Friday, November 18, 2011

क्या विकास का कोई रास्ता पीरनपुर भी जाता है...?

गलियां...... गलियों में बिखरे कूड़ों के ढे़र....., घर..... घरों में मनुष्य और बकरियों का एक साथ उठना-बैठना, ड्राइंग रूम, बेडरूम, गेस्ट रूम और कीचेन सभी का एक साथ होना....., अपने गांव-घर से अलग लगता है। इस अलगाव में ढे़रों सवाल घूमड़ते हुए बादल की तरह मेरे मन को बेचन करते हैं। सवालों के बीच यह सवाल भी कि “क्या विकास का कोई रास्ता पीरनपुर भी जाता है...?”

जब विकास और संवृद्धि के नए-नए रिकार्ड कायम हो रहे हैं, तो ऐसे में यह सवाल लाज़मी हो जाता है कि लोकतंत्रीकरण और सामाजिक न्याय का ग्राफ कितना ऊपर उठा? केन्द्र और राज्य की दर्जनों योजनाओं का लाभ वंचित समुदाय तक किस हद तक पहुंचा? कम्यूटरीकरण से पारदर्शिता बढ़ी है लेकिन दलितों और मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न विभागों की कम्प्यूटरीकृत सूचियों से गायब है। ऐसी आबादी पर सरकारी अमले की नज़र पड़ती ही नहीं। ग्रामीण तो छोडि़ए शहरी इलाकों में भी ऐसी बस्तियां और मुहल्ले हैं जहां उपभोक्तावाद अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुका है लेकिन विकास का नामों निशान तक नहीं है। इस संदर्भ में फतेहपुर जिला के पीरनपुर मोहल्ला में स्थित रिफ्युजी कालोनी के पीछे वाली बस्ती का जि़क्र प्रासंगिक हो जाता है।
फतेहपुर भौगोलिक रूप से इलाहाबाद और कानपुर के बीच स्थित है। फतेहपुर के पूरब में ‘‘पूरब का आॅक्सफोर्ड, इलाहाबाद है तो उत्तर-पश्चिम दिशा में उद्योगों और कारखानों की नगरी कानपुर है। उत्तर दिशा में प्रदेश की राजधानी लखनऊ है 135 किमी॰ की दूरी पर स्थित है। फतेहपुर से इन तीनों ही शहरों के लिए सड़क यातायात की अच्छी सुविधा है। हर आधे घण्टे के अंतराल पर बस मिल जाती है। लेकिन फतेहपुर में कुछ बस्तियां ऐसी भी हैं जहां तक इस जिला के भौगोलिक स्थिति का लाभ नहीं पहुंच पाता। ऐसी बस्तियों के लोग देश और दुनिया की घटनाओं और परिघटनाओं से बेखबर गन्दगी और बदबू में रहने को विवश हैं। कई कालोनियों में बंटे इस मोहल्ला पीरनपुर में एक कालोनी का नाम रिफ्यूजी कालोनी है। इस कालोनी के ठीक पीछे एक बस्ती है। इस बस्ती में मुस्लिम आबादी का बाहुल्य है। मुख्य सड़क से रिफ्यूजी कालोनी होकर बस्ती की ओर जाने वाली गली जहां मुड़ती है वहां से मुस्लिम बाहुल्य बस्ती शुरू हो जाती है। बस्ती में दाखिल होते ही कीचड़ की चादर में लिपटी आर.सी.सी. गलियों का राज खुलने लगता है। मौसम बारिश का हो तो नालियों के मेढ़ों पर चलते समय कभी भी पैर फिसलने और चोट पहुंचने का खतरा बना रहता है। पिछले हफ्ते जिस महिला के पैर में मोच आया था उसकी वजह जल-जमाव ही थी।
आश्चर्य होता है कि रिफ्यूजी कालोनी तक न गन्दगी है और न ही दुर्गन्ध। दुःख होता है कि एक तरफ सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान चल रहा है वहीं पीरनपुर बस्ती कूड़ों से पटा हुआ है। थोड़ी सी बारिश यहां जल-जमाव के लिए काफी है। उसपर से बदबू ऐसी कि खास को तो छोडि़ए आम लोंगों के लिए भी यहां रूकना मुश्किल काम है। जिला मुख्यालय पर स्थित यह बस्ती सड़क, स्वास्थ्य और सफाई आदि योजनाओं/अभियानों के शुरू होने से पहले की कहानी बयान करती है। उस दौर की जब गांव सम्पर्क मार्ग से जुड़े नहीं थे और ग्रामीण जीवन मुख्य धारा के नगरीय जीवन से कटा हुआ था। पीरनपुर इस धारा से आज भी कटा हुआ है। कुछ ऐसे कि मानव विकास के तीनों सूचकांकों पर यहां के लोग धड़ाम से गिर गए से प्रतीत होते हैं। गन्दगी के कारण कालरा, डायरिया, और श्वास संबंधी गंभीर बीमारियां गाहे-बगाहे दस्तक देती रहती हैं। लेकिन इस बस्ती के लोग इस बात से भी बेखबर हैं कि उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता क्यों कम है, उनकी बस्तियों की कुछ जवान महिलाएं बेवा क्यों है और बच्चे यतीम क्यों हैं?
