटियां फलक और आरजू़ भी बाहर चबूतरे पर आ जाती हैं। अब मेरी बेटी सहित कुल तीन बच्चियां चबूतरे पर मौजूद होती हैं।


गली में जामा मस्जिद की ओर जाने और उधर से आने वाले राहगीरों का ठिठक कर रूकने और फिर जाने का सिलसिला जारी रहता है। आने-जाने वालों के लिए हमारी बातचीत महज एक इवेन्ट होती है। एक पत्रकार के पूछे जा रहे सवालों के जवाब को देखने और सुनने वाले इवेन्ट। खासकर वो सवाल जिनके जवाब गुड़िया बेचने वाली किसी लड़की के पास आम तौर पर या तो नहीं होते या होते हैं तो दो टूक होते हैं।
गुड़िया बेच रही लड़की के कंधे पर गुड़िया देख उस गाने की याद भी ताज़ा होती है, जिसके बोल हैं “सात समुन्दर पार से........, गुड़ियों के बाज़ार से......... अच्छी सी गुड़िया लाना......... गुड़िया चाहे ना लाना, पापा जल्दी आ जाना......... पापा जल्दी आ जाना”। लेकिन आज सदर रोड पर पापा लोग देश और प्रदेश के सियासी चर्चाओं में व्यस्त हैं। इस बात से बेखबर कि अच्छी सी गुड़िया लेकर एक लड़की खुद फैजाबाद से चलकर उनके नगर में आयी हुई है। लड़की का पहनावा ऐसा है कि वो खुद भी गुड़िया मालूम होती है।

फैजाबाद और ग़ाज़ीपुर स्थित मुहम्मदाबाद कस्बा के बीच की दूरी राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 से 226.7 किमी और राष्ट्रीय राजमार्ग 27 एवं 24 से 282.6 किमी और रेल मार्ग से 290 किमी है। लेकिन उस लड़की के लिए यह दूरी कोई मायने नहीं रखती है। कहती है कि “करेंगे नहीं तो खाएंगे क्या?” पेट की आग होती ही कुछ ऐसी है। इंसान कहां से कहां को जाता है। दिल्ली, बंगाल, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडू आदि राज्यों को जाने वाली रेलगाड़ियों में ठसाठस भरे हुए लोग भारत के विभिन्न क्षेत्रों से अलग-अलग राज्यों में होने वाले पलायन की तस्वीर पेश करते हैं। कभी रेलवे स्टेशन पर खड़े हो जाएं तो ऐसी तस्वीरें आखों में तैरने लगती हैं। गुड़िया बेच रही लड़की भी तो रोजगार के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को पलायन करने वाले दस्तकारों की तस्वीर पेश करती है। लेकिन गुड़िया बेच रही इस लड़की की पहचान कोई मायने नहीं रखती। ठीक उसी तरह जैसे कि हमारे घरों की महिलाएं आर्थिक रूप से समाज में एक कामकाजी महिला व्यक्ति की पहचान से बेदखल हैं। यदि उन्हें पहचानने वाले उनके भाई, बाप या पति के रूप में जो पुरूष होते भी हैं, तो वे उन्हें रसोईघर, बाजार या फिर अपने मनोरंजक भावनाओं की हद तक ही पहचानते हैं। दूसरी ओर देश-प्रदेश की तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया में जो बहस होती है, उस बहस के केन्द्र में हिजाब और तलाक होता है। लेकिन सदर रोड पर हो रही आज की बहस में न तो हिजाब है, न तलाक है, न महिलाओं की असुरक्षा के प्रश्न हैं और न ही रोजी-रोटी के लिए पलायन करने वाली महिलाओं और बच्चियों की समस्याएं हैं। शायद एक परिवार की सियासी सरगरमियों या सियासत में परिवारवाद की चुनौतियां और प्रदेश में आइंदा होने वाला विधान सभा चुनाव आदि विषय महिला जीवन के विविध पक्षों और दुःख भरी कहानियों पर भारी हैं!

