Friday, November 4, 2011

बाज़ार के हाथ परिवार, समाज और देश की खु़शियाँ

पिछले कुछ महीनों से भारत में गरीबी और गरीबी निर्धारित करने वाले मानकों पर बहस तेज है। अर्थशास्त्री एस॰डी॰ तेन्दुलकर समिति की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गरीबी दर 37.2 प्रतिशत है। योजना आयोग द्वारा जारी 2006 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गरीबी दर 28.5 प्रतिशत है। गरीबों की संख्या में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि की वजह तेन्दुलकर समिति द्वारा गरीबी मापने के लिए नयी विधि का अपनाया जाना है। बात यहीं खत्म नहीं होती एन॰सी॰ सक्सेना समिति की रिपोर्ट पर विश्वास करें तो यह दर 50 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंच सकता है। जाहिर है गरीबी रेखा तय करने की हर युक्ति चाहे प्रति व्यक्ति प्रति दिन पोषण प्राप्ति की हो या प्रति व्यक्ति प्रति दिन आय की हो, निश्चित तौर पर गरीबों की संख्या में वृद्धि हुई है। अर्थव्यवस्था पर नज़र डालें तो आर्थिक विकास दर 7 से 8 अंकों के बीच घट-बढ़ रहा है। अंकों के उतार-चढ़ाव में धन की अपार वर्षा भी हो रही है। राजधानी दिल्ली और लखनऊ में सोना-चाँदी और दूसरे आभूषणों की हजारों टन की बिक्री भारत में गरीबी, इसके मानकों और गरीबों की संख्या पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। लेकिन यह प्रश्न भी अनुत्तरित नहीं रह गया है। क्योंकि ऐसे तथ्य प्रकाश में आ चुके हैं कि 20 प्रतिशत लोगों का ही 80 प्रतिशत संसाधनों पर आधिपत्य है। इसमें भी बाजारपरस्तों की पकड़ कुछ ज़्यादा ही मज़बूत है। शायद ही कोई अखबार या न्यूज़ चैनल हो जो पिछले एक सप्ताह से उपभोग की तरह-तरह के लुभावने विज्ञापनों से धनवर्षा की दावत न दे रहे हों। स्थिति कुछ ऐसी है कि अखबार के फ्रण्ट पेज पर विभिन्न महिला/पुरूष माडलों के मुस्कराते चेहरों और किसी उत्पाद की चमक-दमक में देश-दुनिया की कोई खबर ढ़ूंढ़ना दिक्कत तलब है।
अच्छी बात है पर्वों पर धूम-धाम तो होना ही चाहिए। धनवर्षा का पर्व शहर से लेकर गांव तक हर जगह समान रूप से मनाया जाता है। इस पर्व की मान्यता तो मुसलमानों, पंजाबियों और ईसाइयों आदि अल्पसंख्यक समुदायों में भी बड़े पैमाने पर है। यानि इस पर्व का साम्प्रदायिक सौहार्द्र वाला पक्ष महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या इस सवाल पर भी गौर किया जाता है कि हमारे पर्व बाजारवाद की दृष्टि से कैसे होते हैं? मध्यम वर्ग का व्यक्ति बस इतना ही कह पाता है कि मंहगाई ने त्योहारों का मज़ा फीका कर दिया है। निम्न वर्ग को इतनी समझदारी और समझ कहाँ है कि वो कम से कम इतना भी सोच सके। ईद, दशहरा, होली या दीपावली हर पर्व बाजारवाद के लिए मुनाफाखोरी और मिलावटखोरी को बढ़ाने का माध्यम बन चुका है। फिर भी धन की वर्षा आश्चर्य का विषय नहीं है और न ही बाजार के प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभावों पर ध्यान है। क्योंकि संबन्धित खबरें बाजार से निकलकर आती हैं और फिर बाजार में ही समाहित हो जाती हैं। गौर करने की बात यह है कि जो खबरें या अन्य संकल्पनाएं बाजार की कोख से जन्म लेती हैं उन पर देश का कोई कानून लागू नहीं होता। यही कारण है कि बाजार मानवीय संवेदनाओं पर आर्थिक संसाधनों के नियोजन के विपरीत आभूषणों-रत्नों और पटाखों पर पानी की तरह लाखों-करोणों रूपए खर्च करने के लिए प्रेरित कर रहा है। आज परिवार, समाज और देश की खुशिया बाजार के हाथ हैं।