दर असल विकास का जो दूसरा सूचकांक है ‘शिक्षा’ वह तो यहां नगण्य है। कहने को प्राथमिक विद्यालय है लेकिन कूड़ों और कीचड़ों के दलदल से घिरे विद्यालय में बच्चों को एम.डी.एम. मिल जाए तो बहुत है। यही हाल हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट स्तर की शिक्षा का भी है। कक्षा 5 और 8 तक पढ़ लेना इस बस्ती के बच्चों के लिए बड़ी उपलब्धि है। कक्षा 10 की छात्रा यासमीन के अनुसार उनकी कक्षा और कोर्स क्लास मानीटर के भरोसे ही चलता है। शिकायत करें भी तो किससे सभी मैडम न जाने कहां रहती हैं? तीन-चार सौ रूपए की फीस दे पाना ऐसी लड़कियों के लिए पहाड़ तोड़ने जैसा होता है, जो पढ़ना चाहती हैं। फीस ही नहीं काॅपी-कलम और किताबों पर छाई मंहगाई इनके बचे-खुचे अरमानों पर भी पानी फेर देता है। ऐसी स्थिति पीरनपुर बस्ती की पढ़ाई में दिलचस्पी रखने वाली लड़कियों को शिक्षा के अवसरों से वंचित करने के लिए काफी होती है। ऐसी लडकियां अपने परिवार की आजीविका लिए कढ़ाई का काम सीखती हैं। लेकिन कक्षा आठ के बाद पढ़ाई छोड़ चुकी रूखसाना बताती हैं कि “कढ़ाई का हुनर भी बेकार साबित हो रहा है, क्योंकि उनके लिए काम नहीं है।” यदि उम्र छोटी है तो लड़कियां भी अपने भाईयों के साथ कूड़ा बिनती हैं या फिर अपनी माँ-बहन के साथ झाडू़-बरतन करती हैं।
उक्त संदर्भ में मानव विकास का तीसरा सूचकांक यानि आर्थिक स्थिति भी मुंह चिढ़ाता नज़र आता है। इस सूचकांक पर भी बस्ती की स्थिति असंतोषजनक है। लड़कियों की तरह लड़के भी आजीविका चलाने के लिए काम करते हैं। कोई ऐसा वैसा काम नहीं कि करने बाद हाथ-मुंह धो लिया और हो गया। पूरी बस्ती की आजीविका मुख्यतः कूड़ा कारोबार पर निर्भर है। सुबह होते ही इस बस्ती के बच्चे और बड़े कूड़ा की खोज में निकल जाते हैं और शाम ढ़लने के बाद ही वापस आते हैं। यदि सामाजिक असुरक्षा नहीं होती तो जवान होती लड़कियां भी कढ़ाई के बदले कूड़ा बिनने का ही हुनर सीखतीं। बस्ती में जगह-जगह फैली-बिखरी कूड़े की छोटी-बड़ी बोरियां अपनी दुर्गन्ध से आगन्तुकों को अपनी बेबसी का हाल बताती हैं। हैरानी होती है कि कूड़े के ढे़र पर रहने वाले पीरनपुर वासियों को यह दुर्गन्ध लेश मात्र भी महसूस नहीं होती है। याद आया गज़म्फ़र का उपन्यास “दिव्यवाणी” जो मूलतः उर्दू में लिखा गया है। इस उपन्यास का वह कथानक जिसमें प्रेमी अपनी दलित प्रेमिका को गुलाब की खुशबू से रूबरू कराता है तो उसकी प्रेमिका को गुलाब की खुशबू किसी दुर्गन्ध के समान लगती है। क्योंकि नालियों और बजबजाती गलियों की दुर्गन्ध की आदत ही उसके लिए सुगन्ध होती है। उसके सौन्दर्यबोध की कसौटी पर गुलाब की खुशबू दुर्गन्ध समान होती है। शायद ऐसा इसलिए होता है कि उस लड़की को कभी अवसर ही नहीं मिला कि वो अपनी बस्ती से बाहर के वातावरण और घटनाओं के बारे में तनिक भी सोचे। तो क्या गन्दगी से बजबजाती गलियों की दुर्गन्ध में ही पीरनपुर वासियों का भी सौन्दर्यबोध छुपा हुआ है? यदि ऐसा है तो फिर इसे इस दौर की घटना नहीं बल्कि महापरिघटना कहा जाना चाहिए है। जिसका एक सिरा वैदिक इतिहास से तो दूसरा सिरा समकालीन सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों से जुड़ा है।