बहरहाल, एक दस्तकार लड़की फैजाबाद से चलकर मुहम्मदाबाद आयी हुई है। जो सुबह से शाम तक गली-गली “गुड़िया ले लो, गुड़िया ले लो......” की आवाज़ लगाकर सिर्फ इतना जोड़ पाती है, जिससे सांसे चलती रहें और जिन्दा रहा जा सके। आम तौर पर दस्तकारों के घरों की लड़कियां घर के अन्दर रहकर ही आजीविका अर्जित करने वाले काम करती हैं। बनारस, मऊ, आजमगढ़, गाजीपुर, फतेहपुर, बाराबंकी और प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बड़े पैमाने पर दस्तकारी का काम होता है। जहां महिलाएं घर के अन्दर रह कर ही मेहनत-मज़दूरी करती हैं। आम तौर पर ऐसे परिवारों की महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने की इजाज़त नहीं होती या फिर घर से बाहर किसी और के घर या कारखाने में जाकर महिलाओं का काम करना सामाजिक बुराई मानी जाती है। एक अहम वजह यह समझ में आती है कि अशिक्षित और गरीब महिलाएं हाशिए की जिन्दगानी पर परदा बनाए रखने के लिए अपने घरों में ही काम करना बेहतर समझती हैं। ऐसे हालात में गुड़िया बेच रही फैजाबाद की इस लड़की के साहस और बहादुरी को स्त्री विमर्श के एक सबल पक्ष के तौर पर भी देखा जा सकता है। 

एक दस्तकार लड़की की कहानी स्त्री विमर्श के उस पक्ष को भी उजागर करती है जहां पर सीखने-सिखाने की लाजवाब कर देने वाली कला और परंपरा ऐतिहासिक रूप से मौजूद है। लेकिन शिक्षा के सर्वथा अभाव के चलते ऐसे दस्तकारों को हाशिए की पहचान के सिवा कुछ नहीं मिलता। इनका जीवन यायावरी में ही कट जाता है। एक से दूसरे गांव और नगर की धूल फांकते ऐसे दस्तकारों को नयी अर्थव्यवस्था ने भी नुकसान पहुंचाया है। दर असल दस्तकारी की बुनियादी ज़रूरत बचपन के वो हाथ होते हैं जिनकी उंगलियां नरम और नाजुक होती हैं। विभिन्न नगरों और गांवों में दस्तकारी से आजीविका अर्जित करने वाले परिवारों की स्थिति देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हर पल न जाने कितने बच्चों का बचपन उनसे छिन जाता है। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो पूरब के साड़ी उद्योग से लेकर पश्चिम के पीतल नगरी में बच्चों की मासूमियत यूं ही दस्तकारी की भेंट चढ़ जाया करती है। दस्तकारी वो कला है जिसके बारे में गुड़िया बेच रही लड़की कहती है कि “भइया कोई पेट से सीख कर तो आता नहीं है! सब यहीं सीखते हैं।” न जाने ऐसा क्यों लगता है कि जो बातें उच्च पदस्थ लोग नहीं बता पाते या जो बातें बड़े-बड़े लेखकों की किताबों में नहीं होती हैं, वो सीख गुड़िया बेचने वाली अनपढ़ और गंवार लड़कियां दे जाती हैं। गुड़िया बेच रही लड़की को अपना नाम लिखना नहीं आता है। लिखना तो दूर की बात, सही उच्चारण के साथ अपना नाम बताना भी नहीं आता है। लेकिन गुड़िया बनाने का हुनर वो खूब जानती है। अपना नाम आशा बताने वाली आयशा कहती हैं कि “जो बना नहीं पाएगा उसके लिए तो पूरा दिन भी कम पड़ जाएगा।” आयशा को एक गुड़िया बनाने में लगभग 10 मिनट का समय लगता है। एक बार फिर जोर देकर कहती हैं कि “कोई पेट से सीख के नहीं आता है। बस आदमी में कला होना चाहिए।” शायद आयशा इस बात से वाकिफ नहीं है कि आदमी में जिस कला के होने की बात वो कह गयी, वो दरअसल आती कैसे है? उस कला के होने के पीछे की कुर्बानियों और वंचना का इतिहास और समाजशास्त्र क्या है?