संवृद्धि और विकास का संतुलन देखिए। ग्लोबल आर्थिक संकट के दौर में आर्थिक विकास दर जी॰डी॰पी॰ का 7 प्रतिशत रहने की उम्मीद जताई जा रही है। फिर भी भूखे, वस्त्रविहीन और छत विहीन आबादी बढ़ती जा रही है। जबकि केन्द्र और राज्य स्तर पर रोजगार, स्वास्थ्य और आवास योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। बुद्धिजीवियों की बात छोडि़ए खुद एन॰सी॰ सक्सेना की रिपोर्ट देखिए जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि भारत में 50 प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन बाज़ारवाद के क्या कहने हैं, सुविधाभोग के उद्देश्य के लिए अधिक खर्च करने का गुण तो कोई बाजारवादियों से सीखे। फिर खर्च करने के लिए अधिक धन संचय भी तो जरूरी है। वरना आधुनिक दौर का कौन बनिया/साहूकार चारा डालेगा। आभूषण से लेकर बाइक, कैमरा, टी॰वी॰, मोबाइल सबकुछ फ्री वाले आॅफर के साथ। इसके बाद भी आत्मिक संतुष्टि न प्राप्त हो तो सरकारी संसाधनों में भी हिस्सेदारी सुनिश्नित करना कोई मुश्किल काम नहीं है। गांधी जी का मुस्काराता चेहरा दफ्तर के किस बाबू को पसंद नहीं! फिर बाबू को मुस्कराते गांधी के चित्र वाले नोट और अपात्रों को बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय अन्न योजना कार्ड आदि की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो जाती है। एन॰सी॰ सक्सेना अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि देश में केवल 49.1 प्रतिशत गरीबों के ही बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड बने हैं। जबकि 17.4 प्रतिशत धनी लोग भी बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड का लाभ उठा रहे हैं। क्या बात है! बुराई का अन्त करते-करते हम इतने बुरे बन चुके हैं कि ज़रूरतमंदों का हक मारने में थोड़ा भी नहीं हिचकिचाते। जब जरूरतमंद सरकारी विभागों में कार्ड बनवाने की अर्जी देते हैं तो उन्हें यह भरोसा दिलाया जाता है कि ‘‘कार्ड बनने बंद हो चुके हैं, अगले साल फरवरी या मार्च में ही बन पाएंगे।’’ कोई पूछे नीति निर्धारकों और नीति नियंताओं से कि ऐसे दिलासों की समय अवधि के बीच क्या किसी बी॰पी॰एल॰/अंत्योदय कार्ड और वृद्ध/विधवा या विकलांग पेंशन के लिए पात्र व्यक्तियों की आवश्यकताएं ठहर सी जाती हैं?
मजबूत पक्ष यह भी है कि बढ़ती महंगाई, बढ़ता खर्च, अधिक आय की महत्वाकांक्षा विकास दर और मुद्रा स्फीति का घटना-बढ़ना आदि सबकुछ बाजारवादी ताकतों द्वारा संचालित किए जा रहे है। इस प्रक्रिया में हमारी योजनाओं की रूपरेखा तय करने वाली लोकतांत्रिक संस्थाएं भी बाजारवाद के प्रभाव से बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। तभी तो हक मारने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ गरीबी को परिभाषित करने में भी तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। 1974 से 1979 के पांचवी पंचवर्षीय योजना का प्रमुख लक्ष्य ही था ‘‘गरीबी हटाना’’। गरीबी ऐसी हटी कि भूख और बेकारी के कारण विस्थापन और आत्महत्याओं का दौर शुरू हो गया। विशेषकर 1991 के बाद संदर्भ देखें तो बात आन्ध्र और महाराष्ट्र के किसानों की हो या उड़ीसा में आम की गुठली और मेंढ़क उबालकर खाने वाले लोगों की हो या फिर बनारस में खून, जमीन और अपने कलेजे के टुकड़ों तक को बेच देने वाले बुनकरों की हो, हर जगह निर्धनता और अभाव का बोलबाला रहा है। फिर भी हमारे देश के नीति निर्धारकों को गरीबों की पहचान और बाजारवाद की यातनाओं का अनुभव नहीं हो पा रहा है।
हजार टन सोना और करोणों के पटाखों के क्रय-विक्रय के इस दौर में गैर बराबरी की भावना पर आधारित बाजारवाद की चुनौतियां कठिन हैं। इन चुनातियों का सामना करना निहत्थों अर्थात गरीबों के लिए और भी कठिन है। समय है कि बाजादपरस्तों की जमात में शामिल होने के बजाए इस दीपावली के अवसर पर दीपों की ऐसी श्रृंखला प्रज्जवलित की जाए जिसका प्रकाश गरीबों-वंचितों तक भी पंहुच सके।
Shilpkar Times, 1-15 November, 2011

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