पीरनपुर जैसी बस्तियों की कमी नहीं है इस देश में। आमतौर पर यह कहकर मामला टाल दिया जाता है कि जहां मुसलमान रहते हैं वहां के हालात ऐसे ही होते हैं यानि गन्दगी-बदबू और मुसलमानों का चोली-दामन का साथ है। लेकिन यह भी तो मुमकिन है कि जिन मुसलमानों का तादाम्य गन्दगी और बदबू जैसी भ्रान्तियों से जोड़ा जाता है वो मुसलमान ऐसी बस्तियों में रहने के लिए ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से मजबूर हों। सरकारी-गैर सरकारी संसाधनों की बांट जोह रहे हों। सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर ढे़रों योजनाओं की लम्बी सूचियां पढ़ी जा सकती हैं। मौजूदा कारपोरेट दौर में बड़े-बड़े होर्डिंग्स भी देखे जा सकते हैं, जिनपर विकास योजनाओं के बारे में स्पष्ट जानकारियां होती हैं। फिर पीरनपुर निवासी सरकारी योजनाओं की पहुंच से वंचित क्यों हैं?
एक बेहतर कल के सपने कौन नहीं देखता। झाड़ू-पोछा और बर्तन-चाकी करके दूसरे के घरो को चमकाने वाली महिलाओं के गन्दगी, कीचड़ और बदबू के बीच रहने के पीछे पहली वजह यह है कि उनकी इतनी क्षमता नहीं है कि स्थान परिवर्तन करके किसी दूसरी बस्ती या मुहल्ला में बस जाएं। दूसरी वजह यह कि कूड़ा बिनना इनके परिवारों की आजीविका का मुख्य साधन है। करें भी तो क्या करें, इनकी बस्ती शहरी क्षेत्र में है और डूडा (District Urban Development Agency) के माध्यम से क्रियान्वित किसी भी योजना की पहुंच से दूर है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह कि उपलब्ध सरकारी योजनाओं का लाभ इन तक नहीं पहुंच पाता। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सड़क, आवास किसी भी योजना तक पीरनपुर जैसी बस्तियों में रहने वाले मुसलमानों की पहुंच नहीं है। 35 वर्षीय नरगिस अपना दुःख व्यक्त करते हुए कहती हैं कि “बड़े-बड़े लोगों का बी.पी.एल. कार्ड बन चुका है लेकिन उनका कार्ड अबतक नहीं बन सका है। तहसील, कचहरी, नगरपालिका जा नहीं सकती। वार्ड सभासद से कई बार कहा। लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं है।” कुछ मामलों में तो इस बस्ती के लोग नागरिकता की बुनियादी पहचान यानि राशन कार्ड के साथ-साथ वोटर कार्ड (मतदाता पहचान पत्र) से भी वंचित हैं।
पीरनपुर से वापस आ चुका हूँ लेकिन मन है कि बार-बार वहीं भागता है। गलियां...... गलियों में बिखरे कूड़ों के ढे़र....., घर..... घरों में मनुष्य और बकरियों का एक साथ उठना-बैठना, ड्राइंग रूम, बेडरूम, गेस्ट रूम और कीचेन सभी का एक साथ होना....., अपने गांव-घर से अलग लगता है। इस अलगाव में ढे़रों सवाल घूमड़ते हुए बादल की तरह मेरे मन को बेचन करते हैं। सवालों के बीच यह सवाल भी कि “क्या विकास का कोई रास्ता पीरनपुर भी जाता है...?”