मलावन गांव, फैज़ाबाद की रहने वाली आयशा अपने अब्बा का नाम वाहिद और अम्मा का नाम जरीना बताती हैं। उसके गांव में न तो स्कूल है और ही मदरसा। एक जगह न रहने वालों के कुनबा से संबंध रखने वाली आयशा दिन भर में कितना गुड़िया बेचने के सवाल पर बताती हैं कि “ये तो ऊपर वाला जानता है। कभी पूरे बिक जाते हैं और कभी कई-कई दिन में पूरे बिकते हैं।” आयशा जैसी दस्तकारों की यायावर जिन्दगानी निश्चित तौर पर बेशुमार बच्चों के दिल बहलावे का सबब है। लेकिन खुद अपनी जिन्दगी के बारे में आयशा “यही है हमारी जिन्दगी..... कमाओ-खाओ.... बस...!” से आगे कुछ सोच नहीं पातीं। हालांकि यायावरी के बावजूद आयशा और उसके परिवार वालों के पास राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड आदि पहचान पत्र हैं। आयशा से बात करके अंदाजा होता है कि आधार बनाने वाले उन जैसे दस्तकारों के घर तो पहुंच जाते हैं। लेकिन अधिकार दिलाने वाले या योजनाओं का हितलाभ दिलाने वाले कार्ड जैसे मनरेगा जाॅब कार्ड या दस्तकार पहचान पत्र आदि बनाने वालों का कोई अता-पता नहीं होता। यदि होता तो आयशा जैसी दस्तकारों को पलायन और यायावरी नहीं करनी होती। 

दो किस्तों में 11 मिनट 13 सेकेण्ड तक बात हुई। हमारी बातचीत में 2 मिनट 46 सेकेण्ड तक तौकीर खां एडवोकेट साहब भी शामिल होते हैं। वो आशा, आशिया और आसिया का फर्क़ बताते है और मैं एक दस्तकार गुड़िया बेचने वाली लड़की से कुछ देश और प्रदेश की सामान्य जानकारी हासिल करने की कोशिश करता हूं। देश के प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कौन हैं?“ के जवाब में आयशा का जवाब होता है “ये सब नहीं जानते हैं भइया।” आयशा के चेहरे पर ऐसी जानकारी या सूचना से अनभिज्ञता का कोई भाव नहीं होता है। वो तो सिर्फ मोती सिंह को जानती हैं। कहती है कि “मोती सिंह मंत्री हैं, सरकार हैं।” शायद उनका आशय “मोदी सरकार” से रहा हो।


तौकीर साहब सूचना का भण्डार हैं। उनके व्यक्तित्व की विलक्षण बात यह है कि 80 बरस की आयु पूरी करने के बाद भी आस-पास जिला-जवार में उनकी याददाश्त का कोई सानी नहीं है। पहली मुलाकात में ही किसी अजनबी से उनकी योग्यता और पेशा पूछना उनकी आदत का अहम तरीन हिस्सा रहा है। आदतन वो गुड़िया बेच रही उस लड़की से भी पूछ बैठते हैं कि कितनी पढ़ी हो? जवाब में “कहा न कि हम पढ़े-लिखे नहीं हैं। पढ़े-लिखे होते तो अइसे डण्डा ले के गली-गली घूमितें...!” कहते हुए उस लड़की ने दोनों हाथ ऊपर उठाया, कुछ इस तरह कि फिज़ा में कुछ अनुत्तरित सवाल घुल के रह गए। लड़की के चेहरे पर थकान महसूस की जा सकती थी और झल्लाहट भी। अगर कोई स्थानीय दुकानदार होता या दस्तकार होता तो शायद हमारी बातों पर झल्ला पड़ता। लेकिन अजनबी शहर का एहसास और अजनबी लोगों के बीच मात्र दस रूपए की गुड़िया बेचना ही जिसकी जिन्दगी हो, भला वो क्यों झल्लाए। आशा जिसकी मुस्लिम पहचान आयशा ज़ाहिर हो चुकी थी, चबूतरे पर खड़ी दोनों बच्चियों फलक और रिम्शा को एक-एक गुड़िया देती है। एक गुड़िया मैं अलग से भी लेता हूँ। कुल मिलाकर दस तियाईं तीस रूपए उस लड़की को अदा करने के बाद बातचीत के लिए उसका शुक्रिया भी अदा करता हूं। फिर मैं अपने और वो अपने रास्ते चल देते हैं। उसके जाने से पहले उसके झोले पर लिखे फोन नंबर को भी उसकी इजाजत से मैंने नोट किया। शायद उस लड़की के हौसले ने मुझे ऐसा करने पर आमादा किया। शायद इसलिए भी कि अजनबी शहर और अनजान नगर में “गुड़िया ले लो....... गुड़िया ले लो.......” की पुकार हर कोई नहीं लगा सकता।

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28 October 2016

Saturday, February 18, 2017

तहज़ीब के शहर में "चाय पिलाएंगे क्या!"


4 साल पहले
कल अब्बा ने टांका (स्टीच) काट दिया। मैं अस्पताल जाने से बच गया। वही अस्पताल जो सरकारी है, बड़ी है और जहां की व्यवस्था एक हद तक संतोषजनक होने के साथ-साथ दिलचस्प भी हैं। संतोषजनक इसलिए क्योंकि यहां ओपीडी काउन्टर पर बनारस के बीएचयू या दिल्ली के एम्स व सफदरजंग जैसी भीड़ नहीं होती। इसका मतलब यह भी नहीं कि यहां मरीज़ आते-जाते ही नहीं हैं। मतलब यह भी नहीं है कि तहज़ीब के इस शहर में स्वास्थ्य सुविधाओं का मोकम्मल तौर पर निजीकरण हो चुका है। बहुत से लोग राजधानी स्थित आरएमएल अस्पताल की संतोषजनक व्यवस्था का श्रेय प्रदेश के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री को देते हैं। बहरहाल, 11 फरवरी को 10 बजे तक आॅपरेशन पूरा हो चुका था। लेकिन पहली बार मुझे पता चला कि अस्पताल के बाहर और अन्दर की चमकती दीवारों और फ़्लोर के बीच कुछ ऐसा था जो स्वास्थ्य व्यवस्था की चमक को कम करने वाला था। कुछ ऐसा जिससे निजीकरण की आहट सुनी और महसूस की जा सकती थी। आॅपरेशन के बाद ही पता चला कि आॅपरेशन के बाद मरीज़ को आॅपरेशन थिएटर के बाहर बेड पर उस वक्त तक पड़ा रहना होता है, जब तक कि मरीज़ के तीमारदार अपने मरीज़ को वार्ड तक पहुंचाने वाले स्वास्थ्य कर्मी व्यक्ति को खुश न कर दे। तीमारदार को खुश कराने की इस प्रक्रिया में अगर एसोसिएट प्रोफेसर, एमएस सर्जन यानि सर्जरी में महारत रखने वाला डाॅक्टर आॅपरेशन थिएटर के सामने हाल में पड़े मरीज़ के कान में अगर वार्ड ब्वाय को खुश करने की बात करे तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं। फिर भी मुझे हैरानी हुई क्योंकि यह पहला अवसर था अन्दर की व्यवस्था की पड़ताल का। किसी स्ट्रिंग आॅपरेशन जैसा अनुभव था। लोकल एनेस्थीसिया की हालत में विवशता हमारा हौसला बढ़ा रही थी कि वार्ड ब्वाय को जितनी जल्दी हो सके खुश करवाया जाए। लेकिन तीमारदारों के अन्दर आने की सख़्त मनाही और सर्जरी का केस। किसी तरह से पैग़ाम तीमारदार तक पहुंची और तीन सौ रूपए की खुशी की अभिव्यक्ति। तब जाकर कहीं पहुचाए गए हम वार्ड नं॰ 109 में।