SHILPKAR TIMES, 16-30 NOVEMBER, 2011

Friday, November 4, 2011

बाज़ार के हाथ परिवार, समाज और देश की खु़शियाँ

पिछले कुछ महीनों से भारत में गरीबी और गरीबी निर्धारित करने वाले मानकों पर बहस तेज है। अर्थशास्त्री एस॰डी॰ तेन्दुलकर समिति की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गरीबी दर 37.2 प्रतिशत है। योजना आयोग द्वारा जारी 2006 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गरीबी दर 28.5 प्रतिशत है। गरीबों की संख्या में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि की वजह तेन्दुलकर समिति द्वारा गरीबी मापने के लिए नयी विधि का अपनाया जाना है। बात यहीं खत्म नहीं होती एन॰सी॰ सक्सेना समिति की रिपोर्ट पर विश्वास करें तो यह दर 50 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंच सकता है। जाहिर है गरीबी रेखा तय करने की हर युक्ति चाहे प्रति व्यक्ति प्रति दिन पोषण प्राप्ति की हो या प्रति व्यक्ति प्रति दिन आय की हो, निश्चित तौर पर गरीबों की संख्या में वृद्धि हुई है। अर्थव्यवस्था पर नज़र डालें तो आर्थिक विकास दर 7 से 8 अंकों के बीच घट-बढ़ रहा है। अंकों के उतार-चढ़ाव में धन की अपार वर्षा भी हो रही है। राजधानी दिल्ली और लखनऊ में सोना-चाँदी और दूसरे आभूषणों की हजारों टन की बिक्री भारत में गरीबी, इसके मानकों और गरीबों की संख्या पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। लेकिन यह प्रश्न भी अनुत्तरित नहीं रह गया है। क्योंकि ऐसे तथ्य प्रकाश में आ चुके हैं कि 20 प्रतिशत लोगों का ही 80 प्रतिशत संसाधनों पर आधिपत्य है। इसमें भी बाजारपरस्तों की पकड़ कुछ ज़्यादा ही मज़बूत है। शायद ही कोई अखबार या न्यूज़ चैनल हो जो पिछले एक सप्ताह से उपभोग की तरह-तरह के लुभावने विज्ञापनों से धनवर्षा की दावत न दे रहे हों। स्थिति कुछ ऐसी है कि अखबार के फ्रण्ट पेज पर विभिन्न महिला/पुरूष माडलों के मुस्कराते चेहरों और किसी उत्पाद की चमक-दमक में देश-दुनिया की कोई खबर ढ़ूंढ़ना दिक्कत तलब है।
अच्छी बात है पर्वों पर धूम-धाम तो होना ही चाहिए। धनवर्षा का पर्व शहर से लेकर गांव तक हर जगह समान रूप से मनाया जाता है। इस पर्व की मान्यता तो मुसलमानों, पंजाबियों और ईसाइयों आदि अल्पसंख्यक समुदायों में भी बड़े पैमाने पर है। यानि इस पर्व का साम्प्रदायिक सौहार्द्र वाला पक्ष महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या इस सवाल पर भी गौर किया जाता है कि हमारे पर्व बाजारवाद की दृष्टि से कैसे होते हैं? मध्यम वर्ग का व्यक्ति बस इतना ही कह पाता है कि मंहगाई ने त्योहारों का मज़ा फीका कर दिया है। निम्न वर्ग को इतनी समझदारी और समझ कहाँ है कि वो कम से कम इतना भी सोच सके। ईद, दशहरा, होली या दीपावली हर पर्व बाजारवाद के लिए मुनाफाखोरी और मिलावटखोरी को बढ़ाने का माध्यम बन चुका है। फिर भी धन की वर्षा आश्चर्य का विषय नहीं है और न ही बाजार के प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभावों पर ध्यान है। क्योंकि संबन्धित खबरें बाजार से निकलकर आती हैं और फिर बाजार में ही समाहित हो जाती हैं। गौर करने की बात यह है कि जो खबरें या अन्य संकल्पनाएं बाजार की कोख से जन्म लेती हैं उन पर देश का कोई कानून लागू नहीं होता। यही कारण है कि बाजार मानवीय संवेदनाओं पर आर्थिक संसाधनों के नियोजन के विपरीत आभूषणों-रत्नों और पटाखों पर पानी की तरह लाखों-करोणों रूपए खर्च करने के लिए प्रेरित कर रहा है। आज परिवार, समाज और देश की खुशिया बाजार के हाथ हैं।