ध्यान 1991 के नए आर्थिक सुधारों की ओर जाता है। उन सुधारों की ओर जिसके ज़रिए तमाम क्षे़त्रों में संविदा कर्मचारियों की संख्या बढ़ती गयी और स्थाई पदों में निरन्तर कमी आयी। यद्यपि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर रही है। जेएसवाई, स्वास्थ्य बीमा और एनआरएचएम जैसी बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाएं भी चलायी जा रही हैं। लेकिन जज़मानी की तरह एक नयी जज़मानी व्यवस्था को आगे बढ़ते हुए देखा और महसूस किया जा सकता है। अगर ऐसा न होता तो वार्ड के अन्दर आने-जाने वाला हर वो कर्मचारी (जो संविदा पर हैं) मरीज़ों और तीमारदारों को उम्मीद की निगाहों से देखते हैं। 12 फरवरी को भी मेरे जिस्म में इतनी सकत नहीं थी कि मैं खु़द उठ-बैठ लूं। अब्बा पिछले दिन की तरह आज भी सोफा पर बैठे अख़बार पढ़ रहे होते हैं। झाड़ू लगाते-लगाते स्वीपर मुस्कान बिखेरता है और मेरे अब्बा को मुख़ातिब करके कहता है कि “बाबूजी एक बात कहें!” अख़बार पढ़ रहे अब्बा का ध्यान अख़बार पर ही बना रहता है। शायद कोई दिलचस्प ख़बर हो। स्वीपर मेरी तरफ देखता है। मैं बस इतना ही कह सका “कहिए”... स्वीपर बाबू अपने चेहरे पर ग़ज़ब की मुस्कान सजाते हुए अपने दिल की बात कह डाली जैसे कोई पे्रमी पहली बार अपने ख़्याल का इज़हार करता है। मेरा इशारा समझते हुए उसने अब्बा की ओर इशारे से कहा... “बाबूजी चाय पिलाएंगे क्या!” तहज़ीब के इस शहर में मेरे अब्बा जो खु़द अजनबी थे, से चाय पीने का आग्रह बहुत कुछ कह गया। मैं बोल नहीं पा रहा था लेकिन मन में कुछ संवेग सा ज़रूर चल रहा था। अब जबकि लैपटाॅप की कीबोर्ड पर उंगलियां फिर से थिरकने लगी हैं तो मन में चल रहे संवेगों को आप तक पहुंचा पा रहा हूं। अब्बा को यह नहीं समझ में आया कि जब उनकी उस व्यक्ति से पहले की कोई मुलाकात नहीं है और न ही आज की मुलाक़ात इतनी पुरानी और कम से कम ऐसी हुई है कि चाय का मामला बने, तो फिर उसने चाय का आग्रह क्यों किया? दूसरी ओर मैं इस सोच में पड़ गया कि दोपहर के एक बज कर दो मिनट हुए हैं और लन्च के इस वक्त में यह व्यक्ति भोजन की बजाए चाय की तलब ज़ाहिर कर रहा है। झाड़ू के बाद पोछा लगाने एक महिला आई और पोछा लगाकर वापस चली गयी। लेकिन जो महिला कर्मचारी पिछली सुबह बेडशिट बदलने आयी थी, उसने भी आज चाय पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी। अब्बा ने यह कहते हुए कि “मेहमान तो हम लोग हैं फिर चाय तो आपको पिलाना चाहिए” बीस रूपए उस महिला को चाय पीने को दे दिया। कुछ बोल नहीं पाने की मजबूरी के चलते मैं सिर्फ उस महिला के चेहरे पर कायम उत्साह की रेखाओं को पढ़ने की कोशिश करता रहा। बीस रूपए सहेजकर कमरा नं॰ 109 से बाहर निकलने से पहले वो महिला जो पहले दिन स्वीपर, दूसरे दिन केयर टेकर और तीसरे दिन नर्स के रूप में मौजूद थी, यह सूचना भी देती गयी कि माननीय नेता जी की बहू के लिए भी इसी अस्पताल में ग्राउण्ड फ़्लोर पर एक कमरे का इन्तेज़ाम किया गया है। नेता जी के तीमारदारों के लिए अलग से तीन कमरों का इन्तेज़ाम फ़स्र्ट फ़्लोर पर किया गया है। मुझे देखने आने वाले मेरे शुभचिन्तक दोस्त-संबंधी और रिश्तेदारों ने अस्पताल के मुख्य द्वार से लेकर प्राइवेट वार्ड के प्रवेश द्वार पर तैनात पुलिस चैकसी से इस बात को पुष्ट किया कि कोई विशेष का प्रवेश होने वाला है। शायद यही वजह थी कि कर्मचारी बराबर कमरों के कोने-कोने की झाड़-फूंक में लगे रहे। जीजा के एक ही शिकायत पर प्लम्बर आ गए और झटपट बंद पड़ा टाएलेट का टैप रिपेयर कर गए। नेता जी की छवि भी सुधारनी है। स्वास्थ्य सुविधाओं को स्कैम से बाहर निकालना भी है। लेकिन कदम-कदम पर मरीज़ों के अन्दर खुश करने और चाय पिलाने की क्षमता भी होना ही चाहिए। हीमोग्लोबीन कम हो या ज्यादा हो, टीएलसी-डीएलसी की जांच चाहे जैसी हो, आॅपरेशन के दौरान अलग से ख़ून का जुगाड़ हो या न हो, लेकिन चाय पिलाने और खुश करने की क्षमता का होना किसी भी मरीज़ और उसके तीमारदारों के अन्दर होना चाहिए।