संवृद्धि और विकास का संतुलन देखिए। ग्लोबल आर्थिक संकट के दौर में आर्थिक विकास दर जी॰डी॰पी॰ का 7 प्रतिशत रहने की उम्मीद जताई जा रही है। फिर भी भूखे, वस्त्रविहीन और छत विहीन आबादी बढ़ती जा रही है। जबकि केन्द्र और राज्य स्तर पर रोजगार, स्वास्थ्य और आवास योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। बुद्धिजीवियों की बात छोडि़ए खुद एन॰सी॰ सक्सेना की रिपोर्ट देखिए जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि भारत में 50 प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन बाज़ारवाद के क्या कहने हैं, सुविधाभोग के उद्देश्य के लिए अधिक खर्च करने का गुण तो कोई बाजारवादियों से सीखे। फिर खर्च करने के लिए अधिक धन संचय भी तो जरूरी है। वरना आधुनिक दौर का कौन बनिया/साहूकार चारा डालेगा। आभूषण से लेकर बाइक, कैमरा, टी॰वी॰, मोबाइल सबकुछ फ्री वाले आॅफर के साथ। इसके बाद भी आत्मिक संतुष्टि न प्राप्त हो तो सरकारी संसाधनों में भी हिस्सेदारी सुनिश्नित करना कोई मुश्किल काम नहीं है। गांधी जी का मुस्काराता चेहरा दफ्तर के किस बाबू को पसंद नहीं! फिर बाबू को मुस्कराते गांधी के चित्र वाले नोट और अपात्रों को बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय अन्न योजना कार्ड आदि की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो जाती है। एन॰सी॰ सक्सेना अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि देश में केवल 49.1 प्रतिशत गरीबों के ही बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड बने हैं। जबकि 17.4 प्रतिशत धनी लोग भी बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड का लाभ उठा रहे हैं। क्या बात है! बुराई का अन्त करते-करते हम इतने बुरे बन चुके हैं कि ज़रूरतमंदों का हक मारने में थोड़ा भी नहीं हिचकिचाते। जब जरूरतमंद सरकारी विभागों में कार्ड बनवाने की अर्जी देते हैं तो उन्हें यह भरोसा दिलाया जाता है कि ‘‘कार्ड बनने बंद हो चुके हैं, अगले साल फरवरी या मार्च में ही बन पाएंगे।’’ कोई पूछे नीति निर्धारकों और नीति नियंताओं से कि ऐसे दिलासों की समय अवधि के बीच क्या किसी बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड और वृद्ध/विधवा या विकलांग पेंशन के लिए पात्र व्यक्तियों की आवश्यकताएं ठहर सी जाती हैं?
मजबूत पक्ष यह भी है कि बढ़ती महंगाई, बढ़ता खर्च, अधिक आय की महत्वाकांक्षा विकास दर और मुद्रा स्फीति का घटना-बढ़ना आदि सबकुछ बाजारवादी ताकतों द्वारा संचालित किए जा रहे है। इस प्रक्रिया में हमारी योजनाओं की रूपरेखा तय करने वाली लोकतांत्रिक संस्थाएं भी बाजारवाद के प्रभाव से बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। तभी तो हक मारने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ गरीबी को परिभाषित करने में भी तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। 1974 से 1979 के पांचवी पंचवर्षीय योजना का प्रमुख लक्ष्य ही था ‘‘गरीबी हटाना’’। गरीबी ऐसी हटी कि भूख और बेकारी के कारण विस्थापन और आत्महत्याओं का दौर शुरू हो गया। विशेषकर 1991 के बाद संदर्भ देखें तो बात आन्ध्र और महाराष्ट्र के किसानों की हो या उड़ीसा में आम की गुठली और मेंढ़क उबालकर खाने वाले लोगों की हो या फिर बनारस में खून, जमीन और अपने कलेजे के टुकड़ों तक को बेच देने वाले बुनकरों की हो, हर जगह निर्धनता और अभाव का बोलबाला रहा है। फिर भी हमारे देश के नीति निर्धारकों को गरीबों की पहचान और बाजारवाद की यातनाओं का अनुभव नहीं हो पा रहा है।
हजार टन सोना और करोणों के पटाखों के क्रय-विक्रय के इस दौर में गैर बराबरी की भावना पर आधारित बाजारवाद की चुनौतियां कठिन हैं। इन चुनातियों का सामना करना निहत्थों अर्थात गरीबों के लिए और भी कठिन है। समय है कि बाजादपरस्तों की जमात में शामिल होने के बजाए इस दीपावली के अवसर पर दीपों की ऐसी श्रृंखला प्रज्जवलित की जाए जिसका प्रकाश गरीबों-वंचितों तक भी पंहुच सके।
Shilpkar Times, 1-15 November, 2011